- भारत में मकड़ियों द्वारा कीटों की आबादी को नियंत्रित करने और पारिस्थितिकी तंत्र में संतुलन बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका के बावजूद भी मिथकों में इन्हें अपशकुन और खतरे से जोड़ा जाता है।
- अपने पारिस्थितिक महत्व के बावजूद, सीमित वित्त पोषण और बड़े स्तनधारियों की तुलना में कम शोध के कारण भारत में मकड़ियों पर कम अध्ययन किया जाता है, जिससे इनके संरक्षण प्रयासों में बाधा आ रही है।
- पूरे भारत में कई नागरिक मकड़ियों के मिथकों को दूर करने और उनके महत्व के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए काम कर रहे हैं।
टारेंटयुला, एक बालों से भरी निशाचर मकड़ी है। इसका काटना बेहद दर्दनाक हो सकता है, लेकिन इन मकड़ियों द्वारा काटे जाने की संभावना दुर्लभ है, क्योंकि ये मकड़ियाँ आमतौर पर बिलों में रहती हैं। उत्तरी कर्नाटका में एक मिथक है कि टारेंटयुला के काटने से होने वाली मौत से बचने का एकमात्र तरीका इस मकड़ी के आठों पैरों को फैलाकर उस पर एक पत्थर रखना है।
दक्षिणी आंध्र प्रदेश की एक और लोककथा कहती है कि अगर किसी घर में हाथी के सिर के आकार का मकड़ी का जाला हो, तो यह घर के किसी सदस्य की मृत्यु का पूर्वाभास देता है। हालाँकि, हकीकत में, मकड़ियाँ घरों में मच्छरों और तिलचट्टों को खाने जैसी महत्वपूर्ण सेवाएँ देने के लिए जानी जाती हैं, जिससे बीमारियाँ फैलने से रुकती हैं।
गुजरात में ऐसा माना जाता है कि घर में मकड़ी का जाला वित्तीय दुर्भाग्य का कारण बनता है और घर में समृद्धि नहीं आती, ऐसा वेब ऑफ नेचर (WON) रिसर्च फाउंडेशन के मैनेजिंग ट्रस्टी, अरक्नोलॉजिस्ट ध्रुव प्रजापति कहते हैं। प्रजापति कहते हैं, “मकड़ियों को दुष्ट जीव माना जाता है जो दुर्भाग्य लाते हैं। यह विडंबना है क्योंकि राज्य में गिरनार पहाड़ी है, जो भगवान दत्तात्रेय का एक प्रसिद्ध तीर्थस्थल है। भगवान दत्तात्रेय ने मकड़ी को अपने गुरुओं में से एक बताया था।”

मकड़ियाँ अरक्नडज़ का एक क्रम हैं जो पृथ्वी पर 300 मिलियन से अधिक वर्षों से मौजूद हैं। इन गलत समझे गए जीवों के कारण लोगों में मिश्रित प्रतिक्रियाएँ होती हैं जो अक्सर डर और घृणा पैदा कर सकती हैं। इस तरह के भय मिथकों और नकारात्मक मान्यताओं में प्रकट होते हैं जो मकड़ियों को खत्म करने के गलत प्रयासों को जन्म दे सकते हैं।
हिंदू पौराणिक कथाओं के कुछ हिस्सों में मकड़ियों को देवता भी माना गया है। आंध्र के श्रीकालहस्ती मंदिर में भगवान शिव के प्रति समर्पण के लिए मकड़ी की पूजा की जाती है। एक अन्य उदाहरण में यह माना जाता है कि त्रिची के जम्बूकेश्वर मंदिर के पांचवें प्रकारम (गलियारे) का निर्माण स्वयं भगवान शिव ने किया था, जिन्होंने मकड़ी का रूप धारण किया था। मंदिर का निर्माण करने वाले प्रमुख चोल राजा कोचेनगोट चोल ने दावा किया कि वह अपने पिछले जन्म में एक मकड़ी थे। इसी तरह, तटीय कर्नाटका के एक अन्य मिथक में, नवरात्रि के त्यौहार के दौरान मकड़ी के जाले हटाने से घर में श्राप लगने की मान्यता है। “भले ही यह सच नहीं हैं, लेकिन यह कम से कम मकड़ियों के संरक्षण में मदद करता है क्योंकि अक्टूबर का महीना [जब नवरात्रि मनाई जाती है] वह समय होता है जब वे प्रजनन करती हैं,” कर्नाटका में मकडियों की नई प्रजातियों को खोजने और उनसे जुड़े मिथकों को तोड़ने का काम करने वाली संस्था, ‘सालिगा’ के संस्थापक अभिजीत एपीसी कहते हैं।
