- महाराष्ट्र के नान्नज के खंडित घास के मैदानों में ग्रेट इंडियन बस्टर्ड, रेड-नेक्ड फाल्कन और ग्रेट ग्रे श्राक जैसे विशेष पक्षियों की संख्या में भारी गिरावट देखी जा रही है।
- ग्रेट इंडियन बस्टर्ड जो पहले एक खास मौसम में ही दिखाई देता था, अब लगभग पूरे साल नजर नहीं आता है। यह न सिर्फ स्थानीय रूप से विलुप्त हो चुका है बल्कि इनकी संख्या पूरे भारत में तेजी से कम हो रही है।
- अत्यधिक चराई, घास के मैदानों के लिए सुरक्षा की कमी, शहरी विकास, कृषि विस्तार और नवीकरणीय ऊर्जा के कारण इनके आवास का नुकसान हो रहा है।
- महाराष्ट्र और कर्नाटक में घास के मैदानों के लिए संरक्षण में पशुपालकों को शामिल करते हुए समुदाय आधारित प्रबंधन करने की जिम्मेदारी सलाह दी जा रही है।
महाराष्ट्र के नान्नज के घास के मैदान, पेड़ों से भरे छोटे-छोटे जंगलों, मानव बस्तियों, निजी और सार्वजनिक चरागाह भूमि और कृषि क्षेत्रों से घिरे हुए हैं। ग्रेट इंडियन बस्टर्ड अभयारण्य भी यहीं स्थित है। पिछले कुछ सालों से इन घास के मैदानों के परिदृश्यों में बदलाव दिख रहा है और इसका असर यहां के पक्षियों पर भी पड़ा है।
सोलापुर जिले के नान्नज के पांच गांवों (वाडाला, अकोलेकाटी, करंबा, मार्डी और नरोटेवाडी) में 13 साल (2009-2021) तक पक्षियों की प्रजातियों में हुए बदलावों का अध्ययन किया गया। हालांकि, नागरिक विज्ञान ऐप ‘ईबर्ड’ ने नन्नाज में 199 प्रजातियों को दर्ज किया है, लेकिन इस अध्ययन में 45 प्रजातियों की निगरानी की गई, जिनमें से सात प्रवासी थीं। इसमें पाया गया कि छोटे शरीर वाले पक्षी जो कई तरह के भोजन खाते थे (कई प्रकार के आवासों में भोजन करने में सक्षम) उनकी आबादी स्थिर रही या बढ़ी। हालांकि, ग्रेट इंडियन बस्टर्ड (GIB) जैसे बड़े शरीर वाले पक्षियों की आबादी में “तेजी से और लगातार गिरावट” देखी गई। वहीं कुछ खास तरह के आवास या खास तरह के भोजन पर निर्भर रहने वाले छोटे शरीर वाले पक्षियों जैसे ग्रेट ग्रे श्राक और रेड-नेक्ड फाल्कन, की आबादी भी तेजी से कम हो रही है।

रेगिस्तान, घास के मैदान और झाड़ियों वाले इलाके, जिन्हें सामूहिक रूप से ओपन नेचुरल सिस्टम (ONEs) कहा जाता है, भारत के कुल भूभाग का कम से कम 10% हिस्सा बनाते हैं। ये शुष्क, अर्ध-आर्द्र या अर्ध-शुष्क क्षेत्र हैं जो कई प्रकार के जीवों को घर हैं, मसलन इंडियन वोल्फ, काला हिरण और गंभीर रूप से लुप्तप्राय ग्रेट इंडियन बस्टर्ड। यहां कई संकटग्रस्त वनस्पति प्रजातियां भी पाई जाती हैं। हालांकि, भारत के ONEs का 68% भाग बंजर भूमि के रूप में वर्गीकृत है और 5% से भी कम भाग कानूनी तौर पर संरक्षित है। यह आवास, जो उपजाऊ मिट्टी प्रदान करता है, उन क्षेत्रों में शामिल है जिनमें सबसे व्यापक रूप से बदलाव किए गए हैं।

अध्ययन से अवलोकन
