- चेंदमंगलम का हथकरघा एक समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का प्रतिनिधित्व करता है जो पर्यावरणीय कारकों, आर्थिक चुनौतियों और अपर्याप्त सरकारी सहायता के कारण खतरे में है।
- 2012 में, केरल के ऐतिहासिक मुजिरिस क्षेत्र के इस शहर को पारंपरिक कारीगरों द्वारा हाथ से बुने गए अपने मुलायम मलमल के लिए भौगोलिक संकेत प्राप्त हुआ।
- राज्य में 2018 की बाढ़ ने इन वस्त्रों और बुनकरों की ओर राष्ट्रीय ध्यान आकर्षित किया, जिनके तब तक गुमनामी में खो जाने का डर था।
चेंदमंगलम, केरला के एर्नाकुलम जिले में एक पुराना शहर जो कोच्चि शहर से लगभग 40 किमी उत्तर में है, को 2012 में अपने कैथरी या हथकरघा के लिए भारत सरकार का भौगोलिक संकेत या जिओग्राफिकल इंडिकेशन प्राप्त हुआ। चेंदमंगलम के पारंपरिक बुनकरों द्वारा हाथ से बुने गए ये वस्त्र देश में बुने गए सबसे मुलायम मलमलों में से एक हैं।
पारावुर हैंडलूम वीवर्स को-ऑपरेटिव सोसाइटी के अध्यक्ष टी.एस. बेबी बताते हैं, “चेंदमंगलम कैथरी एक पतला और मुलायम कपड़ा है, जिसमें धागों की संख्या लगभग 100-120 होती है।” हथकरघा में, धागे की संख्या जितनी ज़्यादा होती है, कपड़ा उतना ही मुलायम होता है। इसके विपरीत, केरल का एक और जीआई-टैग वाला हथकरघा, बलरामपुरम कैथरी, जो तिरुवनंतपुरम के बलरामपुरम से आता है, थोड़ा मोटा कपड़ा है, जिसमें धागे की संख्या 60-80 होती है। हालाँकि, दोनों कपड़े दिखने में एक जैसे होते हैं।
फ्रेम लूम पर बुना गया, चेंदमंगलम में बना कपड़ा केरला के स्वदेशी ड्रेप का विशिष्ट उदाहरण है – पतले, रंगीन या जरी बॉर्डर वाला ऑफ-व्हाइट कपड़ा। यह ड्रेप ज़्यादातर लिंग-तटस्थ होता है, जिसमें पुरुषों के लिए कमर के चारों ओर पहना जाने वाला सिर्फ़ एक “मुंडू” या कपड़े का टुकड़ा होता है, और महिलाओं के लिए ऊपर और नीचे एक-एक टुकड़ा होता है, जिसे “सेट-मुंडू” कहा जाता है।
देश में हथकरघा उद्योग को पुनर्जीवित करने के लिए समर्पित एक गैर-लाभकारी संस्था ‘सेव द लूम’ के रमेश मेनन के अनुसार, केरला की प्रगतिशील पहचान इस ड्रेप के साथ जुड़ी हुई है, जिसे श्री नारायण गुरु ने प्रचारित किया था। श्री नारायण गुरु 1900 के दशक की शुरुआत में एक आध्यात्मिक नेता और समाज सुधारक थे, जिन्होंने जातिगत भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाई थी। “उन्होंने एक तटस्थ रंग और ड्रेप की शैली की वकालत की जो जाति और वर्ग की सीमाओं से परे सभी के लिए समान थी,” मेनन बताते हैं।
आपदाएँ एक शहर को आकार देती हैं
जीआई टैग के लिए आवेदन में, हथकरघा और वस्त्र निदेशालय ने ऐतिहासिक अभिलेखों का हवाला दिया है, जो बताते हैं कि बुनकरों को तमिलनाडु, कर्नाटका और आंध्र प्रदेश के पड़ोसी राज्यों से केरला लाया गया था, ताकि वे चेंदमंगलम के शानदार पालियम परिवार, जिसके पुरुष सदस्य कोच्चि महाराजाओं के मुख्यमंत्री के रूप में सेवा करते थे, के लिए मुलायम और अनोखे कपड़े बुन सकें। समय के साथ, चेंदमंगल वस्त्र आम जनता के लिए सुलभ हो गए, और स्वतंत्र भारत के बाद, शिल्प का समर्थन करने के लिए सहकारी समितियां स्थापित की गयीं।
