- कठोर चट्टानी इलाकों में रहने वाले लोगों के बीच पारंपरिक ‘वॉटर डिवाइनिंग’ तरीका खासा लोकप्रिय है। बिना किसी वैज्ञानिक उपकरणों या तकनीकों के भूजल का पता लगाने वाली इस तकनीक को काफी सटीक माना जाता है।
- यहां के लोग ‘वॉटर डिवाइनर’ यानी जल वेत्ताओं पर काफी भरोसा जताते हैं और पारंपरिक तरीके से जमीन के अंदर पानी की खोज करने के लिए उनकी मदद लेते हैं। जल वेत्ताओं की सेवाएं अक्सर वैज्ञानिक तरीके से भूजल की खोज करने वाले तरीकों की तुलना में कम खर्चीली और अधिक सुलभ होती हैं।
- आजकल, कुछ वॉटर डिवाइनर “वैज्ञानिक” ढंग से पानी खोजने के लिए मशीनों और तकनीकों का इस्तेमाल करने लगे हैं, जैसे इलेक्ट्रिकल रेसिस्टिविटी मीटर। लेकिन वैज्ञानिकों की मानें तो ये तरीके कारगर नहीं हैं। वे भूजल के अत्यधिक दोहन के संभावित खतरों के बारे में भी चेतावनी दे रहे हैं।
शनमुगन ने अपनी धोती ऊपर उठाई और बड़ी ही सावधानी से अपना एक पैर जमीन पर रखा। कुछ महसूस न होने पर वह दूसरी दिशा की ओर बढ़ गए। फिर कुछ देर रुके और बड़े ही आत्मविश्वास के साथ बोले, “यहां… यहां अधिक मजबूत है।” उनके हाथ में चैन से बंधा चाबियों का एक गुच्छा है, जिसे उन्होंने पैंडलूम की तरह पकड़ा हुआ था। 47 साल के शनमुगन जमीन के अंदर पानी की खोज कर रहे हैं। उनके मुताबिक, उनकी ये काबिलियत उनके लिए भगवान की किसी नेमत से कम नहीं है।
शनमुगन एक “वॉटर डिवाइनर” यानी जल वेत्ता हैं, जो वैज्ञानिक उपकरणों या तकनीक के बिना ही जमीन के अंदर पानी की तलाश करता है। तमिलनाडु के सूखाग्रस्त इलाके धरमपुरी जिले में वह लोगों के बीच खासे लोकप्रिय हैं। धरमपुरी के धाथानाइक्कनपट्टी गांव के ही रहने वाले शनमुगन के पड़ोसी पोन्नी ने बताया, “कोई भी जल वेत्ता के बिना बोरवेल खोदने की हिम्मत नहीं करता है।” उन्होंने भी बोरवेल खोदने के लिए शनमुगन की मदद ली थी।
वॉटर डिवाइनिंग यानी “डोजिंग” भूजल खोजने का एक पारंपरिक तरीका है। लेकिन भूगर्भशास्त्रियों और जलविज्ञानियों के मुताबिक, यह एक तरह का झूठा विज्ञान है। इसका कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है। यह महज एक संयोग से ज्यादा कुछ नहीं है।
लेकिन कठोर चट्टानी इलाकों में रहने वाले कई लोगों के लिए, भूजल खोजने का यह पारंपरिक तरीका ही एकमात्र विश्वसनीय तरीका है। एक बोरवेल खोदने की ऊंची लागत और पानी की कमी को देखते हुए, बिना किसी जल वेत्ता की सलाह लिए बोरवेल खोदना एक महंगा जोखिम हो सकता है, जिसे बहुत कम लोग उठाना चाहते हैं।
लाठी और नारियल से भूजल की खोज