इस अध्ययन में, एक आसान तरीके से पक्षियों की जानकारी इकट्ठा की गई। हर दिन के आखिर में, एक रजिस्टर में उन सभी पक्षियों के नाम के सामने टिक लगाया जाता, जो उस दिन देखे जाते या फिर जिनकी आवाज सुनी जाती थी। इस अध्ययन के लेखक सरंग म्हामाणे एक स्थानीय पक्षी प्रेमी हैं। उन्होंने ही यह डेटा इकट्ठा किया है। वे अलग-अलग पक्षियों को देखते और उनके मौजूद होने या न होने को रजिस्टर में दर्ज करते थे, हालांकि वह उनकी संख्या नहीं गिन रहे थे।
अध्ययन के प्रमुख लेखक अक्षय भारद्वाज ने कहा, “दरअसल हमारा विचार, एक समर्पित पर्यवेक्षक द्वारा लगातार एक ही जगह पर पक्षियों का निरीक्षण करना था। हम स्थानीय रुझानों और देश स्तर पर ‘स्टेट ऑफ इंडियाज़ बर्ड्स’ द्वारा नोट किए गए रुझानों के बीच एक तुलना करना चाहते थे,” अक्षय एक पर्यावरणविद हैं और स्विट्जरलैंड के न्यूशैटल यूनिवर्सिटी में पीएचडी के छात्र हैं।
ग्रेट इंडियन बस्टर्ड और वेस्टर्न मार्श हैरियर का गहन अध्ययन किया गया। यह बाज जमीन पर अपना घोंसला बनाता है और सर्दियों में मध्य एशिया से प्रवास करता है। एक बड़ा शिकारी होने के कारण, यह पारिस्थितिकी तंत्र के स्वास्थ्य का एक आदर्श संकेतक है। अध्ययन अवधि के दौरान नान्नज की संख्या में लगातार कमी देखी गई। यह प्रवृत्ति अन्य लंबे चले अध्ययनों के परिणामों के अनुरूप है

ग्रेट इंडियन बस्टर्ड (जिसे स्थानीय रूप से मालढोक कहते हैं) पहले एक खास मौसम में ही दिखाई देता था, ज्यादातर जुलाई से अक्टूबर तक। अध्ययन के अनुसार, हाल के वर्षों में इसकी संख्या इतनी तेजी से कम हो गई है कि “अब वह किसी भी मौसमी दिखाई नहीं देता है।” यह खोज राष्ट्रीय स्तर पर आबादी के रुझानों के अनुरूप है। अध्ययन में कहा गया है कि, “इनकी संख्या ऐतिहासिक रूप से बहुत कम हो गई है और यह प्रजाति स्थानीय रूप से विलुप्त होने के कगार पर है।”
म्हामाणे याद करते हुए बताते हैं, “एक समय था जब किसानों को अपने खेतों में अक्सर मालढोक दिखाई दे जाते थे। लेकिन पिछले कई सालों से हमें यह पक्षी नहीं दिखाई दिया है।” यहां के किसान ज्वार, बाजरा, सोयाबीन, सूरजमुखी, उड़द दाल और मूंगफली जैसी कई फसलें उगाते हैं।
अध्ययन में पाया गया कि जंगल या झाड़ियों में रहना पसंद करने वाले कुछ पक्षी, जैसे छोटा मिनिवेट, की संख्या बढ़ी है और अध्ययन के दौरान इन्हें अकसर देखा गया। लेकिन झाड़ियों में पाए जाने वाली दुर्लभ प्रजाती पेंटेड सैंडग्राउज़ जैसे कुछ अन्य पक्षियों की संख्या में काफी कमी आई है।
म्हामाणे ने कहा, “इस मोजेक में वुडलैंड प्लॉट (जंगल के छोटे हिस्से) में नीम और अंजन (हार्डविकिया) के पेड़ हैं, जिन्हें 1980 के दशक में वन विभाग ने देशी घास के मैदानों पर लगाया था। समय के साथ, जैसे-जैसे इंडियन ग्रेट बस्टर्ड की संख्या घटने लगी, तो उन्होंने वुडलैंड्स को फिर से घास के मैदानों में बदलना शुरू कर दिया।” म्हामाणे 2003 से नान्नज में विभिन्न वन्यजीव संरक्षण परियोजनाओं पर काम कर रहे हैं।
