- झारखंड में लैंड कॉमन्स पर जारी एक ब्रीफ में इनसे मिलने वाली सेवाओं की कुल कीमत 3,77,200 करोड़ रुपए सालाना बताई गई है। कॉमन्स से ईंधन, चारा, पानी और वनोपज जैसे जरूरी संसाधन मिलते हैं, जिससे ग्रामीण खासकर आदिवासी परिवारों को आमदनी का वैकल्पिक जरिया मिलता है।
- इस रिपोर्ट को तैयार करने का मकसद खराब हो रहे कॉमन्स को बचाने के लिए नीतियों को बेहतर बनाने में मदद करना है। साथ ही, इनकी आर्थिक अहमियत को सामने लाकर इनमें होने वाले निवेश को सही ठहराना है।
- जानकारों का कहना है कि आदिवासी पर्यावरण से जुड़े अपने पारंपरिक ज्ञान के जरिए जंगल का प्रबंधन करते हैं, जिसमें सिर्फ आजीविका के लिए इनका इस्तेमाल किया जाता है।
“आज भी जंगल से हमें जरूरत की तीन-चौथाई चीजें मिल जाती हैं। पंद्रह साल पहले तक जंगल से ही हमें हमारी जरूरत की सभी चीजें मिल जाती थी।” झारखंड के खूंटी जिले के कर्रा ब्लॉक के मुटपा गांव के झिरगा मुंडा की आंखें यह बताते हुए चमक उठती हैं।
इसी साल अगस्त में रांची में लैंड कॉमन्स (जंगल, चारागाह और बिना खेती वाली जमीन वगैरह) की कीमत पर जारी एक ब्रीफ मुंडा की बातों को मुकम्मल बना देता है। फाउंडेशन फॉर इकोलॉजिकल सिक्योरिटी (एफईएस) और कॉमन ग्राउंड की ओर से तैयार किए गए ब्रीफ के मुताबिक झारखंड में करीब 46 लाख हेक्टेयर में लैंड कॉमन्स हैं, जिनसे सालाना 3,77,200 करोड़ रुपए की सेवाएं मिलती हैं। यह आंकड़ा 2024-25 के लिए झारखंड के सकल राज्य घरेलू उत्पाद का करीब तीन-चौथाई है।
इस ब्रीफ के लिए डेटा और जानकारियां हरपिंदर संधू और अन्य की ओर से लिखे गए पेपर, ‘भारत में लैंड कॉमन्स से मिलने वाली पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं का मूल्यांकन: अनुसंधान और नीति के लिए निहितार्थ’ से लिए गए हैं जो 2023 में छपा था।
उपरोक्त पेपर को तैयार करने में शामिल रहीं एफईएस की प्रतीति प्रियदर्शिनी ने कहा कि जंगल से इकोसिस्टम सहित जो सेवाएं मिलती हैं, उसकी अक्सर अनदेखी हो जाती है। इससे इनकी आर्थिक कीमत का पता नहीं लग पाता है। इस ब्रीफ को तैयार करने का एक मकसद तो यह था कि इन सेवाओं के बारे में जागरूकता बढ़े। दूसरा यह सामने लाना था कि कॉमन्स आर्थिक आधार पर कितने अहम हैं। जो कॉमन्स खराब हो रहे हैं, उससे हमें कितना नुकसान हो सकता है, उसका भी अनुमान लगाने की कोशिश की गई है। वह कहती हैं कि झारखंड सहित पूरे देश में इस तरह कॉमन्स से मिलने वाली सेवाओं की सालाना आर्थिक कीमत पहली बार तय की गई है। पहले जो स्टडी हुई है, वह किसी खास जगह या किसी वनोपज को लेकर हुई है।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए अहम
ब्रीफ कहता है कि कॉमन्स से जलावन, चारा, पानी और वनोपज जैसे जरूरी संसाधन मिलते हैं जो ग्रामीण अर्थव्यवस्था और आजीविका को बनाए रखने के लिए बेहद जरूरी है। मूल्य हस्तांतरण विधि (वैल्यू ट्रांसफर मेथड) कॉमन्स के आर्थिक योगदान को तय करती है।