“प्राचीन द्रविड़ भाषाओं में, ‘साली’ शब्द जिसका अर्थ मकड़ी होता है, बुनाई करने वाले समुदायों का वर्णन करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। आज भी, पद्मासली जैसे कई बुनकर समुदाय इस नाम को बनाए रखते हैं,” सैमुअल जॉन, ‘स्पाइडर्स एंड द सी’ नामक एक सामाजिक उद्यम के सह-संस्थापक, कहते हैं।
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जॉन ने समझाया कि एक समय में लोगों द्वारा पूजे जाने वाले ये अरचिन्ड अब डर का कारण क्यों बन गए हैं? “ऐसा इसलिए है क्योंकि उस समय लोग आमतौर पर प्रकृति के साथ घनिष्ठ संबंध में रहते थे। अब एक अलगाव है, जिससे अपरिचितता पैदा होती है। समय के साथ, यह अपरिचितता भय या जिज्ञासा का कारण बन सकती है।”
गलतफहमियों के शिकार
शोध के अनुसार, वैश्विक स्तर पर, अराक्नोफोबिया (अराक्नड, विशेषकर मकड़ी से भय) संभवतः जानवरों से संबंधित सबसे व्यापक भय है, जिसकी अनुमानित व्यापकता जनसंख्या में 3.5-11.4% के बीच है।अप्रमाणित सिद्धांतों के प्रसार से ये भय और बढ़ जाते हैं।
स्वतंत्र सलाहकार वेना कपूर, जो वर्तमान में नेचर कंजर्वेशन फाउंडेशन में नेचर क्लासरूम प्रोग्राम की प्रमुख हैं, कहती हैं, “हर कुछ सालों में एक बार सोशल मीडिया पर हवाई जहाजों की टॉयलेट सीट के नीचे छिपी हुई मकड़ी की प्रजाति की एक लोकप्रिय फ़र्जी रिपोर्ट सामने आती है। कुछ समाचार संस्थानों ने बिना किसी ठोस जानकारी और सत्यापन के इस खबर को प्रकाशित कर दिया।”
इस तरह के मिथक मकड़ियों को मारने में योगदान करते हैं, जिसका परिणाम पारिस्थितिकी तंत्र पर पड़ता है।

एडवांस्ड इंस्टीट्यूट ऑफ़ वाइल्डलाइफ़ कंज़र्वेशन की सीनियर रिसर्च फ़ेलो मधुमिता राजकुमार कहती हैं, “मकड़ियाँ कीटभक्षी होती हैं जो अपने शिकार से कीटों की आबादी को नियंत्रित करती हैं। उदाहरण के लिए, केकड़ा मकड़ियाँ फूलों पर शिकार करने वाले कीटों को पकड़ती हैं। जैसे बाघ शाकाहारी जानवरों पर नियंत्रण रखता है, वैसे ही मकड़ियाँ आर्थ्रोपोड या कीटों की आबादी पर नियंत्रण रख सकती हैं |”
पश्चिम बंगाल के गवर्नमेंट जनरल डिग्री कॉलेज में एक अरचनोलॉजिस्ट और सहायक प्रोफेसर अयान मोंडल कहते हैं कि भारत में मकड़ियों की हज़ारों प्रजातियों में से, अब तक केवल छः प्रजातियों – चिलोब्राचिस, लोक्सोसेल्स, लैट्रोडेक्टस, मैक्रोथेल, पोइसिलोथेरिया और चीराकैंथियम – से संबंधित मकड़ियों के काटने पर प्राथमिक उपचार से परे उपचार की आवश्यकता दर्ज की गई है। भारत में इन छः प्रजातिओं का हिस्सा 2% से भी कम है। मोंडल वर्तमान में भारत में चिकित्सकीय रूप से महत्वपूर्ण मकड़ियों पर एक किताब लिख रहे हैं।
मकड़ी जैसे जीवों के संरक्षण के लिए विशेषज्ञ दो-आयामी दृष्टिकोण अपनाने का सुझाव देते हैं: मकड़ियों के व्यवहार को समझने के लिए अधिक शोध और जागरूकता पैदा करने और डर को कम करने के लिए नागरिकों को शामिल करना।
