- हिमालय में जलवायु परिवर्तन और बढ़ती मानवीय गतिविधियां बर्फीले इलाकों में पाए जाने वाले हिमालय पिका के अस्तित्व के लिए खतरा है। ये जीव पारिस्थितिकी तंत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
- लद्दाख में किए गए एक नए अध्ययन में दो पिका प्रजातियों की सर्दियों में जीवित रहने की रणनीतियों, भोजन संग्रहण की आदतों और उनके बनाए घास-फूस के ढेर में इस्तेमाल की गई सामग्री की जांच की है।
- शोध से पता चलता है कि दो अलग-अलग प्रजातियां लद्दाख और नुब्रा पिका भोजन इक्ट्ठा करने से पहले मौसम संबंधी विशेष संकेतों का इंतजार करते हैं, साथ ही, उनके द्वारा बनाए गए घास-फूस के ढेर के आकार और संरचना में महत्वपूर्ण अंतर होता है।
हिमालय पिका में निश्चित रूप से और भी बहुत कुछ है जो आंखों को दिखाई नहीं देता है। एक सामान्य नजर में, बिना पूंछ वाला ये चूहा पहाड़ी इलाकों में इधर-उधर भागता, प्यारा, छोटा, फुर्तीला सा जीव लग सकता है। लेकिन वास्तव में, हिमालय के ऊंचे पहाड़ों में ये छोटे स्तनधारी पारिस्थितिकी तंत्रों में अहम भूमिका निभाते हैं, खासकर पौधों की विविधता बढ़ाने में।
भारतीय विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान, (आईआईएसईआर) तिरुपति में एसोसिएट प्रोफेसर नंदिनी राजमणि ने इन प्रजातियों का गहन अध्ययन किया है और वह पिका की तुलना “किसानों” से करती हैं। उनका मानना है कि पिकाओं के बस्तियों के आसपास अक्सर पौधों की विविधता देखी जाती है। वे लगातार खुदाई और मिट्टी की स्थितियों को बदलते रहते हैं, जिससे विभिन्न प्रकार के पौधे उगने में मदद मिलती है। इसके अलावा, पिका, मर्मोट व वोल जैसे अन्य छोटे स्तनधारी कई अन्य जीवों जैसे शिकारी पक्षियों, छोटी जंगली बिल्लियों और कैनिड्स आदि के लिए महत्वपूर्ण भोजन स्रोत हैं।
जलवायु से संबंध
जलवायु परिवर्तन और बढ़ती मानवीय गतिविधियां ठंडे मौसम में रहने वाली कई प्रजातियों के अस्तित्व को खतरे में डाल रही हैं। राजमणि बताती हैं कि ग्लेशियोलॉजिस्ट हिमालय में ग्लेशियर को पिघलते हुए देख रहे हैं, जिसका स्थानीय सूक्ष्म-पारिस्थितिकी तंत्रों पर व्यापक असर पड़ता है। इनमें से कई का अभी तक आकलन नहीं किया गया है।
ठंडे मौसम में रहने वाली पिका जैसी प्रजातियों के लिए जीवित रहना सिर्फ मौसम पर ही निर्भर नहीं करता, बल्कि पूरे वातावरण पर निर्भर करता है, जिसमें बर्फ के ग्लेशियर और पर्माफ्रॉस्ट का होना जरूरी है। उन्होंने कहा, “कोई नहीं जानता कि ठंडे वातावरण पर निर्भर जानवरों की आबादी के साथ क्या होगा; वे नई परिस्थितियों के अनुकूल नहीं हो पाए तो वे गायब हो सकते हैं।” वह आगे कहती हैं कि उनके पिछले काम से संकेत मिले हैं कि पिका पहले से ही काफी खतरे में हैं और उनकी आबादी घट रही है। “अगर उनके आवास कम होते रहे तो उनके पास कहीं जाने के लिए ज्यादा विकल्प नहीं होंगे।”