जल वेत्ता पानी खोजने के लिए साधारण मेटल की कोई चीज जैसे जंजीर से बंधी चाबियां, या प्राकृतिक चीजें जैसे कांटेदार टहनियां और नारियल का इस्तेमाल करते हैं। इन चीजों को जमीन से थोड़ा ऊपर हाथ में उठाकर कुछ देर के लिए वह स्थिर खड़े हो जाते हैं और भूजल का पता लगाते हैं। दरअसल जल वेत्ता जमीन और उपकरण के बीच एक कड़ी की तरह काम करता है। शनमुगन के मुताबिक जब ये उपकरण पानी के स्रोत के पास पहुंचते हैं, तो अपने आप हिलने लग जाते हैं। उन्होंने कहा, “यह ऐसा है जैसे पानी के स्रोत को खोजने पर आपके शरीर से एक चुंबकीय धारा गुजरती है। कुछ चीजें पानी के साथ बेहतर संबंध बनाती हैं,” हर चीज का अपना अलग उद्देश्य होता है: नारियल पानी के प्रवाह का पता लगाने में मदद करता है, नीम की लकड़ी गहराई नापती है और चाबियों का गुच्छा भूमिगत जलभृत के आकार का संकेत देता है।
जब धाथनाईकनपट्टी गांव में रहने वाले पवित्रा ने पहली बार शनमुगन को काम करते देखा, तो वह काफी प्रभावित हुई। वह कहती हैं, “मैंने पहले कभी जल वेत्ता को काम करते नहीं देखा था। ऐसा लगा जैसे मैं कुछ नया देख रही हूं।” पवित्रा और उनके पति ने पिछले एक साल से स्थानीय पंचायत बोर्ड की जल आपूर्ति से परेशान होकर शनमुगन को एक बोरवेल (भूमिगत जल स्रोत) खोजने के लिए काम पर रखा था। वह काफी खुश हैं। उनके लिए जल आपूर्ति अब कोई समस्या नहीं रही। उन्हें सिर्फ एक बटन दबाना है और उनके नलों से पानी आने लगता है। बोरिंग करने में उनका 3 लाख रुपये का खर्च आया था।
जल वेत्ता को भूमिगत जल के बारे में जो भी ज्ञान है, वो किसी तकनीकी शिक्षा से नहीं आया है। उनकी सफलता बोरवेल खोदने के नतीजों और ग्राहकों की प्रतिक्रियाओं पर निर्भर करती है, जिन्हें अक्सर उनके हुनर की पुष्टि माना जाता है। शनमुगन ने सिर्फ पांचवी कक्षा तक पढ़ाई की है। वह अपने अनुभव और समझ से बता सकते हैं कि एक बोरवेल के लिए सही जगह वो होती है जहां भूमिगत चट्टानें सबसे ज्यादा टूटी-फूटी हों, इसे वो ‘गैप’ कहते हैं। इससे जलभृत तक सीधा रास्ता बनता है।
छिपा हुआ इतिहास
भारत में वॉटर डिवाइनिंग के इतिहास और उत्पत्ति के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है। इतिहासकार कपिल सुब्रमण्यन ने अभिलेखों की खोज करके पता लगाया कि यह तरीका कम से कम 20वीं सदी के मध्य से भारत में प्रचलित था। आजादी से पहले, अंग्रेज भूमिगत जल की तलाश के लिए यूरोपियन डिवाइनर को भारत लेकर आए थे। लेकिन कुछ भारतीय राजनेताओं, जैसे कांग्रेस के सी. राजगोपालाचारी और स्वराज पार्टी के नेता मुलुंद राव जयकर ने इस पद्धति को “अवैज्ञानिक और अंधविश्वासपूर्ण” मानते हुए इसे स्वीकार करने से इनकार कर दिया था।
सुब्रमण्यन बताते हैं, “आजादी के बाद देश ने भूजल संसाधनों के दोहन सहित कई क्षेत्रों में विकास शुरू किया, लेकिन सरकार के पास इस काम के लिए पर्याप्त जानकारी नहीं थी। इस दौरान ग्रामीण स्तर पर वाटर डिवाइनर काफी मददगार साबित हुए। कुएं कहां बनाए जाएं, यह सवाल सबसे जरूरी था और वॉटर डिवाइनर ने इसमें खासी मदद की। स्वतंत्रता के बाद, इस तरीके का विरोध कम हो गया और लोगों ने इसे स्वीकार करना शुरू कर दिया क्योंकि यह जरूरत के समय काम आ रहा था।”