एक विविधतापूर्ण क्षेत्र, एक अनिश्चित संतुलन
जमीन पर घोंसला बनाने वाले पक्षी अपने आस-पास के बदलावों के प्रति बहुत संवेदनशील होते हैं और पारिस्थितिकी तंत्र की सेहत का एक अच्छा संकेतक हैं। दिलचस्प बात यह है कि कुछ अध्ययनों में यह पाया गया है कि भले ही खास तरह के आवास वाले पक्षी बहुत संवेदनशील होते हैं, लेकिन कुछ मामलों में “कम रसायनों वाली खेती और कम पशुपालन वाले इलाके, घास के मैदानों की प्रजातियों और पक्षी समुदायों के संरक्षण में संरक्षित क्षेत्रों के साथ सहायक हो सकते हैं।”
भारद्वाज ने कहा, “उदाहरण के लिए, थार रेगिस्तान के कुछ अध्ययनों से पता चलता है कि परिदृश्य में आवास विविधता घास के मैदानों के लिए मददगार हो सकती है (लेकिन उनकी जगह नहीं ले सकती है)।” हालांकि वह चेतावनी देते हैं कि यह एक नाजुक स्थिति है, क्योंकि जब कृषि गतिविधि बढ़ती है, तो पक्षियों की संख्या घट जाती है।
वह दिसंबर 2021 में प्रकाशित एक अध्ययन का उल्लेख करते हैं, जिसमें थार रेगिस्तान में घास के मैदानों, खेती की भूमि और चरागाहों में, गर्मियों के समय पक्षियों की प्रजातियों और उनकी संख्या लगभग समान पाई गई। हालांकि, सर्दियों में ऐसा नहीं था, क्योंकि कीट खाने वाले, खास तरह के आवासों में रहने वाले पक्षी घास के मैदानों के अलावा अन्य जगहों पर सबसे ज्यादा प्रभावित हुए।
भारत में कई अर्ध-शुष्क घास के मैदानों में किए गए एक अन्य अध्ययन के मुताबिक, हालांकि कुछ खास तरह के पक्षियों को ऐसे इलाके पसंद आते हैं जहां कोई दखल न हो, लेकिन “कम रसायन वाली कृषि भूमि” में कई ऐसे पक्षी हैं जिनकी संख्या दिनों-दिन कम होती जा रही है। जब बारिश के मौसम में खेती बाड़ी ज्यादा होने लगती है, तो घास के मैदानों के संवेदनशील पक्षी, जैसे कि छोटे फ्लोरिकन, घटने लगते हैं। यह अध्ययन जुलाई 2014 में प्रकाशित किया गया था।
हालांकि, संरक्षणवादी अत्यधिक चराई और आग के खतरे के खिलाफ चेतावनी देते हैं। महाराष्ट्र के घास के मैदानों में शोध, जागरूकता गतिविधियों और बहाली का काम करने वाले द ग्रासलैंड्स ट्रस्ट के संस्थापक मिहिर गोडबोले ने कहा, “अत्यधिक चराई के बाद, घास को जल्दी से वापस उगाने के लिए पशुपालक इसे आग लगा देते हैं।” वह आगे कहते हैं, “हालांकि, घास के मैदान में फिर से घास उगाने के लिए आग जरूरी है, लेकिन इसे इतनी बार लगाया जाता है कि वनस्पति अपना जीवन चक्र पूरा नहीं कर पाती है। दो प्रकार की घास – हेटेरोपोगन कॉन्टोर्टस और एक और प्रकार जिसे मराठी में पांधरी कुसल कहा जाता है – आग प्रतिरोधी हैं और इस क्षेत्र में बढ़ रही हैं। घास की 40 से ज्यादा प्रजातियों की मूल विविधता वापस लाने की जरूरत है। इन आग प्रतिरोधी प्रजातियों को मवेशी सिर्फ बारिश के मौसम में ही खा सकते हैं। हम आग के बारे में जागरूकता बढ़ा रहे हैं और घास के मैदानों को बचाने के लिए आग रोकने वाली पट्टी (फायरलाइन) बना रहे हैं।” आग रोकने वाली पट्टी तीन मीटर चौड़ी हरी-भरी जमीन होती है जिसे जानबूझकर जलाया जाता है ताकि आग आगे न फैले।
