- बाकू में 11 नवंबर से शुरू हुए सालाना संयुक्त राष्ट्र जलवायु शिखर सम्मेलन की सफलता जलवायु वित्त पर टिकी हुई है। सम्मेलन की सफलता काफी हद तक इस बात पर निर्भर करेगी कि विकासशील देशों को जलवायु संकट के दुष्प्रभावों से बचाने और उसके हिसाब से ढलने के लिए धनी देश ज्यादा धनराशि जारी करने पर सहमत होते हैं या नहीं।
- शिखर सम्मेलन में आम सहमति से वित्तपोषण की मात्रा पर सहमति बनने की उम्मीद है, जिसे नए तय किए गए सामूहिक तय लक्ष्य (सीक्यूजी) के रूप में जाना जाता है। यह विकसित देशों की ओर से साल 2009 में 100 बिलियन डॉलर देने के वादे की जगह लेगा।
- जलवायु परिवर्तन को संदेह की नजर से देखने वाले डोनाल्ड ट्रंप की व्हाइट हाउस में वापसी, कार्बन क्रेडिट और ऑफसेट के लिए रूपरेखा तैयार करना और यूरोपीय कार्बन टैक्स जैसे विषयों के चलते गर्मागर्म बहस और जोरदार बातचीत होने की संभावना है।
अजरबैजान की राजधानी बाकू में 11 नवंबर यानी सोमवार से शुरू हुए संयुक्त राष्ट्र जलवायु शिखर सम्मेलन के सबसे बड़े एजेंडे को महज एक शब्द में समेटा जा सकता है: वित्त। अगर इस साल जलवायु वित्त के लिए कोई व्यवस्था नहीं की गई, तो दुनिया भर में गरीब और कमजोर तबके को सबसे ज्यादा नुकसान उठाना पड़ेगा और धरती असहनीय रूप से गर्म होती जाएगी।
सौ से ज्यादा देशों के नेता 22 नवंबर तक बाकू में आयोजित कॉप-29 में दुनिया भर में तापमान में बढ़ोतरी के खतरों पर चर्चा करेंगे। यहां तेजी से बढ़ रहे जलवायु संकट को कम करने और उससे निपटने के लिए धन जुटाने के तौर-तरीकों पर भी विचार-विमर्श होगा।
वैसे तो जलवायु वित्त की उपलब्धता पक्का करना कॉप-29 में सबसे अहम मुद्दा है, लेकिन अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव जीतने वाले रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप भी सम्मेलन के दौरान बातचीत के केंद्र में रह सकते हैं। कॉप-29 पार्टियों के 29वें सम्मेलन का छोटा रूप है, जहां पार्टियों का मतलब जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसीसी) पर दस्तख्त करने वाले देशों से है। ट्रंप राष्ट्रपति चुनाव के अपने अभियान में “ड्रिल, बेबी, ड्रिल” कहने के लिए कुख्यात हैं, जिसमें उन्होंने तेल और गैस ड्रिलिंग के लिए अपना समर्थन जताया है। माना जा रहा है कि वे दुनिया भर में जलवायु कोशिशों के लिए बड़ी बाधा बन सकते हैं।
साल 2021 में खत्म हुए अपने पहले कार्यकाल के दौरान ट्रंप ने 2015 के पेरिस जलवायु समझौते से अमेरिका को अलग कर लिया था और तेल व गैस का उत्पादन बढ़ा दिया था। यूरोपीय शोध संगठन कोपरनिकस क्लाइमेट चेंज सर्विस के अनुसार सबसे गर्म साल 2024 के आखिर में वार्ताकारों और कार्यकर्ताओं को ट्रंप प्रशासन के दूसरे कार्यकाल की भयावहता का सामना करना पड़ रहा है, जबकि जलवायु परिवर्तन से प्रेरित मौसम की चरम घटनाओं के चलते दुनिया भर में इतनी मौत हुई हैं, जो अस्वीकार्य हैं और साथ ही खरबों डॉलर का नुकसान हुआ है।
गंभीर होती चेतावनी
हाल ही में किए गए एक अध्ययन में वैज्ञानिकों के समूह वर्ल्ड वेदर एट्रिब्यूशन (डब्ल्यूडब्ल्यूए) ने कहा कि जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल ने पिछले 20 सालों में मौसम की 10 सबसे घातक चरम घटनाओं को और तेज कर दिया है। इस वजह से पांच लाख सत्तर हजार से ज्यादा लोगों की जान गई है। इंपीरियल कॉलेज लंदन के सेंटर फॉर एनवायरनमेंटल पॉलिसी में डब्ल्यूडब्ल्यूए के सह-संस्थापक और प्रमुख फ्रेडरिक ओटो ने कहा, “जलवायु परिवर्तन कोई दूर का खतरा नहीं है।” “अगर हम तेल, गैस और कोयला जलाते रहेंगे, तो यह पीड़ा जारी रहेगी।”
