- ग्लोबल वार्मिंग के चलते जलवायु परिवर्तन के कारण हिमाचल में सेब की बेल्ट करीब 1000 मीटर ऊपर ऊंचाई की तरफ खिसक गई है। पिछले कई सालों से बर्फबारी का सीजन भी एक दो महीने आगे शिफ्ट हो गया है।
- सेब बेल्ट खिसकने का अर्थ है पहले जिस ऊंचाई पर पहले सेब के पौधों के लिए जो जरूरी चिलिंग आवर मिलते थे अब तापमान बढ़ने के कारण वहां उतने चिलिंग आवर नहीं मिल पा रहे। अब वह चिलिंग आवर 1000 मीटर और ऊपर जाने पर मिल रहे हैं।
- पिछले 20 वर्षों में हिमाचल में भारी बर्फबारी के केवल 2-3 उदाहरण दर्ज किए गए हैं। शोध में यह भी पाया गया कि वर्ष 1963 से 2007 तक औसत अधिकतम तापमान 0.58 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है, जबकि औसत न्यूनतम तापमान 2.75 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है।
- किसान रेड डिलशियस, रायल डिलशियस, गोल्डन, रेड चीफ जैसी सेब की पुरानी किस्में हटा कर बदले मौसम के अनुकूल गाला, किंग रॉट स्पर, रेड वेलोक्स जैसी नई किस्में लगा रहे हैं जो 500 से 800 घंटे के चिलिंग ऑवर में फल तैयार कर देते हैं।
जलवायु परिवर्तन हिमाचल प्रदेश के मशहूर सेब बागानों और किसानों की समस्या को बढ़ा रहा है। साल दर साल मौसम में तेज़ी से आ रहे बदलावों से बीते डेढ दशक में प्रदेश में सेब का उत्पादन काफी प्रभावित हुआ है। चौदह साल पहले हिमाचल में सेब की सर्वाधिक 8.92 लाख मीट्रिक टन पैदावार हुई थी इसके बाद इतने हैरतअंगेज ढंग से हिमाचल में सेब उत्पादन इस ऊंचाई तक कभी नहीं पहुंचा। सेब का सालाना उत्पादन औसतन 4 या 5 लाख मीट्रिक टन से ज्यादा नहीं बढ़ पा रहा है। इस साल हालात इससे भी बदतर बताए जा रहे हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण हिमाचल में सेब की बेल्ट करीब 1,000 मीटर ऊपर ऊंचाई की तरफ खिसक गई है। पिछले कई सालों से बर्फबारी का सीजन भी एक दो महीने आगे शिफ्ट हो गया है। तापमान बढ़ने और बर्फबारी में कमी का असर सेब के स्वाद और उसकी गुणवत्ता पर भी पड़ा है। शिमला हाइटस के सेबों में अब वह पुरानी वाली गुणवत्ता देखने नहीं मिलती। यही वजह है कि बाजार में किन्नौर के सेब की मांग बढ़ गई है क्योंकि वहां के सेब चिलिंग आवर ज्यादा मिलने के कारण अधिक रसीले और खस्ता हैं। विशेषज्ञों के अनुसार हालात बेहद गंभीर हैं और अगर जलवायु परिवर्तन की यही रफ़्तार रही तो अगले तीन चार दशकों में शिमला से सेब हमेशा के लिए विदा हो जाएंगे।
साल 2023-24 के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, वित्त वर्ष 2022-23 में हिमाचल प्रदेश के कुल फल उत्पादन में सेब का हिस्सा लगभग 83% था। यहां लाखों परिवार सेब की खेती से जुड़े हुए हैं।
राज्य में सेब की खेती का रकबा पिछले 70 साल में कई गुना बढ़ा है लेकिन बावजूद इसके प्रदेश में सेब के उत्पादन में कोई खास बढ़ोत्तरी नहीं हुई। आंकड़े इसके गवाह हैं। साल 1950-51 में सेब उत्पादन का क्षेत्रफल सिर्फ 400 हेक्टेयर था, साल 1960-61 तक यह बढ़कर 3,025 हेक्टेयर हो गया और 2008-09 तक सेब खेती का कुल क्षेत्रफल 97,438 हेक्टेयर तक पहुंच गया। साल 2020-21 तक यह बढ़कर 1,14,646 हेक्टेयर हो गया।
