- भारत के सूखा पीड़ित शुष्क क्षेत्रों में बढ़ते तापमान और अचानक होने वाली बारिश के कारण पशुधन की उत्पादकता और सेहत पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है।
- हालिया अध्ययन में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि देसी पशुधन नस्लें इन चुनौतियों का सामना करने के लिए ज्यादा बेहतर हैं, क्योंकि वे इन जलवायु परिस्थितियों में आगे बढ़ने के लिए पीढ़ियों से खुद को बदल रही हैं।
- रिसर्च कोशिशें अब उन आनुवंशिक मार्कर की पहचान करने पर केंद्रित हैं जो इन लचीलेपन संबंधी गुणों में मदद करते हैं।
जलवायु परिवर्तन दुनिया भर खासकर भारत के शुष्क क्षेत्रों में खेती और पशुधन के लिए बड़ा खतरा है। बढ़ता तापमान, अचानक होने वाली बारिश और लगातार बार-बार मौसम से जुड़ी चरम घटनाएं पशुधन उद्योग को जीवित रहने और आगे बढ़ने के लिए मौसम के हिसाब से ढलने के लिए मजबूर कर रही हैं। पशुधन जलवायु परिवर्तन को सहन कर लें, दुनिया भर में इसकी कोशिश हो रही है। इसमें ब्रिटेन में गर्मी को सहन करने वाले मवेशी विकसित करना, स्पेन में पारंपरिक पशुपालन को बढ़ावा देना और भारत में कैक्टस नाशपाती चारा और किसान प्रशिक्षण शुरू करना शामिल है।
इस बीच, जर्नल ऑफ लाइवस्टॉक बायोडायवर्सिटी में प्रकाशित हालिया अध्ययन में पाया गया है कि भारत की देशी पशुधन नस्लें इन चुनौतियों का सामना करने के लिए सबसे बेहतर हैं, क्योंकि वे निष्ठुर जलवायु परिस्थितियों में रहने के लिए पीढ़ियों से खुद को बदल रही हैं।
राजस्थान के बीकानेर में आईसीएआर-राष्ट्रीय ऊंट अनुसंधान केंद्र के वरिष्ठ वैज्ञानिक और समीक्षा के सह-लेखक वेद प्रकाश कहते हैं, “बढ़ता तापमान और अचानक होने वाली बारिश पशुधन की उत्पादकता और सेहत पर लगातार असर डाल रही है।” “बहुत ज्यादा गर्मी चारे के बढ़ने को कम करती है और मवेशी के शरीर की क्रिया विज्ञान को बाधित करती है, जिससे चारा खाने, दूध उत्पादन और प्रजनन दर में गिरावट आती है। बहुत ज्यादा गर्मी से मादा मवेशियों में कामोत्तेजना चक्र जटिल हो जाता है और नर मवेशियों में वीर्य की गुणवत्ता घट जाती है। वहीं, जलवायु में परिवर्तन से बीमारी का खतरा बढ़ जाता है, जिससे कम संसाधन वाले क्षेत्रों में संभावित रूप से खाने-पीने की चीजों की गंभीर कमी हो सकती है।”
इन चुनौतियों का सामना करने के लिए, पशुओं में ऐसी क्षमता बढ़ानी होगी कि वे जलवायु में बदलाव को सहन कर सकें। इसका मतलब है बहुत ज्यादा गर्मी और सूखे जैसी चरम स्थितियों को सहने और उनके हिसाब से ढलने की क्षमता विकसित करना है, जिसके लिए उनमें सम्बंधित शारीरिक, व्यवहारिक और आनुवंशिक लक्षण होने चाहिए।
जलवायु परिवर्तन के हिसाब से खुद को ढालना
अध्ययन में कहा गया है कि भारत का लगभग 12 प्रतिशत भू-भाग शुष्क क्षेत्र है। ये क्षेत्र राजस्थान, गुजरात, आंध्र प्रदेश, पंजाब, हरियाणा और कर्नाटक जैसे इलाकों में फैले हुए हैं। यहां सालाना 100 से 500 मिलीमीटर तक कम बारिश होती है और तापमान 1° सेल्सियस से 48° सेल्सियस तक होता है। भारत के देशी मवेशी, भेड़, बकरियां और ऊंट इन मुश्किल हालात में रहने के लिए पीढ़ियों से ढले हुए हैं।
