- महाराष्ट्र का चंद्रपुर जिला इंसान और बाघ के बीच संघर्ष का केन्द्र बन चुका है। यहां बाघों के हमलों से होने वाली मौत की संख्या बढ़ रही है।
- जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव सहित कई वजहें बाघों को उनके प्राकृतिक आवासों से बाहर इंसानी बस्तियों के नजदीक लाने में अहम भूमिका निभाते हैं।
- इन संघर्षों के चलते जंगल के आसपास रहने वाले निवासियों की मानसिक सेहत बुरी तरह प्रभावित होती है। साथ ही, बाघों के हमलों के पीड़ितों और जीवित बचे लोगों के परिवारों में भय, चिंता और दुःख की भावना स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है।
नवंबर की एक रात। रात के करीब 9:30 बज रहे हैं। हमारी कार महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले के गांव मुधोली के पास पहुंची, जो मोहरली में हमारे किराए के होमस्टे से 10 किलोमीटर से भी कम दूरी पर है। इसी वक्त एक वयस्क बाघ हमारे सामने से सड़क पार कर गया। ड्राइवर ने कहा, “यह किसी चमत्कार से कम नहीं है।” “आप बहुत भाग्यशाली हैं कि आपको जंगल के बाहर बाघ करीब से देखने को मिला”। हालांकि, हमें जल्द ही पता चल गया कि इस तरह के दृश्य जिले के निवासियों के लिए रोजमर्रा की असलियत है और उनके लिए बाघ का दिखना खुशी से ज्यादा डर का कारण है।
अगली सुबह, हमने मोहरली गेट के सामने चाय की एक दुकान बीजाराम भाऊ चायवाला को देखा। यह गेट चंद्रपुर जिले में प्रसिद्ध ताड़ोबा-अंधारी टाइगर रिजर्व के 22 प्रवेश बिंदुओं (मुख्य क्षेत्र में छह) में से एक है। यहां तेजी से कारोबार हो रहा था। महाराष्ट्र में नाश्ते के लिए मशहूर बीजाराम के पोहा की प्लेटें लगने से पहले ही काउंटर से खत्म हो जाती हैं, क्योंकि पर्यटक राष्ट्रीय उद्यान में जाने से पहले हल्का नाश्ता करने के लिए रुकते हैं। महाराष्ट्र में स्थित ताड़ोबा-अंधारी टाइगर रिजर्व या TATR, प्रोजेक्ट टाइगर में शामिल कई वन्यजीव अभयारण्यों में से एक है। प्रोजेक्ट टाइगर को साल 1973 में शुरू किया गया था जो बेहद सफल सरकारी पहल है। यह बाघ की घटती आबादी को बढ़ाने के लिए है। तब से यह जगह वन्यजीवों को देखने वाले उत्साही और बाघों को देखने की चाह रखने वाले सैलानियों के लिए पसंदीदा जगह बन गई है।
अप्रैल 2022 में देशभर में बाघों की आबादी के अनुमान जारी किए गए थे। इसके अनुसार, 3682 की राष्ट्रीय औसत आबादी में से महाराष्ट्र में 444 बाघ हैं। टीएटीआर में लगभग 97 बाघ होने का अनुमान है। हालांकि, अनौपचारिक अनुमान बताते हैं कि यह संख्या 150 के आसपास हो सकती है, जिसमें लगभग 100 बाघ स्रोत आबादी (एक आवास में बड़ी आबादी का अपेक्षाकृत छोटा समूह जो उन्हें पर्याप्त रूप से मदद करता है) के लिए जिम्मेदार हैं। स्त्रोत आबादी वह होती है, जिन पर शोध के आंकड़े आधारित होती है।
