- नारियल और उसके उत्पादों की खपत में वृद्धि के कारण लैंडफिल साइटों और सड़क के किनारे नारियल के छिलकों का ढेर बढ़ता जा रहा है।
- ठोस अपशिष्ट प्रबंधन विशेषज्ञों का मानना है कि नारियल के छिलकों को उपयोगी उत्पादों में बदलने की तकनीकें मौजूद हैं, लेकिन असल समस्या कूड़े को अलग-अलग न करने की है, इस वजह से कचरे से निपटना मुश्किल हो रहा है।
- नारियल के कचरे को प्रोसेस करने वाली तकनीकों की लागत, जगह की कमी और साथ ही सरकार का कम समर्थन, उद्यमियों को एक ही वस्तु की प्रोसेसिंग में निवेश करने से हतोत्साहित करता है।
उदयवीर सिंह पिछले छह सालों से पंजाब के शहर नांगल में नारियल का स्टॉल चला रहे हैं। कर्नाटक से नारियल की सप्लाई करने वाले एक एजेंट से वह इन्हें खरीदते हैं और हर छह दिन में लगभग 1,200 नारियल बेच देते हैं। सिंह ने कहा, “जब मैंने स्टॉल लगाना शुरू किया था, तब ज्यादातर लोग सिर्फ गर्मियों में नारियल का पानी पीना पसंद करते थे। इसलिए मैं सर्दियों में नारियल की जगह जूस का स्टॉल लगाने लगा। लेकिन पिछले दो सालों से पूरे साल नारियल के पानी की मांग बनी रहती है।” हिमालय की तलहटी में बसे रूपनगर जिले के नांगल शहर में नारियल पानी बेचने वालों के लगभग दस स्टॉल हैं।
ये सभी दुकानें नारियल के छिलकों को, पास के ही एक पेड़ के नीचे इकट्ठा करते हैं और हफ्ते में एक बार, शहर के “जिंदा जीव बे सहारा” चैरिटेबल सोसायटी (जो एक वृद्धाश्रम है) का एक छोटा ट्रक इन छिलकों को ले जाता है। वृद्धाश्रम के संचालक अशोक सचदेवा ने बताया, “हम हफ्ते में लगभग 1.5 मीट्रिक टन कचरा उठाते हैं, जिन्हें दो महीने तक धूप में सुखाया जाता हैं और फिर ईंधन के रूप में इनका इस्तेमाल किया जाता है। छह रुपये प्रति किलो के हिसाब से लकड़ी खरीदना काफी महंगा पड़ जाता है।”
नांगल में नारियल विक्रेता एक हफ्ते तक अपने कचरे को एक जगह इकट्ठा करके रख सकते हैं क्योंकि यहां जगह की कमी नहीं है। लेकिन बड़े शहरों में ऐसा नहीं हो सकता है।
पश्चिम दिल्ली में स्टॉल लगाने वाले अजय राज, हर शाम पास के कूड़े के ढेर पर नारियल के छिलकों को फेंक कर उनसे छुटकारा पा लेते हैं, तो वहीं चेन्नई के गिरि ने बताया कि एक निजी ठेकेदार उनके कचरे को उठाकर एक प्रोसेसिंग फैसिलिटी में ले जाता है। गिरि कहते हैं, “कभी-कभी हमें कचरा उठाने के लिए ठेकेदार को पैसे भी देने पड़ते हैं।”
नारियल का छिलका भले ही बायोडिग्रेडेबल हो, लेकिन यह काफी सख्त होता है और ज्यादा नमी और आकार के कारण इसे सड़ने में काफी समय लगता है। और जिस तरह से शहरी आबादी इस सेहतमंद पेय को अपना रही है, खासकर गर्मियों के दौरान, इसके कचरे से निपटना अपने आप में एक समस्या बन गया है।
