- साल 2024 अब तक का सबसे गर्म वर्ष रहा है। इस दौरान लंबे समय तक भीषण लू चली।
- पिछले साल जलवायु से जुड़ी चरम घटनाओं में एशिया, अफ्रीका, अमेरिका और यूरोप में बनने वाले हीट डोम शामिल रहे।
- जलवायु परिवर्तन बढ़ने से वायु प्रदूषण की स्थिति और भयावह होने से स्वास्थ्य पर विपरीत असर पड़ने की आशंका है।
- तेजी से बदलते मौसम के चलते वायु प्रदूषकों का विषैला मिश्रण और भी घातक हो सकता है। इनमें भारत के शहरों में वाहनों से निकलने वाला धुआं, नाइजीरिया में दम घोंटू धूल के गुबार और ब्राजील में फैल रही जंगल की आग का धुआं शामिल है।
पिछले साल दुनिया ने डरावनी उपलब्धि हासिल की। यूरोपीय संघ की कोपरनिकस क्लाइमेट चेंज सर्विस ने 2024 को अब तक का सबसे गर्म साल बताया है। यह इतिहास में पहला साल है जब औसत वैश्विक तापमान पूर्व-औद्योगिक अवधि से 1.5 डिग्री सेल्सियस (2.7 डिग्री फ़ारेनहाइट) से ज्यादा है। इससे खतरनाक होता जलवायु जोखिम बहुत ज्यादा बढ़ गया है।
असल में, 2023 और 2024 पिछले एक लाख सालों में सबसे गर्म वर्ष हो सकते हैं। सभी संकेत इस ओर इशारा करते हैं कि मौसम और ज्यादा गर्म हो रहा है। दुनिया भर में इसका दुष्प्रभाव और भी घातक हो रहा है। कोपरनिकस क्लाइमेट चेंज सर्विस की उप निदेशक सामंथा बर्गेस ने चेतावनी दी, “पिछली [उत्तरी गोलार्ध] गर्मियों में देखी गई तापमान संबंधी चरम घटनाएं और भी तेज होंगी।”
साल 2024 में दुनिया के कई इलाकों में कई हफ्तों तक भीषण गर्मी रही। इसके गंभीर नतीजे सामने आए हैं। सऊदी अरब में सालाना हज यात्रा के दौरान घातक लू ने कम से कम तेरह सौ लोगों की जान ले ली। वहीं, अफ्रीका के दक्षिणी हिस्से में सदी के सबसे भयंकर सूखे ने दो करोड़ दस लाख बच्चों को कुपोषित कर दिया। रिकॉर्ड सूखे ने दक्षिण अमेरिका को भी तबाह कर दिया। इससे अमेजन घाटी की नदियों में पानी सबसे निचले स्तर पर चला गया। उत्तरी अमेरिका भी इससे अछूता नहीं रहा। हीट डोम (उच्च दबाव की प्रणाली जो तापमान को बनाए रखती है और बढ़ाती है) ने अमेरिका के बड़े हिस्से को ढक लिया। इसने मेक्सिको में सौ से ज़्यादा लोगों की जान ले ली।
लेकिन कम ही लोगों ने इस भीषण गर्मी के एक और दुष्प्रभाव पर ध्यान दिया। इसकी वजह यह है कि इस पर नजर रखना मुश्किल है। भीषण गर्मी हवा की गुणवत्ता को खराब करती है और लोगों को बीमार बनाती है। हालांकि, वायु प्रदूषण के स्रोत आम तौर पर स्थानीय या क्षेत्रीय होते हैं। लेकिन, जलवायु परिवर्तन से पूरी धरती पर हवा की गुणवत्ता और खराब हो रही है।
विश्व मौसम विज्ञान संगठन के बुलेटिन में जलवायु परिवर्तन के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव पर बात की गई है। इसमें कहा गया है कि लगातार चलने वाली लू, जंगल में रिकॉर्ड तोड़ आग लगने की घटनाएं और हवा और बारिश के पैटर्न में भारी बदलाव मिलकर “वायु प्रदूषण को जन्म देते हैं, उसकी अवधि और फैलाव को बदल देते हैं।”

