- एक नए अध्ययन में भू-पर्यावरणीय और सामाजिक-पर्यावरणीय विश्लेषणों को एक साथ रखकर कुल्लू घाटी में बाढ़ के संभावित खतरे को समझने की कोशिश की गई है।
- शोधकर्ताओं के मुताबिक, इस क्षेत्र में पहले आई दो बाढ़ की घटनाओं से बड़े पैमाने पर हुए आर्थिक और अन्य नुकसानों को देखते हुए यह अध्ययन किया गया है।
- अध्ययन में मौसम की चरम घटनाओं के प्रभाव को कम करने के उपाय सुझाए गए हैं। साथ ही एक बेहतर पूर्व चेतावनी प्रणाली अपनाने और पर्यटन को नियंत्रित करने की भी बात कही गई है।
शहर की भागदौड़ से दूर, लोग सुकून की तलाश में कुल्लू घाटी की ओर रुख करते हैं और छुट्टियां बिताकर वापस लौट जाते हैं। स्थानीय लोगों का स्वभाव, सुहावना मौसम और शानदार नजारे इस जगह की खासियत है, जो लोगों का बार-बार यहां आने के लिए आकर्षित करती हैं। लेकिन अब यहां के मौसम का मिजाज भी बिगड़ने लगा है। अचानक से बारिश का होना या बाढ़ का आ जाना कुल्लू के लिए नया नहीं रहा, जिसे नजरआंदाज नहीं किया जाना चाहिए।
अगर हम पिछले कुछ सालों के पैटर्न पर ध्यान दें, तो पता चलेगा कि इस क्षेत्र में ये घटनाएं कितनी आम हो गई हैं और बड़े नुकसान की वजह बन रही हैं। हिमाचल प्रदेश में, 2018 में भारी बारिश कुल्लू घाटी में भयंकर बाढ़ की वजह बनी, और उफनती व्यास व पार्वती नदी ने शहर में भारी तबाही मचाई थी। 2023 में, जुलाई और अगस्त में फिर से ऐसी ही स्थिति सामने आई, जब अचानक से आई बाढ़ और भारी बारिश ने घरों और संपत्तियों को काफी नुकसान पहुंचाया। राज्य सरकार ने 10,000 करोड़ रुपये से अधिक के नुकसान का अनुमान लगाया है।
बाढ़ के संभावित खतरे को समझना
इन घटनाओं को ध्यान में रखते हुए हाल ही में एक अध्ययन किया गया, जिसमें कुल्लू घाटी में बाढ़ के संभावित खतरे और नुकसान को समझने के लिए भौगोलिक और सामाजिक, दोनों तरह के पर्यावरण का विश्लेषण किया गया। रिसर्च में, सैटेलाइट से ली गई तस्वीरों, भौगोलिक सूचना प्रणाली (GIS), और जमीन सर्वेक्षणों का इस्तेमाल करके इलाके की बनावट, पानी के स्रोतों और भूमि के इस्तेमाल के तरीकों का आकलन किया गया है।
अध्ययन के मुताबिक, खतरे की संभावना यानी भेद्यता की अवधारणा “अलग-अलग विषयों के जानकारों के योगदानों के माध्यम से विकसित हुई” और जलवायु परिवर्तन पर अंतरसरकारी पैनल (IPCC) का हवाला देते हुए, नुकसान की संभावना को तीन मुख्य आयामों: जोखिम, संवेदनशीलता और अनुकूलन क्षमता के रूप में परिभाषित किया गया। “यहां जोखिम से मतलब पर्यावरणीय खतरों से है, जबकि संवेदनशीलता ऐसे खतरों से होने वाले नुकसान को दर्शाती है और अनुकूलन क्षमता संभावित खतरों से निपटने या बचने की क्षमता है।”
जी.बी. पंत राष्ट्रीय हिमालय पर्यावरण संस्थान के केसर चंद के नेतृत्व में यह नया अध्ययन, व्यास नदी बेसिन के भीतर कुल्लू घाटी में किया गया था। रिसर्च टीम ने बाढ़ से होने वाले संभावित नुकसान को प्रभावित करने वाले कई महत्वपूर्ण भू-पर्यावरणीय कारकों की पहचान की, जिनमें स्थलाकृति, ढलान, मिट्टी की बनावट और प्रकार, सतही अपवाह, नहर ढलान, और भूमि उपयोग और भूमि आवरण (LULC) शामिल थे।
