- दुग्ध उत्पादन (डेयरी) और पशुपालन का भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 4.5% योगदान है। मगर बढ़ती गर्मी इन क्षेत्रों में उत्पादकता को चुनौती दे रही है।
- पिंजरों पर पानी छिड़कना, जानवरों के पास पीने के पानी की पर्याप्त व्यवस्था करना तथा बोरियों को भिगोकर छतों या जानवरों के शरीर पर रखना जानवरों में गर्मी के तनाव को कम करने के लोकप्रिय तरीके हैं।
- शेड डिजाइन में सुधार, और विकेन्द्रीकृत नवीकरणीय ऊर्जा को शामिल करना कुछ ऐसी नई तकनीक हैं जिनका उपयोग किसान गर्मी के तनाव को और कम करने के लिए कर रहे हैं। हालांकि, इन तरीकों को वित्तपोषित करना एक चुनौती बनी हुई है।
साल 2020 के गर्मी के दिनों में सावित्री भांसे अपने छोटे से घर के पीछे बने खेत में मुर्गियों की देखभाल करने गई थीं। लेकिन मुर्गियों की देखभाल करने और उन्हें खिलाने की उनकी सामान्य दिनचर्या एक ऐसे संकट से बदल गई जो उनके नियंत्रण से बाहर था। “लगभग 50 से 70 चूजे एक दिन में ऐसे ही मर गए। वे गर्मी के कारण जीवित नहीं रह सके,” उन्होंने मोंगाबे इंडिया को बताया।
मध्य प्रदेश के नर्मदापुरम जिले (पूर्व में होशंगाबाद) में संचालित आदिवासी महिला पोल्ट्री किसानों की सहकारी संस्था ‘केसला पोल्ट्री सोसाइटी’ के साथ मुर्गियां पालने का यह उनका दूसरा साल था, और पहली बार उन्हें एक झटके में इस तरह का नुकसान हुआ था।
अत्यधिक गर्मी पोल्ट्री और पशुधन के लिए घातक हो सकती है। पोल्ट्री भारत के कुल मांस उत्पादन का 50% हिस्सा बनाती है, जबकि डेयरी देश के कृषि क्षेत्र में 24% योगदान देती है। डेयरी और पशुपालन मिलकर भारत के कुल सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 4.5% बनाते हैं। लेकिन अत्यधिक गर्मी इन क्षेत्रों में उत्पादकता को चुनौती दे रही है, जो भारत की आबादी बढ़ने के साथ बढ़ने के लिए तैयार है।
अधिक पूंजी वाले बड़े पोल्ट्री फार्म गर्मी के तनाव के प्रभावों को कम करने के लिए बेहतर रूप से बने होते हैं, कुछ अपने शेड में औद्योगिक स्तर के वेंटिलेशन सिस्टम लगाते हैं। भांसे जैसे छोटे और सीमांत किसानों को उच्च तापमान के कारण उत्पादकता में कमी या मृत्यु दर का सामना करने का अधिक जोखिम है। गरीबों के लिए स्थायी ऊर्जा समाधान प्रदान करने वाली एक सामाजिक ऊर्जा उद्यम, सेल्को फाउंडेशन की वरिष्ठ कार्यक्रम प्रबंधक, निर्मिता चंद्रशेखर कहती हैं, “भारत में कुल कृषि परिवारों में से 89.4% या 83.2 मिलियन छोटे और सीमांत कृषि परिवार हैं। भारत में हरित क्रांति के बाद छोटे और हाशिए के किसानों ने मिट्टी की गुणवत्ता में गिरावट, उपज में गिरावट और जलवायु तनाव को देखा है, लेकिन उन्हें कोई लाभ नहीं मिला है।”
छत की सामग्री या शेड के डिजाइन को बदलने जैसे छोटे-छोटे प्रबंध गर्मी के महीनों में गर्मी के संपर्क में आने वाले पशुओं के लिए जीवन रक्षक हो सकते हैं। लगभग 500 मुर्गियों की मालकिन सावित्री भांसे ने 2020 में हुए नुकसान को रोकने का श्रेय अपने फार्म में सौर ऊर्जा से चलने वाले कूलर को दिया।
गर्मी का प्रकोप