वर्तमान में, एर्नाकुलम जिले में 11 पंजीकृत सहकारी समितियां हैं, जिनमें से पाँच पारवुर तालुक के चेंदमंगलम कस्बे में हैं।
चेंदमंगलम की सबसे पुरानी बुनकरों में से एक, वडक्केकरा पंचायत में कुरिप्पिल्ली हैंडलूम वीवर्स को-ऑपरेटिव सोसाइटी की 69 वर्षीय आयशा नानप्पन, उस समय को याद करती हैं जब चेंदमंगलम के हर घर में एक बुनाई इकाई होती थी। “ज्यादातर परिवार बुनाई में लगे हुए थे। यह एक नियम था कि स्कूल में 8वीं या 10वीं कक्षा पास करने के बाद बच्चों, ज़्यादातर लड़कियों को, शिल्प सीखने के लिए एक बुनकर के पास भेजा जाता था,” वह कहती हैं। आयशा ने अपनी बहन से सीखा, जिन्होंने बदले में एक बड़े पड़ोसी से सीखा था। बेबी और उनके भाई ने अपने पिता से बुनाई सीखी, जो चेंदमंगलम वस्त्र बुनने में कुशल थे।
आयशा कहती हैं, “उस समय बुनाई एक लंबी प्रक्रिया थी।” बुनाई के लिए इसे लचीला बनाने के लिए धागे को सात दिनों तक उबालना और पैरों से रौंदना पड़ता था। फिर इसे सड़क पर लटका दिया जाता था, ताकि इस पर मैदा या चावल से बना चिपकने वाला पदार्थ लगाया जा सके और सुखाया जा सके, जिसे हथकरघा की भाषा में “स्ट्रीट साइजिंग” कहा जाता है। “इस प्रक्रिया में कम से कम 10 दिन लगते थे। इसमें बॉर्डर के लिए धागे को रंगना शामिल नहीं है,” आयशा बताती हैं। समय के साथ, ये प्रक्रियाएँ बदल गईं, खासकर बेहतर सूत के साथ। इससे इसमें शामिल श्रम की तीव्रता काफी कम हो गई।
राज्य के पर्यटन विभाग द्वारा तीन नदियों, जिनमें विशाल पेरियार नदी, सात छोटी नदियाँ, पहाड़ियाँ और मैदानों का विशाल हरा-भरा विस्तार शामिल है, के दुर्लभ भौगोलिक संयोजन के रूप में प्रचारित किए जाने वाले चेंदमंगलम का इतिहास पर्यावरणीय आपदाओं से भरा पड़ा है।
केरला के समृद्ध ताने-बाने को आकार देने वाले प्राचीन मुजिरिस क्षेत्र का एक अभिन्न अंग, चेंदमंगलम को 1341 ई. में प्रकृति के प्रकोप का सामना करना पड़ा, जब यह क्षेत्र बाढ़ में डूब गया था। इतिहास खुद को दोहराता है, मुजिरिस क्षेत्र, जिसने लंबे समय से अपना ऐतिहासिक गौरव खो दिया था, को 2018 में फिर से विनाशकारी बाढ़ से गुजरना पड़ा।
उस साल जून और अगस्त के महीनों के बीच केरला में 42% ज्यादा बारिश हुई, जिससे भयंकर बाढ़ और भूस्खलन हुआ। कथित तौर पर 500 लोगों की मौत हुई और 1.1 मिलियन से ज्यादा लोग विस्थापित हुए।
बाढ़ का प्रकोप और धीमी गति से पुनरुद्धार
चेंदमंगलम में बुनकरों की सहकारी समितियों को बाढ़ के कारण लगभग 15 करोड़ रुपए का आर्थिक नुकसान हुआ है । कुरिप्पिल्ली सोसाइटी की सचिव सी.एस. सरिता सोसाइटी की इमारत की दीवार पर एक निशान की ओर इशारा करती हैं – जो जमीन से लगभग पाँच फ़ीट ऊपर है – जहाँ पानी ने अपनी अमिट छाप छोड़ी है।
