- एक अध्ययन के अनुसार तेजी से बढ़ते शहरीकरण, जनसंख्या वृद्धि और अनियोजित विकास के कारण लद्दाख में भूमि उपयोग और भूमि आवरण में परिवर्तन हुआ है, जिससे क्षेत्र में भूजल संसाधनों पर दबाव बढ़ रहा है।
- अधिक कुओं की खुदाई करके भूजल दोहन ने लद्दाख में भूजल स्तर और भंडार में गिरावट को और तेज कर दिया है।
- जलवायु परिवर्तन के कारण बर्फ और ग्लेशियरों के नुकसान ने पानी की उपलब्धता को काफी कम कर दिया है, जिससे क्षेत्र के जलभृतों का स्वास्थ्य प्रभावित हो रहा है।
- इन परिवर्तनों के अनुकूल होने और लद्दाख हिमालय में विभिन्न आवश्यकताओं के लिए पानी की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए सतत प्रबंधन रणनीतियाँ और भूजल संसाधनों की निगरानी अत्यंत महत्वपूर्ण है।
हाल ही में हुए एक अध्ययन से पता चला है कि कृषि, घरों और होटलों के लिए मीठे पानी का एक महत्वपूर्ण स्रोत, भूजल कम हो रहा है और इसके उत्तर पश्चिमी हिमालय के लद्दाख क्षेत्र में आर्थिक और पर्यावरणीय परिणाम हो सकते हैं।
भूजल वह पानी है जो मिट्टी, रेत और चट्टान की दरारों और रिक्त स्थानों में भूमिगत पाया जाता है। यह मिट्टी, रेत और चट्टानों की भूगर्भीय संरचनाओं, जिन्हें जलभृत कहा जाता है, में जमा होता है और धीरे-धीरे आगे बढ़ता है। जम्मू, कश्मीर और लद्दाख के हिमालयी क्षेत्रों में भूजल निरंतर जल आपूर्ति के लिए मीठे पानी का एक संभावित स्रोत है।
सदियों से, लद्दाख में भूजल को पारंपरिक संरक्षण और स्वच्छता विधियों के माध्यम से संरक्षित किया गया है। हालाँकि, पिछले दो दशकों में, महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं। जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ, लद्दाख में जनसंख्या वृद्धि, शहरीकरण, पर्यटन में वृद्धि, आर्थिक विकास और जीवनशैली में बदलाव देखे गए हैं। इन कारकों ने प्रति व्यक्ति पानी की मांग को बढ़ाया है और साथ ही क्षेत्र के जल संसाधनों पर दबाव डालते हुए मांग-आपूर्ति संतुलन को बाधित किया है।
इसके अलावा, अब तक, सामान्य रूप से लद्दाख हिमालय और विशेष रूप से लेह के भूजल संसाधनों का वैज्ञानिक समुदाय द्वारा अध्ययन ठीक से नहीं किया गया है और भूजल पर जलवायु परिवर्तन और मानवजनित तनावों के प्रभावों पर सीमित अध्ययन हुए हैं।
अप्रैल 2024 में जर्नल ऑफ वॉटर एंड क्लाइमेट चेंज में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन ने भारत में लद्दाख के लेह जिले में भूजल की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए उपलब्ध आंकड़ों को जोड़ा है। यह दर्शाता है कि 1650 ई. के बाद से ग्लेशियरों का क्षेत्रफल 40% और आयतन 25% कम हो गया है, जिससे भूजल की भरपाई कम हो गई है।
अध्ययन में लेह में जनसंख्या और निर्मित क्षेत्र की वृद्धि, जिससे भूजल संसाधनों पर दबाव बढ़ा है, पर प्रकाश डाला गया है। इसमें कहा गया है कि लद्दाख क्षेत्र की जनसंख्या 1901 में 29,730 से बढ़कर 2020 में 152,175 हो गई, जो कि 15% की वार्षिक दर है। साल 1969 से 2017 तक निर्मित क्षेत्र में 20% और प्रमुख शहरों के आसपास पिछले 10 वर्षों में लगभग 75% की वृद्धि हुई है।
इसका असर पानी की मांग पर भी साफ दिखाई देता है। अध्ययन में कहा गया है कि 1997 में लेह में खोदे गए कुओं की संख्या 10 थी जो कि साल 2020 तक बढ़कर 2,659 हो गई, जो कि प्रति वर्ष 115 कुओं की वृद्धि है। इसके अतिरिक्त, अध्ययन में भूजल निष्कर्षण में वृद्धि का विवरण दिया गया है, जो 2009 से 2020 तक लगभग 26% बढ़ा है।
