- क्लाइमेट एंग्जाइटी, इकोलॉजिकल एंग्जाइटी, इको एंग्जाइटी या एनवायरमेंटल एंग्जाइटी, ये सभी एक ही चीज के लिए इस्तेमाल होने वाले शब्द हैं जो जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति होने वाली मानसिक और भावनात्मक प्रतिक्रियाओं के एक पूरे दायरे को दर्शाते हैं।
- विशेषज्ञों का कहना है कि भारत में जलवायु परिवर्तन के मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों को समझने के लिए, शहरी और ग्रामीण आबादी के अनुभवों के बीच स्पष्ट अंतर करना जरूरी है।
- महिलाएं, युवा, हाशिए पर रहने वाले समुदाय और प्रकृति के करीब रहने वाले लोग पारिस्थितिकी क्षरण से सबसे ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं। उनके मानसिक स्वास्थ्य पर सबसे ज्यादा असर पड़ता है।
केरला में बाढ़ के बाद सर्वे करते हुए वॉलियंटर मनीजा मुरली एक ऐसी किशोरी से मिलीं जो ऑटिज़्म से जूझ रही थी। वह बाढ़ से बचकर बाहर निकली थी और ट्रॉमा में थी। उसकी मां ने बताया कि वह हमेशा डरी-सहमी रहने लगी है। बारिश होने पर वह घर से बाहर कदम नहीं रखती और हमेशा चिंता में डूबी रहती है। उसकी ये स्थिति बाढ़ आने के दो साल बाद तक बनी रही। ATREE में वरिष्ठ कार्यक्रम अधिकारी मनीजा 2018 और 2019 में केरला में आई बाढ़ के बाद जरूरतों का आकलन करने वाले एक सर्वे कर रही थीं। सर्वे 2021 में केरला राज्य आपदा प्रबंधन ने यूनिसेफ के साथ मिलकर किया था।
लगभग इसी समय पूर्व एवरेस्ट पर्वतारोही माया गुरुंग ने 2021 के मेलम्ची बाढ़ आपदा के बाद आश्रयों में रह रही महिलाओं से मुलाकात कर उनका हाल-चाल जानने की कोशिश की। यह बाढ़ काफी भयानक थी, जिसने इलाके के कई लोगों को बेघर कर दिया था। नेपाल के सिंधुपालचौक जिले की इस राजनेता गुरुंग ने बताया, “मैं एक युवती से मिली, जिसकी गोद में एक छोटा बच्चा था। उसने मुझसे कहा कि वह रात में भी अपने बच्चे को कसकर पकड़ कर सोती है, इस डर से कि कहीं तड़के फिर से बाढ़ न आ जाए और उसका बच्चा उससे दूर न चला जाए।”
जलवायु आपदा से बचे लोगों द्वारा साझा की गई कहानियां चरम मौसम की घटनाओं के मानसिक स्वास्थ्य पर बढ़ते प्रभाव को रेखांकित करती हैं।
क्लाइमेट या इको-एंग्जाइटी क्या है?
जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन विभिन्न क्षेत्रों में अपना असर दिखा रहा है, मानवता अनुकूलन की चुनौती से जूझ रही है। अमेरिकन साइकियाट्रिक एसोसिएशन ने जलवायु परिवर्तन को 21वीं सदी के वैश्विक स्वास्थ्य के लिए सबसे बड़े खतरों में से एक माना है।
बढ़ते तापमान और चरम मौसमी घटनाओं, जैसे लू, बाढ़ और सूखे के बढ़ने से सीधे और परोक्ष रूप से शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी कई समस्याएं पैदा हो सकती हैं। क्लाइमेट एंग्जाइटी, इकोलॉजिकल एंग्जाइटी, इको एंग्जाइटी या एनवायरमेंटल एंग्जाइटी जैसे शब्दों का इस्तेमाल जलवायु परिवर्तन के प्रति मानसिक और भावनात्मक प्रतिक्रियाओं को दर्शाने के लिए किया जाता है। ये शब्द मानसिक स्वास्थ्य की विभिन्न स्थितियों को दर्शाते हैं, जिनमें पोस्ट-ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (PTSD), एक्यूट एंग्जाइटी, क्लीनिकल डिप्रेसन और आत्महत्या के विचार शामिल हैं। इसके अलावा, जलवायु परिवर्तन के कारण दुख, भय, चिंता और एक स्वच्छ जलवायु से जुड़े एक अतीत की चाह रखने जैसी भावनाएं भी पैदा होती हैं, जिसे अक्सर सोलस्टैल्जिया कहा जाता है।
“पर्यावरणीय विनाश का लगातार डर” के रूप में परिभाषित करता है। ऑस्ट्रेलियाई एनवायरमेंटल फिलोसफर और सस्टेनेबिलिटी प्रोफेसर ग्लेन अल्ब्रेक्ट इसे “साइकोटेरेटिक इलनेस” के रूप में वर्गीकृत करते हैं जो पृथ्वी से संबंधित एक मानसिक बीमारी है जहां लोगों के और पर्यावरण के बीच “स्वस्थ” संबंध खराब हो जाते हैं। जलवायु परिवर्तन के मनोवैज्ञानिक प्रभावों में विशेषज्ञता रखने वाली एक अमेरिकी मनोचिकित्सक लीज वैन सस्टरन इको-एंग्जाइटी को “प्री-ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर” के रूप में देखती हैं, जहां भयावह परिणामों की चिंता पहले से ही व्यक्ति को प्रभावित कर रही होती है, जैसे वे पहले ही घटित हो चुकी हों। यह चिंता “फ्लैश-फॉरवर्ड”, “डर के कारण अपने आस-पास की वास्तविकता से अलग होने” और “बुरे सपने” के रूप में सामने आती है।
मुंबई यूनिवर्सिटी में अप्लाइड साइकलॉजी के एसोसिएट प्रोफेसर विवेक बेहलकर ने बताया कि मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं कई अलग-अलग कारणों के मिलकर बनने वाली जटिल स्थिति हैं। वह कहते हैं, “इसका कोई एक कारण नहीं होता है। कुछ ऐसे प्रभाव होते हैं जो पहले से मौजूद होते हैं, कुछ ऐसे कारक जो इन समस्याओं को बनाए रखते हैं, और कुछ ऐसे तनाव जो इन समस्याओं को बढ़ाते हैं।” उनका कहना है कि जलवायु परिवर्तन या तो इन समस्याओं को बनाए रखने वाला कारक है या फिर तनाव जो इन समस्याओं को बढ़ाता है। यह अकेला कारण कभी नहीं होता। वह कहते हैं, उदाहरण के तौर पर किसी व्यक्ति में जन्मजात संवेदनशीलता हो सकती है जिसके कारण उसे अवसाद या चिंता जैसी समस्याएं हो सकती हैं। जलवायु परिवर्तन या तो इस समस्या को बनाए रखता है या इसमें इजाफा कर देता है।