नई दिल्ली के ऊपर ओजोन
भारत की राजधानी नई दिल्ली में 2024 की गर्मियां इतनी भयंकर थी जितनी शायद ही कुणाल कुमार याद कर सकते हैं। शहर में 13 साल में पहली बार लू की अवधि सबसे लंबी थी। हालात इतने खराब थे कि भोजन की डिलीवरी करने वाले गिग वर्कर कुमार को कुछ दिनों के लिए घर पर बैठना पड़ा।
उन्होंने मोंगाबे को बताया, “लू के थपेड़ों से मरने से बेहतर था कि मैं अपनी मजदूरी गंवाकर घर पर ही रहूं।”
दिल्ली, उत्तरी भारत का सबसे बड़ा शहर है। यह सिंधु-गंगा के मैदान में बसा है। यहां गर्मियों में दिन का तापमान औसतन 32°सेल्सियस (90°फारेनहाइट) रहता है। लेकिन उत्तरी हिंद महासागर के ऊपर लगातार साइक्लोन के विपरीत हवा के बहाव के साथ ही खत्म हो रहे अल नीनो के कारण शहर के ऊपर अचानक से रुख बदलने वाली हवा के झोंके आने लगे, जिससे लगातार ज्यादा दबाव वाला हीट डोम बना। इससे 2024 में पारा लगातार उच्च स्तर पर बना रहा।
कई हफ्तों तक दिन का तापमान 40 डिग्री सेल्सियस (104 डिग्री फारेनहाइट) से ऊपर रहा। इस दौरान रात में थोड़ी राहत मिली। शहर की गर्मी को सोखने वाले वातावरण ने स्थितियों को और भी दयनीय और खतरनाक बना दिया।
कुमार डिलीवरी के लिए हर दिन 12 से 15 घंटे घर से बाहर रहते हैं। शहर के बाकी साढ़े तीन करोड़ लोगों की तरह ही कुमार के लिए भी गर्मी जानलेवा थी। इनमें से कई लोग खुले में काम करते हैं या उनके पास एयर-कंडीशन नहीं है। कुमार की रिहायश वाले दक्षिणी दिल्ली के तंग इलाके में, दीवारों और सड़कों से दिन-रात गर्मी निकलती रहती है। यह शहर में गर्मी के टीले के असर का नायाब उदाहरण है।
ज्यादातर दिनों में उनके शरीर में पानी की कमी हो जाती थी। उनका स्वभाव भी चिड़चिड़ा हो गया था। कुमार याद करते हैं, “इस शहर में जहां भी देखो, ट्रैफिक जाम है। जाम में फंसना, तपती धूप में शरीर पर गर्म हवा के थपेड़े, यह सब असहनीय था।”
आम तौर पर, वायु प्रदूषण को दिल्ली में ठंड की समस्या माना जाता है। इस मौसम में कम ऊंचाई वाले धुएं की मोटी चादर महानगर के ऊपर लटकी ठंडी हवा में फंस जाती है। यह धुआं ज्यादातर जहरीले PM2.5 कणों से बना होता है। ये नंगी आंखों से नहीं दिखने वाले कण हैं जो फेफड़ों में चले जाते हैं। इनसे सांस लेने में दिक्कत हो सकती है। हर साल सर्दियों में, पराली जलाने और दिवाली के दौरान आतिशबाजी से PM2.5 का स्तर चरम पर होता है। इससे दिल्ली दुनिया की सबसे प्रदूषित जगहों में से एक बन जाती है।
अब जलवायु परिवर्तन और शहरी विकास के कारण गर्मियों में शहरों का तापमान बढ़ रहा है। इसलिए, तेज गर्मी और वायु प्रदूषण के आपसी दुष्प्रभाव कम स्पष्ट हैं, लेकिन स्वास्थ्य पर गंभीर रूप से हानिकारक असर डाल रहे हैं।

