- उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले में जंगली जानवरों के हमले के बाद कई लोगों की मौत हो गई। लोग और वन विभाग का मानना है कि ये हमले भेड़ियों ने किए हैं।
- वन विभाग ने ड्रोन फुटेज और लोगों के बयानों के आधार माना कि ये हमले भेड़ियों के हैं। इसके बाद कई भेड़ियों को पकड़ा गया लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि सभी भेड़िये नहीं पकड़े गए हैं।
- वन्यजीव विशेषज्ञ संरक्षण मॉडल का पुनर्मूल्यांकन करने और ऐसे मामलों में तेजी से प्रतिक्रिया के लिए तैयारी करने की सलाह देते हैं।
उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले के वन अधिकारियों ने तब राहत की सांस ली जब उन्होंने छः भेड़ियों के एक झुंड में से पांच भेड़ियों को पकड़ लिया। इन भेड़ियों पर लोगों, खासकर बच्चों पर हमला करने का शक था। देहरादून में भारतीय वन्यजीव संस्थान के एक संरक्षण जीवविज्ञानी शहीर खान फिलहाल भेड़ियों की पहचान करने और उन्हें पकड़ने में वन विभाग की सहायता करने के लिए बहराइच में तैनात हैं।
उन्होंने इस सप्ताह की शुरुआत में मोंगाबे इंडिया को बताया, “अच्छी खबर यह है कि पिछले सप्ताह में कोई हमला नहीं हुआ है।” हालांकि, यह राहत कम समय के लिए थी क्योंकि उसके बाद जिले से तीन नए हमलों की सूचना मिली। दस और ग्यारह सितंबर की मध्यरात्रि को 11 साल की उम्र के दो बच्चों और 11 सितम्बर की रात को एक 50 वर्षीय महिला पर हमला हुआ।
इस साल की शुरुआत में हमले शुरू होने के बाद से आशंकित निवासियों ने एक परेशान करने वाला पैटर्न देखा है: एक के बाद एक कई हमलों के बाद कुछ दिनों की शांति। वे यह मानने को तैयार नहीं हैं कि हमलावर जानवर या जानवरों को वन अधिकारियों ने पकड़ लिया है।
स्थानीय निवासियों में से एक मनोज कुमार शुक्ला ने ताजा हमले से कुछ दिन पहले मोंगाबे इंडिया को बताया था कि उनका मानना है कि हमला करने वाला जानवर पकड़े गए भेड़ियों से अलग है। “जो भेड़िया (पांचवा) कल पकड़ा गया था वो कल यहाँ देखा गया था, वह एक ग्रामीण के पास से गुज़रा और उसने कुछ नहीं किया। केवल एक भेड़िया है जो कई स्थानों पर हमला कर रहा है। यह हर दूसरे हफ़्ते हमला करता है; यह अगले एक या दो दिनों में हमला करेगा, क्योंकि पिछले हमले को एक हफ़्ता होने वाला है।”
बहराइच के ग्रामीणों पर जानवरों के हमलों का सिलसिला इस साल की शुरुआत में शुरू हुआ था। इन हमलों में दस लोग मारे गए हैं। उनमें से नौ बच्चे हैं जो नौ साल से कम उम्र के थे और एक महिला है। इन हमलों में 35 से अधिक लोग घायल भी हुए हैं। सत्रह जुलाई को अली अहमद का एक वर्षीय बेटा बिजली कटौती के कारण परिवार के साथ अपने घर के बाहर सो रहा था। एक जानवर बच्चे को उठा ले गया और गन्ने के खेतों में भाग गया। परिवार को लगता है कि वह जानवर भेड़िया था। परिवार ने पूरी रात खेतों में खोजबीन की और अगली सुबह बच्चे का शव मिला।
बहराइच के प्रभागीय वनाधिकारी (डीएफओ) अजीत प्रताप सिंह के अनुसार, पहली घटना इस साल 23 मार्च को हुई थी। तीन महीने के अंतराल के बाद, जुलाई में भी इसी तरह के हमले हुए। “पहले हमले के बाद, हमने एक भेड़िये और उसके शावक को पकड़ लिया। अप्रैल, मई और जून में कोई घटना नहीं हुई, फिर 17 जुलाई को उसी स्थान पर हमला हुआ। जुलाई में 27 तारिख को एक और घटना हुई,” उन्होंने बताया।
