- साल 2021 में सौर ऊर्जा से चलने वाली सिंचाई प्रणाली आने से छत्तीसगढ़ के गांवों में सिर्फ कार्बोहाइड्रेट युक्त धान और आलू की खेती से हटकर तरह-तरह की सब्जियां उगाई जाने लगी हैं।
- पहले आदिवासी परिवारों के खाने में विविधता न होने के कारण उनके बच्चों को पर्याप्त पोषण नहीं मिल पा रहा था और वे बौनेपन का शिकार हो रहे थे। भारत के कई गांवों में ये एक बड़ी समस्या है।
- अब कई परिवार अपने घर के पीछे की जमीन पर ही पालक, टमाटर, गाजर और बीन्स जैसी सब्जियां उगा रहे हैं। उन्हें उम्मीद है कि धीरे-धीरे उनके स्वास्थ्य में सुधार होगा।
छत्तीसगढ़ के एक छोटे से गांव में रहने वाली 30 वर्षीय देवमती सिंह पिछले कई सालों से अपनी एक एकड़ की जमीन पर धान और आलू की खेती करती आ रहीं थीं। उनके परिवार में छः लोग हैं, उनका चार साल का बेटा, सात महीने की बेटी और उनके बुजुर्ग माता-पिता। किसान परिवार होने के कारण उनका भोजन भी सीमित था, खेत में उगाया गया धान और आलू ही उनके भोजन का मुख्य आधार था। बाजार भी दूर था और साथ ही उनकी आर्थिक स्थिति भी ठीक नहीं थी।
लेकिन आज, उनके खेत और उनकी परिस्थितियां दोनों ही बदल गए हैं। छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले के गांव करौंती में जब कोई उनके घर जाता है, तो वह बेहद खुश होते हुए अपने घर के पीछे की जमीन के एक छोटे से टुकड़े को दिखाती हैं। उनकी ये जमीन अब पीले, हरे और लाल रंगों से सजी नजर आती है। जहां पहले मौसमी धान उगाने के बाद उनके खेत गर्मियों और सर्दियों में बंजर नजर आते थे, वहां अब सब्जियों की भरमार है।
देवमती कहती हैं, “हम सालों से अंधेरे में जी रहे थे।” उन्होंने आगे कहा, “2021 में, हमारे गांवों में सौर ऊर्जा से बिजली पहुंची, तो जीवन में एक नया उजाला भर गया। अब लाइट, पंखे के अलावा, हम अपने खेतों की सिंचाई भी कर सकते हैं। साल में एक बार धान की फसल के बाद, अब हमारे खेत खाली नहीं रहते हैं। पिछले साल से हमने अपनी जमीन पर सब्जियां भी उगाना शुरू कर दिया है। मेरे बच्चे पहले सिर्फ आलू ही खाते थे, लेकिन आज खाने के लिए उनके पास बहुत कुछ है।”

गुरु घासीदास नेशनल पार्क के जंगलों के बीच बसे, कोरिया, सूरजपुर और सरगुजा जैसे जिलों के कई गांवों में, 2021 में हर घर में सोलर पैनल लगाकर बिजली पहुंचाई गई।
इन गांवों में लगे सोलर पैनल सूरज की रोशनी को बिजली में बदल देते हैं और फिर इस बिजली से पानी के पंप चलते हैं, सार्वजनिक नलों में पानी आता हैं, स्ट्रीट लाइट जलती हैं और पूरे गांवों को बिजली मिलती है।
छत्तीसगढ़ राज्य अक्षय ऊर्जा विकास अभिकरण (CREDA) के सुपरिटेंडेंट इंजीनियर सी.एस. गोस्वामी कहते हैं, “इन गांवों में सौर ऊर्जा के जरिए बिजली पहुंचाना एक प्रमुख फोकस क्षेत्र रहा है क्योंकि ये गांव जंगल के अंदर हैं।” वह आगे कहते हैं, “राज्य सरकार ने इन गांवों में सोलर पंप लगाने के लिए 90% की सब्सिडी दी है। इसकी वजह से, अब ये गांव अपनी खेतों की सिंचाई करने के लिए सोलर पंप का इस्तेमाल कर सकते हैं। सरकार ने इन दूरदराज के इलाकों में सोलर पावर जनरेटर भी लगाए हैं, ताकि इनके पास बिजली की कमी न हो।”