वैसे तो नारियल के छिलके से खाद, कागज, सोफे में भरने जैसी कई उपयोगी चीजें बनाई जा सकती हैं, लेकिन मुख्य समस्या कचरे को अलग-अलग न करने की है। कचरा प्रबंधन विशेषज्ञों का मानना है कि नगर निगम को नारियल जैसे विशेष कचरे से निपटने की ओर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है।
चेन्नई के एक गैर-लाभकारी संगठन “नम्मा ऊरु फाउंडेशन” के संस्थापक पी. नटराजन कहते हैं, “कचरे को प्रभावी ढंग से अलग करने के लिए- आम लोगों, कचरा इकट्ठा करने वालों और प्रसंस्करण एजेंसियों – सभी को मिलकर काम करना होगा, लेकिन इस नियम को लागू करने की जिम्मेदारी सरकार की है।”
स्वास्थ्य लाभों वाला ट्रेंडी पेय
नारियल का पानी हमेशा से ही काफी पसंद किया जाता रहा है। लेकिन कोविड-19 महामारी के दौरान लोग अपनी सेहत को लेकर जागरूक हुए और उन्हें शरीर में पानी की कमी को दूर करने के लिए इसके महत्व को समझा। ‘नीरंथारा कोकोनट’ कंपनी की निदेशक स्वेता संदेश ने बताया, “उत्तर भारतीय राज्यों में पहले इसे ज्यादा पसंद नहीं किया जाता था, लेकिन अब ये यहां भी काफी लोकप्रिय है। कर्नाटक के लगभग आधे नारियल दूसरे राज्यों में भेजे जाते हैं। मेरे पास ऐसे ग्राहक भी हैं जो कीटो डाइट पर हैं और रोजाना दिन में दो बार नारियल का पानी जरूर पीते है।” ‘नीरंथारा कोकोनट’ नारियल पानी, कच्चा नारियल और नारियल से बनी आइसक्रीम जैसे पैकेज्ड उत्पाद बेचती है।
संदेश के मुताबिक, शहरों में लोग एक नारियल के लिए 80 से 90 रुपये खर्च कर रहे हैं। उन्होंने कहा, “वे चाहते है कि उन्हें ये घर बैठे आराम से मिल जाए, इसलिए होम डिलीवरी भी बढ़ गई है। पैकेज्ड टेंडर नारियल पानी वाली कंपनियां अच्छा कारोबार कर रही हैं।”
केरल की डॉक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता अरथि रंजीत ने बताया, “अगर आप पांच-छह साल पहले केरल जाते, तो आपको वहां नारियल पानी, नारियल आइसक्रीम और इसके अन्य उत्पादों का कोई ट्रेंड नजर नहीं आता। हमें कुछ विक्रेताओं ने बताया कि आज इन उत्पादों के लिए नारियल तमिलनाडु से लाया जाता है, जबकि यहां लगभग सभी घरों में नारियल के पेड़ लगे हुए हैं। नारियल तेल बहुत महंगा है, इसलिए हम अपने नारियल को खाने से ज्यादा उसका तेल निकालना पसंद करते हैं।”
नारियल पानी में इलेक्ट्रोलाइट्स का संतुलन मानव रक्त के समान होता है। इसमें शर्करा, खनिज और पोटेशियम के अलावा नाइट्रोजन युक्त पदार्थ भी होते हैं। इसलिए, यह रक्त की मात्रा को बनाए रखने, हृदय स्वास्थ्य में सुधार करने, डिहाइड्रेशन और तनाव को रोकने में मदद करता है।