जब भारत को आजादी मिली, तो 1949 में राजस्थान भूमिगत जल बोर्ड बनाया गया। यह भारत का पहला ऐसा संस्थान था जो सिर्फ भूमिगत जल पर काम करता था। इस बोर्ड में भूमिगत जल के बारे में जानकारी रखने वाला सिर्फ एक ही सदस्य था – वॉटर डिवाइनर पानीवाला महाराज। बाकी सभी सदस्य सरकार के विभिन्न विभागों और मंत्रालयों से आए हुए नौकरशाह थे।
लगातार बढ़ती लोकप्रियता
हालांकि आजादी के बाद से भारत में भूमिगत जल के बारे में वैज्ञानिक जानकारी जुटाने की क्षमता काफी बढ़ गई, लेकिन पहुंच और लागत जैसे कई कारकों ने वॉटर डिवाइनर में विश्वास को बनाए रखा। कई भूमिगत भूजल प्राधिकरण कुएं कहां बनाए जाएं, इसके बारे में सेवा नहीं देते हैं, जिससे लोग खुद से उपयुक्त स्थान तलाशने को मजबूर हो जाते हैं। शनमुगन जैसे जल वेत्ता एक बोरवेल के लिए महज 5,000 से 15,000 तक की फीस लेते हैं।
बेंगलुरु में भारतीय विज्ञान संस्थान (IISC) में सिविल इंजीनियरिंग विभाग के हाइड्रोलॉजिस्ट और प्रोफेसर शेखर मुड्डू कहते हैं, “वैज्ञानिक सर्वे करने के लिए सही विशेषज्ञों को नियुक्त करना एक महंगी प्रक्रिया है और इसमें काफी समय भी लग जाता है। भू-तकनीकी जांच करने में लाखों रुपये खर्च हो सकते हैं और यह उन अधिकांश लोगों के लिए आर्थिक रूप से व्यवहार्य नहीं है जो घरेलू इस्तेमाल के लिए या छोटे खेतों की सिंचाई के लिए कुआं खोदना चाहते हैं।”
पारंपरिक वॉटर डिवाइनर के साथ-साथ “वैज्ञानिक डिवाइनर” भी उभर रहे हैं, जिन्होंने इस तकनीक का उपयोग करके इस पद्धति को आधुनिक बनाने का प्रयास किया है। इनकी फीस पारंपरिक जल वेत्ता से कुछ हजार रुपये ज्यादा है। गूगल पर सर्च करते ही कई वॉटर डिवाइनर के नाम आ जाएंगे जो, एडवांस वॉटर डिवाइनर तकनीकों जैसे विद्युत प्रतिरोधकता मीटर का उपयोग करने का दावा करते हैं। हालांकि, मुद्दू का कहना है कि ये डिवाइस 10 से 20 मीटर से अधिक गहराई वाली चट्टान संरचनाओं के भीतर पता लगाने के लिए अपर्याप्त हैं। विद्युत प्रतिरोधकता मीटर जमीन में विद्युत संकेत भेजकर भूमिगत परत की मोटाई का आकलन करते हैं, लेकिन परिणामों की गलत व्याख्या आसानी से हो सकती है। मुद्दू कहते हैं, “कम प्रतिरोध दर्शाने वाले परिणाम को पानी का संकेत माना जा सकता है, लेकिन यह कम प्रतिरोध वाली चट्टान संरचना भी हो सकती है।”