विभाग ने जानवरों को पकड़ने और उन्हें रिहाइशी इलाकों से बाहर निकालने के लिए मध्य जुलाई में “ऑपरेशन भेड़िया” शुरू किया।
शक के घेरे में आए भेड़िये
गांव के निवासियों और वन अधिकारियों ने इस दावे की पुष्टि करने के लिए ठोस सबूतों के बिना इन हमलों के लिए भेड़ियों को जिम्मेदार ठहराया है। अनुभवी संरक्षणवादी वाई.वी. झाला कहते हैं, “कोई डीएनए सबूत नहीं है, कोई तस्वीर नहीं है, और यहां तक कि भेड़ियों को अपराधी के रूप में इंगित करने वाले पैरों के निशान भी नहीं हैं।” यहां तक कि नवीनतम हमलों में भी, न तो वन विभाग और न ही जिला प्रशासन साइट पर पैरों के निशानों की अनुपस्थिति में जानवर की पहचान की पुष्टि कर सका।
हालांकि, वन विभाग इस कथन पर चल रहा है कि वे भेड़िये हैं, जो उस ड्रोन फुटेज पर आधारित है जिसमें क्षेत्र में छह भेड़ियों के एक झुंड को कैद किया गया था। उन्होंने जानवरों को पकड़ने और हटाने के लिए फुटेज का इस्तेमाल सबूत के तौर पर किया। डीएफओ सिंह ने पुष्टि की, “घटनास्थल पर उनकी (भेड़ियों की) उपस्थिति दर्ज की गई है, और हमें विश्वास है कि वे इन हमलों में शामिल थे।”
जलवायु परिवर्तन के कारण जंगली जानवरों के आवास विखंडन को शुरू में हमलों के कारण के रूप में देखा गया था। यह अनुमान लगाया गया था कि घाघरा नदी के निकट छोटे द्वीपों में रहने वाले भेड़ियों के झुंड के घर भारी बारिश के बाद बर्बाद हो गए। माना जाता है कि निवास स्थान खोने की वजह से भेड़िये मानव बस्तियों के करीब चले गए होंगे।
अफवाहों की भरमार
नेपाल की सीमा से लगे बहराइच में जंगलों और घाघरा नदी के बीच बसे गांवों में, ज्यादातर गलत सूचना के कारण दहशत फैली है। हमलों के डर से प्रभावित गांवों के स्कूल बंद कर दिए गए हैं और लोग रात में मशालों और लाठी के साथ गश्त कर रहे हैं। क्षेत्र में बार-बार बिजली गुल होने के कारण उनकी मुश्किलें बढ़ गई हैं। अली अहमद कहते हैं, “हम सभी रात के 2 या 2.30 बजे तक जागते रहते हैं, जबकि हमारी महिलाएं और बच्चे अंदर सोते हैं।” उनका कहना है कि घटना (उनके बेटे की मौत) के बाद चार से पांच दिनों तक जागरूकता अभियान चलाए गए थे, जो बाद में बंद हो गए।
जंगली कुत्तों, सियारों और भेड़ियों में अंतर न कर पाने के कारण सभी कैनिड (श्वान) प्रजातियों को निशाना बनाया गया और कुछ सियार तो लोगों के गुस्से का शिकार भी हुए। स्थिति से चिंतित वैज्ञानिक समुदाय ने सियारों और भेड़ियों के बीच अंतर स्पष्ट करने के लिए सोशल मीडिया पर पोस्टर और वीडियो प्रसारित किए। सनसनीखेज मीडिया कवरेज ने स्थिति को और बिगाड़ दिया। कुछ मीडिया में लोगों द्वारा बदला की भावना से जानवरों पर हमला किए जाने के भयानक दृश्यों को हाइलाइट किया गया और भेड़ियों को इंसानों से बदला लेने वाले खूनी जानवरों के रूप में चित्रित किया गया। खान बताते हैं, “भेड़िये आदमखोर नहीं होते। हो सकता है कि उन्होंने गलती से बच्चों पर हमला कर दिया हो, यह सोचकर कि वे झाड़ियों में हिरण या खरगोश जैसे जंगली शिकार हैं। इन गांवों में खुले में शौच करना आम बात है और बच्चे अक्सर अकेले ही झाड़ियों में चले जाते हैं।”
हमलावर जानवर की पहचान