DST-INSPIRE के संकाय और एकेडमी ऑफ साइंटिफिक एंड इनोवेटिव रिसर्च (AcSIR), CSIR-हिमालयन बायोरिसोर्स टेक्नोलॉजी इंस्टीट्यूट में असिस्टेंट प्रोफेसर निश्मा दहल कहती हैं, अधिकांश हिमालयी पिका शायद ही कभी मनुष्यों से मिलते हैं, लेकिन जब वे मिलते हैं, तो आसानी से मिलने वाले भोजन के लिए अक्सर उन्हीं पर निर्भर हो जाते हैं। वह कहती हैं, “पहाड़ी ढलानों पर रहने वाले ओचोटोना रॉयली जैसे पिका कभी-कभी मानव निर्मित दीवारों को आश्रय के लिए इस्तेमाल करते हैं। वहीं ओ. नुब्रिका जैसी प्रजातियां इंसानों से बचने की कोशिश करती हैं। इसलिए, जब इंसान उनके इलाके में घुसते हैं तो इन प्रजातियों द्वारा बचने के लिए अपनाई जाने वाली रणनितियां प्रजाति-विशिष्ट प्रतीत होती हैं।”
पिका छोटे स्तनधारी जीव हैं, जो लेपोरिडे परिवार के खरगोश और खरहा की तरह, लेगॉमोर्फा वर्ग के ओचोटोनिडे परिवार से आते हैं। पहचानी गई 37 पिका प्रजातियों में से सात भारत में पाई जाती हैं। हालांकि, उनके बारे में सीमित जानकारी उपलब्ध है, क्योंकि पिकाओं पर मौजूद अधिकांश साहित्य पश्चिमी देशों में किए गए अध्ययनों पर आधारित है।
आईआईएसईआर तिरुपति के एक शोध दल द्वारा किया गया एक नया अध्ययन विशेष रूप से महत्वपूर्ण है क्योंकि यह पिका के एक अनोखे मौसमी व्यवहार की पड़ताल करता है जो उनके अस्तित्व के लिए महत्वपूर्ण है। अध्ययन लद्दाख के चांगथांग बायोटिक प्रांत के ठंडे रेगिस्तान से दो पिका प्रजातियों – ओचोटोना न्यूब्रिका (नुब्रा पिका) और ओचोटोना लैडासेंसिस (लद्दाख पिका) के घास और भोजन जमा करने के व्यवहार पर केंद्रित है।
सर्दियों के लिए भोजन
अगर हम पिका को ‘जमाखोर’ कहें तो शायद गलत नहीं होगा, क्योंकि इन्हें काफी ज्यादा मात्रा में खाना जमा करने की आदत है। ये अपने मुख्य खाने-पीने की चीजें जैसे पौधे काफी मात्रा में इकट्ठा करके रखते हैं, कभी-कभी तो 23 किलो तक। ये सब प्रजाति और उनके झुंड के आकार पर निर्भर करता है। यह “जमाखोरी” की आदत इन ठंड के अनुकूल जानवरों के लिए जीवित रहने की एक रणनीति है, क्योंकि काफी ऊंचाई पर, जहां कम खाना उपलब्ध है, भोजन की कमी जानवरों के लिए घातक साबित हो सकती है। पिका घास और पत्ते इकट्ठा करके, उसे सुखाकर और छिपाकर, कड़ी सर्दियों के लिए तैयार हो जाते हैं। इस मौसम में खाद्य संसाधन दुर्लभ हो जाते हैं और कई जीवों की प्रजातियों में मृत्यु दर बढ़ जाती है।

नए शोध पत्र के प्रमुख लेखक हर्ष कुमार ने लद्दाख में नुब्रा और लद्दाख दोनों पिकाओं को वनस्पति जमा करते देखा, जिससे उन्हें इस व्यवहार के बारे में और जानने की उत्सुकता हुई। उनके स्वभाव में उन्हें काफी अंतर दिखा। लद्दाख पिका अल्पाइन स्टेप्स जैसे खुले आवासों में रहते हैं और शर्मीले पिका की तुलना में आकार में बड़े और साहसी होते हैं, जबकि शर्मीले नुब्रा पिका घने वनस्पति वाले इलाकों में रहना पसंद करते हैं। उनके इस व्यवहार ने उनके मन में और भी सवाल उठाए हैं।