साल 2010-11 में 8.92 लाख मीट्रिक टन रिकार्ड सेब का उत्पादन हुआ लेकिन अगले ही साल ये घटकर 2.75 लाख मीट्रिक टन रह गया। बीते साल जहां ज्यादा बारिश के कारण सेब की फसल प्रभावित हुई वहीं इस साल सूखे के कारण सेब में दरारें आ गईं और उत्पादन घट गया।
जलवायु और सेब उत्पादन का रिश्ता
सेब उत्पादन का जलवायु से सीधा रिश्ता है। देश के उत्तरी भाग में हिमालय के निकट ठंडी जलवायु पाई जाती है जो सेब उत्पादन के लिए आदर्शतम स्थिति है। लेकिन इन इलाकों में अब ये आदर्श हालात नहीं रहे। साल 2016 में नौणी-सोलन के डॉ. वाईएस परमार बागवानी एवं वानिकी विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने निरंजन सिंह के नेतृत्व में हुए शोध कार्य में आकलन किया कि तकरीबन 20 साल पहले तक हिमाचल प्रदेश के ऊंचे पहाड़ों में बर्फबारी नियमित तौर पर होती थी, लेकिन पिछले 20 वर्षों में भारी बर्फबारी के केवल 2-3 उदाहरण ही दर्ज किए गए हैं। चौबीस घंटे या उससे कम समय में छह इंच या उससे अधिक बर्फबारी को भारी बर्फ़बारी की श्रेणी में रखा जाता है। शोध में यह भी पाया गया कि वर्ष 1963 से 2007 तक औसत अधिकतम तापमान 0.58 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है, जबकि औसत न्यूनतम तापमान 2.75 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है।
ऊपर शिफ्ट हो रही सेब बेल्ट
सिंह ने मोंगाबे हिंदी से एक खास बातचीत में बताया कि दरअसल समुद्र तल से 1500-2500 मीटर की ऊंचाई पहाड़ों पर बेहतर गुणवत्ता के सेब की पैदावार के लिए 1000-1600 घंटों की ठंडक (चिलिंग ऑवर) होनी चाहिए। लेकिन इन इलाकों में बढ़ते तापमान और अनियमित बर्फबारी के कारण सेब उत्पादक क्षेत्र अब ऊंचाई वाले इलाकों की ओर खिसक रहे हैं। पहले शिमला के ऊंचाई वाले इलाकों में अच्छी गुणवत्ता के सेब की पैदावार के लिए पर्याप्त ठंडक मिल जाया करती थी। लेकिन अब तापमान बढ़ने से ऐसा नहीं हो पा रहा। बर्फबारी न होने से किसानों को दोहरी मुसीबत का सामना करना पड़ रहा है। जिस साल पहाड़ों पर बर्फ नहीं पड़ती उस साल खूब कोहरा पड़ता है जो फसल को नुकसान पहुंचाता है। दूसरी बड़ी समस्या ओलावृष्टि है। अपर शिमला से लेकर कोटगढ़ तक करीब सौ किलोमीटर के दायरे में आपको दूर-दूर तक सेब के बागान सफेद जाल से ढंके हुए मिलेंगे। सेबों को ओले की मार से बचाने के लिए किसानों ने अपने सेब के पेड़ों को महंगे ‘एंटी हेल नेट‘ से ढंक रखा है।
‘फ्लॉवरिंग अबॉर्शन‘ की समस्या
सेब के पौधों में फ्लॉवरिंग के वक्त अधिकतम तापमान 18 से 22 डिग्री सेल्सियस के आसपास होना चाहिए। इससे कम या इससे अधिक तापमान सेब की फ्लावरिंग को प्रभावित करता है। दिलचस्प है कि जलवायु परिवर्तन के कारण हिमाचल प्रदेश इन दोनों तरह की समस्या से जूझ रहा है। किसी साल फ्लॉवरिंग के वक्त तापमान बहुत अधिक बढ़ जाता है तो किसी वर्ष तापमान इतना गिर जाता है कि सारे फूल झड़ जाते हैं।
इसी विश्वद्यिालय के पर्यावरण विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर, हुकुम चंद शर्मा कहते हैं, “सेब के पौधों में फ्लॉवरिंग के वक्त अधिकतम तापमान 18 से 22 डिग्री सेल्सियस के आसपास होना चाहिए। जो जलवायु परिवर्तन के कारण नहीं मिल पा रहा। तापमान आमतौर पर 22 डिग्री से बहुत ज्यादा ऊपर ही रहता है। ऐसे में ‘फ्लॉवरिंग अबार्शन‘ यानी फूलों का एक तरह से गर्भपात हो जाता है। फूल फल में कन्वर्ट नहीं हो पाता। कुल्लू से लेकर कोटगढ़ तक इसका असर देखने में आ रहा है।”