गर्मियों के महीनों में कुमार और हजारों गिग वर्कर्स को हर दिन ट्रैफिक जाम में फंसना पड़ता है। यह जगह PM2.5 कणों और जमीन पर ओजोन जैसे जहरीले पदार्थों के लिए हॉटस्पॉट बन जाती है। समताप मंडल के ऊपर, ओजोन सूर्य की हानिकारक पराबैंगनी किरणों को सोख कर लाभकारी भूमिका निभाता है। लेकिन पृथ्वी की सतह के करीब यह हवा को जहरीला बनाने वाला दमदार प्रदूषक है। इसका सेहत पर घातक असर होता है।
जमीन के स्तर पर ओजोन तब बनता है जब वाहनों के धुएं और कारखानों जैसे अन्य स्रोतों से निकलने वाले नाइट्रोजन ऑक्साइड और वाष्पशील कार्बनिक यौगिक (VOC) सूर्य के प्रकाश के साथ प्रतिक्रिया करते हैं। दिल्ली स्थित थिंक टैंक सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (CSE) द्वारा हाल ही में किए गए विश्लेषण में पाया गया कि गर्मियों के दौरान शहर भर में ओजोन के लिए नए हॉटस्पॉट उभरे हैं। विश्लेषण में कहा गया है कि अप्रैल और जुलाई 2024 के बीच, दिल्ली में 102 दिनों में ग्राउंड लेवल ओजोन रीडिंग सुरक्षित सीमा से ज्यादा दर्ज की गई। यह अक्सर लगातार 13 घंटे से ज्यादा समय तक रही। सालाना PM2.5 बैकग्राउंड लेवल में भी लगातार बढ़ोतरी हुई है, जो मुख्य रूप से वाहनों से होने वाले उत्सर्जन में बढ़ोतरी के चलते हुआ है। ट्रैफिक की वजह से सर्दियों में वायु प्रदूषण बढ़ता है और गर्मियों में ओजोन।
अशोका यूनिवर्सिटी में सेंटर फॉर हेल्थ एनालिटिक्स रिसर्च एंड ट्रेंड्स की निदेशक महामारी विज्ञानी पूर्णिमा प्रभाकरन ने ग्राउंड लेवल ओजोन के बढ़ते चलन को चिंताजनक बताया। यूनिसेफ के साथ साझेदारी में यूएस स्थित हेल्थ इफेक्ट्स इंस्टीट्यूट द्वारा हर साल प्रकाशित की जाने वाली “स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर” रिपोर्ट के अनुसार, ग्राउंड लेवल ओजोन के स्तर के कारण क्रोनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी बीमारी से होने वाली मौतों का बोझ भारत में सबसे ज्यादा है। 2019 में भारत में ओजोन के कारण 2,38,000 लोगों की मौत हुई।
लोग वाहनों और चिमनी से निकलने वाले अन्य जहरीले प्रदूषकों को भी सांस के जरिए अंदर लेते रहते हैं। लेकिन प्रभाकरन कहते हैं, “शायद जागरूकता की कमी के कारण, [इन] द्वितीयक प्रदूषकों के दुष्प्रभावों पर स्मॉग और PM2.5 के प्रभावों की तुलना में उतना ध्यान नहीं दिया गया है।”
प्रभाकरन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वैज्ञानिकों के साथ मिलकर काम कर रहे हैं। ये वैज्ञानिक वायु प्रदूषण (पीएम 2.5 और ओजोन सहित) के अलग-अलग परिणामों, जैसे सांस और संज्ञानात्मक स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों को ट्रैक करने के लिए डेटाबेस बना रहे हैं। प्रभाकरन ने कहा, “हम डेटा के साथ, हर उस स्वास्थ्य नतीजे का विश्लेषण करने की कोशिश कर रहे हैं जो हमारे हाथ लग सकता है।” उन्होंने आगे कहा, “उच्च रक्तचाप, हाइपरटेंशन, डायबिटीज, लिपिड का उच्च स्तर जैसे सामान्य जोखिम लंबी अवधि वाले कम [वायु प्रदूषण] में भी बदतर हो जाते हैं।”