नीदरलैंड के वाटर रिसर्च इंस्टीट्यूट IHE डेल्फ़्ट में वाटर गवर्नेंस के सीनियर लेक्चरर एंड्रेस वेरजिल के अनुसार, किफायती होने के अलावा इस पद्धति की लोकप्रियता में विश्वास एक और महत्वपूर्ण वजह है। उन्होंने मोंगाबे इंडिया को बताया, “एक किसान जो जल भूविज्ञान को विज्ञान को नहीं समझता है, उसके लिए एक ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल यह है कि वह बोरवेल खोदने के लिए किस पर विश्वास रखे? चाहे कारण जो भी हो, वॉटर डिवाइनर इन जगहों पर लोगों में विश्वास पैदा कर रहा है।”
2023 में प्रकाशित एक रिसर्च पेपर “फ्रॉम डिवाइन टू डिजाइन: अनअर्थिंग प्रैक्टिस इन तमिलनाडु, इंडिया” में वेरजिल और उनकी टीम ने तमिलनाडु में भूजल पद्धति के रूप में डोजिंग और मॉडलिंग दोनों का दस्तावेजीकरण किया है। उन्होंने पाया कि भूजल मॉडलर “निश्चित रूप से भूजल खोजने वालों के ज्ञान का इस्तेमाल करते हैं,” क्योंकि वे अपनी भविष्यवाणियों को और अधिक सटीक और संवेदनशील बनाने के लिए ज्ञात कुओं के स्थानों और गहराई पर भरोसा करते हैं। यह रिसर्च पेपर तर्क देता है कि जल वेत्ता भूमिगत जल प्रबंधन निर्णयों में एक “महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं लेकिन उन्हें इन निर्णयों में शामिल नहीं किया जाता है।”
चट्टान और गहरे जल स्रोतों के बीच
53 वर्षीय पोन्नी मानती हैं कि जल वेत्ताओं के पास भूजल का सटीक पता लगाने की विशेष शक्तियां होती हैं। वह अपने बचपन के उस समय को याद करती हैं जब उनके गांव में खुले कुएं होना आम बात हुआ करती थीं। वह कहती हैं, “जल वेत्ता पीढ़ियों से खुले कुओं के स्थानों की पहचान करते आ रहे हैं। लेकिन समय के साथ-साथ ये कुएं धीरे-धीरे सूख गए और उनकी जगह बोरवेल ने ले ली।”
धर्मपुरी की भौगोलिक विशेषता आर्कियन युग की कठोर क्रिस्टलीय चट्टानें हैं, जो चार से ढाई अरब साल पहले बनी थीं। इन कठोर चट्टानी जलभृतों में भूजल संसाधन सीमित हैं और वर्षा से आसानी से इनकी भरपाई नहीं होती है। राष्ट्रीय जल मिशन (NWM) की एक रिपोर्ट के अनुसार, क्षेत्र में हाल ही में मानसून की विफलता के कारण भूमिगत जल संसाधनों में कमी आई है। तीव्र, कम अवधि की बारिश के कारण पुनर्भरण कम हुआ है और बहाव बढ़ गया है, जिससे पहले से ही शुष्क क्षेत्र में पानी की उपलब्धता और कम हो गई है।
अशोका ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकोलॉजी एंड द एनवायरनमेंट (ATREE) के सलाहकार, विवेक एम. ने 2023 के अध्ययन में वेरजिल के साथ सहयोग किया था। वह कहते हैं कि कठोर चट्टानी इलाके के कारण अतीत में बोरवेल खोदना एक लोकप्रिय विकल्प नहीं था। अन्य विकल्पों की कमी के कारण जल वेत्ताओं पर निर्भरता बढ़ने लगी। उनके मुताबिक, “लोगों ने हमेशा पानी खोजने के लिए पारंपरिक तरीकों और मान्यताओं पर भरोसा किया है। एक समय ऐसा भी था जब माना जाता था कि जहां दीमक का ढेर होता है या जहां खुले मैदान में मवेशी बैठना पसंद करते हैं, वहां पानी होगा।”