नही के टिक्कर गांव के किसान विकास भलैक सड़क के किनारे उदास और अकेले बैठे अपने पुश्तैनी बाग की रखवाली कर रहे हैं। सड़क के उस पार उनके बागान में किसी पेड़ पर तीन तो किसी पेड़ पर आठ सेब लटके हुए हैं। भलैक कहते हैं कि किसी जमाने ये पेड़ सेबों से लदे रहते थे। इस साल शुरू में फ्लॉवरिंग अच्छी हुई लेकिन अप्रैल में अचानक ठंड बढ़ गई और सारे फूल झड़ गए।
समुद्र तल से 2000 मीटर ऊंचाई पर बसे कोटगढ़ के मंसू गांव के आसपास का इलाका कभी सेब की मिड बेल्ट हुआ करती थी। यहां पौधों को करीब 2000 घंटे चिलिंग ऑवर मिलते थे। लेकिन अब बर्फ न पड़ने से ये गांव इस ऊंचाई पर लोअर बेल्ट की कैटेगरी में आने लगा है। पहले यहां एक सीजन में आठ से दस हजार बॉक्स (27-30 किलो प्रति बॉक्स) सेब होते थे। पर इस साल यहां दो हजार बॉक्स भी सेब नहीं हुआ। मार्च में बेमौसम बारिश और सूखे के कारण सेब का उत्पादन इस साल आधा रह गया। साल 2010-11 में केवल शिमला क्षेत्र में सेब की 6.00 लाख मीट्रिक टन से अधिक की रिकार्ड उपज दर्ज की गई थी लेकिन पिछले पांच सालों में सालाना उपज करीब आधी यानी 3 लाख मीट्रिक टन के आसपास आकर ठहर गई है।
कुल्लू के सेब किसान मनु शर्मा बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन हर साल एक नई आफ़त लेकर आ रहा है। पिछले साल अधिक बारिश और बाढ़ ने सेब की फसल बर्बाद कर दी और इस साल सूखे ने। अच्छे सीजन में डेढ़ करोड़ बॉक्स तक सेब देने वाले कुल्लू में इस साल 63 लाख बॉक्स से ज्यादा की उम्मीद नहीं दिखती।
सेब की नई किस्मों की ओर
चिंलिंग ऑवर तो बढ़ा नहीं सकते ऐसे में किसान सेब की नई किस्मों की ओर रूख कर रहे हैं। अब वे सेब की ऐसी वेराइटी लगा रहे हैं जिन्हें अपेक्षाकृत कम चिलिंग ऑवर की ज़रूरत हो। हिमाचल के किसान परंपरागत रूप से रेड जोन, टाइड मैंन, रेड डिलशियस, रायल डिलशियस, गोल्डन, रेड चीफ जैसी सेब की पुरानी किस्मे उगाते थे। अब किसान पुराने पेड़ हटा कर मौसम के अनुकूल गाला, किंग रॉट स्पर, रेड वोलाक्स जैसी नई किस्में लगा रहे हैं जो केवल 500 से 800 घंटे के चिलिंग ऑवर में फल तैयार कर देते हैं।
शिमला जिले के फागू इलाके के सेब किसान देव सिंह ने कुछ साल पहले तीन बीघा जमीन पर नया बागान लगाया था। इसमें उन्होंने पुरानी किस्म, रायल डिलिशियस के 70 पौधे लगाए थे। इन पेड़ों ने पिछले साल पहली बार फल दिए। लेकिन तीन बीघे के बागान से केवल 35 बॉक्स फल निकले। इस साल उत्पादन इससे भी कम है।
मंडियों में मायूसी
शिमला शहर के भट्ठाकुफर ढली में सेब की सबसे बड़ी मंडी है। किन्नौर से लेकर शिमला तक के सेब किसान यहीं आकर अपने सेब आढ़तियों को बेचते हैं। कृष्ण सूद बड़े और पुराने आढ़ती हैं। वे कहते हैं, “मंडी इतनी ठंडी और उदास कभी नहीं रही। न लोअर बेल्ट में सेब हैं और न मिडिल बेल्ट में। सेब के फूल लोअर बेल्ट में मार्च में खिलते थे। मिडिल बेल्ट में अप्रैल में और अपर बेल्ट में 15 अप्रैल के आसपास। अब क्लाइमेट चेंज के कारण बर्फ दिसंबर, जनवरी के बजाए मार्च, अप्रैल में गिरती है। सारे फूल झड़ जाते हैं। जब पेड़ में फूल ही नहीं रहेंगे तो फल कहां से लगेंगे?”