भारत दुनिया के तीन सबसे बड़े नारियल उत्पादक देशों में से एक है। इंडोनेशिया और फिलीपींस भी इस लिस्ट में सबसे ऊपर बने हुए हैं। 2021-22 में, भारत का 19,000 मिलियन से अधिक नारियल के वार्षिक उत्पादन के साथ दुनिया के कुल नारियल उत्पादन में 31.45% हिस्सेदारी थी। भले ही इंडोनेशिया और फिलीपींस में नारियल की खेती का क्षेत्रफल ज्यादा हो, लेकिन भारत प्रति हेक्टेयर 9,123 नारियल उत्पादन के साथ इन दोनों देशों से आगे बना हुआ है। इन दोनों देशों का प्रति हेक्टेयर उत्पादन लगभग 4000 नारियल है। भारत के 17 राज्यों में नारियल के बागान हैं, लेकिन 90% उत्पादन केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में होता है। कर्नाटक 30.83% उत्पादन के साथ सबसे बड़ा उत्पादक है। बेंगलुरु और मैसूर के बीच मांड्या जिले में स्थित मड्डूर भारत के कच्चे नारियल का सबसे बड़ा थोक बाजार है।
नारियल के कचरे की प्रोसेसिंग
नारियल का सिर्फ 20 फीसदी हिस्सा खाने लायक होता है, इसलिए बाकी का हिस्सा फेंक दिया जाता है। आंध्र प्रदेश के विशाखापट्टनम में विजाग बायोएनर्जी प्राइवेट लिमिटेड कंपनी जैविक कचरे से कंप्रेस बायोगैस (सीबीजी) बनाती है। इसके संस्थापक राजा ने कहा, “हमें लैंडफिल साइट पर जमीन आवंटित की गई थी। जब हमने काम शुरू किया, तो हमे सबसे ज्यादा कचरा नारियल के छिलकों का मिला। अगर नारियल के रंग को छोड़ दिया जाए, तो यह कचरा हमें पूरी तरह वैसे का वैसा ही मिल रहा है।” सीबीजी प्लांट अपनी प्रक्रिया के पहले चरण में नारियल के छिलके को अलग करने का काम करता है।
कुछ शहरों में, जहां नगर निगम घर-घर जाकर कचरा इकट्ठा करने का काम निजी कंपनियों को सौंप देते हैं, वहां वजन के आधार पर कचरे को लैंडफिल तक ले जाने के लिए टिपिंग शुल्क तय किया जाता है। चेन्नई के एक ठोस अपशिष्ट प्रबंधन (एसडब्ल्यूएम) विशेषज्ञ ने नाम न बताने की शर्त पर कहा, “ठेकेदार सिर्फ नारियल का कचरा उठाते हैं क्योंकि यह भारी होता है और बाकी का कचरा वहीं छोड़ देते हैं। यही कारण है कि जो शहर अब अपने लीजेंडरी वेस्ट (पुराने कचरे) से निपटने के लिए काम कर रहे हैं, उन्हें वहां बहुत ज्यादा कच्चे नारियल का कचरा मिल रहा है।”
बृहत बेंगलुरु महानगर पालिका (BBMP) की एक शाखा ‘बेंगलुरु एसडब्ल्यूएम’ लिमिटेड के एक अधिकारी ने बताया कि बेंगलुरु में हर दिन 200-300 मीट्रिक टन नारियल का कचरा निकलता है। शहर में दो नारियल अपशिष्ट प्रसंस्करण सुविधाएं हैं जो हर दिन लगभग 30-40 टन (TPD) कचरा प्रोसेस करती हैं। BBMP सार्वजनिक-निजी भागीदारी के आधार पर 100 टन क्षमता की एक और बड़ी फैसिलिटी बनाने पर विचार कर रही है।
अधिकारी ने कहा, “आस-पास के गांवों के किसान हर दिन करीब 150-200 ट्रैक्टरों में नारियल के छिलकों को ले जाते हैं। वह इसे खाना पकाने के ईंधन के रूप में इस्तेमाल करते हैं। अनौपचारिक तौर पर, नारियल के कचरे को बीबीएमपी की अपशिष्ट प्रबंधन प्रणाली तक पहुंचने से पहले ही दूसरी जगह भेज दिया जाता है।”