CREDA राज्य के ऊर्जा विभाग के तहत एक पंजीकृत संस्था है और राज्य में गैर-पारंपरिक और नवीकरणीय ऊर्जा के विकास और प्रचार के लिए नोडल एजेंसी है। उधर 2016 में, राज्य ने पूरे राज्य में सौर पंप उपलब्ध कराने के लिए अपनी प्रमुख योजना ‘सौर सुजला’ योजना भी शुरू की।
गोस्वामी के अनुसार, तीनों जिलों में कुल 20,000 सिंचाई पंप लगाए गए हैं और लगभग 466 बस्तियों को सौर पैनलों के जरिए बिजली पहुंचाई जा रही है।
सब्जियां उगाने के लिए सौर ऊर्जा का इस्तेमाल
देवमति कहती हैं, “यहां सिर्फ बारिश ही सिंचाई का साधन है। इसलिए, ज्यादातर खेती मानसून के मौसम में होती है। बाकी साल लोग काम ढूंढने के लिए गांव से बाहर चले जाते हैं या फिर जो काम मिलता है, उससे गुजारा करते हैं।”
देवमति के गांव से लगभग 10 किलोमीटर दूर, बसनारा में सिंचाई का एकमात्र विकल्प एक स्थायी नहर है, जो गांव से लगभग 5 किलोमीटर दूर है। लेकिन बिजली न होने की वजह से, पानी का उपयोग खेतों की सिंचाई के लिए कभी नहीं किया जा सका, जिससे लोगों की मुश्किलें और बढ़ गईं।
बसनारा गांव की सौलिया सिंह कहती हैं, “गांव में सोलर ऊर्जा आने के बाद, हम अपने खेत में सोलर सिंचाई और ड्रिप से पानी डालना शुरू कर सके। हमारे घर के पास एक छोटा सा खेत है। 2023 में, कुछ सब्जी के बीजों से, हमने अपने खाने के लिए सब्जियां उगाना शुरू किया था।” सौलिया अपने बहू और पोते-पोतियों के साथ रहती हैं। उनका बेटा काम के लिए पलायन कर गया है।
साल 2023 में, वॉटरशेड ऑर्गनाइजेशन ट्रस्ट (WOTR) इन गांवों तक पहुंचा और उन्हें सब्जियों के लिए जैविक खेती करने और अपने घरों के पीछे किचन गार्डन बनाने में मदद की। उन्हें 11 तरह के बीज दिए गए, जिसमें हरी, लाल और पीली सब्जियों का सही अनुपात था ताकि वे एक संपूर्ण रंगों वाला भोजन कर सकें। इस इलाके में लगभग 288 घर अब अपने पोषण उद्यानों से नियमित रूप से सब्जियां ले रहे हैं, अपने बच्चों को पौष्टिक भोजन खिला रहे हैं और अपने परिवारों की आय में वृद्धि कर रहे हैं।
WOTR के एरिया कोऑर्डिनेटर रेवेन सिंह कहते हैं, “सोलर पैनल से बिजली पैदा होती है जो सिंचाई प्रणालियों को चलाती है। इस तकनीक ने गांववालों को अपने किचन गार्डन में पानी देने में मदद की है, भले ही बिजली की पहुंच कम हो। नियमित सिंचाई की वजह से, वे अब कई तरह की फसलें उगा रहे हैं, उनकी पैदावार भी बढ़ गई है, जिससे खाद्य सुरक्षा में योगदान मिल रहा है।”

इसके अलावा, किसान गाय के गोबर, गोमूत्र, गुड़, दाल के आटे, मिट्टी और पानी को फर्मेंटेड करके पारंपरिक जैविक खाद भी बनाते हैं। इसमें मिट्टी के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक किसी भी रसायन का इस्तेमाल नहीं किया जाता है।
अपने परिवारों के लिए पौष्टिक आहार सुनिश्चित करने के अलावा, गांववालों ने अपनी उपज को बेचने और अपनी आय बढ़ाने की भी योजना बनाई है।
सौलिया कहती हैं, “फिलहात तो हम सिर्फ अपने खाने के लिए सब्जियां उगा रहे हैं।” उन्होंने आगे कहा, “लेकिन हम इसे बढ़ाना चाहते हैं ताकि हम गांव के भीतर उपज बेच सकें और सभी परिवारों को बाहरी बाजार पर निर्भरता कम करने में मदद कर सकें।”
किचन गार्डन के जरिए पोषण में सुधार
