- हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि किसी तय सीमा के बाद, मनरेगा जैसी रोजगार पैदा करने वाली योजनाओं से वृक्षारोपण वाले क्षेत्रों में आजीविका और वनक्षेत्र दोनों में बढ़ोतरी हुई।
- शोधकर्ताओं ने पाया कि जब रोजगार दिवस 1,210 से ज्यादा हो जाते हैं, तो यह मनरेगा के असर से आजीविका और वनक्षेत्र दोनों के लिए बेहतर नतीजे लाता है।
- अध्ययन में पाया गया कि आजीविका देने वाली योजनाओं के अलावा, सामूहिक कार्रवाई पर आधारित फैसले लेने वाले स्थानीय निकायों को मजबूत करने से भी आजीविका और जंगल बढ़ाने में मदद मिल सकती है।
वृक्षारोपण और आजीविका के बीच संबंधों की पड़ताल करने वाले एक नए शोध पत्र से पता चलता है कि मनरेगा जैसी सामाजिक कल्याणकारी योजनाएं आय और रोजगार प्रदान करने के अलावा वनक्षेत्र को बढ़ा सकती हैं।
स्वीडिश कृषि विज्ञान विश्वविद्यालय उप्साला, फ्लोरिडा स्टेट यूनिवर्सिटी, मिनेसोटा विश्वविद्यालय और हिमाचल प्रदेश के वन विभाग के शोधकर्ताओं ने यह समझने की कोशिश की कि हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले, जहां वृक्षारोपण अभियान चलाना आम बात है, में किन परिस्थितियों ने वन और आजीविका दोनों को बेहतर बनाने में मदद की।
उन्होंने पाया कि उन क्षेत्रों में मिले-जुले सकारात्मक नतीजे ज्यादा होने की संभावना थी जहां हाशिए पर पड़े समूहों का सामूहिक कार्रवाई में शामिल होने, वानिकी, कृषि, निर्माण और सांस्कृतिक गतिविधियों से जुड़े उद्देश्यों के लिए श्रम का परस्पर आदान-प्रदान करने का इतिहास रहा है। उन्होंने यह भी पाया कि तय सीमा के बाद, मनरेगा जैसी रोजगार देने वाली योजनाओं से वृक्षारोपण वाले क्षेत्रों में आजीविका और वनक्षेत्र दोनों को फायदा हुआ।

मनरेगा, साल 2006 से चल रही सरकारी योजना है जो हर परिवार के कम से कम एक वयस्क को हर साल 100 दिन रोजगार की गारंटी देकर गावों में आजीविका की सुरक्षा को पक्का करती है।
सामाजिक सुरक्षा में मनरेगा की अहमियत
हालांकि, वनक्षेत्र और गरीबी में होने वाले बदलावों का अध्ययन पहले भी किया जा चुका है। लेकिन, वनक्षेत्रों में इन दोनों के बीच के परस्पर संबंधों को कम ही समझा गया है। शोधकर्ताओं ने अध्ययन के तौर पर स्थानीय समुदायों की सामाजिक-आर्थिक और जनसांख्यिकीय विशेषताओं जैसे 36 घटकों का इस्तेमाल किया। इनमें वन प्रशासन और वृक्षारोपण गतिविधि की संस्थागत गतिशीलता और कांगड़ा जिले में हुए 377 वृक्षारोपण की जैव-भौतिक विशेषताएं भी शामिल थीं।
शोधकर्ताओं ने व्याख्या करने योग्य मशीन लर्निंग (आईएमएल) का इस्तेमाल करके पूर्वानुमान वाली इनसाइट बनाई। इसका मकसद यह पता करना था कि कौन-से घटक आजीविका और वनक्षेत्र दोनों के लिए बेहतर नतीजे देते हैं। साथ ही, सामान्य और बुरे नतीजे देने वाले घटकों की पहचान भी की गई। हिमाचल प्रदेश में भारतीय वन सेवा के वरिष्ठ अधिकारी और अध्ययन के मुख्य लेखक पुष्पेंद्र राणा ने कहा, “नतीजों को सावधानी से पढ़ने की जरूरत है, क्योंकि इस प्रकार का विश्लेषण सिर्फ कारकों और पूर्वानुमान वाले विश्लेषण के आधार पर कई नतीजों के बीच संबंध के बारे में बताता है और यह हमें इस बारे में नहीं बताता है कि हम इन पैटर्न को क्यों देखते हैं।”
मॉडल ने वृक्षारोपण से वनक्षेत्र के साथ-साथ आजीविका में सुधार को बेहतर नतीजे से जोड़ा है। इसमें अनुसूचित जनजातियों और अनुसूचित जातियों की मौजूदगी सबसे बड़ा असरदार कारक पाया गया। उसके बाद शिक्षा का स्तर और मनरेगा के तहत काम मिलने के दिनों की संख्या थी। शिक्षा का उच्च स्तर बेहतर नतीजे के निम्न स्तर के साथ मेल खाता है, जिसके बारे में शोधकर्ताओं का अनुमान है कि शिक्षा के स्तर में बढ़ोतरी के साथ वन संसाधनों पर निर्भरता कम होने से ऐसा हो सकता है। शोधकर्ताओं ने पाया कि जब किसी व्यक्ति के कार्य दिवस 1,210 से ज्यादा हो जाते हैं, तो मनरेगा का असर बेहतर नतीजे की ज्यादा संभावना की ओर ले जाता है।

