- नेपाल में हुई भारी बारिश के बाद बिहार में बाढ़ आई, जिससे सबसे अधिक प्रभावित तटबंध के बीच बसे गांव हुए हैं।इस बाढ़ का सबसे बुरा असर कोसी पर बनाए गए पूर्वी व पश्चिमी तटबंधों के अंदर नदी की धारा के बीच रहने वाले लोगों पर हुआ है।
- एक आकलन के अनुसार, 2001 की जनगणना के आधार पर कोसी तटबंध के बीच करीब 10 लाख लोग रह रहे थे। बिहार के चार जिले सुपौल, सहरसा, दरभंगा व मधुबनी के इलाके इसके अंदर आते हैं।
- लोगों की शिकायत है कि तटबंध व अन्य संरचनात्मक निर्माण के कारण कोसी नदी की चौड़ाई कम हो गई है और नेपाल के पहाड़ों से आने वाली गाद के कारण नदी का तल ऊंचा हो गया है, जिससे बाढ़ का खतरा बढ़ गया है और पिछले डेढ़ दशक में उनकी खेती को सबसे अधिक नुकसान हुआ है।
- तटबंध के बीच टापूनुमा आकृति पर बसे गांवों के लोग डूब व कटाव के कारण विस्थापित होते हैं। सामान्यतः यह विस्थापन 300-400 मीटर से दो से तीन किमी तक के दायरे में देखने को मिलता है। इस जलवायु विस्थापन से सबसे अधिक महिलाएं और बच्चे प्रभावित होते हैं।
सितंबर 2024 के आखिरी दिनों में नेपाल व बिहार के कई हिस्सों में हुई भारी बारिश के बाद बिहार के कोसी क्षेत्र में दशकों बाद एक प्रलंयकारी बाढ़ आई। इस बाढ़ का असर एक सप्ताह बाद अब भी कोसी के इलाके में महसूस किया जा सकता है। इस बाढ़ का सबसे बुरा असर कोसी पर बनाए गए पूर्वी व पश्चिमी तटबंधों के अंदर नदी की धारा के बीच रहने वाले लोगों पर हुआ है। दोनों तटबंधों के बीच रहने वाले हजारों परिवारों की फसल, पशु चारा, और खाद्यान्न को इस बाढ़ ने बर्बाद कर दिया और उन्हें मानसिक व शारीरिक रूप से तोड़ दिया।
अपनी बाढ़ और वेग के लिए जाने जानी वाली कोसी नदी इस क्षेत्र में कई शाखाओं में विभाजित हो जाती है और तेजी से अपना प्रवाह बदलती रहती है। इसी वजह से कोसी के इलाकों में बाढ़ की तीव्रता और इसकी दिशा का आकलन कर पाना बहुत मुश्किल होता है। नदी के विभाजन से इन इलाकों में कई टापू बन जाते हैं जिन्हें स्थानीय भाषा में ‘छींट’ कहा जाता है। कोसी के बीच जगह–जगह ऐसे भूभाग दिखते हैं जिन पर लोग कच्चे मकान बनाकर रहते हैं। छींट पर कटाव होने की स्थिति में लोग उसी छींट के दूसरे हिस्से पर या फिर दूसरी छींट पर जाकर बस जाते हैं। कोसी में छींट पर लगभग 300 गांव बसे हुए हैं और यहां रहने वाले परिवार जलवायु विस्थापित की तरह हर बार अपना ठिकाना डूब के साथ बदलने को मजबूर हो जाते हैं।
सुपौल जिले के बेलागोठ गांव की ऐसी ही एक छींट पर रहने वाली 55 वर्षीया सुभद्रा देवी ने अपने रूंधे गले से मोंगाबे हिंदी को बताया की किस तरह इस बाढ़ ने उन्हें और उनके परिवार को बुरी तरह झकझोर दिया है। उनकी जो थोड़ी बहुत खेती की जमीन है, वह नदी में समा गई है, उन्होंने बताया। सुभद्रा देवी के छः लोगों के परिवार में उनके पति विष्णु मंडल हैं जो खेती का थोड़ा बहुत काम करते हैं। इस दंपती के चार बेटे हैं, जिसमें तीन बड़े बेटे प्रवासी मजदूर के रूप में बाहर काम करते हैं, और सबसे छोटा बेटा राहुल (14) नौंवी कक्षा में है।
