- नारियल भारत की एक महत्वपूर्ण उष्णकटिबंधीय फसल है और बढ़ते तापमान के कारण इसके उत्पादन में गिरावट देखी जा रही है।
- मार्च और जून 2024 के बीच भीषण गर्मी के कारण हुई पानी की कमी से नारियल के बागानों में सिंचाई बाधित हुई, जिससे फसल मुरझा गई और इसकी गुणवत्ता खराब हुई।
- शोधकर्ता और किसान नारियल के बागानों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने के लिए मिट्टी की नमी बनाए रखने के लिए मल्चिंग, फसलों में अंतर और उन्नत सिंचाई विधियों जैसी कृषि और आनुवंशिक अनुकूलन तकनीकों की खोज कर रहे हैं।
गोवा के पणजी में सड़क किनारे, 31 वर्षीय युवा नारियल विक्रेता समीर करंगी के ठेले पर सिर्फ 10 नारियल हैं, जबकि हमेशा की तरह उनके पास नारियल का बड़ा ढेर होता है। “कर्नाटका में नारियल की कमी के कारण, कीमतें बढ़ गई हैं और मैं ज्यादा स्टॉक नहीं खरीद सकता।” करंगी से लगभग 50 मीटर की दूरी पर स्थित एक अन्य नारियल विक्रेता मकबुला बेटागिरी कहते हैं कि हालाँकि उनके पास ज्यादा स्टॉक खरीदने के लिए पैसे हैं, लेकिन “अच्छी गुणवत्ता वाले नारियल की आपूर्ति कम है।” वे दोनों ही सीमावर्ती राज्य कर्नाटका के दावणगेरे जिले से नारियल का स्टॉक लाते हैं। साल 2024 में दावणगेरे जिले में सूखे की स्थिति ने कथित तौर पर नारियल के बागानों को प्रभावित किया जिससे इसकी फसल मुरझा गई।
मार्च 2024 से, पूरे देश में भीषण गर्मी पड़ रही है। तमिलनाडु, कर्नाटका और केरला जैसे कुछ गंभीर रूप से प्रभावित राज्य भारत में प्रमुख नारियल उत्पादक भी हैं।
गर्मी नारियल पर कैसे असर डालती है
नारियल को एक महत्वपूर्ण बागान फसल माना जाता है क्योंकि नारियल के पौधे का हर एक हिस्सा मूल्यवान होता है। नारियल के पानी और गूदे का, खासकर गर्मियों के दौरान, व्यापक रूप से सेवन किया जाता है। गूदे का उपयोग कई व्यंजनों में किया जाता है, और इसका उपयोग नारियल का दूध बनाने के लिए किया जाता है, जो आज सबसे लोकप्रिय प्लांट-बेस्ड दूध में से एक है। नारियल के फल का उपयोग तेल बनाने के लिए किया जाता है, जिसका उपयोग खाना पकाने और कई अन्य अनुप्रयोगों में किया जाता है। नारियल के पेड़ के पत्तों का उपयोग छप्पर वाली छतों में किया जाता है; नारियल की भूसी का उपयोग कॉयर बनाने के लिए किया जाता है, जिसके कई तरह के उपयोग हैं। उपोष्णकटिबंधीय देशों में, इसे जीवन का पेड़ या “कल्पवृक्ष” कहा जाता है, जिसका मतलब “इच्छा-पूर्ति करने वाला पेड़” होता है।
नारियल, रबर, सुपारी, कॉफी आदि जैसी बागानी फसलें आमतौर पर पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों जैसे पहाड़ी क्षेत्रों या तटीय क्षेत्रों में उगाई जाती हैं। हाल के दिनों में यह देखा गया है कि ये क्षेत्र जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का सामना करने वाले पहले क्षेत्र हैं। पिघलते ग्लेशियर, थर्मल विस्तार, महासागरों का बढ़ता तापमान और इनमे बढ़ता गैर-बायोडिग्रेडेबल अपशिष्ट, सभी तटीय क्षेत्रों को चरम मौसम की स्थिति से प्रभावित करते हैं।