इन गांवों में लोग ऐसा जीवन जीते हैं जहां जिंदगी बहुत साधारण है और खाने के लिए जो मिलता है, वही खाना पड़ता है। इन परिवारों की कमाई धान और जंगल से मिलने वाले केंडू के पत्तों की बिक्री से होती है। साल भर ज्यादातर परिवारों का मुख्य भोजन चावल और आलू ही होता है, क्योंकि और कुछ आसानी से उपलब्ध नहीं है। इसकी एक वजह बाजार का गांवों से काफी दूर होना भी रहा। मुख्य बाजार लगभग सात किलोमीटर दूर होने के कारण, वहां जाना लोगों के लिए न तो आसान था और न हीं उन्हें पसंद था।
महारसो गांव के 62 वर्षीय शिव प्रसाद कहते हैं, “बाजार जाने पर हमें जितनी जरूरत होती, अक्सर उससे ज्यादा खरीदना पड़ जाता है। घर पर सामान रखने के लिए कोई जगह नहीं है, इसलिए जो भी अतिरिक्त खरीदा जाता, वो आमतौर पर सड़ जाता था।” शिव अब अपनी आधी एकड़ जमीन पर सब्जियां उगाते हैं।
और पढ़ेंः कुपोषण से जूझ रहे हैं छत्तीसगढ़ के मवेशी, उत्पादकता और प्रजनन क्षमता पर असर
वह कहते हैं, “जब भी हम बाजार जाते, तो बहुत सारा पैसा सब्जियां खरीदने में खर्च हो जाता था। हमे पैसों की तंगी भी थी। इसलिए सब्जियां खरीदने से बचते थे और केवल वही खाते थे, जो खुद उगाते थे। लेकिन अब, अपने किचन गार्डन की वजह से हम न सिर्फ पैसे बचाते हैं, बल्कि हर दिन ताजी सब्जियां भी खाते हैं।”
इनके खाने में कम किस्म के पदार्थ होने और सीमित मात्रा में भोजन मिलने के कारण, छोटे बच्चों में कुपोषण और बौनापन की समस्या भी देखी जा रही थी, जो भारत के कई ग्रामीण क्षेत्रों में काफी आम है। इन जिलों में लगभग 46% आबादी अनुसूचित जनजाति की है (2011 की जनगणना के अनुसार), जिनमें से अधिकांश राष्ट्रीय उद्यान के आसपास रहते हैं। इनके इलाकों में बाजारों तक पहुंच मुश्किल है और सामान खरीदने की क्षमता भी कम है।
इन तीनों जिलों के पोषण की स्थिति का विश्लेषण बताता है कि लगभग 30% बच्चे या तो बौने हैं या कुपोषित हैं। सरगुजा जिला बच्चों में स्टंटिंग, वेस्टिंग और एनीमिया के मामले में सबसे ज्यादा प्रभावित जिलों में आता है।
अध्ययनों से पता चला है कि कुपोषण/बौनापन घर में खाने की कमी का परिणाम होता है। इस लिहाज से, पौष्टिक किचन गार्डन को ग्रामीण घरों में संतुलित और पौष्टिक आहार सुनिश्चित करने का एक सस्ता और टिकाऊ तरीका माना गया है। ये न केवल खाद्य सुरक्षा बढ़ाते हैं, बल्कि घरों की पोषण स्थिति में भी सुधार करते हैं।

सौलिया कहती हैं, “हम वही खाते हैं जो हम उगाते हैं।” एकल खेती से विभिन्न प्रकार की सब्जियों की तरफ जाने से उनके खाने का तरीका बेहतर हुआ है और उनके भोजन में विविधता आ गई है।
देवमति ने बताया, “जब हमने अपने बेटे को रोजाना अलग-अलग सब्जियां खिलाना शुरू किया, तो वह बड़ा खुश हुआ। उसे अपनी थाली में अलग-अलग सब्जियां पसंद है। हम समझ गए हैं कि सिर्फ चावल और आलू पर निर्भर रहना हमारे स्वास्थ्य के लिए, खासकर बच्चों के लिए, नुकसानदेह है। अचानक से कोई बड़ा बदलाव तो नहीं आएगा, लेकिन हमें धीरे-धीरे सुधार की उम्मीद है।”
यह खबर मोंगाबे-इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 23 मई 2024 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: देवमति सिंह अपने घर के नजदीक किचन गार्डन में अपने बच्चों के साथ। तस्वीर-ऐश्वर्या मोहंती