मुर्गियों के लिए परिवेश का श्रेष्ठ और अनुकूल तापमान 15 से 25 डिग्री सेल्सियस के बीच होता है और जब परिवेश का तापमान 30 डिग्री सेल्सियस या उससे अधिक हो जाता है, तो गर्मी का तनाव शुरू हो जाता है। इससे उनका आंतरिक शारीरिक तापमान 41 से 42 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाता है। पसीने की ग्रंथियों की अनुपस्थिति में, मुर्गियों के पास अपने शरीर में जमा हो रही गर्मी को बाहर निकालने के सीमित रास्ते होते हैं। यदि आंतरिक तापमान 46 डिग्री सेल्सियस से अधिक हो जाता है, तो मुर्गियों में गर्मी का तनाव घातक हो सकता है।
इसी तरह, गाय और सूअर जैसे पशुधन तब पनपते हैं जब परिवेशी वायु का तापमान 15 से 27 डिग्री सेल्सियस के बीच होता है। इस संदर्भ में तेजा रेड्डी, जो कि कर्नाटका स्थित एक जैविक डेयरी उद्यम ‘अक्षयकल्प’ में पशु चिकित्सा सेवाओं के प्रमुख प्रबंधक हैं, ने बताया, “गायों में बहुत अधिक चयापचय गर्मी होती है, जो भोजन की खपत से निकलने वाली ऊर्जा से आती है। यदि शरीर पर गर्मी का अधिक भार होता है, तो यह शरीर में सूक्ष्म जीवों के असंतुलन का कारण बनता है जो उचित पाचन को रोकता है और जानवर में बेचैनी पैदा करता है। मवेशी गर्मी को बाहर निकालने की कोशिश में हाँफना शुरू कर देगा। अगर गर्मी को कम नहीं किया जा सकता है, तो यह बढ़ती है और तनाव का कारण बनती है।”
साल 2024 की शुरुआत में, इस साल भीषण गर्मी पड़ने की आशंका जताई गई, जिसमें अप्रैल, मई और जून में देश के अधिकांश हिस्सों में अत्यधिक गर्मी पड़ने का अनुमान था। भारत मौसम विज्ञान विभाग के अनुसार, ग्लोबल वार्मिंग के कारण 1961 से 2021 के बीच भारत में हीटवेव की अवधि में 2.5 दिन की वृद्धि हुई है। अगर मौजूदा दरों पर वार्मिंग जारी रहती है, तो जलवायु परिवर्तन के कारण अगले कुछ दशकों में हीटवेव लंबी, अधिक लगातार और अधिक तीव्र होने की संभावना है। लांसेट में प्रकाशित एक अध्ययन में अनुमान लगाया गया है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण 2085 तक भारत के शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में दुग्ध उत्पादन में 25% तक की कमी आ सकती है।
उच्च तापमान पर सूअर भी कम उत्पादक होते हैं। 21 डिग्री सेल्सियस तापमान पर रखे गए सूअरों की तुलना में, 32 डिग्री सेल्सियस के तापमान वाले सूअरों में हर डिग्री बढ़ने के साथ 60-100 ग्राम कम भोजन करना पाया गया, जो कि हर डिग्री बढ़ने पर शरीर के वजन में 35 से 57 ग्राम प्रतिदिन की कमी के बराबर है।
किसानों पर इसका सीधा असर उनकी आय में कमी के रूप में पड़ता है। भांसे की पड़ोसी सुशीला पारथे 2008 से मुर्गियां पाल रही हैं और उनके पास अपने 1000 मुर्गियों के झुंड के लिए कूलर नहीं है, इसके बजाय वे फूस की एक मोटी छत और हवादार शेड से काम चलाती हैं। उन्होंने मोंगाबे इंडिया को बताया कि हालांकि उन्हें उच्च मृत्यु दर का सामना नहीं करना पड़ा है, लेकिन उनकी मूर्तियां गर्मियों के महीनों में कम वजन की समस्या से जूझती हैं। कम वजन बढ़ना और सावन जैसे शुभ हिंदू महीने, जिसमें मांस से परहेज करने की बात कही जाती है, के दौरान मांग में कमी का मतलब है कि उनके जैसे किसानों के लिए नुकसान दोगुना है। उन्होंने कहा, “गर्मियों के दौरान, मैं सर्दियों की तुलना में प्रति बैच केवल 7,000 या 8,000 रुपये कमा पाती हूँ, जब मैं 12,000 से 14,000 रुपये के बीच कमा पाती हूँ।” उन्होंने आगे कहा, “वे महीने मुश्किल होते हैं, लेकिन मैं काम चला लेती हूँ क्योंकि मेरे बच्चे घर पैसे भेजते हैं।”