नारियल के छिलके की प्रोसेसिंग करने वाली फैसिलिटी फाइबर से गूदे को अलग करती हैं। पहले चरण में छिलके को छोटे-छोटे टुकड़ों में तोड़ा जाता है, फिर उसे बारीक पाउडर में बदल दिया जाता है। इसके बाद, एक छलनी से रेशे और गूदे को अलग किया जाता है। इस पूरी प्रक्रिया में, नारियल के सख्त छिलकों को काटने के लिए एक भारी मोटर की जरूरत होती है। गूदा से बने पाउडर से कोको-पीट, अगरबत्ती और ब्रिकेट बनाए जाते हैं। केरल के कॉयर इंडस्ट्री में बड़े पैमाने पर पके हुए नारियल के रेशे का इस्तेमाल किया जाता है।
रेड्डी के अनुसार, अपनी फैसिलिटी की क्षमता को देखते हुए, वे मुख्य रूप से कच्चा माल (जैसे गूदा और फाइबर) तैयार करते हैं और फिर इसे अन्य निर्माताओं के पास भेज देते हैं। वो इससे कई तरह के उत्पाद बनाते हैं। गूदा ज्यादातर खाद बनाने वाले प्लांट्स को भेजा जाता है।
इसी तरह, अलग-अलग शहरों में नारियल के छिलके को प्रोसेस करने के लिए अलग-अलग तरीके हैं। मुंबई में, नगर निगम विक्रेताओं से सीधे छिलके नहीं लेता है। इसलिए, विक्रेता या तो इसे उठाने के लिए पैसे देते हैं या प्रोसेसर से जुड़ जाते हैं। हालांकि, प्रोसेसर भी दूर-दराज के इलाके से नारियल के कचरे को लाने से पहले दो बार सोचते हैं, क्योंकि परिवहन की लागत उनके मुनाफे को कम कर देती है। चेन्नई में, या तो प्रोसेसर इसे पैसे देकर ले जाते हैं या सड़क किनारे फेंका हुआ कचरा, नगर निगम के कर्मचारी उठाकर रीसाइक्लिंग फैसिलिटी तक पहुंचाते है, जहां रीसाइकलर इसे ले जाते हैं।
दिल्ली के एक गैर-लाभकारी संगठन, चिंतन एनवायरनमेंटल रिसर्च एंड एक्शन ग्रुप की कोऑर्डिनेटर कल्याणी परांजपे ने कहा, “नारियल का छिलका तभी उपयोगी होता है जब इसे अलग से रखा जाए।” यह संगठन महिला स्व-सहायता समूहों को “मैजिक मिट्टी” ब्रांड के अंतर्गत नारियल के छिलके को अन्य बायोडिग्रेडेबल सामग्री के साथ मिलाकर खाद बनाने में मदद करता है। परांजपे ने बताया, “हम अपनी कंपोस्ट पिट में सबसे नीचे नारियल के छिलके की एक परत डालते हैं। यह नमी से भरपूर होता है और खाद के ढेर को एरिएशन और स्ट्रक्चर प्रदान करता है। लेकिन ऐसे लोगों को ढूंढना मुश्किल है जो अपना नारियल का छिलका हमें सीधे दें। लोग ज्यादा मेहनत नहीं करना चाहते, वो इसे बाकी कचरे के साथ फेंकना ज्यादा पसंद करते हैं। और एक बार जब यह कचरा लैंडफिल तक पहुंच जाए, तो बेकार हो जाता है क्योंकि वह बायो मेडिकल कचरे से दूषित हो जाता है। हर जगह लैंडफिल कचरे से भरे हुए हैं, और नारियल के छिलके वहां जगह घेर रहे हैं, जिससे उत्सर्जन होता है। अगर नारियल को स्रोत से सीधे उठा लिया जाए, तो लैंडफिल तक की यह पूरी यात्रा रोकी जा सकती है और छिलके का बेहतर उपयोग किया जा सकता है।”
समाधान बढ़ाने की जरूरत