मानसिक बीमारियों के डायग्नोस्टिक एंड स्टैटिक्स मैनुअल (DSM) में क्लाइमेट एंग्जाइटी को मानसिक विकार के रूप में मान्यता नहीं दी गई है। यह मानसिक स्वास्थ्य और मस्तिष्क से जुड़ी समस्याओं पर अमेरिकन साइकियाट्रिक एसोसिएशन की पेशेवर संदर्भ पुस्तक है। एक रिपोर्ट के मुताबिक, डॉ. लिज वैन सस्टेरन जैसे कुछ कुछ विशेषज्ञ DSM में कहीं न कहीं जलवायु परिवर्तन के कारण पैदा होने वाले तनाव को शामिल करने का प्रयास कर रहे हैं। इससे जलवायु चिंता को एक अलग समस्या के रूप में मान्यता मिलेगी और जो लोग इससे पीड़ित हैं उनके अनुभवों को सही माना जाएगा। हालांकि, लोग जलवायु परिवर्तन के कारण पैदा होने वाले तनाव के प्रति अलग अलग प्रतिक्रिया करते हैं। कुछ लोग निराशा में डूब जाते हैं जबकि कुछ लोग इस स्थिति से लड़ने के लिए अधिक सक्रिय कदम उठाते हैं, जैसे स्वयंसेवा करना या जलवायु परिवर्तन के खिलाफ कार्रवाई करना।
हिंसा, शोक और दुःख
मौसम, सीजन और जलवायु से जुड़ी अन्य घटनाएं पहले से मानसिक स्वास्थ्य संबंधी विकारों का सामना कर रहे लोगों में लक्षणों को बढ़ा सकती हैं। अध्ययनों ने बाइपोलर डिसऑर्डर वाले लोगों में बढ़े हुए तापमान और बढ़े हुए मैनिक-डिप्रेसिव अवस्थाओं के बीच संबंध दिखाया है। अध्ययन में मैनिक अवस्थाओं और उच्च औसत दैनिक तापमान के बीच संबंध देखा गया। निष्कर्षों में से एक यह था कि बाइपोलर डिसऑर्डर वाले लोगों की सर्कैडियन रिदम में गड़बड़ी यानी नींद की कमी के रूप में प्रकट होती है और यह पहले से मौजूद स्थिति को बढ़ा सकती है। केरल के साइकेट्रिस्ट डॉ. दिनेश आर.एस. कहते हैं कि उन्हें गर्मियों के महीनों में बाइपोलर डिसऑर्डर वाले लोगों में मैनिक डिप्रेशन के अधिक मामले मिले हैं। कुछ अध्ययनों से पता चलता है कि आसपास के तापमान में वृद्धि के साथ ही आक्रामक व्यवहार और हिंसा के मामले भी बढ़ जाते हैं।
गांवों में रहने वाले गरीब लोगों पर जलवायु परिवर्तन का सबस ज्यादा असर पड़ता है। क्योंकि जब कोई प्राकृतिक आपदा आती है, तो उनके जीवन में बहुत बड़ा बदलाव आता है। उन्हें विस्थापन, पलायन, सामुदायिक बुनियादी ढांचे का टूटना, भोजन की कमी, रोजगार का नुकसान जैसी परेशानियों से जूझना पड़ता है। उनका समाज भी उनका साथ देने में असमर्थ होता है। इस सबके कारण, उनका मानसिक स्वास्थ्य बुरी तरह से प्रभावित होता है। दिनेश कहते हैं कि उन्होंने केरल में 2019 की बाढ़ के दौरान भूस्खलन और जान जाने के बाद सामूहिक रूप से शोक मनाते हुए समुदायों को देखा है। बिहार में कोसी नदी की बाढ़ के बाद, उन्होंने बचे हुए लोगों और शोक संतप्त परिवार के सदस्यों के साथ बातचीत की। इन लोगों ने अपने दुख से निपटने के लिए स्वैच्छिक रूप से बाढ़ पीड़ितों को बचाने का काम शुरू कर दिया था।
शहरी-ग्रामीण विभाजन
क्लाइमेट एंग्जाइटी अपनी बदलती परिभाषा के साथ, शहरी और ग्रामीण दोनों आबादी में पहचानी गई है। हालांकि, ग्रामीण समुदायों में यह अक्सर अधिक स्पष्ट मुद्दों की परतों के नीचे छिपी रहती है जैसे कि आर्थिक और आजीविका का नुकसान, साथ ही जाति और वर्ग के आधार पर हाशिए पर होना।