कश्मीर विश्वविद्यालय के भूगोल और आपदा प्रबंधन विभाग में सहायक प्रोफेसर और अध्ययन के मुख्य लेखक फारूक अहमद डार ने मोंगाबे इंडिया को बताया कि लद्दाख के अर्ध-शुष्क क्षेत्र में भूजल कई उपयोगों के लिए मीठे पानी का एक आशाजनक स्रोत बन रहा है। “इस क्षेत्र में सतही जल की मात्रा और गुणवत्ता में कमी स्पष्ट है। यदि हम जनसंख्या वृद्धि, शहरी प्रसार, उद्योगों, पर्यटन और सबसे बढ़कर हिमालयी क्षेत्र में बढ़ती जलवायु परिवर्तनशीलता और परिवर्तनों की वर्तमान स्थिति को देखें, तो सतही जल पर प्रभाव अपरिहार्य हैं। इसने पानी के अन्य स्रोतों को महत्व दिया है, और भूजल अब मीठे पानी के लिए पहला विकल्प बन रहा है। लोग झरने के पानी का उपयोग कर रहे हैं और अलग-अलग गहरे कुएँ खोद रहे हैं।”
डार ने कहा कि भूजल का उपयोग मुख्य रूप से घरों, उद्योगों, होटलों और विभिन्न संस्थानों में किया जाता है। “भूमिगत भंडारों से जो भी पानी पंप किया जाता है, उसका लगभग 93% इन उद्देश्यों के लिए उपयोग किया जाता है। लद्दाख खाद्य और फसल बाजार में आत्मनिर्भरता की ओर भी बढ़ रहा है। इसके लिए भी बहुत अधिक पानी की आवश्यकता होती है, और इसके लिए लोग कुएं खोदते हैं। पंप किए गए भूजल का बाकी हिस्सा लगभग 7% है, जिसका उपयोग फसलों, ग्रीनहाउस वनस्पति फसलों, फलों और अन्य फसलों में किया जाता है जो पहले इस क्षेत्र में नहीं उगाई जाती थीं। भूजल को होटल और गेस्टहाउस मालिकों द्वारा भी पंप किया जाता है क्योंकि उन्हें साल भर पर्यटकों के लिए ताजे पानी की आवश्यकता होती है।”
भूजल संसाधनों को प्रभावित करने वाली समस्याएँ
वैज्ञानिकों के अनुसार, लद्दाख क्षेत्र में भूजल से संबंधित प्रमुख समस्याएँ माँग और आपूर्ति में असंतुलन, उथले संसाधनों में कमी, प्राकृतिक निर्वहन में कमी, झरनों का सूखना और जल स्तर में गिरावट हैं। “गुणवत्ता संबंधी चिंताओं के संदर्भ में, हाल के वर्षों में झरनों और उथले कुओं में संदूषण की सांद्रता में वृद्धि देखी गई है। पारंपरिक सीवेज और शौचालय प्रणाली से आधुनिक गड्ढे और खाई प्रणाली में बदलाव ने उथले भूजल को प्रभावित किया है। इसका मुख्य कारण यह है कि इन अपशिष्ट प्रणालियों का निर्माण भूजल में दूषित पदार्थों के रिसाव पर विचार किए बिना किया जाता है, खासकर शहरी क्षेत्रों में,” फारूक अहमद डार ने कहा।
क्षेत्र के समग्र जल संसाधनों से संबंधित एक और समस्या बदलती जलवायु है। साल 2021 के एक शोध पत्र से पता चलता है कि जलवायु परिवर्तन ने लद्दाख में पानी की आपूर्ति को काफी प्रभावित किया है, जिसमें बर्फबारी में बदलाव, ग्लेशियर पिघलना और अप्रत्याशित वर्षा शामिल हैं, जिससे पानी की कमी हो रही है। यह क्षेत्र हिमालय के ग्लेशियरों, नदियों, झरनों और भूजल पर निर्भर है। एक अन्य अध्ययन में, उपग्रह डेटा का उपयोग करके लद्दाख क्षेत्र के द्रास बेसिन में लगभग 77 ग्लेशियरों का मूल्यांकन किया गया। निष्कर्षों से संकेत मिलता है कि 2000-2020 के बीच द्रास क्षेत्र में ग्लेशियर 1.27 मीटर पतले हो गए हैं।
कश्मीर विश्वविद्यालय के भू-सूचना विज्ञान विभाग के वरिष्ठ सहायक प्रोफेसर इरफान राशिद ने कहा कि लद्दाख हिमालय में ग्लेशियर क्षेत्र और मात्रा में कमी, पिघले हुए पानी की उपलब्धता को कम करके भूजल पुनर्भरण को सीधे प्रभावित कर सकती है, जो आमतौर पर जलभृतों को भरता है।
