- भारत में हाल के दशकों में पशुधन की संख्या में वृद्धि देखी गई है। इसके बावजूद प्रभावी पशुधन प्रबंधन के लिए गुणवत्तापूर्ण चारे की उपलब्धता एक बड़ी चुनौती बनी हुई है, जो मौसम संबंधी घटनाओं के कारण और भी बढ़ गई है।
- अज़ोला, एक जलीय पौधा, हरे चारे के संकट के बीच पशुधन पोषण के लिए एक आशाजनक चारा विकल्प के रूप में उभरा है। तमिलनाडु सरकार ने राज्य में इसे अपनाने पर जोर दिया है।
- अज़ोला की खेती को अपनाने वाले किसानों ने कई तरह के लाभ बताए हैं, जिनमें चारे की लागत में कमी और दूध उत्पादन में वृद्धि शामिल है।
लगभग सात साल पहले, तमिलनाडु के थेनी के 41 वर्षीय पोल्ट्री किसान सुरुलीनाथन एस. ने मुर्गियों के चारे के रूप में अज़ोला नामक जलीय पौधे का उपयोग करना सीखा। वह उत्पादन को बढ़ाने के लिए प्रोटीन युक्त पशु आहार, कंसन्ट्रेट फीड का उपयोग करने पर विचार कर रहे थे। हालांकि, किसान प्रशिक्षण केंद्र में अज़ोला खेती पर प्रशिक्षण के बाद उन्हें एहसास हुआ कि यह अधिक किफायती विकल्प होगा। सांद्रित आहार की कीमत 60 से 70 रुपए प्रति किलोग्राम के बीच थी, जबकि अजोला के लिए लागत निवेश नगण्य था। अजोला और सांद्रित आहार दोनों के साथ प्रयोग करने के बाद, उन्होंने पाया कि परिणाम समान थे और सुरुलीनाथन ने अपने 1,000 मुर्गियों के लिए अज़ोला आहार अपनाने का फैसला किया।
अब वह अपनी मुर्गियों को खिलाने और उनकी नियमित देखभाल सुनिश्चित करने के लिए 10×12 फीट के दो अज़ोला गड्ढे बनाए रखते हैं। सुरुलीनाथन ने दावा किया, “अज़ोला खिलाने के बाद, मुर्गियों का वजन अच्छा हो गया और ग्राहकों ने मांस में बेहतर स्वाद की भी सूचना दी।”
अज़ोला एक जलीय तैरता हुआ फर्न है जो पानी के ऊपर एक घनी चटाई बनाता है और इसके कई उपयोग हैं। शुरू में इसका उपयोग मच्छरों के प्रजनन को रोकने के लिए या जैव-उर्वरक और मछली के चारे के रूप में किया जाता था, अब इसे मवेशियों के लिए आहार के रूप में बढ़ावा दिया जा रहा है।
पर्यावरण और जलवायु प्रभावों सहित विभिन्न कारणों से चारे तक पहुँचने में संघर्ष कर रहे किसानों को अज़ोला से कुछ राहत मिली है, जिसे वे घर के पास उगा सकते हैं। इसके अतिरिक्त, पानी की कम आवश्यकता के कारण अज़ोला को सूखे की स्थिति में वैकल्पिक चारे के रूप में बढ़ावा दिया गया है।
जलीय तैरता हुआ फर्न अज़ोला भारत के हरे चारे के संकट का एक विकल्प है। फर्न का उपयोग करने वाले किसानों ने दूध उत्पादन में वृद्धि सहित कई लाभों की सूचना दी है। विकिमीडिया कॉमन्स (CC BY-SA 4.0) के माध्यम से येरकॉड-एलांगो।
कांगेयम की एक अन्य किसान, 42 वर्षीय इंद्राणी कार्तिक ने अपने पड़ोसी की अज़ोला खेती में सफलता को देखने के बाद अपनी गायों के चारे के रूप में अज़ोला का उपयोग करने का निर्णय लिया। चूंकि उनके खेत का पानी कठोर था, उन्होंने पड़ोसी के खेत से पानी खरीदा और 360 लीटर का एक गड्ढा बनाया। वह हर दिन अजोला की कटाई करतीं और फिर गड्ढे को लगभग 18-20 लीटर पानी से भर देतीं।