भारत में साफ हवा से जुड़े प्रोग्राम वायु की गुणवत्ता में सुधार करने में काफी हद तक विफल रहे हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि उनमें साल भर प्रदूषकों के सबसे बड़े स्रोत परिवहन और औद्योगिक उत्सर्जन को कम करने के बजाय धूल नियंत्रण पर जोर है। सीएसई के अनुसंधान और वकालत की कार्यकारी निदेशक अनुमिता रॉय चौधरी ने कहा, “हमारे प्रोग्राम को कई तरह के प्रदूषक पर फोकस करना चाहिए, जिसका मतलब है कि वायु गुणवत्ता में सुधार पर नजर रखने के लिए ना सिर्फ हवा में धूल के स्तर को बल्कि PM2.5, नाइट्रस ऑक्साइड और ओजोन जैसे सभी तरह के प्रदूषकों को ध्यान में रखना चाहिए।“
कुमार जैसे खुले में काम करने वाले कर्मचारियों पर व्यापक जोखिम के चलते खतरा बहुत ज्यादा रहता है। भारत सरकार ऐसे समय में तेजी से बढ़ती गिग अर्थव्यवस्था को रोजगार बढ़ाने वाले क्षेत्र के रूप में देखती है जब बेरोजगारी दर रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंच गई है। लेकिन ये नौकरियां अक्सर श्रमिकों की लंबी अवधि की सेहत की कीमत पर आती हैं।
कुमार ने कहा, “मैं बीमार होने पर भी छुट्टी नहीं लेता, क्योंकि इससे मेरी कमाई कम हो जाती है।” लेकिन दिल्ली की जहरीली हवा में दिन-रात सांस लेने से बीमारी और समय से पहले मौत हो सकती है।
इसके अलावा, इसमें आर्थिक लागत भी शामिल है। गिग वर्कर्स अक्सर परिवार में अकेले कमाने वाले होते हैं, जो बिना बीमा या बिना भुगतान की गई मेडिकल छुट्टी के काम करते हैं। पीपुल्स एसोसिएशन इन ग्रासरूट्स एक्शन एंड मूवमेंट्स और यूनिवर्सिटी ऑफ पेनसिल्वेनिया द्वारा भारत भर में 10,384 ऐप-आधारित वर्कर का सर्वेक्षण किया गया। जवाब देने वाले लगभग शत-प्रतिशत लोगों ने कहा कि उन्हें डिलीवरी के काम के कारण शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का सामना करना पड़ा। करीब 43% ने हर रोज पांच सौ रुपये ($5.80) से कम कमाया। इतने ही वर्कर ने कहा कि उन्होंने कोई छुट्टी नहीं ली।
कुमार ने कहा, “हमें काम पर रखने वाली कंपनियों को फायदों, वेतन और छुट्टी के मामले में ज्यादा मानवीय होना चाहिए।” उन्होंने आगे कहा, “हम बारिश और गर्मी में भी काम करते हैं।” वैज्ञानिकों का कहना है कि आने वाले सालों में गर्मी और बढ़ेगी ही।
ब्राजील के जिंगू जनजातीय पार्क के ऊपर जंगल की आग का धुआं
पिछले साल इवेश यावलपिटी वोरा ने बताया कि उन्होंने असहाय होकर देखा कि किस तरह सूखे ने जिंगू जनजातीय पार्क में उनके पैतृक गांव के पास नदी के पानी को कम कर दिया। ब्राजील के अमेजन वर्षावन से होकर बहने वाली जिंगू और उसकी सहायक नदियां इस क्षेत्र के 16 जनजातीय समूहों के लिए जीवन रेखा हैं।
लेकिन 2024 में सूखा ही यहां के लोगों के सामने आने वाली एकमात्र चुनौती नहीं थी। जैसे-जैसे नदी में पानी कम हो रहा था, दम घोंटने वाले धुएं के घने गुबार ऊपर लटक रहे थे, जो कि हाल के सालों में इस क्षेत्र में देखी गई सबसे भयानक जंगली आग का नतीजा था।