सुभद्रा देवी का गांव बेलागोठ, छींट के जिस हिस्से में बसा था, वह भूभाग कोसी के पानी में समा गया। ऐसे में वे और उनका परिवार उसी छींट पर बसे दूसरे घरों में शरण लेने को मजबूर हैं। कोसी की छींटों पर लोगों के घर कच्ची मिट्टी, टाट, प्लास्टिक की चटों के बने होते हैं और वे आकार में इतने छोटे हैं कि एक घर में अधिक लोग एक साथ नहीं रह सकते। ऐसे में सुभद्रा देवी ने बेलागोठ गांव के रामलखन मंडल के घर के सामने के कच्ची मिट्टी के बरामदे में अपने टीन के बक्से व कुछ अन्य सामान के साथ शरण ली हुई है, वहीं उनके पति विष्णु मंडल गांव के ही रामाधीन मुखिया के घर में शरण लिए हुए हैं।
सुभद्रा देवी ऐसी अकेली महिला नहीं हैं, जिनका परिवार बार–बार के कटाव से ठिकाना बदलने को मजबूर हुआ है। इसी गांव की चंद्रमा देवी (42) कहती हैं, “मेरा घर पहले वार्ड छह में था, वहां भी कट गया फिर वार्ड सात में गए वहां भी कटाव का सामना करना पड़ा।” चंद्रमा देवी के पति विनोद मंडल (46 वर्ष) पंजाब में कृषि मजदूर के रूप में काम करते हैं और इस दंपती के तीन बच्चे हैं। वे कहती हैं कि इस बार की बाढ़ में उनका चार ड्रम गेहूं पानी में बह गया।
कोसी के तटबंधों के बीच बसे गांवों में कटाव से होने वाले विस्थापन के ऐसे सैकड़ों किस्से हैं और इससे लगभग हर तबका प्रभावित है, लेकिन सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर तबके अधिक प्रभावित होते हैं।
मुसहर जाति से आने वाली 55 वर्षीया रुक्मिणी देवी ने मोंगाबे हिंदी से बातचीत में कहा, “हम मुंगरार गांव में रहते थे, लेकिन तीन साल पहले कोसी के कटाव में हमारा घर नदी में समा गया तो हम निर्मली छींट पर रहने चले गये। दोनों के बीच अनुमानतः ढाई किमी की दूरी है।” रुक्मिणी देवी के पति गोनर सदा (60) मजदूरी करते हैं और बताते हैं, “इस बार बाढ़ से हमारे घर में गड्ढा हो गया है और ड्रम में रखे अनाज में पानी घुस जाने से वह सड़ गया है।” इस दंपती के तीन बेटे व दो बेटियां हैं, बेटे मजूदरी करते हैं।
बिहार के सुपौल जिले में कोसी नदी के बीच स्थित ऐसे गांवों व क्षेत्र के दौरे के क्रम में कई परिवारों व लोगों ने डूब के चलते अपने बार–बार के विस्थापन की बात बताई। कुछ परिवार जो पिछले कुछ सालों से स्थायी ठिकानों में रह रहे हैं, डूब को लेकर आशंकित हैं और उनके लिए यह अनुमान लगा पाना मुश्किल है कि कब तक उनके घर और गांव का अस्तित्व रहेगा।

तटबंध के पास और तटबंध के अंदर के हालातों में अंतर
कोसी में आयी बाढ़ के बाद सरकार की तरफ से बचाव कार्य किए जा रहे हैं जिसमें राशन और पीने के पानी का वितरण और मेडिकल कैंप शामिल हैं। लेकिन तटबंधों पर या इनके आसपास के इलाकों की स्थिति से तटबंध से दूर के गांवों की स्थिति में काफी अंतर है।
सुपौल के जिलाधिकारी कौशल किशोर के द्वारा जारी किए गए आंकड़े के मुताबिक इस साल जिले के पांच प्रखंड की 33 पंचायत के 264 वार्ड बाढ़ से प्रभावित हुए हैं।