ब्रीफ के मुताबिक कॉमन्स के आर्थिक मूल्य को समझने से इन संसाधनों के बेहतर प्रबंधन और सुरक्षा के लिए नीतियां बनाने में मदद मिलेगी। साथ ही, इसे राज्य के अकाउंट में शामिल करने और संरक्षण की कोशिशों को बेहतर बनाने के लिए इकोसिस्टम सर्विस के लिए भुगतान करने का सुझाव दिया गया है।
भारत वन स्थिति की 2019 की रिपोर्ट के मुताबिक राज्य के जंगलों से 73,72,340 टन जलावन, 5,54,82,427 टन चारा, 50,535 टन बांस और दो मीटर से कम लंबाई वाली लकड़ियां 1,83,240 टन मिली थीं।
साल 2023 में आए शोध में शामिल रही और वाशिंगटन डीसी स्थित इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट की सीनियर रिसर्च फेलो वी झेंग ने मोंगाबे हिंदी को बताया, “हमारी रिसर्च का मकसद कॉमन्स के आर्थिक योगदान (समाज और स्थानीय समुदायों के लिए) को लेकर जानकारी की कमी को खत्म करना था, ताकि पॉलिसी के ईद-गिर्द होने वाली चर्चाओं को बदलकर बेहतर फैसले लेने में मदद की जा सके। हमें उम्मीद है कि इन नतीजों से कॉमन्स के संरक्षण और इन्हें बेहतर बनाने में निवेश को सही ठहराया जा सकेगा।”
झारखंड के लिए यह रिपोर्ट इसलिए भी अहम है, क्योंकि उसके कुल क्षेत्रफल के एक-चौथाई से ज्यादा भू-भाग पर जंगल हैं। वर्ष 2023-24 का राज्य का आर्थिक सर्वेक्षण कहता है, “(जंगलों से) हमें संसाधन, आजीविका मिलती है और (जंगल) हमारी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का आधार हैं।”
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के वनस्पति विज्ञान विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर पूर्वी सैकिया ने मोंगाबे हिंदी को बताया, “जंगल आदिवासियों के जीवन का अभिन्न हिस्सा है। यह उनकी आजीविका का मुख्य स्त्रोत है। जंगल के बिना वे लोग जीने के बारे में सोच भी नहीं सकते। झारखंड में जंगल के बिना ना तो सरहुल मनाया जा सकता है और ना ही करमा पर्व। तो, झारखंड के लोगों के लिए उनका पर्व-त्योहार हो, उनका धार्मिक विश्वास हो या फिर जीवन जीने का तरीका, सब जंगल से जुड़े हुए हैं।”
एफईएस के साथ काम करने वाले ‘पार्टनरिंग होप इनटू एक्शन फाउंडेशन’ (PHIA) के कार्यकारी निदेशक जॉनसन टोपनो मोंगाबे हिंदी से कहते हैं, “झारखंड में 26 फीसदी से ज्यादा आदिवासी हैं। जिस कॉमन्स की बात हो रही है, वह गरीबों और दबे-कुचले लोगों की रिपॉजिटरी है, यानी 60 फीसदी से भी ज्यादा गरीबों, दलितों, आदिवासियों की उस पर निर्भरता है। इसलिए हमें (विकास को लेकर) संतुलित नजरिया अपनाना होगा।”
सामुदायिक भागीदारी पर जोर
ब्रीफ में कहा गया है कि असरदार नीति बनाने के लिए लैंड कॉमन्स से मिलने वाले पारिस्थितिकी तंत्र से जुड़ी सेवाओं की कीमत को समझना जरूरी है। इन सेवाओं को बनाए रखने और बेहतर करने के लिए प्रबंधन के पर्यावरण हितैषी तरीकों की जरूरत है। ब्रीफ के मुताबिक बेहतर शासन व्यवस्था, समुदाय को शामिल करके और संरक्षण उपायों को लागू करके हर साल 36,706 करोड़ रुपए के नुकसान को रोका जा सकता है।