कोपरनिकस क्लाइमेट चेंज सर्विस ने कहा कि 2023 में वैश्विक तापमान पहले से ही औद्योगिक काल से पहले वाले स्तर से 1.48 डिग्री सेल्सियस ज्यादा था और यह लगभग तय है कि 2024 में यह 1.5 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा रहेगा। पेरिस समझौते में, देशों ने वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी को 2 डिग्री सेल्सियस के भीतर रखने और इस सदी के आखिर तक इसे 1.5 डिग्री सेल्सियस तक नीचे लाने की कोशिश करने पर सहमति जताई थी। चूंकि, इस साल 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा टूट जाने की आशंका है, इसलिए कानूनी रूप से बाध्यकारी समझौते से उम्मीदें और इसकी विश्वसनीयता पहले ही कम हो गई है।
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) ने अपनी उत्सर्जन में फर्क से जुड़ी रिपोर्ट 2024 में कहा है कि देशों को राष्ट्रीय स्तर पर तय योगदान के अगले दौर में 2030 तक ग्रीनहाउस गैस के सालाना उत्सर्जन में 42 फीसदी और 2035 तक 57 फीसदी की कटौती करने के लिए सामूहिक रूप से प्रतिबद्ध होना चाहिए और इसे तेजी से कार्रवाई के साथ लागू करना चाहिए।
दुबई में पिछले शिखर सम्मेलन में सदस्य देशों ने जीवाश्म ईंधन से दूर जाने के लिए एक रोडमैप अपनाया था। संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन में पहली बार इस तरह का ऐतिहासिक समझौता हुआ था। हालांकि, दुबई घोषणापत्र में तेल, कोयला और गैस के इस्तेमाल को पूरी तरह से खत्म करने की प्रतिबद्धता नहीं जताई गई थी।
कुछ विश्लेषकों का कहना है कि कार्बन मार्केट के संचालन के बारे में बातचीत जारी रखने से जलवायु वित्त के दायरे को बढ़ाने में मदद मिल सकती है, जो कंपनियों को कार्बन क्रेडिट खरीदकर अपने ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को ऑफसेट करने की सुविधा देता है। कॉप-29 का एक उद्देश्य वैश्विक कार्बन मार्केट के लिए रूपरेखा को अंतिम रूप देना होगा, ताकि जलवायु कार्रवाई के लिए वैश्विक सहयोग और वित्तीय सहायता को सुविधाजनक बनाया जा सके।
यूएनईपी ने कहा कि मौजूदा स्वैच्छिक प्रतिबद्धताओं के कारण इस सदी में वैश्विक तापमान में 2.6-2.8 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी होगी। इससे भी बदतर यह है कि फिलहाल लागू की गई नीतियां इन प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के लिए भी अपर्याप्त हैं। अगर कुछ नहीं बदला, तो 2100 तक धरती का तापमान 3.1 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ने वाला है।
यूएनईपी रिपोर्ट पर अपनी राय रखते हुए संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने कहा, “हम धरती के लिहाज से तंग रस्सी पर चल रहे हैं।” “या तो नेता उत्सर्जन में फर्क को खत्म करें या हम जलवायु आपदा में डूब जाएंगे, जिसमें सबसे गरीब और सबसे कमजोर लोग सबसे ज्यादा पीड़ित होंगे।”
यूएनईपी की कार्यकारी निदेशक इंगर एंडरसन ने कहा, “कोशिशों का हर हिस्सा जीवन बचाने, अर्थव्यवस्था की रक्षा करने, नुकसान से बचने, जैव विविधता को संरक्षित करने और तापमान में तेजी से कमी लाने की क्षमता के संदर्भ में मायने रखता है।”
जलवायु वित्त पर पूरा दारोमदार