रिजर्व के बफर जोन में रहने वाले लोग हमेशा भय और चिंता में रहते हैं। जब वे अपनी कहानियां साझा करते हैं, तो उनमें लाचारी की भावना स्पष्ट रूप से दिखाई देती है, जिसमें बताया गया है कि किस तरह उनके आस-पास बाघों की बढ़ती मौजूदगी ने उनके दैनिक जीवन और आजीविका को बदल दिया है। मोंगाबे इंडिया ने TATR के बफर जोन और ब्रह्मपुरी वन प्रभाग के रिजर्व वन क्षेत्रों के पास के गांव के कई लोगों का साक्षात्कार लिया।
गांवों में आज भी जाते हैं बाघ
साल 2017 और 2022 में दो भाइयों और स्थानीय निवासी गुजाबराव और नमुजीराव धांडे पर हुए घातक हमलों के बाद से, टीएटीआर के पास गांव सीताराम पेठ के लोग एक और त्रासदी के डर में जी रहे हैं। बाघ अक्सर गांव के पास दिखाई देते हैं, सड़क पार करते हैं, मोटरसाइकिलों का पीछा करते हैं, खेतों में फसलों के बीच से निकलते हैं और यहां तक कि गांव में भी टहलते हैं। सीताराम पेठ के निवासी और दो पीड़ितों के भाई रामभाऊ संभाजी धांडे ने मोंगाबे इंडिया से बात करते हुए कहा, “एक बार हमारे गांव के पास चार बाघ थे।” भारत के सबसे बड़े और सबसे पुराने राष्ट्रीय उद्यानों में से एक, ताड़ोबा-अंधारी टाइगर रिजर्व 1,727 वर्ग किलोमीटर में फैला है। इसमें मुख्य क्षेत्र लगभग 625 वर्ग किमी है। हाल ही में 79 वर्ग किमी को भी संरक्षित घोषित किया गया है।
किसी वयस्क बंगाल टाइगर का घर आम तौर पर 40-150 वर्ग किमी के दायरे में होता है। यह दायरा लिंग और स्थान जैसे कारकों पर निर्भर करता है। बाघों की बढ़ती संख्या और अनियमित बारिश जैसे जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव सहित अलग-अलग कारक बाघों को इंसानी बस्तियों के नजदीक जाने के लिए प्रेरित करते हैं, जिसके चलते लोगों से उनका सामना होता है।
हालांकि, ऐसा भी नहीं है कि इंसान और बाघ का आमना-सामना होने पर हर बार संघर्ष होता ही है, लेकिन आंकड़े बताते हैं कि चंद्रपुर जिले में घातक घटनाओं में बढ़ोतरी हो रही है। साल 2022-2023 में बाघों के हमलों से 111 लोगों की मौत दर्ज की गई और 2023-2024 में 59 मौत पहले ही दर्ज की जा चुकी हैं। तलना करने पर पता चलता है कि 2018-2019 में 36 और 2019-2020 में 47 मौत हुईं। ये आंकड़े वन विभाग हैं, जिसे यहां की सुरक्षा के लिए काम करने वाले गैर-लाभकारी संगठन के स्रोत की ओर से नाम नहीं बताने की शर्त पर साझा किया गया है।
संघर्ष से जीविका पर असर
मध्य भारत में वन्यजीव और यहां की जगहों के संरक्षण पर काम करने वाले एनजीओ सतपुड़ा फाउंडेशन के सहायक निदेशक मंदार पिंगले ने बताया कि बाघों की मौजूदगी ने रिजर्व के आस-पास के समुदायों के सामाजिक ताने-बाने को बिगाड़ दिया है। उदाहरण के लिए, सीताराम पेठ में दो बस्तियां महज आधा किलोमीटर की दूरी पर स्थित हैं, लेकिन बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ने के लिए उनके बीच पैदल चलना पड़ता है। क्षेत्र में वन्यजीवों की ज्यादा आवाजाही को देखते हुए, सुरक्षा के लिए गांव के बुजुर्ग बच्चों के साथ जाते थे।” उन्होंने कहा, “आखिरकार, यह एहतियात अपर्याप्त साबित हुई, क्योंकि गांव के पास देखे जाने वाले बाघों की संख्या बढ़ गई, जिसके कारण वन विभाग को बच्चों को लाने-ले जाने के लिए इलेक्ट्रिक वाहन और ड्राइवर तैनात करना पड़ा।”