बेलागोठ गांव सुपौल जिले के किशनपुर ब्लॉक की दुबियाही पंचायत में स्थित है। नदी की धार की तीव्रता की वजह से सुपौल शहर से नजदीक स्थित मुंगरार घाट से करीब चार किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस गांव में नाव से पहुंचने में करीब दो घंटे का वक्त लगा। इस गांव में कोई ऐसा परिवार व घर नहीं है जो बाढ़ से प्रभावित नहीं हुआ हो। अक्टूबर के पहले सप्ताह में किए गए दौरे में मोंगाबे हिंदी ने कहीं भी सरकारी राहत कार्य या मेडिकल कैंप नहीं पाया। जबकि, तटबंध पर या उसके आसपास के इलाके में जगह–जगह मेडिकल कैंप, राहत शिविर और पेयजल वितरण की व्यवस्था नजर आयी।
आसपास के शहर, कस्बों व सड़क मार्ग से कटे होने की वजह से इन इलाकों में सक्रिय राहत कार्य की गैर मौजूदगी यह अहसास कराती है कि इस प्रलंयकारी बाढ़ के समय में भी प्रशासन व सरकार के द्वारा इनकी अनदेखी की जाती है। ग्रामीणों के अनुसार, बाढ़ राहत के तहत उन्हें अभीतक दो किलो चूड़ा व प्लास्टिक की एक चटाई दी गई है।
ऐसे में गांव में कई लोग मिट्टी मिले गेहूं को सुखाते नजर आए तो कई लोग घर में जमा कीचड़ के सूखने का इंतजार करते नजर आए ताकि जिंदगी पटरी पर लौट सके। लोगों ने गीले हो जाने की वजह से गीले व जमे चावल के बड़े–बड़े धेले दिखाये जो अब खाने लायक नहीं रहा। पशुओं का चारा बह जाने की वजह से लोगों को पशुओं को खिलाने में भी दिक्कत हो रही है।

बाढ़ प्रभावित क्षेत्र में चार-पांच के समूह में लोग अपने पशुओं को खोजते दिखे। ऐसे ही एक समूह के 29 वर्षीय राम नारायण ने बताया, “बाढ़ का पानी उतरने के बाद से हम अपनी भैंस को ढूंढ रहे हैं।” सरायगढ़ भपटियारी ब्लॉक के बननिया गांव के रहने वाले राम नारायण ने बताया कि एक दिन में वे 25 से 30 किमी की दूरी अपने पशुओं को ढूंढने में तय करते हैं और रात होने पर पास के गांव में किसी के घर में शरण ले लेते हैं।
मोंगाबे हिंदी ने पाया कि इस आपदा के दौरान बिहार सरकार की ओर से एसडीआरएफ की टीम व उसकी बोट जिन इलाकों में तैनात की गई हैं, वे शहरी इलाकों के पास के हैं। अंदर के इलाके में ऐसी कोई व्यवस्था नजर नहीं आयी। भले ही ऐसे इलाकों में कुछ जन संगठन व जन सहयोग से राहत कार्य चला रहे हैं।
बाढ़ के कारण गांव में पीने के पानी की भी दिक्कत है। चापानल (हैंडपंप) पानी में डूब गए हैं और उनसे पानी निकालना भी मुश्किल है। पानी निकलने पर भी उसमें कीचड़ वाला पानी आता है जो पीने लायक नहीं है। बाढ़ के बाद कई महिलाओं ने स्वास्थ्य परेशानियों का जिक्र किया। एक बुजुर्ग महिला कुंती देवी ने कहा कि बाढ़ के समय दो दिन खाना और पानी नहीं मिला और प्यास लगने पर उन्होंने गंदा पानी पी लिया था, जिससे वे अभी भी बीमार हैं। बेलागोठ गांव के बुजुर्ग राजेंद्र मंडल 1968 की बाढ़ को याद करते हुए बताते हैं कि उसके बाद इस बार की बाढ़ सबसे तीव्र है।
राजेश मंडल (32) कहते हैं, “2008 के बाद पांच से छह महीने तक यहां पानी ज्यादा रहता है। इससे हमारी खेती का पैटर्न बदल गया है और हम सिर्फ गेहूं की फसल ही ठीक से उपजा पाते हैं, यहां तक की रबी की दूसरी प्रमुख फसल मूंग की भी खेती नहीं कर पाते।” वे कहते हैं कि अब यहां अप्रैल से अक्टूबर तक पूरा पानी रहता है। “हम लोगों ने 2008 की बाढ़ के बाद धान की फसल नहीं की है, पहले यहां धान की रोपाई कम छिंटाई ज्यादा होती थी और धान मात्र छींट देने पर उसकी फसल हो जाती थी,” राजेश बताते हैं।