अपना अनुभव साझा करते हुए, उन्होंने कहा, “अजोला बोने के सात दिनों के भीतर, यह तेजी से बढ़ा, जिससे मैं अपनी 10 गायों में से प्रत्येक को आधा किलोग्राम अजोला खिला सकी। गायें अच्छी तरह से विकसित हुईं और दिन में दो बार उनके चारे में अजोला डालने के बाद उनका दूध उत्पादन बेहतर हुआ।” उन्होंने डेढ़ साल तक यह काम जारी रखा, जिसके बाद उन्होंने अजोला की खेती बंद कर दी।
अजोला, एक पौष्टिक चारा
भारत में पशुधन और मुर्गी पालन आजीविका के महत्वपूर्ण स्रोत हैं, जिस पर लगभग 2.5 करोड़ लोग निर्भर हैं।
बीसवीं पशुधन जनगणना (2019) के अनुसार, देश में लगभग 30.28 करोड़ गोजातीय (गाय, भैंस, मिथुन और याक), 7.43 करोड़ भेड़, 14.89 करोड़ बकरियां, 90 लाख सूअर और लगभग 85.19 करोड़ मुर्गी हैं। 2012 की पिछली जनगणना की तुलना में सात वर्षों में पशुधन में वृद्धि हुई है।
हालांकि, पशुधन के वैज्ञानिक प्रबंधन में गुणवत्तापूर्ण चारे की उपलब्धता एक बड़ी बाधा बनी हुई है। साल 2022 में, तत्कालीन मत्स्य पालन, पशुपालन और डेयरी मंत्री, पुरुषोत्तम रुपाला ने हरे चारे के लिए 11.24%, सूखे चारे के लिए 23.4% और सांद्रित चारे के लिए 28.9% की कमी की सूचना दी। इस कमी में योगदान देने वाले कारकों में भूमि उपयोग के तरीको में बदलाव, शहरीकरण, चारागाह उत्पादकता में गिरावट और वाणिज्यिक फसलों के लिए भूमि परिवर्तन शामिल हैं। तमिलनाडु में 2016 के सूखे जैसी चरम मौसम की घटनाएँ चारा फसल की मात्रा और गुणवत्ता को प्रभावित करके पशुधन उत्पादन को खतरे में डालती हैं।
साल 2016 में राज्य में सूखे के बाद, तमिलनाडु सरकार ने कम पानी की आवश्यकता वाले चारा उगाने के वैकल्पिक तरीकों को सक्रिय रूप से बढ़ावा दिया। अजोला खेती उनमें से एक थी। साल 2018 में, राज्य सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों में स्वयं सहायता समूहों के लिए अजोला खेती के लिए लगभग 10,000 इकाइयाँ बनाईं। इसने हर पशु चिकित्सालय में अजोला खेती का एक मॉडल भी प्रदर्शित किया है।
तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय (TNAU) में कृषि माइक्रोबायोलॉजी विभाग में प्रोफेसर टी. कलैसेलवी ने बताया कि अजोला में आवश्यक प्रोटीन, अमीनो एसिड, विटामिन और कैल्शियम, फास्फोरस, पोटेशियम, आयरन, कॉपर और मैग्नीशियम जैसे खनिज होते हैं। उन्होंने कहा, “किफायती और कम रखरखाव वाला अजोला एक आदर्श प्रोटीन स्रोत है जिसके लिए न्यूनतम भूमि की आवश्यकता होती है। इसे उष्णकटिबंधीय और समशीतोष्ण परिस्थितियों में भी घर पर उगाया जा सकता है।”
अजोला लिग्निन की कम मात्रा होने के कारण आसानी से पचने योग्य है एवं इसमें जुगाली करने वाले पशुओं के आहार के लिए आवश्यक ईथर अर्क भी होता है। सर्वोत्तम परिस्थितियों में इसका बायोमास (आकार) तीन से पांच दिनों में दोगुना हो जाता है, जो 20-35% प्रोटीन, 0-15% खनिज और 7-10% अमीनो एसिड, बायोएक्टिव पदार्थ और बायोपॉलिमर के साथ उच्च पोषण मूल्य प्रदान करता है। कलैसेलवी ने बताया कि ताजा और सूखे बायोमास दोनों का उपयोग गाय और मुर्गी के चारे के रूप में किया जाता है।