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घास के मैदानों और उनके निवासियों का भविष्य
नवंबर 2022 में, टाटा पावर रिन्यूएबल एनर्जी को सोलापुर में 150 मेगावाट का सौर ऊर्जा फार्म स्थापित करने के लिए सरकार से “लेटर ऑफ अवार्ड” मिला है। 2025 में यहां काम शुरू होने की संभावना है। संजना नायर अशोक ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकोलॉजी एंड द एनवायरनमेंट (ATREE) में एक नीति विश्लेषक हैं। उनके मुताबिक, अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं के लिए नीतियां ‘बंजर भूमि’ के उपयोग के लिए तैयार की जाती हैं, जैसे गुजरात की पवन/सौर/पवन-सौर हाइब्रिड पार्क के लिए सरकारी बंजर भूमि आवंटन नीति। इससे घास के मैदान भूमि उपयोग परिवर्तन के प्रति संवेदनशील हो जाते हैं। उन्होंने समझाया, “भारत में अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं को पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (ईआईए) से छूट प्राप्त है।” वह आगे कहती हैं, “अधिसूचना में सौर परियोजनाओं को छूट देने के तीन कारण बताए गए हैं। पहला, सौर ऊर्जा स्वच्छ और पर्यावरण के अनुकूल है। दूसरा, इन परियोजनाओं से भूमि पर बहुत अधिक बदलाव या विकास नहीं होता है। तीसरा, वे प्रदूषण नहीं करते हैं। हालांकि, इसमें संभावित पारिस्थितिक प्रभावों को ध्यान में नहीं रख जाता है। इसके अलावा पर्यावरण के अनुकूल क्या है, यह इस धारणा को सीमित करता है। नकारात्मक प्रभावों को कम करने में मदद करने के लिए नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाओं के लिए ईआईए को अनिवार्य किया जाना चाहिए।”
ATREE में पीएचडी छात्रा इरावती माजगांवकर, घास के मैदानों में जमीन के उपयोग में बदलाव और पशुपालन पर काम कर रही हैं। उन्होंने मोंगाबे-इंडिया को बताया, “ऐतिहासिक रूप से, घास के मैदानों की शुष्कता और वनस्पति का स्थायी रूप से फायदा उठाने वाली एकमात्र जीविका पैस्टरलिज्म (एक जगह से दूसरी जगह जाकर पशुओं को चराना) है। यह किसी भी तरह रैंचिंग (एक ही जगह रहकर पशुओं को पालने) से संबंधित नहीं है और इसमें वनस्पति को साफ करने या भूमि में बदलाव करने की जरूरत नहीं होती है। यह पारिस्थितिकी तंत्र के प्राकृतिक प्रवाह के अनुरूप है।” माजगांवकर ने नोट किया कि पशुपालक आमतौर पर मानसून के दौरान अपने मवेशियों को घास के मैदानों में ले जाकर चराते हैं और अन्य मौसमों में पश्चिमी घाट की ओर चले जाते हैं। इसे उन्होंने महाराष्ट्र और कर्नाटक में अपने काम के दौरान नोटिस किया था।