बेहलकर शहरी और ग्रामीण भारत में जलवायु से जुड़ी मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के अनुभवों को अलग-अलग पहचानने के महत्व पर जोर देते हैं। शहरी और ग्रामीण भारत में जलवायु-प्रभावित क्षेत्रों में अपने अध्ययनों और अवलोकनों के आधार पर बेहलकर बताते हैं कि शहरी लोगों का प्रकृति से संबंध अधिक उपयोगितावादी होता है। शहरी क्षेत्रों में, जलवायु संकट अक्सर पर्यावरणीय सुख-सुविधा के एक बीते युग के लिए उदासीनता की भावना और जलवायु परिवर्तन के कारण उस सुख-सुविधा के वास्तविक नुकसान से उत्पन्न होता है। वह विस्तार से बताते हैं, “हम अक्सर देखते हैं कि लोग तापमान में वृद्धि या अत्यधिक बारिश के कारण हुई असुविधा की वजह चिंतित होते हैं। क्योंकि इस दौरान वे जिन सेवाओं का लाभ उठा रहे थे, वे या तो उपलब्ध नहीं हो पाती हैं या अधिक महंगी हो गई हैं। यह संकट जीवन या आजीविका के नुकसान से जुड़ा नहीं है जो अक्सर उन समुदायों में होता है जो अपनी आजीविका के लिए प्रकृति पर निर्भर होते हैं।”
बेहलकर ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लोगों को जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले आघात के बारे में बात करते हैं, खास करके उन लोगों के बारे में जो जंगलों के पास रहते हैं। उन्होंने महाराष्ट्र में ताडोबा बाघ अभयारण्य के पास स्थित चंद्रपुर गांव का उदाहरण देते हुए बताया कि गांव में आदिवासी अपनी रोजी-रोटी के लिए जंगल से लकड़ी इकट्ठा करते हैं, लेकिन यह काम बहुत खतरनाक है। उनका सामना जंगली जानवरों से हो सकता है। जब किसी परिवार का कोई सदस्य इस काम से वापस नहीं आता है, तो उस परिवार को बहुत गहरा आघात और दुख होता है। जो लोग खेती-बाड़ी करते हैं, उन्हें ये प्रकृति की ओर से किए जाने वाला अन्याय लगता है। अत्यधिक बारिश या सूखे के कारण उनकी फसलें नष्ट हो जाती हैं और उन्हें आर्थिक तौर पर बहुत ज्यादा नुकसान का सामना करना पड़ता है।
इसका असर किस पर पड़ता है?
ग्रीस में हुए एक अध्ययन के मुताबिक, “ग्लोबल नोर्थ में जेन जेड (1995-2010 में जन्मे लोग) को इको-एंग्जाइटी होती है, जबकि ग्लोबल नोर्थ में इसका सबसे ज्यादा नुकसान होता है।” यह अध्ययन पूरी दुनिया के युवाओं में इको-एंग्जाइटी का अध्ययन करता है। पश्चिमी देशों के अध्ययनों से पता चलता है कि जेन ज़ेड जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले मनोवैज्ञानिक दबाव से ज़्यादा प्रभावित होते हैं। ये लोग एक ऐसे समय में पैदा हुए हैं जब जलवायु परिवर्तन के कारण चरम प्राकृतिक आपदाएं आ रही हैं। इसीलिए, इन्हें “क्लाइमेट जनरेशन” के रूप में जाना जाता है।