कच्चे नारियल के छिलके में काफी फाइबर होता है। इसमें लिग्निन (30-42%) और सेल्यूलोज (54-65%) के साथ-साथ टैनिन और पोटेशियम भी है। ईंधन के रूप में इस्तेमाल करने के लिए कच्चे नारियल की भूसी को सुखाने में छह महीने लग जाते हैं। लेकिन मध्यम और बड़े शहरों में अन्य तकनीकी समाधान भी सामने आए हैं।
लघु, मध्यम और सूक्ष्म उद्यम मंत्रालय के तहत भारतीय कॉयर बोर्ड ने कच्चे नारियल की कचरे से लिग्निन और सेल्यूलोज को अलग करने में सफलता पाई है। केरल के सेंट्रल कॉयर रिसर्च इंस्टीट्यूट के वरिष्ठ वैज्ञानिक अधिकारी एस राधाकृष्णन ने मोंगाबे-इंडिया को बताया, “लिग्निन को लिग्नोसल्फोनेट में बदला जा सकता है। अभी हम इसे जर्मनी और चीन से आयात कर रहे हैं। सेल्यूलोज का उपयोग बायोमेडिकल उत्पाद जैसे ड्रेसिंग, स्कैफोल्ड और डायपर आदि में किया जा सकता है। तो वहीं, सोडियम लिग्नोसल्फोनेट को लेड-एसिड बैटरी में, तेल के कुओं में ड्रिलिंग के लिए मिट्टी को पतला करने वाले तरल पदार्थ में, सड़कों बनाने के दौरान बाइंडिंग एजेंट के रूप में, पशु आहार की प्रिप्रिएशन में, सीमेंट के निर्माण में फैलाव एजेंट के रूप में और एंटी-केकिंग और टैनिंग एजेंट के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है।
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राधाकृष्णन ने कहा, “इससे कागज, रूम फ्रेशनर, डिस्पोजेबल क्रॉकरी, अगरबत्ती और एक्टिव चारकोल बनाया जा सकता है। कच्चे नारियल के छिलके की खाद 60-90 दिनों में तैयार हो जाती है जबकि सामान्य कॉयर पिथ यानी गूदे की खाद 30 दिनों में बनकर तैयार हो जाती है। कोयर बोर्ड ने ये सभी तकनीकें विकसित कर ली हैं और हम इसकी जानकारी अपने सेमिनार और प्रदर्शनियों में देते रहते हैं ताकि उद्यमी व्यावसायिक रूप से इसे अपनाना शुरू कर दें।”
अध्ययनों में कहा गया है कि नारियल के गूदे में प्राकृतिक रूप से उपलब्ध रसायन इसे गर्म करके बाइंडर-रहित कण में बदलने की अनुमति देते हैं जिसका उपयोग लकड़ी के विकल्प के रूप में और ब्रिकेट के रूप में भी किया जा सकता है। इनमें राख की मात्रा कम होती है, गंध नहीं होती और इन्हें ले जाना आसान होता है।
हालांकि, बिजली के अधिक खर्चों के कारण इन तकनीकों को जमीनी तौर पर अपनाने वाले लोग कम ही हैं। रेड्डी ने कहा, “यहां तक कि नारियल के छिलके को पीसकर इथेनॉल भी निकाला जा सकता है, लेकिन इन सभी तकनीकों के लिए बड़ी रकम की जरूरत होती है।” कर्नाटक के तुमकुर में अरस्ता इको प्राइवेट लिमिटेड के मालिक एम. शंकर बताते हैं, “मुझे एक भी ऐसा मॉडल नहीं मिला है जहां नारियल से सफलतापूर्वक निपटा गया हो। पांच साल पहले, गोवा स्थित बायोगैस संयंत्र ने हमसे संपर्क किया और पूछा कि क्या हमारे पास कोई समाधान है क्योंकि उनके पास नारियल के कचरे का बहुत बड़ा ढेर इकट्ठा हो गया है।” उनकी ये कंपनी पके हुए नारियल के छिलके और खोल से बायोचार और बायोकार्बन बनाती है। वह आगे कहते हैं, “नारियल के साथ चुनौती इसकी उच्च नमी सामग्री है। इसे सुखाने के लिए बहुत अधिक ऊर्जा लगती है, जिससे यह आर्थिक रूप से अव्यावहारिक है। बहुत से लोग एक ही उत्पाद के लिए इतना निवेश करने में रुचि नहीं रखते हैं।”