विभिन्न अध्ययनों में भी अजोला के लाभों पर प्रकाश डाला गया है। तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय (TNAU) ने छोटे किसानों के बीच चारे की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए अजोला को एक आशाजनक विकल्प के रूप में रेखांकित किया है। अजोला के बारे में जानकारी प्रसारित करने वाले ब्रिटेन के अजोला फाउंडेशन के शोधकर्ताओं ने इसे पौष्टिक चारे के लिए एक विश्वसनीय विकल्प के रूप में पहचाना है और भारत में ऐसे उदाहरण प्रस्तुत किए हैं जहां अजोला का सफलतापूर्वक उपयोग किया गया है। फाउंडेशन की वेबसाइट पर लिखा है, “हालाँकि भारत जैसे देशों में दूध और मांस की मांग बढ़ी है, लेकिन घटते जंगल और चरागाह क्षेत्रों के कारण चारा उत्पादन में भी काफी गिरावट आई है।” “उच्च उपज देने वाली बौनी किस्मों के आने के कारण विभिन्न फसलों से चारे की उपलब्धता भी काफी हद तक कम हो गई है। इसलिए चारे की कमी की भरपाई वाणिज्यिक चारे से की जा रही है, जिसके परिणामस्वरूप मांस और दूध उत्पादन की लागत बढ़ गई है।”
पशुओं के चारे के लिए कम लागत वाली खेती
अज़ोला उगाने के लिए किसानों को विशेष आधारिक संरचना की आवश्यकता नहीं होती है, जबकि सांद्रित चारे के लिए एक विशिष्ट व्यवस्था की आवश्यकता होती है और इसे कई चरणों के माध्यम से तैयार किया जाता है, जो कम मवेशियों वाले छोटे किसानों के लिए संभव नहीं है। हालांकि, अज़ोला समान आवश्यक पोषण देता है और इसे किसी भी भूमि पर छोटे पैमाने पर उगाया जा सकता है जहाँ किसान 6X4 फीट का गड्ढा बना सकते हैं।
किसानों को 1-1.5 किलोग्राम ताज़ा अज़ोला कल्चर की आवश्यकता होती है जिसे वे आपस में बाँटते हैं या अपनी फसल से रखते हैं। वैकल्पिक रूप से, वे इस कल्चर को स्थानीय कृषि विश्वविद्यालय से लगभग 30 रूपए में खरीदते हैं। 6×4 फीट के तालाब के लिए, 10-15 किलोग्राम उपजाऊ मिट्टी (बड़े कणों या मलबे के बिना) को 5 किलोग्राम गाय के गोबर के साथ मिलाकर घोल बनाया जाता है। फिर इसे गड्ढे या तालाब में समान रूप से फैलाया जाता है। पानी का स्तर गड्ढे के आकार का तीन-चौथाई रखा जाता है और पत्तियों को गिरने से रोकने और आंशिक छाया के लिए ढक दिया जाता है। अजोला तेजी से बढ़ता है और लगभग 10-15 दिनों में पूर्ण विकास के बाद इसकी कटाई की जा सकती है।
इरोड में पुलियामपट्टी नगर पालिका के पास कनूर गाँव में एक जैविक किसान, मरुथाचलम सी. कई वर्षों से दो 6×12 तिरपाल गड्ढों में अजोला उगा रहे हैं। वह प्रत्येक गड्ढे में 10 बाल्टी खेत की रेत और पांच किलोग्राम जीवामृतम डालते हैं, जो गाय के गोबर से बना एक जैविक उर्वरक और विकास को बढ़ावा देने वाला पदार्थ है। उन्होने बताया, “मैं अपने खेत की रेत का उपयोग करता हूँ क्योंकि हम सिंथेटिक या हानिकारक रसायनों का उपयोग नहीं करते हैं जो अजोला के विकास को रोकते हैं। उन्होंने बताया कि गैर-जैविक किसान गाय के गोबर का उपयोग कर सकते हैं, यदि उनके पास जीवामृतम और बोरवेल या क्रशर की रेत नहीं है।”