पिंगले ने बाघ की मौजूदगी के एक और बारीक असर की ओर भी इशारा किया: गांव के युवा पुरुष दुल्हन खोजने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। दूसरे गांवों के परिवार नहीं चाहते कि उनकी बेटियां ऐसे गांवों में जाएं जहां बाघों की गतिविधि अक्सर होती है।
बाघ अभयारण्य के बफर क्षेत्र में स्थित मोहरली, सीताराम पेठ और कोंडेगांव जैसे गांवों में बाघ अक्सर बस्तियों में घुस आते हैं और देर शाम को सड़कों पर घूमते हैं, जिससे लोगों के लिए बाहर निकलना असुरक्षित हो जाता है। सीताराम पेठ गांव की पारिस्थितिकी विकास समिति के अध्यक्ष मधुकर पांडुरंग कोवे ने खुशी से टिप्पणी की कि बाघ अब पालतू जानवरों की तरह घूमते हैं। गांव के एक अन्य निवासी शंकर धांडे ने एक और गंभीर चिंता जताई: समय पर चिकित्सा देखभाल पाने में मुश्किल होती है, क्योंकि सबसे नजदीक का सरकारी स्वास्थ्य केंद्र लगभग 10 किमी दूर है। उन्होंने कहा, “अगर हमें समय पर चार पहिया वाहन नहीं मिलता है, तो तुरंत चिकित्सा सहायता पाना असंभव है।”
मोंगाबे इंडिया के दौरे से सिर्फ चार दिन पहले कोंडेगांव के 75 वर्षीय निवासी पर एक बाघिन और उसके दो शावकों ने हमला कर दिया था। वह बुजुर्ग जंगल के बगल में स्थित अपने खेत में घूमने गए थे। शाम को वापस लौटते समय, वह पशुओं के लिए घास इकट्ठा करने के लिए जंगल में गए। तभी उन पर हमला हो गया। कोंडेगांव के सरपंच रवींद्र घोड़मारे का मानना है कि वन विभाग को जंगल के मुख्य क्षेत्र में बाड़ लगाने पर विचार करना चाहिए। उन्होंने सुझाव दिया, “कम से कम कुछ बाघ अंदर रहेंगे।” हालांकि, कोवे को पूरे गांव (सीताराम पेठ) को सुरक्षित क्षेत्र में स्थानांतरित करने के अलावा कोई समाधान नहीं दिखता। उन्होंने सुझाव दिया, “हम सुरक्षित रहेंगे और बाघों को घूमने के लिए भी पर्याप्त जगह मिलेगी।”
सतपुड़ा फाउंडेशन के सहायक संरक्षण अधिकारी विशांक भोस्कर ने बताया कि जानवरों पर नजर रखने जैसे उपाय तब तक नहीं किए जाते जब तक कि बार-बार हमलों के कारण कोई “समस्याग्रस्त जानवर” की पहचान ना हो जाए। “ऐसे मामले सामने आए हैं जहां ऐसे जानवरों को पकड़कर चिड़ियाघर में ले जाया गया है।”
संघर्ष की वजह
दुनिया भर में जलवायु परिवर्तन को मानव-वन्यजीव संघर्षों में बढ़ोतरी की मुख्य वजह माना जा रहा है। यह संरक्षित क्षेत्रों में संसाधनों के बंटवारे को लेकर संघर्ष को जन्म देता है, जिससे वन्यजीव मानव बस्तियों के करीब जाने को मजबूर होते हैं। वन्यजीव शोधकर्ता और एनजीओ वाइल्डलाइफ कंजर्वेशन ट्रस्ट (डब्ल्यूसीटी) के अध्यक्ष अनीश अंधेरिया ने बताया कि अनियमित बारिश से फसलें खराब होती हैं, जंगलों में पानी कम हो जाता