- भारत में जीवाश्म ईंधनों का इस्तेमाल खत्म के लिए अभी भी “जस्ट ट्रांजिशन” की प्रक्रिया पर विचार-विमर्श जारी है, जिसमें तीन लाख से ज्यादा स्थायी कर्मचारी हैं। वहीं अनौपचारिक रूप से और इससे जुड़े क्षेत्रों में हजारों कामगार काम करते हैं।
- कोयला श्रमिकों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति का गहराई से अध्ययन करने वाली नई रिपोर्ट से यह स्पष्ट तस्वीर उभर कर सामने आती है कि जस्ट ट्रांजिशन का किन समुदायों पर सबसे ज्यादा असर होगा और क्यों।
- जानकारों का कहना है कि अर्थव्यवस्था में विविधता लाना जस्ट ट्रांजिशन का जरूरी हिस्सा है, खास तौर पर उन राज्यों के लिए जो आय के लिए कोयले पर बहुत ज्यादा निर्भर हैं।
जस्ट ट्रांजिशन पर आई एक नई रिपोर्ट में कहा गया है कि कोयले का इस्तेमाल खत्म करने से औपचारिक और अनौपचारिक कोयला श्रमिकों पर अलग-अलग असर होगा। लेकिन, इस उद्योग में अनौपचारिक तौर पर जुड़े कामगारों को ज्यादा चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा, क्योंकि इनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति खराब है और ये कामगार पर्याप्त शिक्षित भी नहीं हैं।
भारत में जीवाश्म ईंधनों से दूर जाने के लिए अभी भी “जस्ट ट्रांजिशन” की प्रक्रिया पर विचार-विमर्श जारी है, जिसमें कोयला खदानों में तीन लाख से ज्यादा स्थायी कर्मचारी हैं। वहीं अनौपचारिक रूप से और इससे जुड़े क्षेत्रों में हजारों कामगार काम करते हैं। जस्ट ट्रांजिशन के बेहतरीन तरीकों पर 2023 के एक दस्तावेज में कहा गया है कि भारत में यह बदलाव तीन मुख्य क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करेगा: खदानों को बंद करने की व्यापक योजना तैयार करना, लोगों और समुदायों पर ध्यान केंद्रित करना (आजीविका और टिकाऊ सामाजिक बुनियादी ढांचे का निर्माण पक्का करना) और खदानों के बंद होने के बाद पर्यावरण को बेहतर करना।
कोयला श्रमिकों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति का विश्लेषण करने वाली नेशनल फाउंडेशन ऑफ इंडिया (एनएफआई) की नई रिपोर्ट से यह स्पष्ट तस्वीर उभर कर सामने आती है कि जस्ट ट्रांजिशन का सबसे ज्यादा असर किन समुदायों पर होगा और क्यों।
रिपोर्ट में उन हालातों पर विस्तार से नजर डाली गई है, जिनमें कोयला और उससे जुड़े क्षेत्रों में औपचारिक और अनौपचारिक श्रमिक काम करते हैं। एनएफआई की शोध सहयोगी और रिपोर्ट की सह-लेखिका पूजा गुप्ता ने कहा, “यह कहना पर्याप्त नहीं है कि इन लोगों को स्वास्थ्य, सामाजिक और सड़क के बुनियादी ढांचे को ध्यान में रखे बिना वैकल्पिक नौकरियां दी जाएं। इन चीजों के बिना बदलाव अधूरा रहेगा।” रिपोर्ट में कहा गया है कि कोयला श्रमिकों की बड़ी संख्या हाशिए पर पड़ी जातियों और समूहों से है, जो अशिक्षित हैं और उनके पास खेती योग्य जमीन नहीं है, “इससे उन्हें कुशल श्रमिक बनाने का काम बहुत चुनौतीपूर्ण हो जाता है।”
कोयले की छिपी हुई लागत
एनएफआई के शोधकर्ताओं ने फोकस समूहों के साथ 20 चर्चाएं आयोजित कीं और तीन राज्यों – ओडिशा, झारखंड और छत्तीसगढ़ में 1,209 परिवारों का सर्वेक्षण किया। अध्ययन के लिए हर राज्य से दो जिले चुने गए। एक जो पूरी तरह या ज्यादातर कोयले पर निर्भर (खनन) था और दूसरा जो कोयले पर निर्भर और कोयले से जुड़ा हुआ (जैसे, ताप बिजलीघर के साथ खनन) दोनों था।
अध्ययन में पाया गया कि कोयला क्षेत्र के साथ अनौपचारिक जुड़ाव का खराब शैक्षणिक पृष्ठभूमि और जाति से गहरा संबंध है। झारखंड के रामगढ़ जिले में सवालों के जवाब देने वाले अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के 77% लोगों ने कहा कि उनके पास या तो कोई औपचारिक शिक्षा नहीं है या उन्होंने सिर्फ प्राथमिक शिक्षा ही हासिल की है। झारखंड के ही धनबाद में जवाब देने वाले 57.5% लोगों ने यही बात कही और छत्तीसगढ़ के कोरिया में यह अनुपात 52% था।
रिपोर्ट में कहा गया है, “स्वच्छ ऊर्जा की तरफ आगे बढ़ने में संसाधनों और अवसरों तक पहुंच के मामले में जाति-आधारित गैर-बराबरी मुख्य मुद्दे हैं। कोयला-उत्पादक क्षेत्रों में जहां ज्यादातर काम हाशिए पर पड़े समुदायों द्वारा किया जाता है, वहां शिक्षा और आजीविका के अवसर कम हैं।”
सर्वेक्षण में पाया गया कि फोकस समूह से जुड़ी सभी 20 चर्चाओं में जवाब देने वाले करीब 65% लोगों ने त्वचा संबंधी समस्याओं, जैसे डर्मेटाइटिस, एक्जिमा और फंगल संक्रमण और स्वास्थ्य पर होने वाले खर्च की बात कही।