उदाहरण के लिए, इन क्षेत्रों में व्यापक रूप से पाए जाने वाले जेबू मवेशियों में गर्मी सहन करने की बेजोड़ क्षमता होती हैं। प्रकाश कहते हैं, “उनके शरीर का घनत्व हल्का होता है और सतह का क्षेत्रफल बड़ा होता है, जिससे उन्हें ज्यादा तापमान सहन करने में मदद मिलती है। इस नस्ल की गर्मी सहन करने की क्षमता आनुवंशिक विशेषताओं से भी जुड़ी हुई है, जैसे कि HSF1 जीन, जो तनाव के दौरान प्रतिरक्षा और चयापचय नियंत्रण को बढ़ाता है। थारपारकर और ओंगोल जैसी कठोर जलवायु को सहने वाली अन्य नस्लें, कुशलतापूर्वक चारा इकट्ठा करने, पानी को बनाए रखने और रोग प्रतिरोधक क्षमता में माहिर हैं।”
इसी तरह मारवाड़ी, जैसलमेरी, दक्कनी और चोकला भेड़ें शुष्क क्षेत्रों में सहन करने की अपनी क्षमता के लिए जानी जाती हैं। वे विरल वनस्पतियों की तलाश में लंबी दूरी की यात्रा कर सकते हैं, जो गर्मी और भोजन की कमी के प्रति बेजोड़ लचीलापन दिखाते हैं। इन क्षेत्रों में एक और मुख्य पशुधन प्रजाति, देशी बकरियों ने कुशल ताप-नियामक तंत्र विकसित किए हैं जो उन्हें बहुत ज्यादा तापमान को सहन करने में मदद करते हैं। अपने लंबे, पतले पैरों और दुबले शरीर के लिए मशहूर जैसलमेरी ऊंट जैसी इस प्रजाति की नस्लें कम से कम पानी के सेवन के साथ गर्म, रेतीले इलाकों में चलने में माहिर हैं। इस तरह के बदलाव देशी पशुओं को ना सिर्फ जीवित रहने में बल्कि चुनौतीपूर्ण वातावरण में अपनी आबादी बढ़ाने में भी मदद करते हैं।
ग्रामीण समुदाय पर असर
पशुधन से जुड़ी प्रणालियां ग्रामीण अर्थव्यवस्थाओं में अहम भूमिका निभाती हैं जो आय, भोजन और कृषि सेवाओं का स्रोत उपलब्ध कराती हैं, जैसे मिट्टी की उर्वरता के लिए खाद। लंबे समय तक सूखा और अनियमित बारिश सहित मौसम की चरम घटनाएं इन प्रणालियों को बाधित करती हैं, जिससे अक्सर पशुधन उत्पादकता, चारे की कमी और पशु रोगों का प्रकोप होता है।
जलवायु परिवर्तन को सह लेने वाला पशुधन ना सिर्फ इन झटकों के प्रति संवेदनशीलता को कम करते हैं, बल्कि खाद्य सुरक्षा में भी मदद देते हैं। भुज के पास डेयरी फार्म चलाने वाले किशन सिंह कहते हैं, “उदाहरण के लिए साहीवाल, लाल सिंधी और गिर जैसी मवेशी नस्लें, जो गर्मी को सहने की अपनी क्षमता और दूध उत्पादन के लिए जानी जाती हैं। ऐसी नस्लें ग्रामीण परिवारों के लिए पोषण के भरोसेमंद स्रोत उपलब्ध कराती हैं। बन्नी भैंस के बारे में भी यह सही है, जो रात में भी चर सकती है और विरल परिदृश्यों में उपलब्ध वनस्पति को ज्यादा से ज्यादा करती है।” इसी तरह, कच्छी, जैसलमेरी और मेवाड़ी ऊंट शुष्क अर्थव्यवस्था के लिए बेशकीमती संपत्ति हैं, खासकर उन समुदायों के लिए जो आवाजाही और दूध के लिए उन पर निर्भर हैं।
पशुधन क्षेत्र जलवायु परिवर्तन को बढ़ाने वाला और संभावित रूप से उसे कम करने वाला भी है। पशुधन उत्पादन में ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है। इनमें मुख्य रूप से मीथेन है, जो जुगाली करने वाले पशुओं में एंटरिक किण्वन के दौरान निकलती है। हालांकि, जलवायु परिवर्तन को सहन करने की क्षमता रखने वाले पशुधन उत्पादकता के एक जैसे स्तरों के लिए कम चारा और पानी की जरूरत के साथ-साथ मिट्टी की सेहत, रखरखाव और कार्बन पृथक्करण जैसे स्थायी तरीकों में मदद देकर इन उत्सर्जनों को कम कर सकते हैं।
उदाहरण के लिए, नागोरी मवेशी और खराई ऊंट जैसी कुछ नस्लें खेती को सहारा देने और पारिस्थितिकी तंत्र को संरक्षित करने में दोहरी भूमिका निभाती हैं। कच्छ जिले के ऊंट प्रजनक जग रबारी कहते हैं, “खारी ऊंट, खास तौर पर, शुष्क भूमि और तटीय पारिस्थितिकी तंत्र दोनों के लिए अच्छे हैं और मैंग्रोव जैसी खारी झाड़ियों मे चर सकते हैं। पारिस्थितिकी के हिसाब से इस तरह ढल जाने वाले पशुधन ना सिर्फ जीवित रह पाते हैं, बल्कि उनके आवासों में जैव विविधता भी बची रहती है।”