जिंगू जनजातीय पार्क उस जगह पर स्थित है जहां अमेजन वर्षावन बायोम मध्य ब्राजील के माटो ग्रोसो राज्य में उष्णकटिबंधीय सेराडो सवाना बायोम में बदलता है। पार्क को 1961 में संरक्षित क्षेत्र घोषित किया गया था। इसका मकसद जनजातीय संस्कृति और प्राकृतिक जैव विविधता को बचाना था। वौरा जिंगू जनजातीय भूमि संघ (ATIX) के कार्यकारी निदेशक हैं। यह 1994 में जिंगू क्षेत्र में रहने वाले जनजातीय लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए गठित समूह है।
लेकिन कोई लोगों को जानलेवा जंगल की आग के धुएं से किस तरह बचा सकता है? वौरा ने वीडियो साक्षात्कार में मोंगाबे को बताया। पहले, “आग पर काबू पाना आसान था। आज कोई भी आग काबू से बाहर हो जाती है। फैल जाती है। इसे नियंत्रित करना मुश्किल है।” पिछले साल जिंगू क्षेत्र में आग बुझाने के लिए ब्राजील की पर्यावरण एजेंसी IBAMA के दो सौ से ज्यादा दमकल कर्मचारियों को भेजा गया था। इससे ज्यादा स्वयंसेवक “पूरी ताकत” के साथ उनके साथ शामिल हुए। लेकिन वोरा ने कहा कि आग “असल में काबू से बाहर” रही। वोरा ने कहा कि हाल के सालों में स्थानीय परिदृश्य नाटकीय रूप से बदल गया है। खेती से जुड़े कारोबार के विस्तार के लिए वनों की कटाई और जलवायु परिवर्तन ने मिलकर इस क्षेत्र को सूखा बना दिया है, जिससे बचे हुए वर्षावनों में आग से बचने की क्षमता खत्म हो गई है।
पिछले दो दशकों में जमीन हड़पने वालों और किसानों द्वारा नए चरागाह और फसल के लिए जंगल को साफ करने के लिए लगाई गई जंगली आग जिंगू क्षेत्र के और भी करीब पहुंच गई है। साल 2020 और 2021 के बीच, अमेजन वर्षावन के लगभग तेरह हजार वर्ग किलोमीटर (पांच हजार वर्ग मील) को नष्ट कर दिया गया। यह दर पूर्व ब्राजीलियाई राष्ट्रपति जायर बोलसोनारो की वर्षावन कृषि और खनन को प्रोत्साहित करने वाली नीतियों के कारण और भी बढ़ गई।
जानकारों का कहना है कि मौसम के बदलते पैटर्न ने भी जंगल को और ज्यादा असुरक्षित बना दिया है। पर्यावरण और जनजातीय अधिकारों पर काम करने वाले नागरिक समाज संगठन इंस्टीट्यूटो सोसियोएंबिएंटल (आईएसए) के साथ जिंगू क्षेत्र में प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन पर सलाहकार काटिया ओनो ने कहा, “ये आग लंबे समय तक सूखे की अवधि के दौरान लगती हैं, खासकर अल नीनो वाले सालों में और क्षेत्र के आसपास वनों की कटाई के बाद उनके दुष्प्रभाव ज्यादा दिखाई देने लगे हैं।”
सैटेलाइट इमेज से पता चला है कि 2024 में अमेजन में 53,620 से ज़्यादा आग लगने की घटनाएं हुई हैं। माटो ग्रोसो राज्य में इन आग की सबसे ज़्यादा घटनाएं हुईं। यह बारिश के मौसम में देरी (जलवायु परिवर्तन का ऐसा असर जिसके बारे में पता है) के कारण सितंबर के आखिर तक कई महीनों तक जलती रहीं। जंगल की आग ना सिर्फ वर्षावन की जैव विविधता को नष्ट करती है, बल्कि जनजातीय निवासियों और अन्य पारंपरिक लोगों के बीच स्वास्थ्य समस्याओं का कारण भी बनती है।