वह मिट्टी की अम्लता को समायोजित करने के लिए अजोला के बीज डालने से पहले पांच दिनों तक इसे किण्वित होने देते हैं, क्योंकि गोबर से निकलने वाली मीथेन अजोला को नुकसान पहुंचा सकती है। “कुछ लोग मुझसे अजोला कल्चर भी लेते हैं, जो पौधे की छोटी मात्रा होती है। शुरू में, मैंने अपने बीज पशुपालन विभाग से लिए थे।”
सेंथिलकुमार ने बताया कि अजोला का गड्ढा सीधी धूप के बजाय आंशिक छाया में होना चाहिए। गड्ढे को नियमित रखरखाव की आवश्यकता होती है, जिसमें प्रतिदिन घोल को घुमाना, हर 10 दिन में रेत बदलना और सुपर फॉस्फेट जैसे खनिजों को नियमित रूप से मिलाना आदि शामिल है। उन्होंने कहा, “किसान अक्सर इस नियमित रखरखाव की उपेक्षा करके असफल हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त, ताजे पानी की कमी और तेज़ हवाएँ अजोला के विकास को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकती हैं।”
कलैसेलवी ने इस बात पर जोर दिया कि अजोला अधिकतम 37 डिग्री सेल्सियस तापमान सहन कर सकता है और 20 डिग्री सेल्सियस और 30 डिग्री सेल्सियस के बीच सबसे बेहतर तरीके से बढ़ता है। उन्होंने कहा कि यह उच्च तापमान को सहन नहीं कर सकता है। हालांकि, उचित रखरखाव के साथ, मारुथाचलम ने हाल ही में सबसे गर्म गर्मियों के दौरान भी नारियल के पेड़ों की छाया में अजोला को सफलतापूर्वक उगाया है। उनका कहना है कि उनके जैविक खेत से रेत और पानी किसी भी तापमान पर अजोला के विकास के लिए अत्यधिक अनुकूल परिस्थितियाँ प्रदान करते हैं।
“जो लोग एक ही गड्ढे में अजोला की खेती करते हैं, वे भी असफल हो जाते हैं। कम से कम दो अजोला गड्ढों से बारी-बारी से फसल लेना महत्वपूर्ण है, ताकि अधिक सुसंगत विकास हो सके,” प्रभु सी. ने जोर देकर कहा, जो इरोड में अपने खेत पर अजोला की खेती करते हैं और देश भर में अजोला बेड बेचते हैं।
आजीविका लाभ और विस्तार चुनौती
तमिलनाडु सरकार स्थानीय किसानों के बीच अजोला को बढ़ावा दे रही है। राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) ने 2015 में तमिलनाडु के तिरुनेलवेली जिले में डेयरी मवेशियों के लिए कम लागत वाले चारे के रूप में, अजोला की शुरुआत की थी और कृषि वैज्ञानिक एस. सेंथिलकुमार ने लाभार्थियों पर इसके समग्र प्रभाव को निर्धारित करने के लिए एक अध्ययन किया था।
अध्ययन में, अजोला अपनाने के फ़ायदों को समझने के लिए 375 NABARD समर्थित किसानों को शामिल किया गया। 2015-16 के दौरान, 15 गांवों के किसानों को मुफ्त अजोला गड्ढे और विस्तृत प्रशिक्षण प्रदान किया गया। एस. सेंथिलकुमार ने बताया, “21 दिनों के बाद, किसानों ने 6×4 गड्ढे में औसतन 750 ग्राम/दिन अजोला उगाया। अजोला खिलाने से प्रति गाय प्रतिदिन दूध उत्पादन में 400 मिलीलीटर की वृद्धि हुई।”
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सेंथिलकुमार ने अजोला को एक लागत प्रभावी समाधान के रूप में रेखांकित किया, “बढ़े हुए दूध उत्पादन के साथ, किसान संभावित रूप से अतिरिक्त 100 रुपए कमा सकते हैं। 40 रुपये प्रति लीटर की खरीद दर पर 480/माह। 10 महीने की दुग्ध अवधि में, यह प्रति गाय 4,800 रुपए हो सकती है।”
