- एक नए अध्ययन से मायावी और शर्मीले हिस्पिड खरगोश (ब्रिस्टली खरगोश/असम खरगोश) के आवास के बारे में अहम जानकारी मिलती है। इसमें जलवायु परिवर्तन, आवास का नुकसान और जमीन की ऊपरी परत में बदलाव से बढ़ते खतरों के बारे में बताया गया है।
- यह जीव नेपाल, भारत और भूटान में हिमालय की तलहटियों में घास के मैदानों का मूल निवासी है। इसे मोनोटाइपिक जीनस के भीतर दुनिया के सबसे दुर्लभ स्तनधारियों में से एक माना जाता है। हालांकि, इसके आवास के बारे में जानकारी अब भी बहुत कम है।
- अगर मौसम में बदलाव की मौजूदा प्रवृत्ति जारी रही, तो खरगोश की यह प्रजाति शायद छोटे, अलग-अलग आवास क्षेत्रों तक ही सीमित रह जाएगी। इससे इसके विलुप्त होने का खतरा बढ़ जाएगा।
नेपाल, भारत और भूटान में हिमालय की दक्षिणी तलहटी में ब्रिस्टली खरगोश को देखना आसान नहीं है। हालांकि, अगर आप इसे देख लें, तो इसके पीछे के हिस्से पर मोटे, गहरे भूरे रंग के फर से इसे आसानी से पहचान सकते हैं। इसमें काले और भूरे रंग के बालों का मिश्रण होता है। साथ ही छाती पर भूरे रंग और पेट पर सफेद रंग का उदर कोट होता है।
इसे आमतौर पर ‘ब्रिस्टली खरगोश‘ के रूप में पहचाना जाता है। इस शर्मीली और मायावी प्रजाति को मोनोटाइपिक जीनस (एक जीनस जिसमें सिर्फ एक ही प्रजाति होती है) के भीतर दुनिया के सबसे दुर्लभ स्तनधारियों में से एक माना जाता है। आईयूसीएन रेड लिस्ट में इसे लुप्तप्राय के रूप में रखा गया है। इसे भारतीय वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 के तहत अनुसूची I में भी शामिल किया गया है। इसके बावजूद, इसके आवास के बारे में जानकारी बहुत कम है।
इस कमी को दूर करने के लिए एक नए अध्ययन ने अब जलवायु परिवर्तन, घास के मैदानों के आवास के नुकसान और शहरीकरण के अलग-अलग परिदृश्यों के तहत ब्रिस्टली खरगोश के भविष्य के बारे मे बताने के लिए प्रजाति वितरण मॉडल तरीके का इस्तेमाल किया।
कोरिया गणराज्य में पुक्योंग नेशनल यूनिवर्सिटी में सहायक प्रोफेसर और अध्ययन के लेखकों में से एक शांतनु कुंडू कहते हैं, “हमने पाया कि अगर मौसम में बदलाव की मौजूदा प्रवृत्तियां जारी रहती हैं, तो ब्रिस्टली खरगोश का आवास शायद कम हो जाए औ यह अलग-थलग हिस्सों में बंट जाए, जिससे इनके विलुप्त होने का ज्यादा जोखिम होगा।” इसका स्थिति से पार पाने के लिए, अध्ययन वर्तमान और भविष्य की जलवायु स्थितियों के तहत संरक्षण के लिए उपयुक्त संरक्षित क्षेत्रों का सुझाव देता है।
क्या मुश्किलों से उबर पाएगा असम खरगोश?