फिल्म निर्माता और एक अन्य जनजातीय संघ ऑल्टो जिंगू फैमिली इंस्टीट्यूट के अध्यक्ष ताकुमा कुइकुरो ने कहा, “आप अब ठीक से सांस नहीं ले सकते, आप ठीक से सो नहीं सकते, आप ठीक से देख नहीं सकते – यही मैंने महसूस किया जब हमारे जंगल में आग लगी थी।” कुइकुरो ने जिंगू जनजातीय पार्क के दमकल कर्मचारियों के बारे में वृत्तचित्र बनाया है, जो अनियंत्रित आग को बुझाने के सरकारी कोशिशों में शामिल हुए थे। उन्होंने कहा, “मेरी मां की बहन को फेफड़ों में सांस लेने की समस्या है और यह [धुएं के कारण] और भी बदतर होती जा रही है।”
वोरा ने कहा कि खास तौर पर बच्चे इस धुएं से प्रभावित होते हैं और “उन्हें फ्लू हो जाता है। उन्हें सांस लेने में समस्या होती हैं।” उन्होंने बताया कि लंबी अवधि में सांस लेने में समस्याओं से पीड़ित युवाओं के लिए स्थिति और भी खराब है।

कुइकुरो ने बताया कि क्राउडफंडिंग के जरिए ऑल्टो जिंगू फैमिली इंस्टीट्यूट (IFAX) ने स्थानीय गांवों में इंटरनेट हॉटस्पॉट की सुविधा उपलब्ध कराई है। इससे क्षेत्र में आग लगने की घटनाओं पर नजर रखने और स्थानीय समुदायों के नजदीक वाले जंगल की आग से लड़ने में मदद मिलती है। उन्होंने बताया कि इस इंटरनेट कनेक्शन का इस्तेमाल स्वास्थ्य और शिक्षा के उद्देश्यों के लिए भी किया गया है।
वोरा के अनुसार, भले ही जिंगू पार्क में प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल सुविधाएं सरकार के जनजातीय स्वास्थ्य के लिए विशेष सचिवालय (SESAI) की ओर से दी जाती हैं। फिर भी, निवासियों को ज्यादा जटिल इलाज के लिए दूरदराज के शहरी क्षेत्रों में जाना पड़ता है। उन्होंने कहा, “संरचना कभी भी पर्याप्त नहीं होती है।” “दवाओं की भी कमी है, जिससे समुदाय के भीतर किए जा सकने वाले इलाज पर असर पड़ता है।
नाइजीरिया के कानो के ऊपर धूल
अपना छोटा कारोबार करने वाली और तीन बच्चों की 32 वर्षीय मां जहरा उसैनी ने मोंगाबे को बताया, “नाइजीरिया के कारोबारी शहर कानो में धूल रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बन गई है। “कानो में बहुत गर्मी होती है। यहां तक कि जब बिजली होती है और पंखा चल रहा होता है, तब भी गर्मी के कारण [रात में] कमरे में सोना बहुत मुश्किल लगता है, खासकर शुष्क मौसम में।”
उसैनी ने कहा, “हर साल शुष्क मौसम में गर्मी बढ़ती जा रही है। मुझे लगता है कि ऐसा भगवान की मर्जी से हो रहा है।”
खलीफा शेख इस्याकू रबीउ बाल चिकित्सा अस्पताल में इंतजार करते समय वह चिंतित महसूस कर रही थीं। यहां उनकी सबसे छोटी बेटी हौवा को भर्ती कराया गया था। तीन साल की हौवा को बुखार हुआ था जिसे परिवार ने शुरू में मलेरिया का लक्षण समझ लिया था। लेकिन स्थानीय अस्पताल में इलाज के बावजूद उस पर कोई असर नहीं हुआ। उसे ऐंठन होने लगी और वह बेहोश हो गई। इसके बाद हौवा को खलीफा में भर्ती कर दिया गया और उसका सही इलाज किया गया: मेनिनजाइटिस।