शिमला में सब्जी एंव फल उत्पादक संघ के अध्यक्ष, हरीश चौहान बताते हैं कि इस साल हिमाचल में सेब का बाजार 2.5 करोड़ बॉक्स में सिमट जाएगा। पिछले साल भी सूखे और ओला वृष्टि के कारण 2.1 करोड़ बॉक्स ही बाजार तक आ पाए थे।
कोटगढ़ के दीपक सिंघा भी स्टोक्स की तरह कोटगढ़ के एक बड़े सेब उत्पादक हैं। मोंगाबे हिंदी से बातचीत में वे कहते हैं, “मैं इसे क्लाइमेट डिस्ट्रक्शन यानी जलवायु विनाश कहता हूं। सर्दियों में वातावरण गर्म हो रहा है। बसंत के मौसम में यहां बर्फ गिर रही है। जबकि फ्रूट सेट होने के लिए पौधों को इस मौसम में 22 डिग्री तापमान चाहिए और इन्हें 5 और 7 डिग्री तापमान मिल रहा है। ये ‘क्लाइमेट डिस्ट्रक्शन’ नहीं तो और क्या है?”
कोई रोड मैप नहीं
सिंघा, जो प्लम ग्रोवर ऐसोसिएशन के अध्यक्ष भी हैं, आगे कहते हैं, “हमें सोचना होगा कि अगले 10 से 20 साल में अगर इसी अनुपात में जलवायु परिवर्तन हुआ तो हमारा रोडमैप क्या होगा। इसके लिए हमें अभी से प्लानिंग करनी होगी। सरकार का रोडमैप क्या है ये किसी को नहीं पता। बीते 100 साल में तापमान में एक डिग्री बढ़ोत्तरी हुई है। अभी जो दुनिया का हाल है और इधर कुछ सालों में जैसी गर्मी बढ़ी है उससे साफ है कि इस सदी में तापमान परिवर्तन की ये रफ्तार बेशक एक डिग्री से बहुत ज्यादा होगी।”
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सिंघा का मानना है कि अगले बीस साल के लिए जलवायु परिर्वतन को ध्यान में रखते हुए एक हाई पॉवर कमेटी बनाई जानी चाहिए जिसमें राज्य सरकार, कृषि विश्वविद्यालय के विशेषज्ञ, हार्टीकल्चर वैज्ञानिक, सिंचाई विभाग के इंजीनियर, मौसम वैज्ञानिक, सेब उत्पादक और पर्यावरणविद आदि शामिल हों। ये कमेटी जलवायु परिवर्तन के बदलते ट्रेंड का व्यापक अध्ययन करे और अपने सुझाव दे। फिर इन सिफ़ारिशों पर गंभीरता से काम हो।
हार्टीकल्चर विभाग से उप-निदेशक के पद से रिटायर हुए देशराज शर्मा ने मोंगाबे हिंदी को बताया कि सेब का उत्पादन बढ़ाने के लिए सरकार ने कुछ विज़न डॉक्यूमेंट ज़रूर तैयार किए हैं लेकिन जलवायु परिवर्तन के नज़रिए से अभी काम शुरू होना बाकी है। बागवानी सचिव सी पॉलरासु ने मोंगाबे हिंदी से कहा, “जलवायु परिर्वतन से हमारे विभाग का कोई सीधा लेना देना नहीं है। लेकिन ऐसा भी नहीं कि इस पर एकदम काम नहीं हो रहा। हम माइक्रो इरिगेशन यानी सूक्ष्म सिंचाईं पर काम कर रहे हैं।”
बहरहाल हालत गंभीर हैं। सेब की खेती को जलवायु परिवर्तन के इस पूरे कुचक्र से बाहर निकालने के लिए केन्द्र व राज्य सरकारों को अगले बीस सालों के लिए सिंचाई प्रबंधन, छाया प्रबंधन, मिट्टी संरक्षण जल संचयन जैसे बिंदुओं पर ठोस रणनीति बनानी होगी। तभी पहाड़ों से सेब को खत्म होने से बचाया जा सकता है।
बैनर तस्वीरः थानाधार के अपने बागीचे में हिमाचल को पहली बार 1916 में सेब का तोहफा देने वाले सत्यानंद स्टोक्स के परपोते विजय स्टोक्स। तस्वीर- मोंगाबे के लिए दयाशंकर शुक्ल सागर।