भारत वन स्थिति रिपोर्ट 2021 के मुताबिक राज्य के पूरे वन क्षेत्र में 184.11 मिलियन टन कार्बन स्टॉक है जो पूरे देश का 2.57 फीसदी है। यह 677.64 मिलियन टन कार्बन डाईऑक्साइड के बराबर है।
अगर हम मुटपा गांव की बात करें, तो उन्होंने कमोबेश अपना जंगल बचाए रखा है। मुटपा की ग्राम सभा ने जंगल ड्यूटी के लिए वन रक्षा समिति बना रखी है, जिसमें हर परिवार से एक-एक सदस्य का शामिल होना जरूरी है। हर समूह में महिला और पुरुषों सहित सात से आठ सदस्य होते हैं जो दिसंबर से मई तक सुबह और शाम जंगल ड्यूटी पर निकलते हैं। मई के बाद खेती-बाड़ी शुरू होने से लकड़ी चोरी की घटनाएं ना के बराबर होती हैं।
गांव के झिरगा मुंडा बताते हैं कि अगर कोई सदस्य जंगल ड्यूटी में नहीं जा पाता है, तो उस पर एक दिन की नकद मजदूरी (200 रुपए) का जुर्माना लगाया जाता है। अगर वजह वाजिब होती है, तो जुर्माना माफ हो जाता है।
ग्रामसभा के सदस्य बिरसा मुंडा कहते हैं कि गांव के किसी व्यक्ति को घर बनाने के लिए लकड़ी चाहिए, तो उसे पहले ग्राम सभा से मंजूरी लेनी होती है। गांव के ही फउदा मुंडा का कहना है कि जितनी भी लकड़ी काटी जाती है उसका पूरा हिसाब रखा जाता है और यह व्यवस्था तौल पर नहीं बल्कि गिनती पर आधारित होती है।
लेकिन, झारखंड में जंगलों की अवैध कटाई भी बड़ा मुद्दा है। एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक राज्य में वन माफिया ने 3.53 करोड़ पेड़ काट लिए। ये पेड़ 350 वर्ग किमी में लगे हुए थे। इससे राज्य सरकार को 822.79 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ।
मुटपा के ग्रामीणों का भी कहना है कि ऐसी घटनाएं नजर में आने पर वे लोग तुरंत वन अधिकारियों को जानकारी देते हैं। साथ ही, लकड़ी को अपने कब्जे में ले लेते हैं।
इसके अलावा, राज्य के जंगलों में आग लगने की घटनाएं भी होती हैं। लोकसभा में दिए गए एक जवाब के मुताबिक नवंबर 2020 से जून 2024 तक झारखंड मे आग लगने की 50,580 घटनाएं सामने आईं। आग लगने की घटनाओं को वनस्पतियों के नुकसान की बड़ी वजह माना जाता है।
भारत बंजर भूमि और भूमि क्षरण एटलस 2021 के मुताबिक राज्य में मरुस्थलीकरण/भूमि के खराब होने की दूसरी सबसे बड़ी वजह वनस्पतियों का नुकसान है। साल 2011-13 और 2018-19 के बीच मानवीय गतिविधियों में बढ़ोतरी के चलते जंगल क्षेत्र/झाड़ियों वाली जगहों पर वनस्पतियों का नुकसान तेज हुआ है। जहां 2011-13 में 13,79,038 हेक्टेयर में वनस्पतियों के नुकसान की जानकारी मिली थी। वहीं 2018-19 में यह बढ़कर 14,19,362 हेक्टेयर हो गया।
वहीं, जॉनसन टोपनो बेहतर प्रबंधन के जरिए आश्रितों की आय बढ़ाने के लिए वनोपज की मजबूत व्यावसायिक चेन बनाने पर जोर देते हैं। उन्होंने कहा, “हमें अपने विकास के लिए खनिजों और खदानों से आगे देखने की जरूरत है। वनोपज के लिए व्यावसायिक चेन बनाने की जरूरत है। ऐसा करने पर कॉमन्स तो बचेंगे ही, उनकी उत्पादकता भी बढ़ पाएगी।”