मेनिनजाइटिस अलग-अलग वायरस, बैक्टीरिया और कवक के कारण होने वाला संक्रामक रोग है। इसकी वजह से रीढ़ की हड्डी और मस्तिष्क में सूजन हो जाती है। अगर इसका इलाज नहीं किया जाए, तो यह घातक हो सकता है। नाइजीरिया का उत्तरी भाग, जहां कानो राज्य और कानो शहर दोनों स्थित हैं, उप-सहारा अफ्रीकी क्षेत्र में स्थित है। इसे मेनिनजाइटिस बेल्ट कहा जाता है जो पूर्व में इथियोपिया से लेकर पश्चिम में सेनेगल तक फैला हुआ है।

यहां मेनिनजाइटिस के मामले दिसंबर से मई तक सामने आते हैं। तब हरमटन नामक हवा पश्चिमी सहारा से ठंडी, शुष्क, धूल भरी हवाएं लेकर आती है। उत्तरी नाइजीरिया की बोडेले डिप्रेशन से नजदीकी है। यह उत्तरी चाड में डूबा हुआ रेगिस्तान है। इस वजह से कानो अक्सर धूल के तूफानों से भर जाता है। इससे शहर महीन धुंध में डूब जाता है।
पिछले साल तापमान बढ़ने पर कानो के स्वास्थ्य आयुक्त अबू बकर लाबरन ने चेतावनी दी थी कि शुष्क, गर्म परिस्थितियों के कारण “नाक में खरोंच आ सकती है और मेनिनजाइटिस हो सकता है।”
पेरिस में इकोले पॉलीटेक्निक के शोधकर्ता और अफ्रीकी मौसम विज्ञान विकास केंद्र (ACMAD) के पूर्व वैज्ञानिक शेख डायोन ने मौसम संबंधी संकेतकों का इस्तेमाल करके मेनिनजाइटिस के प्रकोप का पूर्वानुमान लगाने के लिए शोध किया है। डायोन ने मोंगाबे को बताया, “हमने पाया कि अफ्रीकी मेनिनजाइटिस बेल्ट में जलवायु परिवर्तन और मेनिनजाइटिस के बीच संबंध है।”
उस शोध से तय हुआ कि मैनिनजाइटिस का प्रकोप तब होता है जब सापेक्ष आर्द्रता कम होती है। धूल का भार अधिक होता है और तापमान 30 डिग्री सेल्सियस (86 डिग्री फारेनहाइट) से ऊपर होता है। डायोन ने समझाया, “धूल के प्रकोप के दौरान, हमारे आसपास तापमान कम होता है। मेनिनजाइटिस के प्रकोप को बढ़ावा देने वाली मुख्य स्थितियों में से एक है धूल के गुबार के बाद तापमान का बढ़ जाना।”
डायोन ने कहा कि अब इस बात के सबूत बढ़ रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन के कारण मेनिनजाइटिस बेल्ट का विस्तार हो रहा है। वनों की कटाई और खनन, दोनों ही ऐसी गतिविधियां हैं जो रेगिस्तानीकरण को बढ़ावा देती हैं। ऐसे घटनाएं युगांडा और अंगोला जैसे देशों में मेनिनजाइटिस को बढ़ावा दे सकती है। एक मॉडलिंग अध्ययन के अनुसार, उत्तरी नाइजीरिया में मेनिनजाइटिस के मामले 1990-2005 के स्तर की तुलना में 2060 तक 47% तक बढ़ सकते हैं। भले ही सतह का वैश्विक औसत तापमान 2°सेल्सियस (3.6°फारेनहाइट) से नीचे रहे।
मेनिनजाइटिस के प्रकोप में जलवायु परिवर्तन सिर्फ एक कारण है। स्थानीय कारणों में भीड़भाड़, खराब वेंटिलेशन, इलाज के बारे में जागरूकता की कमी और वैक्सीन के प्रति संदेह शामिल हैं। कानो नाइजीरिया का दूसरा सबसे ज्यादा आबादी वाला राज्य है, जहां ज्यादातर लोग गांवों में रहते हैं। यहां व्यापक तौर पर इलाज की पारंपरिक पद्धतियों का पालन किया जाता है और शिशु मृत्यु दर अधिक है।