अपने शोध के अलावा, माजगांवकर घास के मैदानों को पुनर्जीवित करने के प्रयासों में भी शामिल हैं, जो वर्तमान में प्रारंभिक चरण में हैं। उन्होंने कहा कि सरकार द्वारा पशुपालकों को गलत रूप से किसानों के रूप में वर्गीकृत किया जाता है, जिसकी वजह से ऐसी नीतियां बनने में बाधा आ रही है जो पशुपालकों की जरूरतों और संरक्षण की जरूरतों को एक साथ ध्यान में रखें। वह समझाते हुए कहती है, “पशुपालन कृषि से पूरी तरह अलग है। खेती बहुत ज्यादा संसाधनों का इस्तेमाल करती है जबकि पशुपालन घास के मैदानों को नुकसान नहीं पहुंचाता है। हालांकि, सरकारी दस्तावेजों में पशुपालकों को अलग से मान्यता नहीं दी गई है, उन्हें भी किसान ही कहा जाता है। मुझे लगता है कि महाराष्ट्र और कर्नाटक में पशुपालन और संरक्षण के लक्ष्यों को एक साथ लाया जा सकता है। यह सावना घास के मैदानों के सामुदायिक प्रबंधन के माध्यम से संभव है। स्थानीय पशुपालकों को घास के मैदानों की रक्षा और सुरक्षा में भागीदार बनाया जाए। लेकिन दुर्भाग्य से, सामाजिक-आर्थिक कारणों से, पशुपालकों को धीरे-धीरे अपनी पारंपरिक जीविका से बाहर निकलने के लिए मजबूर किया जा रहा है।”
भारद्वाज का मानना है कि स्वदेशी घास के मैदानों और ओपन नेचुरल सिस्टम के लिए उपयुक्त क्षेत्रों में लक्षित पुनर्स्थापना प्रयासों की आवश्यकता है, जैसा कि राजस्थान और महाराष्ट्र के कुछ क्षेत्रों में घास के मैदान पुनर्स्थापना परियोजनाओं द्वारा किया जा रहा है। घास के मैदानों जैसे गैर-वन आवासों (जिन्हें ऐतिहासिक रूप से ‘बंजर भूमि’ माना जाता था) पर ध्यान केंद्रित करने से ONE प्रजातियों को संरक्षण ढांचे में शामिल किया जा सकता है। वह कहते हैं, “पॉइंट काउंट सबसे अच्छा तरीका है। हालांकि यह अध्ययन पॉइंट काउंट जितना सटीक नहीं है, लेकिन हम इस पर भी काम कर रहे हैं। सरंग 2016 से पॉइंट काउंट कर रहे हैं और हम अब उस डेटा को साफ कर रहे हैं और उसका विश्लेषण कर रहे हैं। हमें उम्मीद है कि इससे हमें गिरावट के बारे में मात्रात्मक जानकारी प्राप्त करने में मदद मिलेगी ताकि देखे गए रुझानों को समझा जा सके।”
भारद्वाज ने कहा, “हमारे अध्ययन का मुख्य बिंदु यह है कि एक ही व्यक्ति द्वारा एक ही जगह पर लगातार अवलोकन करना बहुत महत्वपूर्ण है। यहां तक कि अगर वो अपने घर के बगीचे में भी ऐसा करे, तो भी वह महत्वपूर्ण जानकारी एकत्र कर सकता है। खासकर जब बड़े पैमाने के रुझानों के साथ तुलना की जाए।”
यह खबर मोंगाबे-इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 27 मई 2024 प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: महाराष्ट्र के सोलापुर में नान्नज घास के मैदानों की 2008 को खींची गई एक तस्वीरः तस्वीर- मधुकर बी वी, विकिमीडिया कॉमन्स (CC BY-SA 4.0 DEED)