चौदह अगस्त, 2018 को सरिता के अपने पति के साथ बढ़ते जलस्तर का सामना करते हुए इमारत तक पहुँचने से पहले ही वह उनके लिए दुर्गम हो गई। सरिता ने सूत, कागज़, फ़ाइलें, ताने, स्टॉक और जो कुछ भी वह कर सकती थी, उसे इमारत में ऊँची जगहों पर और लकड़ी की अलमारियों में रख दिया जहाँ उन्हें लगा कि वे सुरक्षित रहेंगी। “जब हम एक हफ़्ते बाद बाढ़ कम होने पर आए, तो अलमारियाँ गिर चुकी थीं और उनमें रखी सामग्री क्षतिग्रस्त हो गई थी।”
चेंदमंगलम बुनकरों की मदद के लिए बड़ी संख्या में आगे आए गैर-लाभकारी संगठनों, नागरिक समाज समूहों और परोपकारी लोगों से वित्तीय सहायता प्राप्त करने वाली अंतिम संस्था, पूर्ण रूप से महिलाओं द्वारा संचालित कुरिप्पिल्ली सोसाइटी ने बताया कि उनके 24 सक्रिय सदस्यों में से 16 बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित हैं। सरिता ने मोंगाबे इंडिया को बताया, “पांच करघों वाली सोसाइटी की इमारत के अलावा, जो नष्ट हो गई, हमारे कई सदस्यों के घर, जो उनके बुनाई शेड का भी काम करते हैं, भी बाढ़ में डूब गए।” आयशा ने बताया कि उनका घर और उसके बगल में बुनाई शेड पूरी तरह से जलमग्न हो गया था, इससे पहले कि उन्हें पास के एक राहत शिविर में ले जाया जाए।
विडंबना यह है कि यह तबाही चेंदमंगलम के बुनकरों के लिए वरदान साबित हुई। बाढ़ से पहले, बुनकर और उनके पारंपरिक शिल्प बाहरी दुनिया के लिए काफी हद तक गुमनाम था और उन्हें डर था कि वे गुमनामी में खो जाएंगे। कुरिप्पिल्ली समाज जैसे कई समाज पहले से ही कर्ज के बोझ तले दबे हुए थे। जब बाढ़ ने छोटे से राज्य को अपनी चपेट में ले लिया, तो दुनिया भर के उदार केरलवासियों ने अपनी जेबें खोल दीं, और संकट में फंसे किसी भी व्यक्ति की मदद करने के लिए तैयार हो गए। चेंदमंगलम के बुनकरों और उनके नुकसान की मार्मिक कहानी ने उनके दिल को छू लिया।
गैर-लाभकारी संस्था ‘गोपालजी फाउंडेशन’, जो बुनकरों के लिए राहत प्रयासों में सबसे आगे थी, के जेरिट वेणुगोपाल याद करते हैं, “पारंपरिक शिल्प को बचाना और पुनर्जीवित करना एक ज़बरदस्त भावना थी।” वेणुगोपाल कहते हैं कि कुरिप्पिल्ली सोसाइटी और परवूर हैंडलूम वीवर्स सोसाइटी सहित पाँच में से तीन सोसाइटी सबसे ज़्यादा प्रभावित हुईं। वे कहते हैं, “उनके कई बुनकर, जो घर से बुनाई करते थे, उनके करघे, सूत और कच्चा माल पूरी तरह से नष्ट हो गया।”
उन्होंने कहा कि सरकार ने तुरंत कोई कदम नहीं उठाया, लेकिन चार या पाँच महीने बाद उसने कार्यवाही शुरू की। इस बीच, कई गैर-लाभकारी संगठनों, डिज़ाइनरों, कॉरपोरेट्स और अन्य लोगों ने करघों की मरम्मत करके और कच्चा माल उपलब्ध कराकर बुनकरों को फिर से खड़ा होने में मदद की।
समय बदल रहा है
‘सेव द लूम’ की मेनन कहती हैं, “हमारे देश की भाषा और पहनावा हर 200 किलोमीटर पर बदल जाता है। पारंपरिक हथकरघे संरक्षित करने लायक हैं। उनके इर्द-गिर्द एक पूरा पारिस्थितिकी तंत्र मौजूद है और वे हमारे पर्यावरण से गहराई से जुड़े हुए हैं।” यह हथकरघा क्षेत्र में जलवायु अनुकूलन को एक महत्वपूर्ण नीति-स्तरीय हस्तक्षेप बनाता है।