लद्दाख पिका के सामाजिक ढांचे भी बड़े होते हैं, जिनमें आमतौर पर 20 से 50 पिका एक साथ रहते हैं। इसके विपरीत, नुब्रा पिका छोटे समूह बनाते हैं, जिनमें आमतौर पर आठ से दस पिका ही मिलेंगे। लेकिन, दोनों प्रजातियों के समूहों के आकार में काफी अंतर हो सकता है। नए अध्ययन की सह-लेखिका राजमणि कहती हैं, “हमने लद्दाख में सिर्फ चार जीवों वाली पिका कॉलोनी भी देखी है।”
व्यवहारिक अनुकूलन
कड़ी सर्दियों के दौरान पिका हाइबरनेट नहीं करते हैं; इसके बजाय, वे जीवित रहने के लिए कई व्यवहारिक अनुकूलन करते हैं। करीब 37 प्रकार की पिका प्रजातियों में से, 21 प्रजातियां नियमित रूप से घास के ढेर बनाती हैं। लेकिन शेष प्रजातियों के बारे में अभी बहुत कम जानकारी उपलब्ध है।
दहल ने नोट किया कि हिमालयी पिका के बीच घास जमा करना अपेक्षाकृत असामान्य है। उन्होंने कुछ प्रजातियों, जैसे ओ. नुब्रिका की सिस्टर प्रजातियां ओ. सिकिमारिया और ओ. कर्जोनिए को कभी-कभी एनर्जी के लिए याक का गोबर खाते भी देखा है। अन्य अध्ययनों में भी यह बात साबित हुई है। वह कहते हैं, “इसी तरह उनके उठने-बैठने के तरीके जैसी छोटी-छोटी गतिविधियां, उन्हें गर्मी से छुटकारा पाने में मदद करती हैं।” ये अवलोकन बताते हैं कि चरम मौसम में उनके जीवित रहने में व्यवहार की महत्वपूर्ण भूमिका है और उनको बेहतर ढंग से समझने के लिए व्यवहारिक अध्ययनों के महत्व को उजागर करता है। उन्होंने कहा, हालांकि, हिमालयी पिकाओं का अध्ययन चुनौतीपूर्ण है क्योंकि उनके वातावरण का मौसमी होना, अवलोकन की अवधि को बहुत छोटा कर देता है।

शोधकर्ताओं ने घास के ढेर के आकार, संरचना और वितरण के साथ-साथ दो पिका प्रजातियों के बीच भोजन जमा करने के व्यवहार में भिन्नता की भी जांच की। कुमार के अनुसार, हालांकि विभिन्न कॉलोनियों और प्रजातियों में घास के ढेर के आकार और सामग्री में भिन्नता थी, लेकिन सबूत बताते हैं कि भोजन जमा करने की आदत उन्हें सर्दियों में बचे रहने में मदद कर सकती है। उनकी इस रणनीति को ‘बेट-हेजिंग’ कहा जाता है।
रिसर्च पेपर कहता है, “बेट-हेजिंग” एक विकासात्मक प्रक्रिया है जो जीवों को अप्रत्याशित वातावरण में प्रजनन और बने रहने में मदद करती है। इस मामले में, पिका एक “बेट-हेजिंग” रणनीति अपनाते हैं, जिसका मतलब है कि वे कड़ी सर्दी आने का इंतजार करते हैं और फिर घास के ढेर बनाने का काम शुरू करते हैं। इससे उनकी फिटनेस (जीवित रहने और प्रजनन की क्षमता) बढ़ती है, क्योंकि घास के ढेर बनाने में बिताया गया समय और एनर्जी, गर्मी के समय में उनके प्रजनन को प्रभावित नहीं करने देता है।
सर्दियों के लिए तैयारी