दिलचस्प बात यह है कि ओडिशा के आंगुल जैसे ज्यादा विविधतापूर्ण उद्योगों वाले जिलों में कामगारों ने महीने में ज्यादा कमाई होने की जानकारी दी। गुप्ता ने कहा, “कोयला और कोयला से जुड़े क्षेत्रों में काम करने वाले आंगुल के ज्यादातर कर्मचारी स्थानीय नौकरियों में थे। अगर औपचारिक रोजगार है, तो बदलाव आसान होने की संभावना है, क्योंकि इन कामगारों की गणना करना और उनके लिए योजना बनाना आसान है। लेकिन, इसका मतलब यह भी है कि उनके पास ज़्यादा स्थिर आय और बचत और खर्च करने के ज्यादा साधन हैं।”
जानकारों का कहना है कि आर्थिक गतिविधियों में शुरुआती विविधता जस्ट ट्रांजिशन का अहम हिस्सा है। ऐसा खास तौर पर झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों के लिए जरूरी है जहां राजस्व और आय के लिए कोयले पर निर्भरता बहुत ज्यादा है। इंस्टीट्यूट फॉर एनर्जी इकोनॉमिक्स एंड फाइनेंशियल एनालिसिस (आईईईएफए) की हालिया पॉलिसी ब्रीफिंग में पाया गया कि झारखंड, ओडिशा और छत्तीसगढ़ में से ओडिशा की अपने राजस्व के लिए कोयले पर निर्भरता सबसे कम (3%) है। यह तथ्य दिखाता है कि इस राज्य की अर्थव्यवस्था ज्यादा विविध है, जो अन्य दो राज्यों की तुलना में इसके लिए अच्छा संकेत है। झारखंड के राजस्व में कोयले का योगदान 13% और छत्तीसगढ़ के राजस्व में 8% है।
एनएफआई के अध्ययन में पाया गया कि आर्थिक विविधता के बिना, श्रमिकों के पास आजीविका के लिए कोई अन्य विकल्प नहीं था। सबसे आम दूसरा काम खेती है, लेकिन कोयले पर बहुत ज्यादा निर्भर धनबाद जैसे जिलों में पर्यावरण की नाजुक हालत और पारिस्थितिकी ने इस तरीके को अस्थिर बना दिया है।
एनएफआई अध्ययन में यह भी पाया गया कि ये जिले महिलाओं के लिए असुरक्षित थे। जवाब देने वाले तीन-चौथाई लोगों ने महिलाओं के लिए असुरक्षित या दुश्मनी वाले माहौल की जानकारी दी। खनन क्षेत्रों में महिलाओं का योगदान और मौजूदगी काफी हद तक दिखाई नहीं देने वाली रही है। शोधकर्ता सुरवी नायक ने पिछले साल मोंगाबे इंडिया को दिए एक साक्षात्कार में बताया कि खनन यूनियनों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व नहीं है, जिससे वे अपने हित में मुद्दे नहीं उठा पाती हैं।
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गुप्ता ने कहा, “इन क्षेत्रों में महिलाएं पहले से ही भावनात्मक, यौन और मौखिक दुर्व्यवहार का सामना कर रही हैं। अगर उनके पति अपनी नौकरी खो देते हैं, तो इसका खामियाजा महिलाओं को भुगतना पड़ेगा। लैंगिक नजरिए के बिना जस्ट ट्रांजिशन नीति तैयार नहीं की जा सकती है और इन महिलाओं को किस तरह मदद दी जाएगी, यह सरकारों के लिए विचार का अहम पहलू है।”
श्रमिकों के लिए मदद बढ़ाना
एनएफआई की रिपोर्ट में यह सुझाव दिया गया है कि श्रमिकों की गिनती की जाए, ताकि यह पता चल सके कि कौन-से श्रमिक प्रभावित होंगे, प्रशिक्षण और कौशल कार्यक्रमों के लिए योग्यता मानदंड को आसान बनाया जाए और पलायन को रोकने के लिए न्यूनतम मजदूरी का भुगतान पक्का किया जाए। इसमें कोयला खनन क्षेत्रों में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) जैसे अवसरों को लाने का भी सुझाव दिया गया है, ताकि श्रमिक आय के लिए अन्य गतिविधियों पर निर्भर हो सकें। रिपोर्ट में कहा गया है कि फिलहाल कोयला क्षेत्रों में मनरेगा पर पाबंदी है।
आईईईएफए का कहना है कि सड़कों जैसी बुनियादी सुविधाओं तक पहुंच को बेहतर करने से राज्यों को आर्थिक रूप से विविधता लाने में भी मदद मिल सकती है। आईईईएफए के पॉलिसी ब्रीफ में कहा गया है, “सड़कों और संचार प्रणालियों जैसे बुनियादी ढांचे के विकास से बाजार और डिजिटल कनेक्टिविटी में सुधार होता है। कोयले पर निर्भर क्षेत्रों के आर्थिक विविधीकरण को सुविधाजनक बनाने के लिए उभरते उत्पादक क्षेत्रों में निजी निवेश को आकर्षित करने के लिए यह अहम है। भारत के कोयला उत्पादक राज्यों के लिए भी यही सही होगा, क्योंकि वे अन्य राज्यों के मुकाबले सार्वजनिक बुनियादी ढांचे के विकास से पीछे हैं।”
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 23 जुलाई, 2024 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: कोयले के ढेर से कोयला चुनती महिला। फ्लिकर [CC BY-NC-SA 2.0] के जरिए लेसरकल की तस्वीर।