कैनिड व्यवहार में विशेषज्ञता रखने वाले पारिस्थितिकीविदों और संरक्षण जीवविज्ञानियों का मानना है कि भेड़िया एक शर्मीला और छुपकर रहने वाला जानवर है। यह आमतौर पर इंसानी बस्तियों से बचता है। ऐतिहासिक रिकॉर्ड 1980 और 1990 के दशक में इसी तरह की घटनाओं का संकेत देते हैं, जो कुछ भेड़ियों को क्षेत्र से हटा दिए जाने के बाद बंद हो गए थे। तब से, भेड़ियों द्वारा मनुष्यों पर हमला करने के कोई भी मामले दर्ज नहीं किए गए हैं, सिवाए पागल भेड़ियों से जुड़े कभी-कभार के मामलों के।
हालांकि कुछ रिपोर्ट बताती हैं कि आनुवंशिक विश्लेषण चल रहा है और पीड़ितों की गर्दन और शरीर के अन्य हिस्सों पर छेद के निशान भेड़ियों के हमले का संकेत देते हैं, वन विभाग ने डीएनए परीक्षण करने से इनकार कर दिया है। पारिस्थितिकीविद् इरावती माजगांवकर ने कहा कि कुछ शोधकर्ता स्थिति को स्पष्ट करने के लिए सूचना के अधिकार (आरटीआई) के अंतर्गत जानकारी हासिल करने की योजना बना रहे हैं।
वरिष्ठ पारिस्थितिकीविद् अभी तमीम वनक, जो एटीआरईई में सेंटर फॉर पॉलिसी डिज़ाइन के निदेशक हैं, इस बात पर ज़ोर देते हैं कि आनुवंशिक परीक्षणों से पुष्टि के बिना भेड़ियों को ‘हत्यारा’ कहना या उनके बारे में भड़काऊ भाषा का इस्तेमाल करना गैर-ज़िम्मेदाराना है। इस तरह की हरकतें भेड़ियों की घटती आबादी पर काफ़ी असर डाल सकती हैं।
भारतीय ग्रे वुल्फ़ (कैनिस ल्यूपस पैलिप्स), जो भारत के वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 के तहत अनुसूची I की प्रजाति है, खतरे में है और इसकी संख्या केवल 3,000 ही बची है। ये भेड़िये मुख्य रूप से संरक्षित क्षेत्रों के बाहर कृषि-पशुपालन वाले क्षेत्रों में रहते हैं और मनुष्यों के नज़दीक रहते हैं, ज़्यादातर पशुधन पर निर्भर रहते हैं। जवाबी हमले और मानवीय शत्रुता के कारण बची हुई आबादी पर गंभीर परिणाम हो सकते हैं।
हमलावर जानवर का पता लगाने के लिए किसी ठोस सबूत के अभाव में, इसकी पहचान को लेकर अटकलें लगाई जा रही हैं। क्या यह एक अकेला पागल भेड़िया है जिसने कुछ लोगों पर हमला किया या यह जंगली शिकार की कमी के कारण भूखे और हताश भेड़ियों का झुंड है? झाला कहते हैं, “यह एक विकलांग जानवर भी हो सकता है जो अब शिकार नहीं कर सकता और बच्चों को आसान शिकार पाता है।” एक अन्य सिद्धांत भेड़िया-जंगली कुत्तों के संकर (हाइब्रिड) की ओर इशारा करता है जो मनुष्यों के आसपास स्वाभाविक रूप से अधिक साहसी और निडर होते हैं। माजगांवकर कहती हैं, “महाराष्ट्र और कर्नाटक जैसे भारत के कुछ हिस्सों में, हमने भेड़ियों के झुंड में संकर की उपस्थिति देखी है।”
कृषि परिदृश्य में बदलाव
बदलते परिदृश्य के कारण संभावित रूप से नकारात्मक मानव-पशु संबंधों के लिए उपजाऊ जमीन तैयार हो जाती है। इससे यह चिंता पैदा होती है कि वन विभाग इस स्थिति से निपटने के लिए इतना कम तैयार क्यों था। माजगांवकर जानवरों के हमलों के प्रति प्रतिक्रिया को प्रतिक्रियात्मक मानती हैं। यह देखते हुए कि परिदृश्य में लंबे समय से बदलाव हो रहे हैं, उनका मानना है कि वन विभाग को ऐसे संभावित संघर्षों के लिए बेहतर तरीके से तैयार रहना चाहिए था।