अध्ययन की गई पिका प्रजाति की अलग-अलग कॉलोनियों और उन कॉलोनियों के बीच घास इकट्ठा करने की आदतों में काफी अंतर पाया गया। लेखकों का मानना है कि यह अंतर लद्दाख में सर्दियों के दौरान बर्फबारी के पैटर्न में भिन्नता से संबंधित हो सकता है, जो प्रजाति के लिए भोजन की उपलब्धता को प्रभावित करता है।
अध्ययन में पाया गया कि लद्दाख के पिका, अपने बड़े आकार, सामाजिक समूहों और खुले आवासों के साथ, “लार्डर होर्डिंग” में लगे हुए थे। यानि वे न सिर्फ घास के बड़े ढेर बना रहे थे बल्कि उन्हें अन्य पिकाओं से आक्रामक रूप से बचा भी रहे थे। इसके उलट ‘नुब्रा पिका’ जो अधिकतर छोटे समूह और बंद इलाकों में रहते हैं, “स्केटर होर्डिंग” करना पसंद करते हैं। कहने का मतलब है कि वे घास के छोटे ढेर बनाते हैं और उन्हें अपनी कॉलोनियों में फैला देते हैं।
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अध्ययन के मुताबिक, लद्दाख पिका के घास के ढेर एक जगह इकट्ठे पाए गए और उनमें नुब्रा पिकाओं के घास के ढेरों की तुलना में ज्यादा किस्म के पौधे थे। विभिन्न पिका प्रजातियों के घास के ढेरों में पौधों की किस्मों में अंतर देखा जाता है और इस अध्ययन में भी यही पाया गया। उदाहरण के लिए, ओ. डौरिका के घास के ढेर में 10 विभिन्न पौधों की प्रजातियां होती हैं, जबकि ओ. टुरुचनेंसिस में 26 पौधों की प्रजातियां शामिल हो सकती हैं। इसके विपरीत, ओ. प्रिंसेप्स चुनिंदा रूप से 12 विभिन्न पौधों की प्रजातियों को जमा करता है, जिसमें से प्रत्येक घास के ढेर में तीन प्रजातियां होती हैं।

कुमार बताते हैं कि लद्दाख पिका के घास के ढेरों में उच्च प्रोटीन और कार्बोहाइड्रेट वाले पौधे पाए गए, जैसे विंटरफैट (क्रशेनिनिकोविया सेराटोइड्स) जिसे स्थानीय जानवर भी खाते हैं। इसके विपरीत, कुछ पौधे जो उनके आवास में भरपूर मात्रा में पाए जाते हैं, लद्दाख पिका ने उन्हें नजरअंदाज कर दिया। कुमार बताते हैं, ” दिलचस्प बात यह है कि नुब्रा पिकाओं ने अपने घास के ढेरों में लोकवीड (एक जहरीला पौधा) शामिल किया, जो असामान्य है क्योंकि इस जहरीले पौधे से आमतौर पर शाकाहारी जानवर दूर रहना पसंद करते हैं।”
कुमार मानते हैं कि यह अध्ययन इन प्रजातियों के बारे में किए जाने वाले कई और अध्ययनों की शुरुआत मात्र है, लेकिन साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि इसने उनके शुरुआती सवालों के कई जवाब दे दिए हैं। वैसे, अभी भी कई महत्वपूर्ण सवाल हैं जिनका जवाब नहीं मिला है, जैसे नुब्रा पिका अपने घास के ढेरों में लोकवीड क्यों शामिल करते हैं और उन्हें “स्कैटर होर्डिंग” क्यों पसंद है। कुमार को उम्मीद है कि आगे के अध्ययनों से इन अनसुलझे सवालों के जवाब मिल जाएंगे।
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 21 अगस्त 2024 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: अपने आवास में एक नुब्रा पिका। नुब्रा पिका शर्मीले होते हैं और वनस्पति वाले स्थानों पर रहते हैं। तस्वीर- हर्ष कुमार