है और वनों की स्थिति खराब हो जाती है। उन्होंने कहा, “इन कारकों के साथ-साथ आक्रामक प्रजातियों और परजीवियों के प्रसार से शिकार की आबादी में कमी आती है, जो बाघों को इंसानी बस्तियों की ओर ले जाने में अहम योगदान देता है।” उन्होंने आवासों में बदलाव की ओर भी इशारा किया, जहां संरक्षित क्षेत्रों की गुणवत्ता कम हो जाती है और संरक्षित क्षेत्रों के बाहर के कुछ क्षेत्र, अक्सर मानव आवास, जंगली जानवरों के लिए बेहतर आवास बन जाते हैं। वनोपोज पर निर्भर कई समुदायों के पास खेत और मवेशी होते हैं। इसलिए, संसाधन की कमी से जूझ रहे जंगलों के किनारों पर बसे गांव आसान शिकार की तलाश करने वाले शिकारियों को अपनी ओर खींचते हैं।
लघु वनोपजों के संग्रह में बढ़ोतरी से वन पारिस्थितिकी तंत्र पर दबाव भी बढ़ता है, जिससे इन क्षेत्रों में इंसानी गतिविधियाँ बढ़ जाती हैं। चंद्रपुर में डब्ल्यूसीटी के कार्यान्वयन प्रमुख किशोर बनसोडे ने स्थानीय समुदायों की जंगलों पर गहरी निर्भरता पर विस्तार से बात की। उन्होंने कहा, “इन गांवों में ज्यादातर गतिविधियां सीधे जंगल से जुड़ी हुई हैं।” महुआ, तेंदू के पत्ते और आंवला जैसे लघु वनोपोज और जलाऊ लकड़ी इकट्ठा करने से लेकर अक्सर जंगल के पास स्थित खेतों में काम करने और यहां तक कि खुले में शौच के लिए भी ग्रामीण अपनी रोज की जरूरतों के लिए जंगल पर बहुत ज्यादा निर्भर हैं। यह निर्भरता उन्हें वन्यजीवों के हमलों के प्रति बहुत ज्यादा संवेदनशील बनाती है। भोस्कर ने कहा कि निवासियों ने चराई वाले मवेशियों के साथ जंगल में जाना बंद कर दिया है। “शाम को, जब एक या दो मवेशी वापस नहीं आते हैं, तो सभी को पता चल जाता है कि उन्हें शायद बाघ ने उठा लिया है।”
पिंगले ने यह भी बताया कि मध्य भारत में जंगल से महुआ के फूल (मधुका लॉन्गिफोलिया) एकत्र करने का सांस्कृतिक महत्व है। फूलों से बनी देशी शराब सहित महुआ उत्पाद सामुदायिक कार्यक्रमों और त्योहारों में जरूरी हैं। इसी तरह, तेंदू के पेड़ (डायोस्पायरोस मेलानॉक्सिलॉन) की पत्तियां स्थानीय अर्थव्यवस्था में अहम भूमिका निभाती हैं।
साल 2012 और 2013 के बीच, चंद्रपुर को महाराष्ट्र में शराबबंदी वाला जिला घोषित कर दिया गया था, जिससे शराब पर पूरी तरह से पाबंदी लग गई थी। पिंगले ने कहा, “प्रतिबंध के बाद, हमने महुआ संग्रह में बढ़ोतरी देखी, खासकर ब्रह्मपुरी डिवीजन के वन क्षेत्रों में।”
उन्होंने कहा कि सतपुड़ा फाउंडेशन के पास मौजूद सैटेलाइट इमेज इस बढ़ोतरी की पुष्टि करती हैं। वे महुआ और तेंदु के संग्रह के मौसम के दौरान जंगल की आग में बढ़ोतरी दिखाते हैं। सतह पर लगी आग झाड़ियों को जला देती है व तेंदु के विकास में मदद करती है और महुआ फूल को जमा करना आसान बनाती है। पिंगले ने कहा, “हमने पाया कि 2013 के बाद से, जहां भी जंगल में आग लगी, महुआ संग्रह में भी बढ़ोतरी हुई। इसके अलावा, इन क्षेत्रों में बाघों के साथ नकारात्मक तरीके से सामना होने सहित मानव-वन्यजीव संघर्ष भी बढ़ गए।”