स्वेता संदेश ने अपनी कंपनी के बचे हुए नारियल के छिलके को डिस्पोजेबल बर्तन में बदलने के लिए फाइबरवेयर स्थापित किया है। संदेश ने कहा, “हम छिलके को गूदे और फाइबर में अलग करते हैं और फिर बर्तन बनाने के लिए फाइबर को एक खाने योग्य बांधने वाले पदार्थ के साथ थर्मो-प्रेस करते हैं। हम अभी शुरुआती चरण में हैं, इसलिए छोटा पैमाने पर काम कर रहे हैं, जिसकी उत्पादन लागत काफी ज्यादा है। पूरी तरह से ऑटोमेटिक मशीनरी और बड़े पैमाने पर उत्पादन के साथ, जल्द ही हम सुपारी के पत्तों से भी बर्तन बनाएंगे।”
संदेश ने बताया कि नारियल के फाइबर से बनी प्लेट की कीमत अभी 20 रुपये है जबकि सुपारी के पत्तों से बनी प्लेट की कीमत 10 रुपये है। उन्होंने कहा, “हमारी बिजली की लागत 10-12 रुपये प्रति किलोग्राम है। भले ही हम उन्हें धूप में सुखा सकते हैं, लेकिन हमें मशीनों का भी इस्तेमाल करना पड़ता है जो बिजली से चलती है।” रेड्डी के अनुसार, नारियल के छिलके को हटाने के लिए जरूरी हाई-पावर्ड मशीनों के लिए उनकी फैसिलिटी की बिजली की लागत ही सालाना 45 लाख रुपये होगी। “मैं किराए की जगह पर ये कनेक्शन नहीं ले सकता हूं।”
नारियल के छिलके को संसाधित करने के लिए नई तकनीकों को बड़े पैमाने पर लागू करने में देरी हो रही है क्योंकि इन्हें बहुत ज्यादा ऊर्जा की जरूरत होती है। नम्मा ऊरु फाउंडेशन के नटराजन कहते हैं कि कई छोटे-छोटे खाद बनाने वाले केंद्र स्थापित करने से यह समस्या हल हो सकती है। नटराजन ने बताया, “बड़े पैमाने पर नारियल के छिलके को प्रोसेस करने के लिए जगह की जरूरत होती है और शहरों में हमेशा से ही जगह की कमी रही है। हमारी फैसिलिटी हर दिन 100-200 नारियल के छिलके इकट्ठा करती है और उसे सूखे पत्तों और गन्ने के अवशेषों के साथ मिलाकर खाद के लिए भूरे रंग के पदार्थ में बदल देती है। यह भूरा पदार्थ कार्बन से भरपूर होता है और जब इसे अन्य नाइट्रोजन से भरपूर कार्बनिक कचरे से मिलाया जाता है, तो यह गुणवत्ता वाली खाद बन जाती है। कई किसान हमसे केवल भूरा पदार्थ खरीदते हैं क्योंकि रेशे पानी को जमा करते हैं और मिट्टी को खरपतवार से बचाते हैं।”
यह खबर मोंगाबे-इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 3 मई 2024 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: पंजाब के नांगल में सड़क किनारे इकट्ठा हुआ नारियल का कचरा। तस्वीर- रवलीन कौर