कम अध्ययन
इस साल की शुरुआत में, केरल के क्राइस्ट कॉलेज के जूलॉजी विभाग से संबद्ध सेंटर फॉर एनिमल टैक्सोनॉमी एंड इकोलॉजी (CATE) के शोधकर्ताओं ने भारत के पश्चिमी घाटों से मकड़ियों की चार नई प्रजातियों की खोज की। CATE के एक अरकनोलॉजिस्ट गौतम कदम, जो पश्चिमी घाटों में चार नई मकड़ी प्रजातियों की खोज करने वाले सदस्यों में से एक थे, कहते हैं कि इसके साथ, भारत में अब तक खोजी गई मकड़ी प्रजातियों की संख्या लगभग 1,988 है। कुछ अनुमानों के अनुसार भारत में मकड़ियों की 2000 से अधिक प्रजातियाँ हैं।
यह खोज, साथ ही पिछले कुछ वर्षों में हुई कुछ ऐसी ही खोज, अराक्नोलॉजी के लिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि मकड़ियाँ भारत में सबसे कम अध्ययन किए जाने वाले टैक्सा में से एक हैं। एडवांस्ड इंस्टीट्यूट ऑफ वाइल्डलाइफ कंजर्वेशन की मधुमिता राजकुमार कहती हैं कि पारंपरिक टैक्सोनोमिस्ट ने सुदूर अतीत में कई प्रजातियों का दस्तावेजीकरण किया था, लेकिन अब फंड की कमी के कारण विविध क्षेत्रों और प्रजातियों का दस्तावेजीकरण करना चुनौतीपूर्ण है।
यहां तक कि मकड़ियों पर वर्तमान शोध में भी एक विशेष मकड़ी समूह पर अधिक ध्यान केंद्रित किया गया है – कूदने वाली मकड़ियाँ।
गोवा और उत्तरी कर्नाटका में स्पाइडर वॉक आयोजित करने वाले फोटोग्राफर प्रसन्ना परब कहते हैं, “भारत में शोधकर्ता वर्तमान में जंपिंग स्पाइडर (साल्टिसिडे परिवार के) का वर्णन करने पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं। अन्य परिवारों का अध्ययन करने वालों के लिए एक बड़ा अवसर है। मकड़ियों पर शोध को आगे बढ़ाने के लिए वैज्ञानिकों के साथ सहयोग करने और उन्हें वित्तपोषित करने के लिए जूलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (ZSI) के साथ-साथ अन्य प्रतिष्ठित संस्थान बेहतर स्थिति में हैं।”
मकड़ियों पर अपर्याप्त शोध एक अंतरराष्ट्रीय समस्या है। फ्रंटियर्स में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, “मकड़ियों की ज्ञात विविधता, लगभग 51,000 प्रजातियाँ, उनकी वास्तविक विविधता का केवल एक अंश है जो 150-200,000 प्रजातियों जितनी बड़ी हो सकती है।”
पूरे भारत में 25 से भी कम शोधकर्ता मकड़ियों पर अध्ययन कर रहे हैं। मधुमिता राजकुमार कहती हैं, “ऐसा इसलिए है क्योंकि संस्थानों से फ़ंड की कमी है।” मोंगाबे इंडिया से बात करने वाले कम से कम छः शोधकर्ताओं ने बताया कि उन्हें मकड़ियों पर शोध के लिए भारतीय संस्थानों से राशि नहीं मिली, जिससे उनके पास खुद ही धन जुटाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा।

गौतम कदम कहते हैं, “भारतीय फंडिंग एजेंसियों से मुझे कोई फायदा नहीं हुआ। हालांकि, यू.एस. स्थित इंटरनेशनल सोसाइटी ऑफ एराक्नोलॉजी ने मकड़ियों पर मेरे शोध को वित्तपोषित किया।” “भारत में कई प्राणीशास्त्रियों के लिए एराक्नोलॉजी एक अज्ञात संज्ञा है। प्रतिष्ठित संस्थानों में पदों पर आसीन ये प्राणीशास्त्री मकड़ियों पर परियोजनाओं को वित्तपोषित करने के लिए तैयार नहीं हैं,” मोंडल कहते हैं, जो अपनी परियोजना के लिए अपने स्वयं के धन का उपयोग कर रहे हैं।