मानव की ओर से पैदा किए गए व्यवधान में बढ़ोतरी, जैसे कि जंगलों को काटकर सीधे बुनियादी ढांचा खड़ा करना और खेती को बढ़ावा देने से स्थिति को और भी बदतर बन गई, जिससे मानव-बाघ संघर्ष में बढ़ोतरी हुई।
पिंगले ने बफर जोन में कम संघर्ष वाले मोहरली क्षेत्र और ज्यादा संवेदनशील ब्रह्मपुरी क्षेत्र से तुलना की, जहां प्रादेशिक वन हैं। 150 किमी की दूरे वाले ब्रह्मपुरी के विपरीत, मोहरली के बफर जोन में बुनियादी ढांचे की कमी नहीं है और वहां के गांवों को डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी जन-वन विकास योजना जैसी सरकारी पहलों से फायदा मिलता है, जो गांव की पारिस्थितिकी-विकास समितियों के जरिए वैकल्पिक आजीविका में मदद करती है। साथ ही, जंगल पर निर्भरता को कम करती है। विभिन्न गैर सरकारी संगठनों की भागीदारी के जरिए बेहतर जागरूकता और खुले में शौच को कम करने जैसी बेहतर स्वच्छता सुविधाएं अन्य वजहें हैं। पिंगले ने समाधान के रूप में इन सुविधाओं को ब्रह्मपुरी तक बढ़ाने का सुझाव दिया।
मानसिक स्वास्थ्य पर असर
पिछले साल 25 अगस्त को बफर जोन के टेकाडी गांव की सुलोचना काशीनाथ कन्नाके ने अपनी सास लक्ष्मीबाई रामराव कन्नाके के लिए दोपहर का खाना पैक किया। उनकी सास उस दिन सुबह-सुबह सोयाबीन और चना (फलियां) की फसल की देखभाल करने के लिए अपने खेत पर गई थीं। भोजन के बाद, दोनों महिलाएं खेत की ओर वापस जाने लगीं, तभी अचानक एक बाघ ने लक्ष्मीबाई पर हमला कर दिया और उसे मार डाला।
सुलोचना ने याद करते हुए बताया, “मुझे लगा कि अब मुझ पर हमला होगा। यह बड़ा बाघ था जिसके जबड़े बहुत बड़े थे।” उस दिन की यादों से परेशान सुलोचना हमले के बाद आठ से 10 दिनों तक सो नहीं पाई। उन्होंने कहा, “जब भी मैं अपनी आंखें बंद करती थी, मुझे बाघ का चेहरा दिखाई देता था।” जब उनसे पूछा गया कि क्या उन्होंने अपनी नींद न आने और डर के बारे में किसी डॉक्टर से सलाह ली है, तो वह सावधान हो गईं और दूर देखते हुए कहती हैं: “मैं किसी डॉक्टर के पास नहीं गई”। हमले के बाद से उनके पति हर दिन उनके साथ खेत पर जाते हैं, उन्हें फिर से हमला होने का डर रहता है।
भारत में मानसिक स्वास्थ्य सेवा हासिल करने में कलंक अहम बाधा बनी हुई है। ऐसा खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में है, जहां जागरूकता और देखभाल तक पहुंच दोनों ही सीमित हैं। डब्ल्यूससीटी की प्रमुख सामाजिक मनोवैज्ञानिक प्राची परांजपे अक्सर मानव-वन्यजीव संघर्ष में सबसे आगे रहने वाले लोगों में लाचारी की भावना देखती हैं। उन्होंने कहा, “ये ऐसी परिस्थितियां हैं जिनसे आप बच नहीं सकते, क्योंकि आपकी आजीविका इस पर निर्भर करती है।” “आप जानते हैं कि आपके खेत में कहीं न कहीं एक बाघ है, लेकिन अगर आप नहीं जाते हैं, तो यह आपकी आमदनी को प्रभावित करता है, इसलिए आपको अपनी जान जोखिम में डालनी पड़ती है।” कई लोगों के लिए, यह उनकी कड़वी असलियत बन गई है, और अक्सर निराशा और गुस्सा बढ़ता है, खासकर हमले के बाद।