पेपर कहता है कि ऐसे क्षेत्रों में जहां वंचित समूहों के पास उच्च शिक्षा की सुविधा नहीं है, वहां मनरेगा “मजबूत सामाजिक सुरक्षा तंत्र” के रूप में काम कर सकता है। यह वन संसाधनों पर “गरीबों और वंचितों की निर्भरता कम करने में मदद कर सकता है, जिससे बुनियादी स्तर पर आजीविका में मदद करने के साथ ही जंगल का रकबा बढ़ाना ज्यादा संभव हो सकता है।”
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इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस (आईएसबी) में एसोसिएट प्रोफेसर अश्विनी छत्रे ने कहा कि मनरेगा इस मामले में बेहतर है कि योजना का डिजाइन पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ गांवों में बुनियादी ढांचे के विकास पर विचार करने की सुविधा देता है। उन्होंने कहा, “मनरेगा में ऐसी जगहों को खोज पाना संभव है जहां वन बहाली के अवसर और आजीविका के अवसर एक साथ दिखाई देते हैं और ऐसी परियोजना बनाना संभव है जो गांव के स्तर पर दोनों को संतुष्ट कर सके। लेकिन केंद्रीय नियोजन में इस तरह के संकल्प वाला तरीका संभव नहीं है। अक्सर इस तरह का ओवरलैप जिला कलेक्टर और अन्य योजनाकारों को दिखाई नहीं देता है।” छत्रे इस अध्ययन में शामिल नहीं थे।
यह समझने के लिए कि वृक्षारोपण आजीविका पर किस तरह असर डालता है, शोधकर्ताओं ने आजीविका से लाभ मिलने की परिभाषा को वन संसाधनों पर निर्भरता तक सीमित कर दिया। यह परिभाषा उन्हीं शोधकर्ताओं द्वारा किए गए पिछले शोध पर आधारित है, जिसमें पाया गया था कि कांगड़ा में बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण ने पेड़ों की संरचना को चौड़ी पत्ती वाली किस्मों से दूर कर दिया, जिन्हें स्थानीय लोग अहमियत देते थे और उनका इस्तेमाल कम हो गया, जिससे आजीविका लक्ष्यों पर नकारात्मक असर पड़ा। चौड़ी पत्ती वाली किस्मों और घासों का इस्तेमाल जलावन और चारे में बहुत ज्यादा किया जाता है।
छत्रे ने कहा कि हालांकि यह संसाधनों के इस्तेमाल पर वृक्षारोपण के असर को स्पष्ट करने में मदद करता है, लेकिन आजीविका लाभों की ऐसी परिभाषा ग्रामीण आबादी की बदलती उम्मीदों को ध्यान में नहीं रख सकती है। “जलावन और चारे तक पहुंच इन समूहों के बीच एकमात्र दिलचस्पी या आजीविका लाभ नहीं है, खासकर जब आप शिक्षा की सीढ़ी चढ़ते हैं। वनों को टिकाऊ साधनों के जरिए इन समुदायों के बीच रोजगार और धन भी पैदा करना चाहिए। इस क्षेत्र में और ज्यादा शोध किए जाने की जरूरत है।”

गरीबी और वनक्षेत्र पर ध्यान देना
गरीबी उन्मूलन के लिए अन्य उपाय भी जंगलों को बढ़ाने में मददगार पाए गए हैं। मध्य भारत के शुष्क उष्णकटिबंधीय वनों से किए गए अध्ययन में पाया गया कि खाना पकाने के लिए जलावन और गैर-वन आधारित आवास सामग्री के विकल्प से जीवन स्तर में सुधार हुआ और घटते वनों पर दबाव कम हुआ।
राणा ने कहा कि आजीविका योजनाओं के अलावा, सामूहिक कार्रवाई पर आधारित स्थानीय फैसले लेने वाली संस्थाओं को मजबूत करने से भी आजीविका और जंगलों के बढ़ाने में मदद मिल सकती है। उन्होंने कहा, “चाहे ये स्थानीय संस्थाएं वानिकी पर केंद्रित हों या नहीं, हम पाते हैं कि सामूहिक कार्रवाई पर ध्यान केंद्रित करने वाली ज्यादा संस्थाएं बेहतरीन नतीजे देती हैं। मजबूत समेकित समितियां संघर्ष से बचने और फैसले लेने में सुविधाजनक हो सकती हैं, जिससे हमने पाया कि वन और लोगों दोनों को लाभ हुआ है।”
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम की ओर से रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 17 जून 2024 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: हरियाणा के सिरसा में तालाब से मिट्टी हटाने का काम करते हुए मनरेगा मजदूर। तस्वीर- मुल्ख सिंह/विकिमीडिया कॉमन्स (CC BY-SA 4.0)।