वेना कपूर ने कहा, “सरकार द्वारा समर्थित संस्थाएँ जैसे कि भारतीय वन्यजीव संस्थान और निजी वित्त पोषण अनुदान संस्थाएँ जैसे कि नेशनल ज्योग्राफिक,डब्ल्यूडब्ल्यूएफ-इंडिया और द हैबिटैट्स ट्रस्ट, सर्वेक्षणों और कम अध्ययन वाली तथा कम ज्ञात अकशेरुकी प्रजातियों की संरक्षण आवश्यकताओं और स्थिति को समझने के लिए छोटे अनुदान देते हैं। लेकिन पारिस्थितिकी अनुसंधान पर ध्यान केंद्रित करने की भी तत्काल आवश्यकता है|” “मकड़ियों सहित कई अकशेरुकी जीवों के वर्गीकरण के बारे में हमें कोई आधारभूत जानकारी नहीं है, क्योंकि हमारे पास कोई आधारभूत जानकारी नहीं है। मकड़ियों का प्राकृतिक इतिहास और व्यवहार तथा शहरीकरण, कीटनाशकों के उपयोग और अरक्नडज़ पर आवास परिवर्तनों का प्रभाव कुछ ऐसे विषय हैं जिन्हें संरक्षण के साथ प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
राजेश सनप, एक स्वतंत्र शोधकर्ता जिन्होंने पहले नेशनल सेंटर फॉर बायोलॉजिकल साइंसेज (एनसीबीएस) के साथ काम किया था, कहते हैं, “पश्चिमी देशों की तुलना में भारत में मकड़ियों जैसी कम ज्ञात प्रजातियों पर शोध कम है। और इसका मुख्य कारण शोध निधि की कमी और गैर-करिश्माई प्रजातियों के लिए समग्र ध्यान की कमी है।” सनप, जिन्होंने भारत में 30 से अधिक नई प्रजातियों की खोज की है, जिनमें मकड़ियाँ, बिच्छू, साँप और छिपकली शामिल हैं, वर्तमान में मकड़ियों पर अपने शोध के लिए अपने स्वयं के धन का उपयोग कर रहे हैं।
प्रजापति कहते हैं कि मकड़ियों का अवैध व्यापार भी बड़े पैमाने पर हो रहा है। कुछ मकड़ियाँ वन्यजीव संरक्षण अधिनियम के तहत भी संरक्षित नहीं हैं, और मकड़ियों के शोध के लिए सीमित संसाधनों के साथ, प्रजातियों की खोज धीमी है, और कई मकड़ियाँ हमारे द्वारा खोजे जाने और उनकी सुरक्षा किए जाने से पहले ही गायब हो रही हैं।
प्रजापति कहते हैं कि भारत में अकशेरुकी जीवों पर शोध अपने प्रारंभिक चरण में है, प्रजापति कहते हैं, “वित्तपोषण संस्थानों में काम करने वाले अधिकारियों को मकड़ियों के महत्व के बारे में बुनियादी तथ्यों की भी जानकारी नहीं है। जबकि पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) अकशेरुकी जीवों के लिए अध्ययन को वित्तपोषित कर रहा है, यह सरकारी संस्थानों के प्रोफेसरों और वैज्ञानिकों तक ही सीमित है।”
मोंगाबे इंडिया ने WWF-इंडिया, पश्चिम बंगाल विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी और जैव प्रौद्योगिकी विभाग, तथा ZSI सहित कुछ फंडिंग एजेंसियों को मकड़ी के अध्ययन के लिए फंडिंग की सीमाओं के बारे में लिखा। प्रकाशन के समय तक इनसे कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली।
नागरिकों में जागरूकता
वैज्ञानिक अनुसंधान को आगे बढ़ाने के अलावा, मकड़ी के बारे में गलत सूचना को दूर करने का एक और प्रभावी तरीका जागरूकता कार्यक्रमों में नागरिकों को शामिल करना और मकड़ियों के साथ एक स्वस्थ संबंध को बढ़ावा देना है।