बुनकरों ने बताया कि केरला में भारी बारिश और कड़ी धूप, दोनों ही बार-बार होने वाली वास्तविकताएं हैं, जिससे बुनाई मुश्किल हो जाती है। आयशा कहती हैं, “मानसून के दौरान बुनाई धीमी हो जाती है क्योंकि लकड़ी के करघे चलाना मुश्किल हो जाता है।” बेबी कहती हैं कि केरल में हाल ही में गर्मी जैसी स्थिति के दौरान, कुछ महिला बुनकरों ने त्वचा संबंधी समस्याओं की शिकायत की। बेबी ने बताया कि कई बुनकर काम पर नहीं आए, जिसके परिणामस्वरूप उत्पादन में गिरावट आई। आयशा याद करती हैं, “हमारे बुनाई शेड में पंखे या कूलिंग की सुविधा नहीं है। मैं बार-बार बुनाई से ब्रेक लेती थी क्यूंकी मैं पसीने से भीग जाती थी।”
इन दिनों, आसमान में बादल छाए रहने से बुनकरों में घबराहट भर जाती है। सरिता कहती हैं, “जब हमने सुना कि 2019 में फिर से बाढ़ आ सकती है, तो बाढ़ की आशंका में ताने और स्टॉक को ऊपरी मंजिल पर ले गए। करघे इतने बड़े होते हैं कि उन्हे ले जाना मुश्किल होता है।”
हथकरघा ज्यादातर जैविक, टिकाऊ होता है और बिजली की खपत कम करता है। इसके अलावा, यह पारंपरिक कारीगरों और संबद्ध श्रमिकों की पीढ़ियों को बनाए रखता है। चेंदमंगलम में बुनाई का काम ज्यादातर महिलाएं ही करती हैं। बेबी कहती हैं कि 140 बुनकरों वाली पारवूर हेंडलूम सोसाइटी मे 95 प्रतिशत महिलाएं हैं।
चेंदमंगलम में इस शिल्प में गिरावट के संकेत इतने स्पष्ट रूप से हैं कि नज़रअंदाज़ नहीं किये जा सकते। मेनन कहते हैं, “ज्यादातर बुनकर 40 साल से ज़्यादा उम्र की महिलाएं हैं। पुरुष बुनकर इस पेशे से लगभग गायब हो चुके हैं, और महिलाएँ अब इसे ज्यादातर साइड गिग के तौर पर करती हैं।” उन्होंने कहा कि यह चिंताजनक तो है, लेकिन उन्हें मिलने वाला वेतन इसे सही ठहराता है। केरला में कुशल और अकुशल दोनों तरह के मजदूरों के लिए मानक दैनिक मजदूरी 900 से 1500 रुपए के बीच है, सरिता बताती हैं कि चेंदमंगलम के बुनकरों को औसतन 900 रुपए प्रति सप्ताह मजदूरी मिलती है, अगर वे लगभग 38 मीटर कपड़ा बुनने का लक्ष्य पूरा करते हैं। कुरीप्पिल्ली सोसाइटी में पंजीकृत 648 बुनकरों में से केवल अब 24 (सभी महिलाएं) ही बुनाई कर रही हैं।
कारीगरों को परेशान कर रही समस्याएं
मेनन ने इस गिरावट के लिए दोषपूर्ण सरकारी योजनाओं को दोषी ठहराया, जैसे कि संघर्षरत बुनकरों की मदद करने के उद्देश्य से स्कूल यूनिफ़ॉर्म बुनना। मेनन कहते हैं, “पारंपरिक कारीगरों द्वारा बुनी गई स्कूल यूनिफ़ॉर्म मुफ़्त में दी जाती है। क्या कोई इसकी कीमत लगाएगा? “इसे टिकाऊ बनाने के लिए सिंथेटिक कपड़ा मिलाया जाता है, जिससे पारंपरिक शिल्प खत्म हो जाता है।” उनके अनुसार, अगर डिजाइन में सुधार नहीं किया गया तो केरला के बाहर इस ड्रेप का कोई बाजार नहीं है।
बुनकर अब अपने परिवार के युवा सदस्यों को इस पेशे को अपनाने के लिए प्रोत्साहित नहीं कर रहे हैं। मेनन कहते हैं, “जब सरकार औपचारिक शिक्षा को बढ़ावा देती है ओर प्रोत्साहित करती है, लेकिन पारंपरिक कौशल को नहीं, तो कोई इसे क्यों अपनाएगा?”