सिंह ने कहा कि विभाग अचानक से हैरान रह गया, क्योंकि इसे भेड़ियों का स्वाभाविक व्यवहार नहीं माना जाता है। ऐतिहासिक रूप से, ये भेड़िये मनुष्यों के साथ रहते आए हैं, आमतौर पर पशुओं का शिकार करते हैं। सिंह बताते हैं, “वे बकरियों और बछड़ों का शिकार करते थे। गन्ने और धान के खेतों ने उन्हें अच्छी छुपने की जगह दी। उनका सामान्य आहार छोटे जानवर हैं, लेकिन इस बार उन्होंने बच्चों को भी शामिल करना शुरू कर दिया। हमने ग्रामीणों को घर के अंदर रहने का निर्देश दिया, ताकि बच्चे सुरक्षित रहें और भेड़िये अपना सामान्य शिकार व्यवहार जारी रखें।”
तराई क्षेत्र के हिस्सों में से एक, इस इलाके के जंगल और घास के मैदान तेजी से कृषि भूमि में बदल गए हैं। बड़ी बिल्लियों के विपरीत उपयुक्त आवास या विशेष सुरक्षा स्थिति की कमी के कारण, भेड़िये लंबे समय से चरवाहों की छाया में रहते हैं, कभी-कभी मवेशियों का शिकार करते हैं, लेकिन ज़्यादातर छोटे शाकाहारी जानवरों और विकट परिस्थितियों में कृंतक और फलों पर निर्भर रहते हैं। ग्रामीण खुद हाशिए पर हैं, कई लोगों के पास उचित आवास नहीं है और वे खुले में सोते हैं, जिससे वे वन्यजीवों के हमलों के प्रति संवेदनशील हो जाते हैं। झाला कहते हैं, “ये बेहद गरीब गांव हैं। ज़्यादातर ग्रामीणों के पास घर नहीं हैं; वे खुले में सोते हैं और वन्यजीवों के हमलों के प्रति संवेदनशील होते हैं। पशुओं को अक्सर बच्चों की तुलना में बेहतर तरीके से संरक्षित किया जाता है।”
विशेषज्ञ वर्तमान संरक्षण मॉडल पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता पर भी जोर देते हैं। भारत में वन्यजीवों के साथ सह-अस्तित्व का एक लंबा इतिहास रहा है, और पश्चिमी संदर्भों के विपरीत, वन्यजीवों से केवल वन की सीमाओं के भीतर रहने की अपेक्षा करना अव्यावहारिक है। वनक कहते हैं, “जैसे-जैसे वन्यजीव संरक्षण के प्रयास परिणाम दिखाने लगते हैं, हमें अधिक संभावित संघर्षों के लिए तैयार रहना चाहिए।” संवेदनशील क्षेत्रों में वन विभागों को ऐसी स्थितियों से निपटने के लिए बेहतर ढंग से तैयारी की आवश्यकता है।
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वनक इन क्षेत्रों में वन्यजीव एनजीओ के लिए अधिक फंड और सहायता का सुझाव देते हैं, ताकि वे संसाधन साझा करने के लिए वन विभागों के साथ साझेदारी बना सकें। वे संघर्षों के लिए त्वरित प्रतिक्रिया सुनिश्चित करने के लिए जिला-स्तरीय अधिकारियों को ज़िम्मेदारियाँ सौंपने की भी सिफारिश करते हैं।
जवाब में, बहराइच वन विभाग इस घटना को भविष्य के संघर्षों के लिए एक मूल्यवान अभ्यास के रूप में देखता है। सिंह ने बताया, “टीम की विशेषज्ञता बढ़ी है, जिससे वे पगमार्क को ट्रैक करने, जाल लगाने और पिंजरों का अधिक प्रभावी ढंग से उपयोग करने जैसे कार्यों को संभालने में सक्षम हुए हैं। इस ऑपरेशन के दौरान हमारी पिछली कई कमियों को दूर किया गया, जिससे हमें भविष्य में लाभ होगा।”
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बैनर तस्वीर: पशुधन और कृषि को आजीविका का मुख्य साधन मानते हुए, जंगलों से सटे उत्तर प्रदेश के गांवों में मानव-वन्यजीव संघर्ष में वृद्धि देखी जा रही है। हालांकि, ऐसी स्थितियों से निपटने के लिए वन विभाग की तैयारियां खराब हैं। तस्वीर- मोंगाबे के लिए निखिल साहू।