उदाहरण के लिए, कर्नाटका में, मकड़ी के शौकीनों के लिए एक क्लब, सालिगा, स्कूली छात्रों और नागरिकों के साथ मिलकर मकड़ियों के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए काम कर रहा है। क्लब के संस्थापक अभिजीत एपीसी ने चार अन्य सदस्यों के साथ मिलकर मकड़ियों के दस्तावेज़ीकरण में विभिन्न क्षेत्रों के 150 लोगों (कर्नाटक स्पाइडर क्लब नामक एक उप-टीम का गठन) को प्रशिक्षित किया। उनमें से कुछ ने नई मकड़ी प्रजातियों की खोज पर विभिन्न विज्ञान पत्रिकाओं में लिखा है। स्कूली छात्रों के साथ नियमित बातचीत और मकड़ी देखने के सत्र आयोजित करके, वे इस धारणा को बदलने का भी काम करते हैं कि मकड़ियाँ एक अपशकुन हैं। अभिजीत बताते हैं, “इसका लक्ष्य पक्षियों को देखने की तरह ही मकड़ियों को देखने को लोकप्रिय बनाना है।”
बेंगलुरू में, एक महिला समूह भी सितंबर 2023 से अपने मासिक प्रकृति भ्रमण पर मकड़ियों को देखने में बढ़ती रुचि को बढ़ावा दे रहा है। लगभग 20-30 महिलाओं का समूह, अपने भ्रमण पर मकड़ियों और कीड़ों सहित शहरी सेटिंग में प्रकृति का अवलोकन करता है। ऑल वूमेन नेचर वॉक की संस्थापक मित्तल गाला कहती हैं, “चर्चा प्राकृतिक इतिहास और इन जीवों के आकर्षक व्यवहारों के इर्द-गिर्द घूमती है।”

सामाजिक उद्यम ‘स्पाइडर्स एंड द सी’ भी शहरी प्रकृति की सैर और सभी आयु समूहों के लिए अन्य आउटडोर कार्यक्रमों के माध्यम से जागरूकता की खाई को पाट रहा है, पिछले चार वर्षों में 20 शैक्षणिक संस्थानों में लगभग 500 युवाओं को प्रकृति-आधारित शिक्षण कार्यक्रम प्रदान कर रहा है।
परब कहते हैं कि नागरिक विज्ञान पहल से देशभर में मकड़ियों का बेहतर दस्तावेज़ीकरण भी संभव हो सकता है। वे बताते हैं कि हाल के वर्षों में, क्रैब मकड़ियों (थॉमिसिडे परिवार की) की कई प्रजातियाँ, जो पहले भारत में रिपोर्ट नहीं की गई थीं, लेकिन दक्षिण-पूर्व एशिया के शोधकर्ताओं के लिए रुचि का केंद्र थीं, को देश में नागरिक वैज्ञानिकों द्वारा (आमतौर पर जैव विविधता पोर्टलों पर) प्रलेखित किया गया है।
बेंगलुरू में अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय जैसे संस्थानों में गैर-जीव विज्ञान के लिए ‘बग्स इन द सिस्टम‘ नामक एक वैकल्पिक पाठ्यक्रम है, जो परिसर में अरक्नडज़ और कीड़ों का पता लगाते हैं। जिज्ञासा जगाने के अलावा, पाठ्यक्रम छात्रों के शहरीकरण घृणा के दृष्टिकोण को बदलने की भी कोशिश करता है, जहां ऐसे जीवों के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण भावना घृणा के रूप में प्रकट होता है।
मकड़ियाँ आकर्षक जीव हैं जो आपके जूते के लायक नहीं हैं। वे माइक्रोहैबिटेट विशेषज्ञ हैं जो मच्छरों जैसे कीटों को खाकर मनुष्यों की मदद करते हैं। सनप कहते हैं, “वे अपने आवास में अचानक होने वाले बदलावों के प्रति संवेदनशील होते हैं, जो उन्हें पारिस्थितिकी तंत्र के कामकाज का आदर्श संकेतक बनाता है।”
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 5 जुलाई 2024 प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: महाराष्ट्र में 2022 में लैंगेलुरिलस टर्टियस। ये मकड़ियाँ झाड़ीदार इलाकों में चट्टानी इलाकों में पाई गईं। तस्वीर- राजेश सनप