- झारखंड में हजारीबाग जिले के बड़कागांव ब्लॉक के कई गांवों में घर-घर गुड़ बनाया जाता है। किसी भी तरह की मिलावट या रसायन के बिना तैयार होने वाला यह गुड़ मीठा और स्वादिष्ट होने के साथ-साथ कई राज्यों में सप्लाई किया जाता है।
- जलवायु परिवर्तन के कारण गन्ने में अब कई तरह के कीटों का प्रकोप बढ़ता जा रहा है। इससे गन्ने के रस और उसके मिठास पर असर पड़ रहा है। साथ ही, तापमान बढ़ने और कम बारिश के चलते सिंचाई पर ज्यादा पैसा खर्च हो रहा है।
- भारत में गुड़ का सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक महत्व है। लेकिन 1960 के दशक के बाद भारत में प्रति व्यक्ति गुड़ की खपत कम होती गई और खान-पान में चीनी की मात्रा बढ़ती गई।
फट-फट की आवाज करती मशीन के पहिए तेजी से चल रहे हैं। मशीन के नजदीक बैठी एक महिला के हाथ तेजी से गन्नों को मशीन के दो पहियों के बीच डाल रहे हैं। यहां से निकल रहा रस टीन के डिब्बे में जमा हो रहा है। रस निकलने के बाद गन्ने की खोई सूखने के लिए धूप में डाली जा रही है जो बाद में जलावन के रूप में काम आएगी।
मशीन के ठीक सामने ईंट और मिट्टी से जोड़कर बनाई गई बड़ी-बड़ी चार भट्टियां पूरी तेजी से जल रही हैं। इन भट्टियों की आंच उन पर रखे बड़े-बड़े कड़ाहों से बार-बार बाहर निकलने की कोशिश में है। गोंदलपुरा गांव के अरुण कुमार और उनके परिजनों के हाथ तेजी से चल रहे हैं। कोई भट्टियों में खोई डाल रहा है। कोई लोहे के झंझरा से रस से मैल निकाल रहा है। कोई लकड़ी से बनाए गए गोरथा से गाढ़े हो रहे रस को हिला रहा है।
कड़ाह से उठती गर्म भाप जब नथुनों में जाती है, तो आपको पता चल जाता है कि जो कुछ बन रहा है वह खास और जायकेदार है। यह बड़कागांव ब्लॉक के कई गांवों में बनने वाला शुद्ध गुड़ है जिसकी सप्लाई कई राज्यों तक होती है।

ऐसे तैयार होता है स्वादिष्ट गुड़
दामोदर नदी घाटी का हिस्सा बड़कागांव धान, गन्ना, साग-सब्जी और दूसरी फसलों के लिए मशहूर है। ब्लॉक के कई गांवों में कुटीर उद्योग के तौर पर गुड़ बनता है। अंचल में गोंदलपुरा के अलावा कांडतरी, हरली, सिमरातरी, दुन्डीटाड़, बलोदर, तलसवार, विश्रामपुर, सोनपुरा, मिर्जापुर जैसे गांवों में कई परिवार फिलहाल 100 से ज्यादा लघु उद्योगों में दिवाली से ही गुड़ बनाने का काम कर रहे हैं जो मार्च तक चलेगा।
अरुण बताते हैं, “25 दिसंबर के बाद गुड़ बनाने का काम तेज हो जाता है, क्योंकि मकर संक्रांति के आसपास मांग कई गुना बढ़ जाती है। दिवाली और छठ के आसपास भी गुड़ खपत होती है, क्योंकि तब इससे ठेकुआ जैसे कई पकवान बनाए जाते हैं।”
इस इलाके में दो तरह का गुड़ तैयार होता है। एक सादा गुड़ जिसकी खासियत आधा किलो का एक ढेला है। दूसरा मसाला गुड़ है जिसमें स्वाद बढ़ाने के लिए कई चीजें मिलाई जाती हैं। लेकिन, दोनों ही गुड़ बनाने की प्रक्रिया लगभग एक जैसी है।
गुड़ बनाने के लिए खास तौर पर तैयार कड़ाह का इस्तेमाल होता है जिसकी क्षमता करीब सौ लीटर (खाने वाले तेल के टीन से सात टीन) रस की होती है। खेत से गन्ने की कटाई के बाद इसका रस निकाला जाता है। एक कड़ाह में छह टीन रस डाला जाता है। कड़ाह को ऊपर से कुछ खाली छोड़ दिया जाता है, ताकि मैला निकालने में आसानी हो सके। इसे आंच पर करीब दो घंटे तक पकाया जाता है। मैला निकालने के बाद जब पानी सूख जाता है और रस गाढ़ा होने लगता है, तो उसे गोरथा से लगातार हिलाया जाता है।