एक वक्त में हिस्पिड खरगोश का आवास उत्तर प्रदेश में हिमालय की दक्षिणी तलहटी, नेपाल से होते हुए पश्चिम बंगाल और असम तक फैला हुआ था। इसकी दक्षिणी सीमा बांग्लादेश में ढाका तक जाती थी। हालांकि, फिलहाल इसका इलाका सीमित होकर नेपाल, भूटान और भारत में 100-250 मीटर की ऊंचाई सीमा के भीतर अलग-अलग उष्णकटिबंधीय घास के मैदानों तक सीमित हो गया है।
इस अध्ययन के लिए भौगोलिक सीमा में ऐतिहासिक सीमा और मौजूदा सीमा दोनों शामिल थीं। यह सीमा आईयूसीएन की रेड लिस्ट के विशेषज्ञ समूह की ओ से तय की गई थी। डेटा को सेकेंडरी स्रोतों से भी एकत्र किया गया था, जिसमें भू-स्थानिक संरक्षण मूल्यांकन उपकरण (जियोकैट) शामिल है।
अध्ययन में असम खरगोश के कुल 102 पहचाने गए आवासों का इस्तेमाल किया गया। प्रजातियों के वितरण मॉडल के विकास के लिए जलवायु, आवास, मानवजनित और स्थलाकृतिक वेरिएबल सहित आवास उपयुक्तता पर असर डालने वाले अलग-अलग कारकों पर विचार किया गया।
अध्ययन से पता चला कि जिन भौगोलिक क्षेत्रों में अध्ययन किए गए उसके मुताबिक 1,88,316 वर्ग किलोमीटर में से सिर्फ 11,374 वर्ग किलोमीटर (6.03%) ही ब्रिस्टली खरगोश के लिए उपयुक्त आवास है। जलवायु परिवर्तन के कुछ परिदृश्यों के तहत इसके पूरे क्षेत्र में आवास की सीमा में बहुत बड़ी (आवास में 60% से ज्यादा की गिरावट देखी गई) गिरावट आई । खास तौर पर गंभीर उत्सर्जन परिदृश्यों के तहत, आवास के भारी नुकसान और इसके बंट जाने का जोखिम है।

शोध करने वालों ने यह भी पाया कि नेपाल में शुक्लाफांटा राष्ट्रीय उद्यान का संरक्षित क्षेत्र हिसपिड खरगोश के लिए सबसे सही आवास था, जबकि असम में डिब्रू-सैखोवा राष्ट्रीय उद्यान को भारत में सबसे सही आवास के रूप में पहचाना गया था। इसके अलावा, उत्तराखंड में कॉर्बेट नेशनल पार्क और सोनानदी वन्यजीव अभयारण्य इस प्रजाति के लिए असरदार आवास साबित हुए। कोलकाता में भारतीय सांख्यिकी संस्थान और आरण्यक के इमोन अबेदिन और अध्ययन के सह-लेखकों में से एक कहते हैं, “ये नतीजे जलवायु परिवर्तन के असर को कम करने के लिए सक्रिय संरक्षण रणनीतियों की जरूरत के बारे में बताते हैं, जिसमें भविष्य के आवास उपयुक्तता वाले क्षेत्रों में संभावित प्रजातियों को ले जाना शामिल है।”
संयोग से, अध्ययन के नतीजे पिछले अध्ययनों के विपरीत हैं, जिसमें सुझाव दिया गया था कि नेपाल में शुक्लाफांटा राष्ट्रीय उद्यान खरगोश के लिए कम उपयुक्त है। कोलकाता में भारतीय सांख्यिकी संस्थान के तनॉय मुखर्जी और अध्ययन के सह-लेखक कहते हैं, “उत्तराखंड में कॉर्बेट नेशनल पार्क और सोनानदी वन्यजीव अभयारण्य ने भी ज्यादा औसत आवास उपयुक्तता दिखाई, बावजूद इसके कि इस प्रजाति के देखे जाने की कोई जानकारी नहीं है। इन नतीजों से पता चलता है कि ब्रिस्टली खरगोश इन क्षेत्रों में मौजूद हो सकता है, लेकिन इसे देखा नहीं जा रहा है। यह इन क्षेत्रों में आगे के शोध और संभावित संरक्षण कोशिशों की जरूरत के बारे में दिखाता है।“
घास के मैदानों का अहम निवासी