साल 2013 के एक अध्ययन मे भविष्यवाणी की गई थी, “जलवायु परिवर्तन उच्च तापमान, बढ़ी हुई CO2 सांद्रता, वर्षा में परिवर्तन और खरपतवारों में वृद्धि, कीटों और बीमारियों की घटनाओं और कार्बनिक कार्बन पूल की बढ़ती भेद्यता के माध्यम से नारियल के बागानों को प्रभावित करेगा।”
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) के अनुसार, नारियल की वृद्धि और उपज के लिए आदर्श तापमान 27 डिग्री सेल्सियस है,पांच डिग्री से ज्यादा या कम, और सापेक्ष आर्द्रता 60% से ज्यादा होनी चाहिए। लेकिन मार्च और जून 2024 के बीच, प्रमुख नारियल उगाने वाले क्षेत्र में औसत तापमान 35 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा था, साथ ही सापेक्ष आर्द्रता 30% से 50% कम थी। ये परिस्थितियाँ नारियल के पेड़ों के लिए आदर्श से बहुत दूर थीं और इसके परिणामस्वरूप आपूर्ति में कमी आई।
आईसीएआर-केंद्रीय रोपण फसल अनुसंधान संस्थान (सीपीसीआरआई) के निदेशक केबी हेब्बार ने मोंगाबे इंडिया से बात करते हुए कहा, “दक्षिणी तटीय क्षेत्र जहाँ नारियल ज्यादातर उगाए जाते हैं, वे जलवायु परिवर्तन के प्रति और भी ज्यादा संवेदनशील हैं। आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरला और कर्नाटका में इस गर्मी में औसत तापमान 3-4 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है। हम नमी में भी कमी देख रहे हैं।”
नारियल की आपूर्ति में कमी के कारण कीमतों में वृद्धि हुई है। खुदरा कीमतें 10 रुपए से बढ़कर 40 रुपए से 50 रुपए प्रति नारियल हो गई हैं। जैसे कि बेंगलुरु के कुछ हिस्सों में और गोवा के अधिकांश हिस्सों में 50 रुपए से 60 रुपए प्रति नारियल। अप्रैल और मई में, चेन्नई में नारियल की कीमतें 90 रुपए प्रति क्विंटल तक बढ़ गई थीं। इस साल गर्मी की लहर से पहले, प्रति क्विंटल (100 किलोग्राम नारियल) औसत कीमत लगभग 2,400 रुपए थी, जबकि वर्तमान में यह 2,750 रुपए है।
तापमान में वृद्धि से कीटों की आबादी में भी वृद्धि होती है। कीटों की 900 से अधिक प्रजातियाँ खेती और जंगली नारियल के पेड़ों से जुड़ी हुई हैं।
सीपीसीआरआई, कासरगोड में जैव प्रौद्योगिकी के वरिष्ठ वैज्ञानिक रमेश एस.वी., जो सूखे, लवणता और उच्च तापमान के पादप जैव रसायन पहलुओं का अध्ययन करते हैं, कहते हैं, “हम न केवल तटीय क्षेत्र में बल्कि पारंपरिक नारियल उगाने वाले क्षेत्रों में भी उत्पादन में बहुत बड़ा अंतर देख रहे हैं।” वे आगे कहते हैं, “हम यह भी देख रहे हैं कि कीटों के प्रकोप में उच्च तापमान की बड़ी भूमिका है। जब तापमान एक निश्चित स्तर से आगे बढ़ जाता है, तो हमने सफेद मक्खियों के हमले देखे हैं।”
उपज से जुड़ी समस्याएँ
गोवा में नारियल बेचने वाले केदारनाथ चौहान कहते हैं कि अत्यधिक गर्मी से नारियल में पानी की मात्रा भी प्रभावित होती है। उनका कहना है कि अब नारियल का गूदा मोटाऔर पानी कम रह गया है। वे कहते हैं, “गर्मी ने सारा पानी सुखा दिया है।” वे कहते हैं कि अगर बारिश होती है, तो नारियल की गुणवत्ता बेहतर होगी। लेकिन क्षेत्र की जलवायु में हाल ही में हुए बदलावों के कारण, उन्हें यकीन नहीं है कि ऐसा कब होगा।