बाघ के हमलों से बचे लोग जैसे कि मुडजे के 59 वर्षीय नारायण देवजी पेटकुले और कोंडेगांव के 75 वर्षीय गजानन कौडू चौखे, अक्सर गंभीर रूप से विकलांग हो जाते हैं। चौखे की एक आंख चली गई, जबकि पेटकुले के हाथ लगभग गतिहीन हो गए हैं, जो हमेशा अकड़न की स्थिति में रहते हैं। पेटकुले को अभी भी बार-बार बुरे सपने आते हैं और सोते समय उनके कंधे जम जाते हैं। आंखों में आंसू भरकर उन्होंने कहा कि बाघ ने उनसे कुछ भी करने की क्षमता छीन ली है, हालांकि वे जोर देकर कहते हैं कि अब उन्हें जानवर से डर नहीं लगता।
परांजपे के अनुसार, ऐसे हमलों के पीड़ितों में पोस्ट-ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (पीएसटीडी) होने की संभावना होती है। हालांकि, औपचारिक नैदानिक निदान के बिना, उन्हें इससे निपटने में मदद करने के लिए लक्ष्य करके कोई मदद नहीं दी जाती है।
परांजपे का मानना है कि इन कमजोर समुदायों के दुख और आघात को सही मायने में समझने के लिए शहरी पूर्वाग्रहों को अलग रखना ज़रूरी है। उन्होंने बताया कि ग्रामीण समुदाय नकारात्मक भावनाओं को अलग-अलग तरीके से देखते हैं, कभी-कभी सामूहिक रूप से भी। उन्होंने एक बाघ के हमले से बचे व्यक्ति का उदाहरण दिया जो बचने के लिए पेड़ पर चढ़ गया, लेकिन डर के मारे उसकी पैंट गीली हो गई। हालांकि, यह घटना उसके लिए दर्दनाक थी, लेकिन उसके समुदाय के सदस्यों ने स्थिति को हल्का करके और शर्मनाक पल के बारे में उसे चिढ़ाकर उसे इससे निपटने में मदद की। हालांकि, शहरी नजरिए से यह सामुदायिक प्रतिक्रिया असामान्य थी, लेकिन इसने पीड़ित को अपने आघात से निपटने में मदद की, जो सांस्कृतिक रूप से स्वीकार्य और भावनात्मक रूप से मददगार था।
दुःख के साथ जीवन
मुंबई विश्वविद्यालय में अप्लाइड साइकोलॉजी के एसोसिएट प्रोफेसर विवेक बेलहेकर ने चंद्रपुर में वन्यजीव संघर्षों का मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन किया है। उन्होंने इस क्षेत्र के लगभग 7,000 घरों का सर्वेक्षण किया है। मोंगाबे इंडिया के साथ पहले के एक साक्षात्कार में, उन्होंने पीड़ितों के परिवारों द्वारा अक्सर अनुभव किए जाने वाले दुःख को सामने रखा। उन्होंने बताया कि वन्यजीव मुठभेड़ में परिवार के किसी सदस्य को खोने से गंभीर आघात हो सकता है, जिसका लंबे समय तक असर और दुख दिखाई दे सकता है।
बेलहेकर ने कहा, “परिवार का कोई सदस्य सिर्फ आधे घंटे के लिए घर से निकलता है और वापस नहीं आता। बाद में परिवार को पता चलता है कि उस व्यक्ति को जंगली जानवर ने मार दिया है।” समुदाय की प्रतिक्रिया अक्सर सामूहिक होती है, जिसमें लोग वन विभाग से भिड़ जाते हैं। “विभाग आमतौर पर तनाव को शांत करने के लिए मुआवज़ा जल्दी जारी कर देता है। हालांकि, अक्सर जिस बात को अनदेखा किया जाता है, वह है परिवार का दुख और वे लंबे समय तक इससे किस तरह निपटते हैं।”