हिस्पिड खरगोश घास के मैदानों के पारिस्थितिकी तंत्र में पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखने में अहम भूमिका निभाता है। हालांकि, इसके करिश्माई नहीं होने और मायावी, निशाचर प्रकृति के चलते अक्सर संरक्षण कोशिशों में इस प्रजाति की अनदेखी कर दी जाती है। नतीजतन, संरक्षण संसाधन आमतौर पर बड़ी, ज्यादा मुख्य प्रजातियों की ओर चले जाते हैं जिन्हें पारिस्थितिकी के लिहाज से ज्यादा जरूरी माना जाता है।
आज, ब्रिस्टली खरगोश के लिए प्राथमिक खतरों में आवास का नुकसान, प्राकृतिक वजहों से आवास का नुकसान और इसका बंट जाना, मवेशियों द्वारा बहुत ज्यादा चराई, बेतरतीब तरीके से घास इकट्ठा करना और घास के मैदानों को खेतों में बदलना शामिल है। इसने इस प्रजाति को राष्ट्रीय उद्यानों के भीतर घास के मैदानों के अलग-अलग हिस्सों तक सीमित कर दिया है और इसकी सीमा में इंसानी दबावों और घास के मैदानों में आग लगने के कारण इसकी आबादी में तेजी से गिरावट जारी है। खास तौर पर प्राकृतिक वजहो से मौसमी आधार पर घास के मैदानों को जलाने का काम हिस्पिड खरगोश के प्रजनन के मौसम के समय होता है। इससे इस प्रजाति के अस्तित्व पर संभावित रूप से नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।
जलवायु परिवर्तन से ये मुद्दे और भी विकराल हो जाते हैं। तापमान और बारिश के पैटर्न में बदलाव सीधे वनस्पति के आवरण और ब्रिस्टली खरगोश के लिए खाने-पीने की उपयुक्त चीजों की उपलब्धता को प्रभावित करते हैं।
काम अभी जारी है
ब्रिस्टली खरगोश और उसके लिए आवास की कमी को रोकने के लिए, अध्ययन में खराब हो चुके आवासों को ठीक करने की कोशिशों को प्राथमिकता देने का सुझाव दिया गया है। साथ ही, पहचाने गए उपयुक्त आवासों और जलवायु शरणस्थलों (ऐसे क्षेत्र जो आसपास के परिदृश्य में बदलाव के बावजूद कमोबेश वैसे ही बने हुए हैं) में सुरक्षा बढ़ाने की भी सिफारिश की गई है। यह इस खरगोश की जरूरतों और खतरों को बेहतर ढंग से समझने के लिए पारिस्थितिकी का व्यापक अध्ययन करने और नेपाल, भारत और भूटान के बीच मिली-जुली संरक्षण कार्रवाई को बढ़ावा देने पर भी जोर देता है।

कुंडू कहते हैं, “संरक्षित क्षेत्रों और आस-पास के घास के मैदानों में उचित पारिस्थितिकी प्रबंधन के साथ नियंत्रित तरीके से इन्हें जलाने का काम किया जाना चाहिए। इस प्रजाति को खत्म होने से रोकने के लिए इन्हें दूसरी जगह भेजने के अवसरों और कैप्टिव ब्रीडिंग कार्यक्रमों की संभावना तलाशी जानी चाहिए। इसके अलावा, संरक्षित क्षेत्रों और आस-पास की भूमि के भीतर अत्यधिक चराई का प्रबंधन करना अहम है।”
जलवायु परिवर्तन और आवास को नुकसान से पैदा हो रही चुनौतियों का समाधान करके तथा अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देकर ही इस संकटग्रस्त प्रजाति के भविष्य को सुरक्षित किया जा सकता है।
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यह खबर मोंगाबे-इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 26 जून, 2024 को प्रकाशित हुई थी।
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बैनर तस्वीर: असम खरगोश का इलेस्ट्रेशन। विकिमीडिया कॉमन्स के जरिए तस्वीर।