धरमपुरी में बिना सोचे-समझे बोरवेल खोदने से पानी के स्तर में तेजी से गिरावट आई है। तमिलनाडु जल आपूर्ति और जल निकासी बोर्ड की रिपोर्ट के अनुसार, जिले के 23 फिर्का या उप-विभागीय प्रशासनिक इकाइयों में से 14 में पानी का अत्यधिक दोहन किया गया है।
अधिक निकासी का जोखिम
वाटर डिवाइनिंग का आकर्षण सिर्फ ग्रामीण इलाकों तक ही सीमित नहीं है। बेंगलुरु में रहने वाले 52 साल के जल वेत्ता एस. सैमसन के काफी ग्राहक हैं। वह रियल एस्टेट डेवलपर से लेकर किसानों तक को अपनी सेवाएं देते हैं। सैमसन ने कहा, 2,000 से ज्यादा सब्सक्राइबर वाले अपने यूट्यूब चैनल के बावजूद, मुझे ज्यादातर ग्राहक एक-दूसरे से मिली प्रतिक्रिया के आधार पर ढूंढते हैं।
जब मोंगाबे इंडिया ने उनसे मुलाकात की, तो वह शहर में एक अपार्टमेंट कॉम्प्लेक्स के लिए निर्धारित भूमि के एक भूखंड का सर्वे कर रहे थे। वह पांचवां जल वेत्ता था जिसे बोर पॉइंट ढूंढने के लिए बुलाया गया था। इससे पहले चार जल वेत्ता भूजल स्रोत खोजने में विफल रहे। कई बार असफल होने के बावजूद साइट मैनेजर का इस पद्धति में विश्वास दृढ़ रहा है। अपना नाम न बताने की शर्त पर साइट मैनेजर ने कहा, “अगर वह सही बोर पॉइंट नहीं मिल पाया तो इसके लिए मैं उसे दोष नहीं दे सकता। वह एक सेवा दे रहा है और इसके लिए मुझे चार्ज कर रहा है और मैं इसके रिस्क से वाकिफ हूं। अगर हमें पानी मिल जाएगा, तो सब ठीक हो जाएगा।”
शानमुगन की तरह ही, सैमसन भी छह अलग-अलग प्रकार के तांबे के उपकरणों का उपयोग करके भूमि की जांच करने में घंटों बिताते हैं, जिनके बारे में माना जाता है कि भूजल के ऊपर मंडराते समय वे मुड़ जाते हैं या घूम जाते हैं। ईसाई धर्म में विश्वास रखने वाले और पेशे से बढ़ई, सैमसन अपने काम की शुरुआत उपकरणों की प्रार्थना करने और भगवान से आशीर्वाद लेते हुए करते हैं। उनका मानना है कि भूजल का पता लगाने की उनकी क्षमता एक दिव्य उपहार है जो शायद ही कभी विफल होता है। वह भविष्यवाणियों में कभी-कभार होने वाली विफलताओं को चुनौतीपूर्ण इलाकों के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं: “कभी-कभी कठोर और पहाड़ी इलाके इस प्रक्रिया को जटिल बना देते हैं।”
जल स्रोतों का अत्यधिक दोहन
बेंगलुरु में 11,000 से ज्यादा पंजीकृत बोरवेल हैं, जिससे भूमिगत जल का अत्यधिक दोहन हो रहा है। इस साल गर्मी के महीनों में जब शहर के कुछ हिस्सों में तापमान 40 डिग्री सेल्सियस से भी ज्यादा हो गया, तो सैमसन को सामान्य से ज्यादा मदद के लिए कॉल आए। वह कहते हैं, “आम तौर पर मुझे महीने में आठ से नौ कॉल आते हैं, लेकिन इस गर्मी में यह बढ़कर 20 से 30 हो गए। लोगों को पानी की जरूरत है।” मार्च तक, शहर के लगभग 50% बोरवेल या तो सूख चुके थे या बहुत कम पानी दे रहे थे।