हालांकि, झारखंड के दुमका में ही जंगल में पेड़ों पर पुश्तैनी मालिकाना हक पर अध्ययन करने वाले पुनीत द्विवेदी और सब्यसाची कार जंगलों को बचाने के लिए अलग नजरिया पेश करते हैं। कार ने कहा, “पेड़ों पर इस तरह के पारंपरिक मालिकाना हक से हमें पता चलता है कि एक गांव में लोगों ने जंगल में लगभग 18,000 पेड़ों को बचाकर रखा है। तो असल में इस तरह की परंपरा ना सिर्फ गांव की मदद कर रही हैं, बल्कि जंगल को भी पुनर्जीवित कर रहे हैं और इसे सुरक्षित भी रख रही हैं।”
द्विवेदी ने कहा, “दुमका के शहरीटोला में अध्ययन करने का मुख्य उद्देश्य यह समझना था कि ये परंपराएं किसी खास स्थिति में किस तरह काम करती हैं और हम इससे सीख सकें और ऐसी नई अवधारणाओं को जंगल के संरक्षण के लिए लागू कर सकें। हमें नई नीतियां बनाने की जगह ऐसी परंपराओं को मजबूत करने की जरूरत है, ताकि बेहतर प्रबंधन हो सके।” द्विवेदी क्लेम्सन विश्वविद्यालय में वानिकी और पर्यावरण संरक्षण विभाग में प्रोफेसर हैं। वहीं कार वहां से पीएचडी कर रहे हैं।
भूमि अधिग्रहण के पारंपरिक तरीकों से आजीविका का नुकसान
लेकिन, देश की कुल खनिज संपदा के 40 फीसदी वाले झारखंड में खनन और विकास के चलते जंगलों पर दबाव बढ़ा है और इसके दुष्परिणाम भी सामने आए हैं।
पिछले साल लोकसभा में दिए गए एक जवाब के मुताबिक झारखंड में 2008-09 से 2022-23 तक 15691.30 हेक्टेयर जंगल की जमीन दूसरे कामों के लिए आवंटित की गई। हालांकि, इसी अवधि के स दौरान राज्य में कैम्पा के तहत 17600.83 हेक्टेयर पर पेड़ लगाए गए।
ब्रीफ भी कहता है, “भूमि अधिग्रहण के पारंपरिक तरीकों में अक्सर कॉमन्स के पारिस्थितिकी और सामाजिक मूल्यों की अनदेखी की जाती है, जिससे नुकसान होता है। नतीजतन, कॉमन्स की कीमत को अक्सर कम करके आंका जाता है और इन्हें बचाने पर भी ध्यान नहीं दिया जाता है। इसलिए, कॉमन्स की सामाजिक-पारिस्थितिकी और आर्थिक कीमतों को पहचानने और उन्हें बचाए रखने के लिए स्थापित कानूनों और प्रक्रियाओं की ज़रूरत है ताकि उनका स्थायी इस्तेमाल और प्रबंधन पक्का हो सके।”
संधू मोंगाबे हिंदी से कहते हैं, “दरअसल, भारत सहित दुनियाभर में कॉमन्स की पहचान वेस्टलैंड के तौर पर की जाती है, यानी इनकी कीमत शून्य होती है। इसलिए, इन्हें जीडीपी में शामिल नहीं किया जाता है और सरकार इन्हें काम में लेने के वैकल्पिक तरीके (जैसे खनन) खोजती है। लेकिन, हमारी स्टडी दिखाती है कि इनकी वैल्यू करोड़ों में है। संयुक्त राष्ट्र स्टेटिस्टिक्स ने सोशल एनवॉयरनमेंटल इकोनॉमिक्स अकाउंटिग फ्रेमवर्क बनाया है। भारत सहित संयुक्त राष्ट्र के सभी सदस्य देशों ने इस पर दस्तख्त किया है। तो, सभी देशों को आगे आने वाले सालों में राष्ट्रीय अकाउंटिग में इसे शामिल करना होगा। इससे कॉमन्स को बचाए रखने में मदद मिलेगी।”
ब्रीफ में भी समुदायों के लिए जमीन के पट्टे और अधिकारों को सुरक्षित करने के लिए कानूनी सुधारों को लागू करने, टिकाऊ प्रबंधन के लिए पारंपरिक ज्ञान को मान्यता देने की वकालत की गई है।