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खलीफा अस्पताल के नर्स यूसुफ अबुबकर ने देखा है कि मेनिनजाइटिस गर्मी के महीनों में होता है। लेकिन उनका कहना है कि गरीबी भी इसके संक्रमण में भूमिका निभाती है। अबुबकर ने कहा, “अच्छी आर्थिक स्थिति वाले लोगों के पास बड़े घर होते हैं, जिनमें हवादार क्षेत्र होते हैं, शायद 24 घंटे बिजली भी होती है।” उन्होंने आगे कहा, “ज्यादातर मामलों में, मेनिनजाइटिस के मामलों में [अस्पताल में] आने वाले बच्चे ऐसे क्षेत्रों से आते हैं जहां निम्न सामाजिक-आर्थिक स्थिति वाले लोग रहते हैं।”
मेनिनजाइटिस के इलाज में जटिलताओं के कारण अस्पताल में भर्ती होना जरूरी है। खलीफा अस्पताल की डॉक्टर ज़ैनब गरबयारो ने कहा कि जब भर्ती में देरी होती है और बीमारी को बढ़ने दिया जाता है, तो बच्चे विकलांग हो सकते हैं। “यह सुनने की बीमारी या अंधापन या दूसरा विकार हो सकता है। इसका मतलब है कि उन्हें इलाज के बाद कुछ समय के लिए पुनर्वास के तहत रखा जाना चाहिए। कुछ रोगी कभी भी सामान्य स्थिति में नहीं लौट पाते हैं।”

डायोन का कहना है कि ACMAD द्वारा विकसित मेनिनजाइटिस पूर्वानुमान प्रणाली भविष्य में बीमारी के बड़े प्रकोप को रोकने में मदद करेगी। पूर्वानुमान प्रणाली स्वास्थ्य सेवा कर्मियों को समय पर टीकाकरण की योजना बनाने में भी मदद कर सकती है। उन्होंने कहा, “मेनिनजाइटिस को हराने के लिए अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय संस्थानों में बहुत सारी कोशिशें की जा रही हैं। अगर चिकित्सा विशेषज्ञ प्रकोप का अनुमान लगाने और उसके अनुसार काम कर पाते हैं, तो वे संक्रमण को बहुत कम कर सकते हैं।”
भारत में शहरी वायु प्रदूषण पर ग्लोबल वार्मिंग के जटिल प्रभाव, ब्राजील के अमेजन में जंगल की आग का धुआं और नाइजीरिया में मेनिनजाइटिस का प्रकोप, सिर्फ तीन उदाहरण हैं कि किस प्रकार जलवायु परिवर्तन दुनिया भर में सार्वजनिक स्वास्थ्य को खराब कर रहा है।
जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन बदतर होता जाएगा, यह हमारी धरती को अप्रत्याशित तरीकों से बदलता रहेगा। बीमारियों के फैलने के नए अवसर पैदा करेगा और सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों को इन बीमारियों को समझने और उनका इलाज करने के लिए माथापच्ची करने पर मजबूर करेगा।
इस स्टोरी पर शोध और लेखन सिमरिन सिरुर ने किया है, जिसमें नाइजीरिया से ओरजी संडे और ब्राजील से कार्ला मेंडेस के इनपुट भी शामिल हैं।
यह स्टोरी मोंगाबे की वैश्विक टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार 13 जनवरी, 2025 को हमारी मोंगाबे वैश्विक साइट पर प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: शहरी भारत में वाहनों से निकलने वाला धुआं तेजी से अस्थिर हो रही जलवायु के कारण और भी घातक हो रहा है। Pexels के जरिए रवि शर्मा की तस्वीर।