बेंगलुरु जल आपूर्ति और सीवरेज बोर्ड (BWSSB) के सहायक इंजीनियर, सनथ कुमार वी कहते हैं कि शहर में बोरवेल औसतन 800 से 900 फीट (240-270 मीटर) की गहराई तक खोदे जाते हैं। उन्होंने मोंगाबे इंडिया से कहा, “फिर भी, आपको पानी नहीं मिलेगा क्योंकि पानी का स्तर बहुत नीचे चला गया है।” BWSSB शहर में भूमिगत जल के पुनर्भरण को बेहतर बनाने के लिए मौजूदा बोरवेल में पुनर्भरण गड्ढे स्थापित करने पर काम कर रहा है, लेकिन अत्यधिक दोहन और अवैध कुओं की खुदाई राज्य और नगरपालिका अधिकारियों के लिए एक चुनौती बना हुआ है।
वैज्ञानिकों का कहना है कि भूमिगत जल के लिए सबसे बड़ा खतरा है जब इसे ऐसी गहराई से निकाला जाता है जहां पानी फिर से नहीं भरता। सतह से सैकड़ों मीटर नीचे ड्रिलिंग करने से जीवाश्म जल खत्म हो सकता है, जो एक ऐसा संसाधन है जो फिर से नहीं बनता।
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मुद्दू कहते हैं कि आजकल गहरे कुएं खोदने का चलन बहुत बढ़ गया है, लेकिन साधारण उपकरणों और सही तरीके से न खोदने के कारण, ड्रिलिंग ऐसी दरार में जा सकती है जो फिर से नहीं भरती। इससे कुछ ही सालों में पानी खत्म हो जाएगा।
उनका कहना है कि हमें पानी को फिर से भरने देने वाली गहराई तक ही ड्रिलिंग करनी चाहिए, जो आमतौर पर 100 मीटर से ज़्यादा न हो।
वैज्ञानिकों के अनुसार, सबसे ज्यादा चिंताजनक जोखिम गैर-पुनर्भरणीय गहराई से भूजल निकालने से जुड़ा है। सतह से सैकड़ों मीटर नीचे ड्रिलिंग करने से जीवाश्म जल की कमी हो सकती है, जो एक गैर-नवीकरणीय संसाधन है। मुद्दू कहते हैं, “भूजल के लिए बहुत गहराई तक ड्रिलिंग करना आम बात हो गई है, लेकिन साधारण उपकरणों और अनुचित उपयोग के कारण, ड्रिलिंग से ऐसी दरार पड़ सकती है जो रिचार्ज नहीं होती, जिससे कुछ सालों में आपूर्ति समाप्त हो सकती है।” वह आगे कहते हैं: “आदर्श रूप से, ड्रिलिंग ऐसी गहराई पर की जानी चाहिए जहां प्राकृतिक रिचार्ज हो सकता हो, इसके लिए आमतौर पर 100 मीटर से अधिक ड्रिलिंग नहीं होनी चाहिए।”
शनमुगन का कहना है कि उनके ग्राहकों की उनके प्रति अच्छी राय के कारण उनकी सेवाओं की हमेशा मांग रहती है। वहां से निकलने से ठीक पहले, उनके पास एक ग्राहक का फोन आता है। वह घबराई हुई आवाज में बताता है कि उनकी बताई गई जगह पर 500 फीट तक खोदने के बाद भी सिर्फ कीचड़ मिला है। शनमुगन ग्राहक को आश्वस्त करते हैं, “चिंता मत करो, पानी आएगा। बस थोड़ा और गहराई से खोदो, तुम्हें दिख जाएगा।”
यह खबर मोंगाबे-इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 14 अगस्त 2024 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: बेंगलुरु के रहने वाले वॉटर डिवाइनर एस. सैमसन तांबे के उपकरण से बोर पॉइंट खोजने की कोशिश कर रहे हैं। पास ही खड़े बच्चे उन्हें काम करते हुए देख रहे हैं। तस्वीर- सिमरिन सिरुर/मोंगाबे