हरेकृष्ण डेका, नेशनल स्मॉलहोल्डर पोल्ट्री डेवलपमेंट ट्रस्ट (NSPDT), जो छोटे ग्रामीण महिला पोल्ट्री किसानों का एक देशव्यापी नेटवर्क है, के प्रबंध न्यासी और मुख्य परिचालन अधिकारी, ने मोंगाबे इंडिया को बताया कि भारत में बिकने वाली 95% मुर्गियां जीवित बेची जाती हैं, जहाँ वजन एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। उन्होंने कहा, “जहाँ कूलर नहीं हैं, हम वहां दूसरे तरीकों का उपयोग करते हैं, जैसे कि एस्बेस्टस शीट को थर्मली इंसुलेटेड शीट से बदलना या शेड में गैसों के निर्माण को कम करने के लिए सौर-संचालित पंखे लगाना।”
अन्य उपाय, जैसे कि पिंजरों पर पानी छिड़कना, यह सुनिश्चित करना कि जानवरों के पास पर्याप्त पीने का पानी हो और बोरियों को भिगोकर छतों या जानवरों के शरीर पर रखना, किसानों द्वारा ठंडा रहने के लिए लोकप्रिय तकनीक हैं, लेकिन ये अस्थायी प्रकृति की हैं।
शेड डिजाइन में सुधार
भांसे द्वारा इस्तेमाल किया जाने वाला सौर ऊर्जा से चलने वाला कूलर उन्हें SELCO फाउंडेशन द्वारा, उनके सतत ऊर्जा आधारित जलवायु कार्यवाही कार्यक्रम (SELCAP) के अंतर्गत दिया गया था। चंद्रशेखर ने कहा कि खराब शेड डिजाइन, अस्वच्छ और तंग परिस्थितियों और सस्ती लेकिन गर्मी को अवशोषित करने वाली छत सामग्री जैसे एस्बेस्टस से गर्मी की असुविधा हो सकती है। फाउंडेशन ने कूलर के वितरण और छत सामग्री के साथ प्रयोगों सहित तापमान विनियमन के लिए समाधान विकसित करने के लिए NSPDT के साथ भागीदारी की है।
NSPDT के तहत केसला पोल्ट्री सोसायटी ने नर्मदापुरम (होशंगाबाद) जिले में सौर ऊर्जा से चलने वाले लगभग 400 कूलर वितरित किए और अध्ययन किया कि बिना कूलर वाले फार्म्स की तुलना में कूलर का किसानों पर क्या प्रभाव पड़ा। उन्होंने पाया कि कूलर ने उत्पादन लागत में 2.17 रुपये प्रति किलोग्राम की बचत की, जिसके परिणामस्वरूप सोसायटी के लिए कुल मिलाकर 9,37,641 रुपये से अधिक की बचत हुई। “कूलर लगे शेड वाले उत्पादक को एक बैच में औसतन 5,233 रुपये का भुगतान किया गया, जबकि बिना कूलर वाले उत्पादकों को औसतन 4,312 रुपये का भुगतान किया गया,” मोंगाबे इंडिया के साथ साझा किए गए विश्लेषण में कहा गया। 35-38 दिनों के चक्र में प्रति बैच झुंड का औसत आकार 500-700 पक्षी था।
परिणाम सकारात्मक होने के बावजूद, कूलर खरीदने और स्थापित करने की पूंजीगत लागत अभी भी छोटे किसानों के लिए एक बाधा है, डेका ने कहा। लगभग 40,000 रुपये प्रति कूलर की उच्च लागत, उन्हें खेतों में स्थापित करने में सबसे बड़ी बाधा रही है। कूलर की अनुपस्थिति में, अन्य समाधानों, जैसे कि सौर संचालित पंखे अन्य खेतों में लगाए जा रहे हैं।