16 से 25 साल की उम्र के 10,000 युवाओं के 2021 के एक ग्लोबल सर्वे में पाया गया कि भारत के युवा जलवायु परिवर्तन से भावनात्मक रूप से सबसे ज्यादा प्रभावित हैं। बेहलकर का मानना है कि युवाओं की भानवाओं में बदलाव आता रहता है। जैसे-जैसे वे बड़े होते जाते हैं, उनकी एंग्जाइटी कम होता चली जाता है। उन्होंने कहा, “महिलाएं, खासकर भारत के ग्रामीण इलाकों से आने वाली महिलाएं, जलवायु परिवर्तन और इससे उत्पन्न होने वाली मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से सबसे ज्यादा प्रभावित होती हैं।” इसकी पुष्टि रिपोर्ट में भी की गई है। रिपोर्ट के मुताबिक, महिलाएं पुरुषों की तुलना में खाद्य असुरक्षा, पार्टनर हिंसा और जलवायु परिवर्तन से खराब स्वास्थ्य से पीड़ित होने की ज्यादा संभावना रखती हैं। चंद्रपुर और भारत के तटीय क्षेत्रों की महिलाओं से बातचीत के अपने अनुभव से बेहलकर ने समझा है कि जिन महिलाओं के पति जलवायु संबंधी नकारात्मक घटनाओं के कारण अपनी जान गंवा देते हैं, उनका समाज में बहुत ज्यादा अपमान होता है।
जब कोई प्राकृतिक आपदा आती है, तो उसका खामियाजा समाज के हाशिए पर रहने वाले लोग, जैसे ट्रांसजेंडर और LGBTQ समुदाय के लोगों को भी उठाना पड़ता है। उदाहरण के लिए, मनीजा ने ट्रांसजेंडरों के एक समूह के साथ बातचीत का जिक्र किया, जिन्हें अन्य लोगों द्वारा यौन उत्पीड़न के बाद विनाशकारी केरला बाढ़ के दौरान राहत शिविरों को छोड़ने और छिपकर शरण लेने के लिए मजबूर होना पड़ा था।
और पढ़ेंः जलवायु परिवर्तन की मार भारत पर सबसे अधिक, जोखिम घटाने के लिए बढ़ाना होगा निवेश
वास्तव में, ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन सबके लिए समान रूप से समस्याएं पैदा करते हैं, अब चाहे व्यक्ति कितना भी ताकतवर या अमीर क्यों न हों। केरल के एक गैर-लाभकारी संगठन “सस्टेरा फाउंडेशन” ने जलवायु परिवर्तन से जुड़े मानसिक स्वास्थ्य चिंताओं पर चर्चा करने के लिए एक बैठक का आयोजन किया था। इस बैठक में केरला की पूर्व स्वास्थ्य मंत्री के.के. शैलाजा ने अपनी बात रखी थी। केरल बाढ़ और कोविड-19 महामारी के दौरान स्वास्थ्य मंत्रालय की जिम्मेदारी संभालने वाली शैलजा ने बताया कि अपनी जिम्मेदारियों के कारण उन पर बहुत ज्यादा दबाव था और उन दबावों के कारण उन्हें डायबिटीज हो गई।
लेकिन उन्होंने अपनी चिंता को छुपाया ताकि आपदाओं के दौरान जनता को हिम्मत और मजबूती का संदेश दे सकें। उन्होंने लोगों से कहा, “अगर मैं तनाव में आ जाऊंगी, तो पूरा राज्य तनाव में आ जाएगा। उन्हें लगेगा कि मंत्री भी डरे हुए हैं, इसलिए हम इससे (संकट से) नहीं बच सकते। इसलिए, मुझे तनाव छिपाना पड़ा। लोगों ने मुझसे पूछा कि मैं संकट के बीच मीडिया के सामने कैसे मुस्कुरा सकती हूं। तो, मैं उनसे बात करते समय अपना मन शांत रखने की कोशिश करती हूं ताकि उन्हें लगे कि हम संकट से निपट सकते हैं।”
यह खबर मोंगाबे-इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 2 मई 2024 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: मेलबर्न में जलवायु विरोध प्रदर्शन में ऑस्ट्रेलियाई युवा। अध्ययनों से पता चलता है कि दुनिया भर के युवा या तो जलवायु परिवर्तन के बारे में चिंतित हैं या इससे पीड़ित हैं। तस्वीर– टैकवर/विकिमीडिया कॉमन्स