इस गिरावट को और बढ़ाने वाले कई अन्य मुद्दे हैं। बाढ़ के बाद के परिदृश्य में, कई डिजाइनर केरला के बाहर के बाजारों में डिजाइन को ज्यादा समकालीन और बिक्री योग्य बनाने के लिए आगे आए, लेकिन कुछ ही बुनकर बदलाव के लिए तैयार हैं। वेणुगोपाल कहते हैं, “90% से ज्यादा बुनकर बड़ी उम्र की महिलाएं हैं, जो आसानी से बदलाव नहीं कर सकती हैं।”
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बेबी ने स्ट्रीट साइजिंग के लिए जगह की कमी को उजागर किया, जो बुनाई से पहले की एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है, जो पारंपरिक बुनाई को बनाए रखने में सबसे बड़ी बाधा है। “हमें सुखाने के लिए कम से कम 100 मीटर x 3.5 मीटर की खुली जगह की आवश्यकता है। कोच्चि और आसपास के क्षेत्र तेजी से विकसित हो रहे हैं, और इस प्रक्रिया के लिए उपयुक्त खाली भूखंड अब उपलब्ध नहीं हैं,” वे कहते हैं। बेबी, जो यार्न सोसाइटी के अध्यक्ष हैं, कहते हैं कि सुखाने की प्रक्रिया को मशीनीकृत करने के लिए चर्चा चल रही है। उन्होंने उल्लेख किया कि मौसम में बदलाव, जो इष्टतम स्ट्रीट साइजिंग में बाधा डालते हैं , को भी ध्यान में रखा गया है।
बुनकरों का कहना है कि बाढ़ के बाद हथकरघा की मांग में अचानक आई तेजी बरकरार नहीं रह सकी। बेबी ने मौजूदा वजह के तौर पर बाजार में मंदी को बताया।
जीआई टैग प्राप्त करने के 12 साल बाद भी, चेंदमंगलम में पांच बुनकर समितियों को अभी तक प्रमाण पत्र नहीं मिला है – बुनकरों का कहना है कि यह शिल्प के प्रति सरकार की उदासीनता का संकेत है। बेबी को उम्मीद है कि पेरियार नदी के किनारे 6,000 वर्ग फुट की जगह पर नया हथकरघा गांव बनाया जाएगा, जिसके साल के अंत तक तैयार हो जाने की उम्मीद है। वे कहते हैं, “इस जगह पर चार इमारतों में एक अंतरराष्ट्रीय संग्रहालय, बिक्री और प्रदर्शनी स्थल बनाए जाएंगे। हम पर्यटन विभाग के साथ मिलकर काम करेंगे।”
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 3 जुलाई, 2024 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: कुरीपिल्ली हैंडलूम वीवर्स को-ऑपरेटिव सोसाइटी में सरिता और आयशा। 2018 में बाढ़ के दौरान सोसाइटी के अध्यक्ष और सचिव के रूप में, उन्होंने सोसाइटी को फिर से खड़ा करने के लिए सभी संसाधन जुटाए। तस्वीर: आरती मेनन/मोंगाबे।