इसके बाद गाढ़े रस को भट्टी से नीचे उतारा जाता है। फिर किनारे पर कसनी मारी जाता है, ताकि गुड़ बन सके। अब इसे आधा घंटा ठंडा होने के लिए छोड़ दिया जाता है। हालांकि, इस दौरान भी इसे गोरथा से लगातार हिलाया जाता है, ताकि गुड़ एक जैसा बने।
ठंडा हो जाने के बाद तराजू पर नाप कर आधा-आधा किलो का ढेला तैयार किया जाता है। इसमें दो लोग लगते हैं। एक व्यक्ति गुड़ नापता है। दूसरा पानी की मदद से ढेला बनाता है।

बलोदर गांव के रामबिलास महतो ने मोंगाबे हिंदी को बताया, “90 लीटर रस में अक्टूबर से जनवरी तक अधिकतम 48 ढेला गुड़ बनता है जो वजन में 24 किलो बैठता है। वहीं फरवरी-मार्च में 25 से 26 किलो तक गुड़ बन जाता है, क्योंकि उस समय रस में पानी की मात्रा कम हो जाती है।”
इस साल दो एकड़ में गन्ने की खेती करने वाले अरुण कहते हैं, “जहां गोंदलपुरा का गुड़ मीठा होता है, वहीं चक्की वाला गुड़ खाने में तीत (खारा) लगता है।” उनकी मांग है कि किसानों को सोलर प्लेट देकर सिंचाई में मदद की जाए। साथ ही, यहां के गुड़ को बड़े बाजारों से जोड़ा जाए, ताकि उन्हें अच्छी कीमत मिल सके और इस परंपरा को जीवित रख सकें। उन्होंने पिछले साल अपने गन्ने से करीब 30 क्विंटल गुड़ बेचा था।
वहीं, मसाला गुड़ में अदरक, तिल, सौंफ, भूनी हुई मूंगफली, छुहारा, गरी, काली मिर्च जैसे मसाले डाले जाते हैं। इनमें सबसे ज्यादा मात्रा करीब डेढ़ किलो अदरक की होती है। इसके बाद स्वाद के अनुसार अन्य मसाले डाले जाते हैं। कहीं-कहीं घी और सूखे मेवे भी डाले जाते हैं।
गोंदलपुरा के ही संजय महतो मोंगाबे हिंदी को बताते हैं, “भट्टी से गाढ़े रस को उतारने से कुछ देर पहले इसमें मसाले मिलाए जाते हैं। फिर इसे अच्छी तरह मिलाकर ठंडा होने दिया जाता है और इसके बाद सौ या पचास ग्राम का ढेला बनाया जाता है।”
इसके बाद गुड़ बेचने के लिए किसान बड़कागांव चौक पर पहुंचते हैं। ज्यादातर किसान अपना गुड़ बांस की टोकरी में लेकर आते हैं। फिर व्यापारी इस गुड़ को खरीदते हैं और बड़ी मंडियों में बेचते हैं। मोंगाबे-हिन्दी ने जब सुबह नौ बजे इस मंडी का दौरा किया, तो कई किसानों का व्यापारियों के साथ मोलभाव चल रहा था। इस साल सादा गुड़ 50 से 55 रुपए किलो बिक रहा है। वहीं मसाला गुड़ की कीमत 70 रुपए किलो से शुरू हुई है।
कांडतरी के तिलेश्वर कुमार मोंगाबे हिंदी से कहते हैं कि उन्होंने अखबार में पढ़ा है कि यहां का गुड़ जर्मनी और जापान तक जाता है। वहीं हाट के ठेकेदार सुरेंद्र महतो कहते हैं, “इस गुड़ की खासियत यह है कि इसमें चीनी समेत किसी भी तरह की मिलावट नहीं होती है। ना ही रसायन का इस्तेमाल होता है। शुद्धता की वजह से लोग इस गुड़ को ज्यादा पसंद करते हैं।“

जलवायु परिवर्तन का दुष्प्रभाव
बड़कागांव ब्लॉक में करीब 150 एकड़ में गन्ने की खेती होती है। जो किसान खुद से गुड़ नहीं बनाते हैं, वे दूसरी जगह गुड़ बनवाते हैं और इस एवज में तीन किलो गुड़ कारखाना मालिक को दे देते हैं।
वैसे यहां उपजने वाले गन्ने या बनने वाले गुड़ पर अब तक किसी रिसर्च या अध्ययन की जानकारी नहीं है। लेकिन, सिंचाई की बेहतर व्यवस्था, अच्छी बारिश और उपजाऊ मिट्टी यहां के गन्ने को रसदार बनाती है। साथ ही, उवर्रक और कीटनाशक के कम इस्तेमाल से भी यहां के गुड़ में मिठास बढ जाती है।