“जैसे-जैसे ग्लेशियर सिकुड़ते हैं, पिघलने और जमीन में रिसने के लिए कम बर्फ और हिमपात होता है, जिससे भूजल भंडारों को रिचार्ज करने के लिए नीचे रिसने वाले पानी का स्तर कम हो जाता है। ग्लेशियर क्षेत्र और मात्रा में कमी प्राकृतिक जल विज्ञान चक्र को बदल देती है, जिससे जलभृतों को पानी की आपूर्ति की मात्रा और समय प्रभावित होता है, जिससे कुल भूजल पुनर्भरण दर कम हो जाती है। ग्लेशियर के पिघलने से भूजल पुनर्भरण में योगदान कम होने से भूजल स्तर गिर सकता है, जिससे क्षेत्र में इस महत्वपूर्ण जल संसाधन की उपलब्धता और स्थिरता प्रभावित हो सकती है। हालांकि, इस पर और शोध किए जाने की आवश्यकता है,” उन्होंने कहा।
राशिद ने कहा कि बदलती जलवायु और शहरीकरण के पैटर्न से संकेत मिलता है कि क्षेत्र का भूजल टिकाऊ नहीं है। “ग्लेशियरों में कमी से जलभृतों के पुनर्भरण में कमी आएगी, जिसके परिणामस्वरूप समय के साथ भूजल स्तर कम होता जाएगा। ग्लेशियरों के पिघलने से भूजल पुनर्भरण में कमी आने से पानी की कमी बढ़ने और भविष्य में पानी की मांग को पूरा करने में संभावित चुनौतियों हैं| ग्लेशियरों के पिघलने में कमी से भूजल स्थिरता पर दीर्घकालिक प्रभाव में कृषि पद्धतियों में व्यवधान, समुदायों के लिए पानी की उपलब्धता, पर्यटन पर प्रभाव और क्षेत्र में समग्र पारिस्थितिकी तंत्र स्वास्थ्य शामिल हो सकते हैं,” उन्होंने कहा।
SKUAST-कश्मीर में कृषि मौसम विज्ञान विभाग की प्रोफेसर और प्रमुख समीरा कयूम ने बताया कि हाल के वर्षों में, लद्दाख में जलवायु परिवर्तन देखा गया है, जिसमें बर्फबारी में कमी और अनियमित वर्षा शामिल है।
“ये परिवर्तन भूजल को प्रभावित कर सकते हैं, क्योंकि ये पुनर्भरण दरों को प्रभावित करते हैं और पुनःपूर्ति के लिए आवश्यक जल संसाधनों के समय और उपलब्धता को बदलते हैं। कम बर्फ पिघलने और अप्रत्याशित वर्षा से भूजल स्तर में उतार-चढ़ाव हो सकता है, जिससे कृषि उत्पादकता और स्थानीय जल सुरक्षा प्रभावित हो सकती है। लद्दाख में वार्षिक वर्षा केवल 86.8 मिमी है, जिसमें तापमान -30 से +31 तक होता है। लगभग 25-30 बारिश के दिन ही होते हैं,” कयूम ने कहा।
भूजल में कमी को दूर करने की रणनीतियाँ
वैज्ञानिकों के अनुसार, क्षेत्र के भूजल और विभिन्न घटकों के साथ इसके संबंध को समझने में सबसे बड़ी चिंता आंकड़ों या डेटा की कमी है। शोधकर्ताओं ने जोर देकर कहा कि लद्दाख में जलवायु परिवर्तन/मानव गतिविधियों और भूजल के बीच संबंधों को समझने के लिए व्यापक अध्ययन की आवश्यकता है, जिसमें तापमान में वृद्धि, वर्षा के बदलते पैटर्न और ग्लेशियर पिघलने से जलभृत पुनर्भरण पर पड़ने वाले प्रभावों पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए।
“क्षेत्र में भूजल की मात्रा, गुणवत्ता और प्रवाह की गतिशीलता पर सटीक और विश्वसनीय जानकारी एकत्र करने के लिए बेहतर डेटा संग्रह विधियों की बहुत आवश्यकता है। जनसंख्या वृद्धि, शहरीकरण और भूजल संसाधनों पर भूमि उपयोग परिवर्तन जैसी मानवजनित गतिविधियों के प्रभावों का विश्लेषण करने के लिए और अधिक शोध की आवश्यकता है। उन्नत मॉडलिंग तकनीकों और प्रौद्योगिकियों को एकीकृत करने से भविष्य के भूजल परिदृश्यों की भविष्यवाणी करने और टिकाऊ प्रबंधन रणनीतियों को विकसित करने में मदद मिल सकती है। भूजल स्तरों में रुझानों का आकलन करने, संभावित जोखिमों की पहचान करने और लद्दाख हिमालय में लागू किए गए संरक्षण उपायों की प्रभावशीलता का मूल्यांकन करने के लिए दीर्घकालिक निगरानी कार्यक्रम आवश्यक हैं,” फारूक अहमद डार ने कहा।