चूंकि, 2024 में मौसम की चरम घटनाओं ने दुनिया भर में अपनी मौजूदगी दर्ज कराई है, इसलिए यूएनईपी की एडेप्टेशन में फासले से जुड़ी रिपोर्ट (एडेप्टेशन गैप रिपोर्ट) 2024 में पाया गया है कि देशों को बदलती जलवायु के हिसाब से ढलने की कोशिशों में भारी मात्रा में बढ़ोतरी करनी चाहिए, जिसकी शुरुआत कॉप-29 में वित्त पर काम करने की प्रतिबद्धता से होनी चाहिए। सात नवंबर को जारी की गई रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु आपातकाल के दुष्प्रभावों से पार पाने में मदद के लिए विकासशील और गरीब देशों के लिए उपलब्ध वित्त, हर साल जरूरी 359 अरब डॉलर से बहुत कम है।
जैसा कि पहले के सम्मेलनों में हुआ है, यह पूरी तरह से स्पष्ट है कि कॉप-29 की सफलता इस बात से मापी जाएगी कि अमीर देश बहुपक्षीय तंत्रों के जरिए विकासशील अर्थव्यवस्थाओं को उनकी स्थिति से निपटने में मदद के लिए कितना धन देने के लिए सहमत होते हैं। बाकू में होने वाली बातचीत में यह केंद्रीय मुद्दा होने की उम्मीद है।
सभी वार्ताकार नया जलवायु वित्त लक्ष्य तय करने की कोशिश करेंगे, जो 2009 में तय लक्ष्य की जगह लेगा। पिछले लक्ष्य में 2020 तक विकासशील देशों के लिए हर साल 100 अरब डॉलर जुटाना था। संयोगवश, यह लक्ष्य पहले कुछ सालों में पूरा नहीं हो सका और ओईसीडी रिपोर्ट का 2022 में इसे पूरा करने का दावा भी विवादित है।
मुख्य मुद्दा यह होगा कि कितना धन दिया जाएगा। जलवायु वित्त के लिए नए सामूहिक तय लक्ष्य (एनसीक्यूजी) पर फैसला होने की उम्मीद है, जिसका उद्देश्य 2009 की प्रतिबद्धता को बदलना है। अमीर और विकासशील देशों के बीच भरोसा, पारदर्शिता और सहयोग के प्रमुख प्रतीक के रूप में देखा जाने वाला एनसीक्यूजी जलवायु संकट से निपटने के लिए जरूरी साझा जिम्मेदारी और आपसी प्रतिबद्धता को मजबूत करने के लिए अहम होगा।
विकासशील देशों की जलवायु वित्त जरूरतों के बारे में कई अनुमान मौजूद हैं। वित्त पर यूएनएफसीसीसी की स्थायी समिति ने कहा है कि 98 विकासशील देशों के राष्ट्रीय स्तर पर तय योगदान के आधार पर निर्धारित जरूरतें पहले से ही 455 अरब डॉलर से 584 अरब डॉलर हैं।
यूएनएफसीसीसी को भारत की ओर से दिए गए प्रस्ताव में हर साल कम से कम 1 ट्रिलियन डॉलर की एनसीक्यूजी राशि (10 खरब डॉलर) का प्रस्ताव है, जिसे बड़े पैमाने पर अनुदान और रियायती वित्त के जरिए वित्तपोषित किया जाएगा। हालांकि, अनुमान अलग-अलग हैं, लेकिन वे संकेत देते हैं कि जलवायु संकट से निपटने के लिए सालाना 1 ट्रिलियन डॉलर की राशि जरूरी होगी, जो पिछले 100 अरब डॉलर के लक्ष्य से कहीं ज्यादा है। इन फंड को हासिल करना चुनौतीपूर्ण बना हुआ है।
थिंक टैंक सेंटर फॉर ग्लोबल डेवलपमेंट के वरिष्ठ नीति सलाहकार जोनाथन बेयनन ने कहा, “एक बार कॉप-29 में अपनाए जाने के बाद, एनसीक्यूजी अलग-अलग देशों के योगदान पर आम सहमति बनाने के लिए आगे की प्रक्रियाएं शुरू कर सकता है।” “यह गतिशील ढांचा समय के साथ बदलती क्षमताओं और जिम्मेदारियों के हिसाब से होने में मदद कर सकता है।”
नुकसान और क्षति
जलवायु वित्तपोषण को सरकारों और बहुपक्षीय संगठनों जैसे सार्वजनिक स्रोतों और निजी निवेशों से हासिल करना होगा। इन फंड को धरती को गर्म करने वाले कार्बन उत्सर्जन को कम करने या विकासशील अर्थव्यवस्थाओं और कमजोर समुदायों को जलवायु परिवर्तन से होने वाली क्षति के हिसाब से ढालने में मदद के उद्देश्य से बनाए जाने वाले प्रोजेक्ट में लगाने की जरूरत होगी। साथ ही, गरीब देशों को जलवायु आपातकाल के चलते हुए नुकसान से उबरने में मदद करनी होगी, जिसे नुकसान और क्षति के रूप में जाना जाता है।
क्लाइमेट पॉलिसी इनीशिएटिव नामक गैर-लाभकारी संस्था के अध्ययन के अनुसार, पेरिस समझौते के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए साल 2030 से पहले सालाना जलवायु वित्त को कम से कम पांच गुना बढ़ाने की जरूरत है। दुबई शिखर सम्मेलन में देशों ने आम सहमति बनाई जिसमें जलवायु परिवर्तन से पार पाने के लक्ष्य शामिल थे, लेकिन यह नहीं बताया गया कि इनके लिए धन किस तरह जुटाया जाएगा।
जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए कमजोर समुदायों और देशों की मदद के लिए नुकसान और क्षति से बचाव के मकसद से लंबे समय से इंतजार किए जा रहे फंड को चालू करने के लिए भी ऐतिहासिक समझौता हुआ। हालांकि, अभी तक इस फंड में महज 700 मिलियन डॉलर (70 करोड डॉलर) ही वादा किया गया है, जबकि विकासशील देशों का कहना है कि हर साल कम से कम 100 अरब डॉलर की जरूरत है।
जानकारों का कहना है कि जब तक पर्याप्त वित्तीय मदद नहीं मिलती, तब तक यह फंड जलवायु न्याय (गरीबों को जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव से बचाना) के लिए असरदार उपकरण के बजाय प्रतीकात्मक कोशिश से ज्यादा कुछ नहीं होगा।
बाकू शिखर सम्मेलन में उठाया जाने वाला (एजेंडे में शामिल नहीं) एक और विवादास्पद मुद्दा यूरोपीय संघ की ओर से लाया गया कार्बन टैरिफ है जो भारत और चीन जैसे निर्यातक देशों को ऐसी स्थिति में डालता है जहां कार्बन बॉर्डर समायोजन तंत्र के रूप में जाने जाने वाले नियमों का अनुपालन करने के लिए बड़े पैमाने पर नए निवेश की जरूरत होगी। भारत, चीन, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका सहित देशों के बेसिक (BASIC) समूह ने अनुरोध किया है कि देश कार्बन बॉर्डर टैक्स और कारोबार पर पाबंदी लगाने वाले अन्य उपायों पर चर्चा करें जो विकासशील अर्थव्यवस्थाओं को नुकसान पहुंचा रहे हैं।
और पढ़ेंः कॉप28 के समापन तक भी देशों के बीच नहीं बनी आम सहमति
चीन और भारत संरक्षणवादी उपायों के तौर पर कार्बन टैक्स की आलोचना करते रहे हैं। भारत ने कहा है कि यह विकासशील देशों को अनुचित रूप से दंडित करता है। यूएनएफसीसीसी को दिए गए सबमिशन में कहा गया है कि देशों को “व्यापार और निवेश को प्रतिबंधित करने और जलवायु परिवर्तन से पार पाने के बहाने एकतरफा कार्बन बॉर्डर समायोजन उपायों और उचित परिश्रम जरूरतों जैसे नए हरित व्यापार अवरोधों को लागू करने के किसी भी उपाय का सामूहिक रूप से विरोध करना चाहिए, जो बहुपक्षीय नियमों और यूएनएफसीसीसी और पेरिस समझौते के बुनियादी सिद्धांतों से मेल नहीं खाता है।”
यह उम्मीद करना सही नहीं होगा कि बाकू शिखर सम्मेलन में इन मुद्दों पर विशेष तौर पर फैसले लिए जाएंगे, लेकिन देशों को कम से कम चर्चा जारी रखने पर सहमत होना होगा और यह संकेत देना होगा कि ये विकल्प अभी भी विचाराधीन हैं।
अजरबैजान के पारिस्थितिकी और प्राकृतिक संसाधन मंत्री और कॉप-29 के अध्यक्ष मुख्तार बाबायेव के लिए कुछ ठोस नतीजे देना मुश्किल होगा। पेट्रोलियम पदार्थों पर निर्भर अजरबैजान पर पहले से ही चौंकाने वाले खुलासे हो चुके हैं कि यहां वरिष्ठ अधिकारी प्राकृतिक गैस का उत्पादन बढ़ाने के लिए नए समझौते करने की कोशिश कर रहे हैं।
कॉप-29 और बहुपक्षीय सहयोग की संयुक्त राष्ट्र प्रक्रिया की विश्वसनीयता काफी हद तक इस बात पर निर्भर करेगी कि अज़रबैजान की अध्यक्षता किस प्रकार इन आशंकाओं को दूर कर पाती है और जलवायु वित्त एवं न्याय पर आम सहमति बनाने की दिशा में काम करती है।
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 11 नवंबर 2024 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: कॉप-29 11 नवंबर से अजरबैजान की राजधानी बाकू में शुरू हो चुका है। फ्लिकर के जरिए संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन की ओर से हबीब समदोव की तस्वीर (CC BY-NC-SA 2.0)।