कर्नाटका के तुमकुरु जिले के मदरसाबपल्या गाँव के एक दुग्ध उत्पादक किसान सिद्धलिंगस्वामी ने अपनी 20 गायों के लिए अधिक वायुसंचार के लिए अपने शेड डिज़ाइन के साथ प्रयोग करने की योजना बनाई है। सिद्धलिंगस्वामी अक्षयकल्प के एक किसान हैं। उन्होंने मोंगाबे इंडिया को बताया, “मैं पिछले चार सालों से दुग्ध उत्पादक किसान हूँ, लेकिन इस साल मुझे गर्मी के कारण छाया और फॉगर्स लगाने की जरूरत महसूस हुई।” उन्होंने आगे कहा, “फ़ॉगर्स गर्मी के तनाव को कम करने में सिर्फ़ थोड़ी मदद कर रहे हैं, इसलिए मैं अपनी एस्बेस्टस की छत को जिंक से बदलने की कोशिश करूँगा और शेड की लंबाई बढ़ाकर आठ फ़ीट और ऊंचाई दस फ़ीट करूँगा।”
अक्षयकल्प में इंजीनियर राजीव कृष्णमूर्ति ने कहा कि अक्षयकल्प अपने किसानों को शेड डिजाइन के ज़रिए दूध की पैदावार को बेहतर बनाने में मदद करता है। कृष्णमूर्ति ने कहा, “हम शेड और उनके प्रोटोटाइप के लिए शुरुआती डिजाइन बनाने के लिए वास्तुशिल्प योजना, HVAC सिस्टम डिज़ाइन और प्राकृतिक वेंटिलेशन का उपयोग करते हैं।”
डिजाइन को प्रायोगिक और अंततः स्केल किए जाने से पहले एक पुनरावृत्तीय प्रक्रिया के माध्यम से संशोधित किया जाता है। “इन शेड में अक्सर डेयरी गायों की सेहत को बेहतर बनाने के लिए प्राकृतिक वेंटिलेशन, उचित रोशनी और आरामदायक फ़्लोरिंग जैसी सुविधाएं शामिल होती हैं।”
अक्षयकल्प द्वारा 2016 से 2022 तक किए गए आंतरिक विश्लेषण से पता चलता है कि प्रत्येक वर्ष, उनके विशेष रूप से डिजाइन किए गए शेड में प्रति गाय औसत दैनिक पैदावार पारंपरिक शेड की तुलना में 1.2 लीटर से 3.7 लीटर तक अधिक दूध देती है। विश्लेषण के अनुसार, अधिक उपज के अलावा, शेड का निर्माण भी सस्ता है। एक पारंपरिक बंद शेड स्थापित करने की लागत 3,20,725 रुपये है। अक्षयकल्प के डिजाइन का उपयोग करके एक खुला शेड 1,70,000 रुपये में बनाया जा सकता है। कृष्णमूर्ति ने कहा, “समय के साथ, यह बढ़ी हुई उत्पादकता प्रारंभिक निर्माण लागतों की भरपाई कर सकती है और आर्थिक लाभ प्रदान कर सकती है।”
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चंद्रशेखर ने कहा कि अगला कदम विकेंद्रीकृत अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं को वित्तपोषित करने के लिए एक मॉडल स्थापित करना है ताकि वे हाशिए पर पड़े किसानों के लिए सस्ती हों। शून्य ब्याज ऋण, राष्ट्रीय और राज्य ग्रामीण आजीविका मिशनों के माध्यम से सब्सिडी, या जिला खनिज फाउंडेशन या वाटरशेड विकास निधि के भीतर आवंटन करना कुछ ऐसे तरीके हैं जिनसे इन परियोजनाओं को अन्य विकास एजेंडों का समर्थन करने के लिए एकीकृत किया जा सकता है। उन्होंने कहा, “हमारे पास सबूत हैं, तो अब सवाल यह है कि आप अधिक पैमाने पर इनके उपयोग के लिए पर्याप्त आम सहमति कैसे बनाते हैं? एक दृष्टिकोण राष्ट्रीय पशुपालन और पशु चिकित्सा विभागों या मंत्रालयों को देखना है कि इस प्रकार के नवाचार को मौजूदा कार्यक्रमों के साथ कैसे जोड़ा जा सकता है।”
यह खबर मोंगाबे-इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 16 अप्रैल 2024 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: केसला पोल्ट्री सोसाइटी के साथ पोल्ट्री किसान सुशीला पारथे अपनी मुर्गियों की देखभाल कर रही हैं। तस्वीर- बबलेश मस्कोले/केसला पोल्ट्री सोसाइटी।