पिंगले ने कहा, “वन विभाग बाघों द्वारा मारे गए लोगों के परिवारों को 25 लाख रुपए का मुआवजा देता है, जिसका आधा हिस्सा सावधि जमा में जमा कर दिया जाता है। इस हिस्से को 10 साल बाद ही निकाला जा सकता है।” बाघों द्वारा मारे गए मवेशियों के लिए, मवेशियों के बाजार मूल्य का 75% मुआवजा के रूप में दिया जाता है। उन्होंने कहा कि इस तरह की मदद गांव के निवासियों की नाराजगी को रोकने में सहायता करती हैं। ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए लंबी अवधि का कोई समाधान नहीं सोचा जाता है।
उन्होंने कहा, “किसी परिवार के लिए मुआवज़ा बड़ी रकम है। इसलिए, जब कोई युवा मरता है, तो गांव आक्रामक तरीके से प्रतिक्रिया करता है। लेकिन अगर कोई बुजुर्ग मारा जाता है, तो कोई प्रतिशोध नहीं होता है।” पिंगले ने यह भी कहा कि चरवाहे महंगे मवेशियों को जंगल में ले जाने से बचते हैं, सिर्फ ऐसे मवेशियों को ही वहां चरने देते हैं जिनसे उनको कोई फायदा नहीं होता है। अगर कोई बाघ किसी को मार देता है, तो मुआवज़ा उन मवेशियों के लिए बोनस बन जाता है जो दूध नहीं दे रहे हैं। पिंगले ने इस व्यवहार को देशव्यापी गोमांस प्रतिबंध से भी जोड़ा। “पहले, ऐसे मवेशियों को बेचा जा सकता था, लेकिन अब मवेशी मालिकों को उनका पालन-पोषण करना पड़ता है।”
परांजपे का मानना है कि हाशिए पर पड़े समुदायों में मानसिक स्वास्थ्य का अध्ययन किया जाना चाहिए। वे बेहतर, लक्ष्य के साथ मदद के लिए इस हिसाब से बनाई गई योजनाओं की वकालत करती हैं। उन्होंने कहा, “मुख्यधारा के मानसिक स्वास्थ्य योजनाएं आपको व्यवहार और प्रतिक्रियाओं को समझने में मदद करते हैं, लेकिन प्रभावी हस्तक्षेप के लिए हमें समुदाय की ज़रूरतों के हिसाब से ज्यादा शोध और बेहतर योजनाओं की ज़रूरत है।”
ब्रह्मपुरी डिवीजन के एक अन्य गांव हल्दा के निवासी मस्के की मां को जब पिछले साल बाघ ने हमला कर मार डाला था, तब वे दूसरे खेत पर गए हुए थे। उन्हें यह सोचकर बहुत दुख होता है कि एक बेटे के रूप में उन्होंने अपनी मां को निराश किया। उन्होंने कहा, “भाग्य का अपना तरीका होता है, लेकिन अगर उस दिन उनके साथ पुरुष होते, तो हम कुछ कर सकते थे।” उनके रिश्तेदार शालू कामदे ने असाधारण साहस दिखाया और बाघ को डराने की कोशिश की, जब तक कि उन्हें अहसास नहीं हुआ कि वे अपनी चाची को नहीं बचा सकतीं। उन्होंने कहा, “जब भी मैं उस जगह पर जाती हूं, तो मुझे दुख होता है। दर्द कभी कम नहीं होता। मैं अभी भी अपने सपनों में बाघ को देखती हूं। मैं उस पर गुस्सा करती हूं।”
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 27 नवंबर, 2024 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: ताड़ोबा-अंधारी टाइगर रिजर्व में एक बाघ। विकिमीडिया कॉमन्स (CC BY-SA 4.0) के जरिए अजिंक्य विश्वेकर की तस्वीर।