हेब्बार बताते हैं कि नारियल के फल की मोटी गिरी उसकी परिपक्वता से सीधे तौर पर जुड़ी होती है। वे कहते हैं, “आमतौर पर निषेचन के बाद, नारियल को कोमल नारियल बनने में लगभग साढ़े छह महीने और पूरी तरह से पकने में 12 महीने लगते हैं।” अब, वे देख रहे हैं कि बाहरी गर्मी के कारण नारियल तेजी से पक रहे हैं। चूंकि नारियल के पेड़ लंबे होते हैं और उन पर चढ़ना मुश्किल होता है, इसलिए किसानों के लिए उन्हें तोड़ने से पहले फलों के पकने के स्तर की जांच करना या यह जानना संभव नहीं है कि फल पूरी तरह से पका है या नहीं।
इसके अलावा, तमिलनाडु के जिन इलाकों में भयंकर सूखा पड़ा, वहां पूरे बागान नष्ट हो गए और पेड़ सूख गए। किसानों ने अपने खेतों की सिंचाई के लिए पानी के टैंकर मंगवाकर अपने पेड़ों को बचाने की कोशिश की, लेकिन इसकी लागत इतनी अधिक थी कि वे इसे वहन नहीं कर सकते थे। नारियल के पेड़ की लकड़ी में भी नमी कम होने लगी जिससे इसकी कीमत 2,500 रुपए प्रति पेड़ से गिरकर 1,000 रुपए प्रति पेड़ हो गई और किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ा।
खेती में अनुकूलन
नारियल की कलियाँ परागण और निषेचन के दौरान उच्च तापमान के प्रति बेहद संवेदनशील होती हैं। हालाँकि, 2020 के एक अध्ययन में पाया गया कि यदि तापमान अधिक है, लेकिन हवा और मिट्टी में नमी की मात्रा अधिक बनी हुई है, तो पौधे सामान्य रूप से फूल और फल देना जारी रख सकते हैं। शोधकर्ता अब मिट्टी की नमी बनाए रखने के लिए मल्चिंग, फसलों में अंतर और कृषि-तकनीकों जैसी रणनीतियों पर विचार कर रहे हैं।
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एक अन्य अध्ययन में पाया गया है कि मृदा नमी संरक्षण, ग्रीष्मकालीन सिंचाई, ड्रिप सिंचाई और उर्वरक अनुप्रयोग जैसे कृषि संबंधी अनुकूलन न केवल नारियल उगाने वाले अधिकांश क्षेत्रों में नुकसान को कम करते हैं, बल्कि उत्पादकता में भी काफी सुधार करते हैं। यह आनुवंशिक अनुकूलन उपायों की भी सिफारिश करता है। “… जलवायु परिवर्तन के लिए बागानों के दीर्घकालिक अनुकूलन के लिए बेहतर फसल प्रबंधन के तहत बेहतर, स्थानीय, लंबी किस्मों और संकरों को उगाना आवश्यक है, खासकर उन क्षेत्रों में जो जलवायु परिवर्तन से नकारात्मक रूप से प्रभावित होने का अनुमान है।”
हालांकि, नारियल के पेड़ों पर शोध करने में वैज्ञानिकों को एक बाधा का भी सामना करना पड़ता है, वह है पेड़ों की ऊंचाई। इस कारण से, कासरगोड में ICAR-CPCRI ने एक मचान जैसी संरचना बनाई है जो शोधकर्ताओं को नारियल के पेड़ के शीर्ष तक पहुंचने और पत्तियों से लेकर फूलों और फलों तक पेड़ के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन करने में सहायता प्रदान करता है।
जब उनसे पूछा गया कि वे अपनी प्रयोगशाला में और क्या देख रहे हैं, तो रमेश एस.वी. ने बताया, “हमारी नियंत्रित ग्रीनहाउस स्थितियों में, हम नारियल के पेड़ों की कुछ किस्मों में पॉलीफेनोल की अभिव्यक्ति में तेजी देख रहे हैं। यह पौधे का एक अनुकूली तंत्र है जो सूखे या उच्च तापमान की स्थितियों से निपटने के लिए अपने विलेय या जैव रसायन लाता है।”
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 4 जुलाई 2024 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: केरल के पालक्कड़ में सड़क किनारे नारियल की दुकान। तस्वीर- विकिमीडिया कॉमन्स (CC0 1.0)/Effulgence 108 ।