“दुग्ध अवधि के दौरान, एक गाय को आमतौर पर लगभग 1050 किलोग्राम सांद्रित चारे की आवश्यकता होती है, जिसमें से 450 किलोग्राम अजोला द्वारा प्रतिस्थापित किया जा सकता है। 35 रुपए प्रति किलोग्राम सांद्रित चारे की लागत के साथ, यह कमी दुग्ध अवधि के दौरान प्रति गाय 15,750 रुपए बचा सकती है,” उन्होंने दावा किया कि अजोला की लागत न्यूनतम है, जो आमतौर पर 1 रुपए प्रति किलोग्राम से अधिक नहीं होती है।
सेंथिलकुमार ने कहा कि दूध उत्पादन में वृद्धि के अलावा, दूध में वसा की मात्रा भी 0.3% बढ़ जाती है, जिससे किसानों को अधिक कीमत मिल पाती है। 2015-2016 की अवधि के दौरान, उनके नाबार्ड-प्रायोजित अजोला परियोजना में किसानों ने प्रति दुग्ध अवधि प्रति गाय पर 11,000 रुपए का लाभ कमाया।
सेंथिलकुमार के अध्ययन ने किसानों द्वारा अजोला अपनाने के मुख्य कारणों की पहचान की: फ़ीड लागत में कमी, दूध की पैदावार में वृद्धि, और अपनाने में आसानी।
तमिलनाडु पशु चिकित्सा और पशु विज्ञान विश्वविद्यालय (TNVASU), थेनी में पशु चिकित्सा और पशुपालन विस्तार शिक्षा विभाग के प्रमुख और प्रोफेसर, सेंथिलकुमार कहते हैं, “पशुपालन किसानों के लिए आजीविका का एक महत्वपूर्ण अवसर प्रदान करता है, जो दूध उत्पादन के माध्यम से नियमित आय प्रदान करती है। दूध उत्पादन को बढ़ाने के लिए अजोला खिलाने से उनकी आजीविका में काफी सुधार हो सकता है।”
अजोला की खेती से जुड़ी चुनौतियां
हालाँकि, कई कारणों से अजोला की खेती अभी भी व्यापक रूप से नहीं अपनाई जाती है। सेंथिलकुमार के अनुसार, इनमें भूखंड के रखरखाव को लेकर किसानों की चिंताएँ, मवेशियों को अजोला खिलाने का सामान्य डर और अजोला की खेती के लिए अनुकूल वातावरण की कमी शामिल है।
कलैसेलवी ने इस बात पर ज़ोर दिया कि जागरूकता की कमी अजोला को व्यापक रूप से अपनाने में बाधा डालने वाला प्राथमिक कारक है।
कोयंबटूर के पशुपालन विभाग के क्षेत्रीय संयुक्त निदेशक आर. पेरुमलसामी ने कहा, “स्थानीय पशु चिकित्सक प्रगतिशील किसानों की पहचान करते हैं और उन्हें अजोला की खेती अपनाने के लिए प्रेरित करते हैं। एक बार जब वे आर्थिक लाभ समझ जाते हैं, तो परिवर्तन सहज हो जाता है।”
आक्रामक प्रजातियों के बारे में चिंताओं के बारे में, कलैसेलवी ने स्पष्ट किया, “भारत में अजोला की 7-9 प्रजातियाँ पाई जाती हैं, और अजोला पिनाटा उनमें से एक है। केवल अजोला क्रिस्टाटा (कौल्फ़.), जो भारतीय वनस्पतियों के लिए एक विदेशी प्रजाति है, कश्मीर में आक्रामक है।”
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 13 जून 2024 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: मारुथाचलम के खेत में तेज गर्मी में भी अजोला पनपता है, जो उनके चार एकड़ के जैविक खेत में उपलब्ध प्राकृतिक रेत और ताजे पानी की बदौलत नारियल के पेड़ों की छाया में मज़बूती से बढ़ता है। तस्वीर- गौतमी सुब्रमण्यम द्वारा मोंगाबे के लिए।