कश्मीर विश्वविद्यालय के इरफान राशिद ने कहा कि लद्दाख में बर्फ, ग्लेशियर और भूजल पुनर्भरण के बीच संबंध पर गहन शोध नहीं किया गया है। इसके अतिरिक्त, भूजल पर आबादी की निर्भरता की सीमा और भूजल संसाधनों के सतत उपयोग पर शहरीकरण का प्रभाव डेटा की कमी के कारण अस्पष्ट बना हुआ है।
“इन चुनौतियों से निपटने के लिए कुछ प्रभावी रणनीतियों में बर्फ के स्तूप और कृत्रिम ग्लेशियरों का उपयोग शामिल है, जिसकी पहल सोनम वांगचुक और चेवांग नोरफेल ने की थी। ये अभिनव तरीके फसल उगाने के मौसम (मई से सितंबर) के दौरान पानी की उपलब्धता बढ़ा सकते हैं, फसलों के लिए आवश्यक सिंचाई प्रदान कर सकते हैं और स्थानीय आबादी का समर्थन कर सकते हैं। जैसे-जैसे बर्फ के स्तूप पिघलते हैं, वे पानी को नीचे की ओर पहुंचाते हैं, कृषि भूमि की सिंचाई करते हैं और मिट्टी के रिसाव के माध्यम से भूजल पुनर्भरण में योगदान करते हैं,” रशीद ने कहा।
उन्होंने कहा कि नियंत्रित हरियाली भी स्थिति में सुधार कर सकती है, खासकर शहरी केंद्रों के आसपास। “लद्दाख के पारंपरिक रूप से बंजर परिदृश्य को देखते हुए, अत्यधिक हरियाली नकारात्मक जलवायु प्रतिक्रिया लूप को जन्म दे सकती है। हालांकि, बसे हुए क्षेत्रों में हरियाली बनाए रखने से मिट्टी की नमी को बनाए रखने में मदद मिल सकती है।”
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SKUAST-कश्मीर की समीरा कयूम ने बताया कि फसल के पैटर्न या सिंचाई के तरीकों में बदलाव लद्दाख में भूजल की कमी को कम करने में महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं। “कम पानी की आवश्यकता वाली फसलों की खेती को बढ़ावा देने से पानी की कुल जरूरत और भूजल संसाधनों पर तनाव कम हो सकता है। इसमें सूखा-सहनशील किस्मों या ऐसी फसलों को शामिल करना शामिल हो सकता है जिनकी प्रति इकाई उपज में कम पानी की आवश्यकता होती है। ड्रिप सिंचाई या स्प्रिंकलर सिस्टम जैसी आधुनिक सिंचाई तकनीकों को अपनाने से पारंपरिक सिंचाई विधियों की तुलना में पानी की बर्बादी को कम किया जा सकता है। ये विधियाँ पौधों के जड़ क्षेत्र में सीधे पानी पहुँचाती हैं, जिससे दक्षता बढ़ती है और भूजल दोहन कम होता है।”
कयूम ने कहा कि फसल चक्र और विविधीकरण प्रथाओं को लागू करने से पानी का उपयोग और मिट्टी की सेहत को बेहतर बनाया जा सकता है। पानी की अलग-अलग ज़रूरत वाली फसलों को बारी-बारी से उगाने से पानी की उच्च मांग वाली फसलों की निरंतर खेती से अत्यधिक भूजल की कमी को रोका जा सकता है। “वर्षा जल संचयन तकनीकों का उपयोग, जैसे जलाशय या तालाब बनाना, शुष्क अवधि के दौरान पानी की उपलब्धता बढ़ा सकता है, जिससे सिंचाई के लिए भूजल पर निर्भरता कम हो सकती है। कुशल जल प्रबंधन प्रथाओं के महत्व के बारे में किसानों के बीच जागरूकता बढ़ाना और टिकाऊ कृषि तकनीकों पर प्रशिक्षण प्रदान करना भूजल की कमी को कम करने वाली प्रथाओं को अपनाने को प्रोत्साहित कर सकता है,” उन्होंने कहा।
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 11 जुलाई 2024 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: तेजी से शहरीकरण, जनसंख्या वृद्धि, पर्यटन और जलवायु परिवर्तन ने लद्दाख क्षेत्र में भूजल संसाधनों पर तनाव बढ़ा दिया है। तस्वीर –विकिमीडिया कॉमन्स (CC-BY-SA-4.0) के माध्यम से एल्डोजोस19 द्वारा।