मुटपा के ग्रामीणों ने मोंगाबे हिंदी को बताया कि वे लोग अब अपने गांव के पास 543 एकड़ जंगल पर सामुदायिक वन पट्टे के लिए कोशिश कर रहे हैं। लेकिन, झारखंड में वन पट्टा देने का काम सुस्त रहा है।
भारत सरकार के जनजातीय कार्य मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार झारखंड में इस साल एक अक्टूबर तक व्यक्तिगत पट्टे के लिए 1,07,032 दावे मिले थे, जिनमें से 59,866 लोगों को पट्टा दिया गया। वहीं सामुदायिक पट्टे के लिए 3,724 आवेदन मिले और 2104 सामुदायिक पट्टे दिए गए। दोनों ही पट्टों के तहत 2,57,154.83 एकड़ जमीन दी गई।
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हालांकि, पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ से तुलना करने पर पता चलता है कि झारखंड में इसकी रफ्तार सुस्त है। छत्तीसगढ़ में इसी अवधि तक व्यक्तिगत पट्टे के लिए 8,88,028 आवेदन आए और इनमें से 4,78,653 दावों का निपटारा हुआ। सामुदायिक स्तर पर 53,949 आवेदन आए और 49,270 पट्टे दिए गए। इन दोनों के एवज में पड़ोसी राज्य में 60,93,983 एकड़ जमीन दी गई है।
झारखंड सरकार ने वन अधिकार कानून के तहत वन पट्टा देने में तेजी लाने के लिए पिछले साल नवंबर में वीर बंधु दिशोम कैंपेन शुरू किया था। इसके तहत जंगलों में रहने वाले आदिवासियों और अन्य पारंपरिक जनजातियों को बड़े पैमाने पर वन पट्टा देने का लक्ष्य रखा गया था। इस योजना के तहत अधिकारियों और कर्मचारियों को प्रशिक्षण भी दिया गया है, ताकि तेजी से दावों को निपटारा किया जा सके।
हालांकि, वन अधिकार कानून के जानकार तुषार दाश भूमि अधिग्रहण के संबंध में कमियों की तरफ इशारा करते हैं। वो कहते हैं, “वन अधिकार वाली जमीन के अधिग्रहण और मुआवजे को लेकर केंद्र सरकार के आदिवासी मामलों के मंत्रालय की तरफ से कोई तय नियमावली नहीं बनाई गई हैं। एफआरए के तहत निजी अधिकार के अलावा सामुदायिक अधिकार भी दिए जाते हैं। साल 2013 के भूमि अधिग्रहण कानून में प्रावधान है कि निजी अधिकार के लिए मुआवजे के साथ ही सामुदायिक वन अधिकार के लिए भी मुआवजा देना होगा। ओडिशा सरकार ने पहले एक गाइडलाइन बनाई है, लेकिन वह सिर्फ व्यक्तिगत अधिकारों के लिए है।”
लेकिन, पुनीत द्विवेदी जैसे जानकार भूमि की जगह पेड़ों का मालिकाना हक देने को ज्यादा कारगर तरीका मानते हैं।
द्विवेदी पूछते हैं, “जैसे हमारी निजी संपत्ति होती है, हम अपने घरों की परवाह करते हैं, कारों का ध्यान रखते हैं, अपनी बाइक की परवाह करते हैं। तो हम पेड़ों के साथ भी यही विचार क्यों नहीं लागू कर सकते। और यह कोई नया विचार नहीं है। यह विचार पिछली कई शताब्दियों से मौजूद है। इसलिए हम इसकी कुछ समझ का उपयोग कर सकते हैं। हम बहुत कम समय में और व्यावहारिक रूप से बिना किसी खर्च के इस पूरे विचार को बहुत बड़े पैमाने पर आगे बढ़ा सकते हैं।”
बैनर तस्वीरः मुटपा गांव में ग्राम सभा का आयोजन। तस्वीर- जॉन केरकेट्टा