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राजेश कहते हैं कि पहले नदी के बेड की चौड़ाई 28 किमी थी, जब से सरकार ने दोनों ओर बांध बना दिया है तब से यह आठ से नौ किमी तक रह गई है, उस पर इसमें भारी मात्रा में गाद भी भर गया है जिससे दिक्कतें बढी हैं।
कोसी तटबंध के बीच के गांव और पुनर्वास का उलझा मसला
कोसी नदी पर पिछले चार दशकों से अधिक समय से काम कर रहे बाढ़ मुक्ति अभियान के संयोजक दिनेश मिश्रा ने अपनी पुस्तक “न घर न घाट” में 2001 की जनगणना के आधार पर कोसी तटबंध के बीच 380 गांवों के फंसे होने का उल्लेख किया है। इसमें सुपौल जिले के छह प्रखंड के 162 गांव, सहरसा जिले के चार प्रखंड के 134 गांव, दरभंगा जिले के एक प्रखंड (कीरतपुर) के नौ गांव, मधुबनी जिले के तीन प्रखंड के 73 गांव का जिक्र किया है। 2001 की जनगणना के आधार पर इन गांवों में 9.87 लाख आबादी होने का उल्लेख है।
इस संबंध में दिनेश मिश्र ने मोंगाबे हिंदी से बातचीत में कहा, “तटबंध बनने के समय सरकार ने 304 गांवों की सूची जारी की थी जो इसके अंदर आते थे, लेकिन जब 2004 में मैंने किताब लिखने के लिए कोसी पुनर्वास के दफ्तर से सूची मांगी तो मुझे 285 गांवों की सूची दी गई, जबकि बाद में पूर्वी तटबंध की लंबाई को और आगे बढाया गया, जिससे उसके दायरे में और गांव आये, इससे गांव की संख्या बढ़ी। तटबंध के भीतर नेपाल के भी 34 गांव आते हैं।” उनके अनुसार, कुछ साधन संपन्न और होशियार लोग ही तटबंध से बाहर निकल पाये, अगर जनसंख्या वृद्धि दर के हिसाब से देखें तो यह संख्या अब बढी हुई आएगी, इनमें अधिकतर परिवार प्रवासी मजदूर के रूप में काम करते हैं।

कोसी नवनिर्माण मंच के संस्थापक महेंद्र यादव कहते हैं, “कोसी तटबंध के भीतर के लोगों को सरकार आम इंसान नहीं मानती है और बिहार के मुख्य सत्ताधारी दल जनता दल यूनाइटेड (जदयू) के कार्यकारी अध्यक्ष व पूर्व जल संसाधन मंत्री संजय झा को अपने उस बयान के लिए कोसी को लोगों से माफी मांगनी चाहिए, जिसमें उन्होंने कहा है कि तटबंध के भीतर लोग क्यों रहते हैं।”
महेंद्र यादव कहते हैं, “तटबंध के भीतर के लोगों का समुचित पुनर्वास नहीं हुआ और उनकी जमीन व आजीविका छीन ली गई। 30 जनवरी 1987 को कोसी विकास प्राधिकरण बनाया गया, लेकिन कोई काम नहीं हुआ। अगर प्राधिकरण काम करता तो लोगों का उचित पुनर्वास होता।”
“हमारी मांग है कि पीड़ितों का पुनर्वास हो और उसके लिए सर्वे कराया जाए, नहीं तो वे हर साल पीड़ा में रहेंगे, कोसी विकास प्रधिकार को लागू किया जाए, पीड़ितों के खेत नदी में चले गए हैं, उसे सरकार लगान से मुक्त करे और कोसी को उसकी पुरानी धारा में बहने दे। बाढ़ की समस्या को और बैराज बनाकर हल नहीं किया जा सकता है,” महेंद्र यादव कहते हैं। उल्लेखनीय है कि बिहार में बाढ़ से बचाव के लिए नये बैराज बनाने व तटबंधों को और ऊंचा व मजबूत करने की बात कही जा रही है।
बैनर तस्वीरः कोसी के तेज कटाव का दृश्य और पानी की तेज धार के बीच नाव को किनारे लगाने की कोशिश करते ग्रामीण राजेश मंडल। तस्वीर- राहुल सिंह/मोंगाबे