टिकाऊ भविष्य के लिए नीति और शोध
जलवायु परिवर्तन को सह सकने वाले पशुधन की अहमियत को पहचानते हुए, अनुसंधान की कोशिशें अब तेजी से उन आनुवंशिक मार्कर की पहचान करने पर केंद्रित हो रहे हैं जो लचीलेपन वाले इन लक्षणों में मदद करते हैं। प्रकाश कहते हैं, “इन लक्षणों का इस्तेमाल करके चयनात्मक प्रजनन से पशुधन को बढ़ते तापमान और जलवायु चुनौतियों के लिए बेहतर ढंग से अनुकूल बनाने में मदद मिल सकती है।” इस तरीके के जरिए, जिन पशुधन में कठिन मौसम को सह लेने के लक्षण होते हैं, वे अपनी विशेषताओं को दूसरे पशुधन को दे सकते हैं, जिससे प्रजातियों की सहन करने की कुल क्षमता बेहतर होती है।
आनुवंशिक सुधारों के साथ-साथ पशुधन प्रबंधन रणनीतियों को अपनाना भी जरूरी है। प्रकाश कहते हैं, “इसमें संसाधनों के इस्तेमाल को कम करने के लिए झुंड की संरचना को समायोजित करने जैसी जलवायु-स्मार्ट तरीके शामिल हैं। पानी और चारे की कमी वाले क्षेत्रों में, छोटी नस्लों को अपनाना या गैर-कृषि गतिविधियों में विविधता लाना जोखिम को कम कर सकता है। छायादार आश्रय, टपक विधि जैसी ठंडा रखने वाली प्रणाली और अतिरिक्त इलेक्ट्रोलाइट्स के साथ भोजन में बदलाव जैसे व्यावहारिक उपाय पशुओं की गर्मी प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाते हैं और उत्पादकता बनाए रखने में मदद करते हैं।” जोखिम के आधार पर नक्शा बनाना अन्य अहम उपकरण है, क्योंकि इससे यह पहचान करने में मदद मिल सकती है कि जलवायु परिवर्तनश के कारण कौन-से क्षेत्र और किस पशुधन आबादी पर सबसे ज्यादा खतरा है।
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उम्मीदों से भरे इन बदलावों के बावजूद, भारत के पशुधन क्षेत्र में जलवायु लचीलापन को बढ़ावा देने में चुनौतियां हैं। जानकारों का कहना है कि आर्थिक विकास और शहरीकरण से प्रेरित पशुधन उत्पादों की बढ़ती मांग के कारण होलस्टीन, जर्सी, ब्राउन स्विस, मेरिनो भेड़ों की संकर नस्लों, टोगेनबर्ग, सैनन, फ्रेंच अल्पाइन और न्युबियन बकरियों की विदेशी डेयरी नस्लों जैसी ज्यादा उपज वाली, गैर-देशी पशुधन नस्लों में बढ़ोतरी हुई है, जो भारत की जलवायु चरम सीमाओं के हिसाब से कम अनुकूल हैं। इसके अलावा, जलवायु-स्मार्ट पशुधन प्रबंधन के लिए व्यापक ज्ञान और संसाधनों की कमी छोटे किसानों के बीच लचीले तरीकों को अपनाने को सीमित करती है।
नीतिगत नजरिए से इस उद्देश्य के लिए, पशुधन के लिए टिकाऊ तरीकों को बढ़ावा देने के लिए एकीकृत मदद प्रणालियों की जरूरत है। प्रकाश कहते हैं, “इसमें जलवायु-स्मार्ट कृषि (सीएसए) को विकास एजेंडे में शामिल करना, चरम मौसम के लिए शुरुआती चेतावनी प्रणाली तैनात करना और सीएसए और जलवायु सूचना सेवाओं पर प्रशिक्षण के जरिए किसानों की क्षमता बढ़ाना शामिल है। स्थानीय पारिस्थितिक स्थितियों और बाजार की जरूरतों से मेल खाने के लिए पशुधन प्रजनन कार्यक्रमों को तैयार करना भी खाद्य सुरक्षा और किसानों की आजीविका को बढ़ावा दे सकता है, खासकर उन क्षेत्रों में जो जलवायु-प्रेरित बाधाओं के प्रति संवेदनशील हैं।”
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 26 नवंबर, 2024 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: जैसलमेर में ऊंट। फ्लिकर (CC BY 2.0) के जरिए निनारा की तस्वीर।