गोंदलपुरा गांव के सेवानिवृत्त शिक्षक 74 वर्षीय देवनाथ महतो इतना स्वादिष्ट गुड़ बनने की वजह कुछ इस तरह बताते हैं, “इलाके के तीनों तरफ जो जंगल हैं, बारिश में उनके सड़े-गले पत्ते हमारे खेतों तक पहुंचते हैं। इससे हमारे खेतों की उर्वरा शक्ति बढ़ जाती है।”
इन गांवों में जनवरी-फरवरी में गन्ना लगाया जाता है। सात से आठ महीने में फसल पककर कटाई के लिए तैयार हो जाती है। एक बार गन्ना लगा देने के बाद अधिकतम तीन फसल ली जाती है।
किसानों का कहना है कि गन्ना नई और कठोर मिट्टी में अच्छा होता है। एक ही खेत में बार-बार गन्ना लगाने से उसमें रस की मात्रा कम हो जाती है। साथ ही, मिट्टी में नमी की मात्रा भी बहुत ज्यादा होने से फसल में बीमारियों का खतरा बढ़ा जाता है।
अरुण कुमार कहते हैं, “पहले गन्ने में कोई समस्या नहीं थी। खाद और दवा की जरूरत भी नहीं पड़ती थी। पैदावार भी बहुत होती थी। आठ-दस साल पहले ऐसी बीमारी आई कि गन्ना तो होता था, लेकिन गुड़ सही से नहीं बन पाता था। इसके बाद उत्तर प्रदेश से बीज लाए गए और पैदावार में सुधार हुआ।”
गन्ने की फसल का बढ़ना बहुत हद तक तापमान पर निर्भर करता है। ईंख के लिए 22 से 38 डिग्री सेल्सियस का तापमान सबसे अच्छा होता है। 27 डिग्री से कम तापमान गन्ने के विकास के लिए ठीक नहीं है। हालांकि, अब जलवायु परिवर्तन की वजह से बहुत ज्यादा तापमान, कम बारिश और भूजल के नीचे जाने से ज्यादा बार सिंचाई करनी पड़ती है। इससे किसानों का खर्च बढ़ रहा है।

यही नहीं, मौसम में बहुत ज्यादा बदलाव और तापमान की चरम सीमा (ज्यादा और कम दोनों) उत्पादकता पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है। साथ ही, बीमारियों और कीटों के फैलने की आशंका भी बढ़ाती है।
एक अध्ययन में यह नतीजा निकाला गया है कि तापमान में एक डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी से गन्ने की पैदावार में 20 फीसदी तक की कमी आ सकती है। वहीं बारिश में एक फीसदी की बढ़ोतरी से पैदावार में सात फीसदी का नुकसान हो सकता है।
हालांकि, मौसम में बदलाव के चलते अब गन्ने में भी बीमारियां बढ़ने लगी हैं। इसमें सफेद रंग का ऐसा कीड़ा लगने लगा है जो फसल को अंदर ही अंदर खत्म कर देता है। फुनगी काली हो जाती है और फिर गन्ने का बढ़ना रुक जाता है और मिठास भी कम हो जाती है।
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में डिपार्टमेंट ऑफ प्लांट प्रोटेक्शन के चेयरमैन प्रोफेसर मुज़ीबुर रहमान खां इसके लिए जलवायु परिवर्तन को जिम्मेदार मानते हैं। उन्होंने मोंगाबे हिंदी से कहा, “प्रकृति ने सभी जीव-जंतुओं और पौधों के लिए नियंत्रण की सीमा तय कर रखी है। जलवायु परिवर्तन के चलते वह नियंत्रण कम हो गया है। इस वजह से कभी-कभी कीटों की संख्या कुदरती तरीके से कम नहीं हो पाती है और वे पौधे में चले जाते हैं। इससे कीटों का प्रकोप बहुत ज्यादा बढ़ जाता है।”
हालांकि, आसापास के कुछ किसान वैज्ञानिक तरीके से खेती भी करते हैं। कीर्तन कुमार उन्हीं किसानों में से एक हैं। वह मोंगाबे हिन्दी को बताते हैं, “मैं सफेद कीटों से बचने के लिए गन्ने में कोराजन नामक दवा डालता हूं। इससे गन्ने की लंबाई भी बढ़ती है और अगले हिस्से में कानी (आड़ा-तिरछा) नहीं होता है। इससे लंबाई बढ़कर दस से बारह फीट तक हो जाती है।”