अध्ययन के प्रमुख लेखक केसर चंद ने कहा, “अध्ययन का क्षेत्र एक लंबी-गहरी घाटी थी, जिसकी भूमि का इस्तेमाल खेती-बाड़ी, बागवानी और टूरिज़्म के लिए किया जाता रहा है। इस संकरी घाटी से व्यास नदी की छोटी-छोटी नदियां 45-60 डिग्री के ढलान वाले ऊंचे स्थानों से निकलती हैं। भारी बारिश या बादल फटने से मिट्टी का कटाव होता है और वो बहकर व्यास नदी में चली जाती है।” अध्ययन इस बात पर प्रकाश डालता है कि “खड़ी ढलान और टेढ़ी-मेढ़ी धाराएं मिलकर इस इलाके में अचानक से आने वाली बाढ़ का खतरा बढ़ा देती हैं।”
ये निष्कर्ष कुल्लू घाटी में 2023 की बाढ़ के एक जल-मौसम विज्ञान विश्लेषण से मेल खाते हैं, जिसे आईआईटी मंडी में सिविल और पर्यावरण इंजीनियरिंग विभाग के प्रोफेसर विवेक गुप्ता के नेतृत्व में किया गया था। गुप्ता बताते हैं कि बाढ़ जैसी चरम मौसमी घटनाओं का जोखिम दो मुख्य कारकों पर निर्भर करता है: खतरा और संवेदनशीलता
बाढ़ प्रभावित क्षेत्र के मामले में, गुप्ता के अध्ययन में तीन बड़े खतरों की पहचान की गई: भारी बारिश, मिट्टी में उच्च नमी और वर्षा के कारण बर्फ का पिघलना। हालांकि, होने वाला नुकसान अक्सर सामाजिक-आर्थिक कारकों से प्रभावित होते हैं। वह कहते हैं, “अगर बाढ़ के दौरान नदी उफान पर आ जाती है और आसपास घर व इमारतें हैं, तो क्षेत्र में होने वाला नुकसान स्वाभाविक रूप से बढ़ जाता है।”
उच्च-जोखिम वाले क्षेत्रों का वर्गीकरण
चंद के अध्ययन में सामाजिक-पर्यावरणीय विश्लेषण ने क्षेत्र के भीतर पांच अलग-अलग ज़ोन की पहचान की, जिनमें से प्रत्येक की अपनी अनोखी अनुकूलन क्षमता, जोखिम और संवेदनशीलता है। बाढ़ के मैदान के क्षेत्रवार अध्ययन विश्व स्तर पर बाढ़ से होने वाले नुकसान का आकलन करने के लिए व्यापक रूप से उपयोग किए जाते हैं। इस मामले में, अध्ययन में जोन 4 और 5 को घनी बस्तियों और कृषि व पर्यटन पर आर्थिक निर्भरता के कारण अत्यधिक संवेदनशील पाया गया।
जीआईएस विश्लेषण ने संकेत दिया कि मुख्य नदी (जोन 5) से 100 मीटर के बफर के भीतर लगभग 22 वर्ग किलोमीटर के विभिन्न भूमि उपयोग वाले क्षेत्र अचानक आने वाली बाढ़ के दौरान गंभीर नुकासन के उच्च जोखिम में हैं। चंद बताते हैं, “हमने जोन 5 को बाढ़ के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील क्षेत्र के रूप में पहचाना है। इसलिए इस जोन में होने वाली गतिविधियों और निर्माण कार्यों पर रोक लगाने की सिफारिश की है। इस सिफारिश का उद्देश्य 2018 और 2023 जैसी भयंकर बाढ़ से होने वाले प्रभाव को कम करना है।”
पिछली बाढ़ से हुआ भारी नुकसान काफी हद तक भू-पर्यावरणीय कारकों जैसे ऊंची-नीची जमीन, खड़ी ढलानों, बड़ा नदी नेटवर्क और गलत तरीके से भूमि-उपयोग के कारण हुआ है। पेपर के अनुसार, ये संकेतक 2018 में आई बाढ़ की भयावता के लिए जिम्मेदार थे। इस बाढ़ में 24 घंटों में लगभग 680 क्यूबिक मीटर प्रति सेकंड की दर से जल बह रहा था, जिससे गंभीर सामाजिक-आर्थिक नुकसान हुआ।
पर्यटन पर कुछ हद तक रोक लगाने की जरूरत