मुज़ीबुर रहमान खां किसानों को सलाह देते हैं कि वे रोपाई के वक्त ही पौधों का अच्छे से ट्रीटमेंट कर दें। “सही विधि से दवा की उतनी ही मात्रा का उपयोग करें, जितनी वैज्ञानिक तरीके से जरूरत होती है। इससे गन्ना कानी नहीं होगा। ज्यादा दवा देने से पौधों का भी नुकसान ही होता है,“ उन्होंने कहा।
किसानों का कहना है कि गुड़ का रंग इलाके की मिट्टी पर निर्भर करता है। गोंदलपुरा पंचायत में अभी बलोदर का गुड़ सबसे अच्छा माना जाता है, क्योंकि वहां कुछ साल पहले ही खेती शुरू हुई है।

रामबिलास महतो कहते हैं, “गन्ना तभी अच्छा होता है जब आप उसमें गोबर खाद का इस्तेमाल करते हैं। उर्वरक का ज्यादा इस्तेमाल करने पर आप पैदावार ज्यादा ले लेंगे, लेकिन मिठास कम हो जाएगी।”
गुड़ की खपत होती गई कम
भारत में गुड़ का सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक महत्व है। कोई भी पर्व-त्योहार या अनुष्ठान बिना गुड़ के पूरा नहीं होता है। नई फसल के पर्व मकर संक्रांति (इसे देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग नाम से जाना जाता है) के दौरान पूर्वी भारत में गुड़ और गुड़ से बनी लाई, तिलकुट और पकवान खाने की परंपरा है।
भारत में लघु उद्योग के तौर पर सदियों से कई तरह का गुड़ बनता रहा है। एक रिसर्च पेपर के मुताबिक भारत में 1960 के दशक तक हर साल प्रति व्यक्ति मीठे (स्वीटनर) की खपत 20 किलो थी। इनमें करीब तीन-चौथाई हिस्सा गुड़ और खांडसारी उत्पादों का था। 1960 के दशक के बाद इनकी खपत धीरे-धीरे कम होती गई। 2018-19 तक प्रति व्यक्ति इन उत्पादों की खपत घटकर महज एक-चौथाई रह गई। वहीं 1960 में हर साल प्रति व्यक्ति चीनी की खपत 4.8 किलो थी जो 2018-19 में बढ़कर 19.1 किलो पर पहुंच गई।
इस वजह से चीनी उत्पादन में इस्तेमाल किए जाने वाले गन्ने का अनुपात 1980-81 में 33.5% से बढ़कर 2021-22 में 86% हो गया। दूसरी तरफ, गुड़ के लिए गन्ने का उपयोग 54% से घटकर महज 14% रह गया। भारत में गन्ने का औसत उत्पादन भी 5,000 लाख मीट्रिक टन के करीब है। भारत में गन्ना और उससे जुड़े उद्योग ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए अहम हैं। एक अनुमान के मुताबिक करीब पांच करोड़ किसान गन्ने की खेती करते हैं। वहीं पांच लाख कर्मचारी चीनी मिलों में नौकरी करते हैं। साथ ही लाखों लोग अपने घरों में गुड़ और इसके उत्पाद बनाते हैं। भारत दुनिया में दूसरा बड़ा चीनी उत्पादक है और खपत के मामले में पहले पायदान पर है। साल 2023-24 में देश में 535 चीनी मिल चल रही थीं।
दुनिया भर में भारत समेत करीब 25 देशों में गुड़ का उत्पादन होता है। पूरी दुनिया में हर साल 1.3 करोड़ टन गुड़ बनाया जाता है, जिसका करीब 55 फीसदी भारत में होता है। इस तरह, भारत गुड़ उत्पादन में शीर्ष पर है। इसके बाद कोलंबिया का स्थान आता है, जहां 11 फीसदी गुड़ बनता है। भारत में उत्तर प्रदेश गुड़ के उत्पादन में पहले और तमिलनाडु दूसरे पायदान पर है। गुड़ में कैल्शियम, फॉस्फोरस, मैग्नीशियम, पोटेशियम, आयरन, जिंक, कॉपर जैसे खनिज तत्व और फोलिक एसिड, बी-कॉम्प्लेक्स वगैरह जैसे विटामिन होते हैं।
बैनर तस्वीर- रस निकलने के बाद गन्ने की खोई का इस्तेमाल रस को गर्म करने के लिए क्या जाता है। तस्वीर- विमल राय