चंद पिछली बाढ़ के समय इस क्षेत्र में आई तबाही के लिए पर्यटन को भी एक कारक मानते हैं। उनका सुझाव है कि क्षेत्र की वहन क्षमता का आकलन करना और पर्यटन को नियंत्रित करना चरम मौसम की घटनाओं के प्रभाव को कम करने के महत्वपूर्ण उपाय हैं। उन्होंने कहा, “टूरिस्ट सीजन में यहां रोज 5,000 से 6,000 गाड़ियां आती हैं। यहां की ज्यादातर मुसीबतें इंसानों की गलतियों की वजह से ही हैं। हम आर्थिक गतिविधियों को बंद तो नहीं कर सकते, लेकिन निश्चित रूप से उन्हें नियंत्रित तो कर ही सकते हैं।”
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उन्होंने कहा कि अध्ययन का एक उद्देश्य जोनिंग के जरिए कुछ क्षेत्रों की उच्च संवेदनशीलता के बारे में जागरूकता बढ़ाना है। वह कहते हैं, “हम जानते हैं कि नदी के सबसे नजदीकी क्षेत्र अत्यधिक संवेदनशील हैं। इसके बावजूद, लोग नदी के ठीक बगल में होटल और अपना बिजनेस बढ़ा रहे हैं, जिससे आपदा से होने वाले नुकसान और बढ़ जाते हैं।”
इन समस्याओं से निपटने के लिए, अध्ययन में नदी के किनारे 100 मीटर का बफर ज़ोन बनाने और बाढ़ के जोखिमों को कम करने के लिए सामुदायिक भूमि (CPR) के इस्तेमाल पर निगरानी करने की सिफारिश की गई है। इसके अलावा, यह उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों में बस्तियों बनाने से रोकने के लिए भूमि-उपयोग की समझदारी पूर्ण नीतियों को लागू करने की वकालत करता है।
अध्ययन में बाढ से निपटने के लिए कई शमन रणनीतियों का भी प्रस्ताव दिया गया, जैसे स्थानीय लोगों के पारंपरिक ज्ञान को पर्यावरण और तकनीकी विशेषज्ञता के साथ जोड़कर ऐसी योजनाएं बनाना जिनसे समुदाय खुद को बाढ़ के लिए तैयार कर सके।
गुप्ता और अन्य विशेषज्ञों का सुझाव है कि बाढ़ की पूर्व चेतावनी देने वाली प्रणाली को और बेहतर बनाया जाना चाहिए। गुप्ता कहते हैं कि सिर्फ बारिश पर ध्यान देने की बजाय, नदी में पानी का स्तर बढ़ाने वाले अन्य संभावित कारकों को भी देखना होगा, जैसे बर्फ का पिघलना और मिट्टी की नमी। 2023 में आई बाढ़ से ये बात साफ हो गई थी।
इसके अलावा और भी सुझाव दिए गए हैं जैसे कि संचार व्यवस्था को मजबूत करना और आपदा प्रतिक्रिया टीमों को बेहतर प्रशिक्षण और संसाधन देना। अध्ययन में ये भी माना गया है कि जांच का क्षेत्र सीमित था इसलिए इसमें कुछ कमियां भी हो सकती हैं। भविष्य में बाढ़ प्रभावित दूसरे इलाकों में भी शोध करने का सुझाव दिया गया है ताकि पूरे क्षेत्र के लिए बाढ़ से निपटने की एक व्यापक नीति बनाई जा सके। चंद बताते हैं कि यह अध्ययन राज्य आपदा प्रबंधन अधिकारियों के साथ साझा किया गया है और उन्हें उम्मीद है कि वे निष्कर्षों पर विचार करेंगे और तुरंत कार्रवाई करेंगे।
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 29 जुलाई 2024 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: अनियमित पर्यटन को इस क्षेत्र में बाढ़ से होने वाले भारी आर्थिक नुकसान के मुख्य कारणों में से एक के रूप में पहचाना गया है। तस्वीर- केसर चंद