- विश्व के अनुमानित 2,00,000 ग्लेशियरों में से करीब 39,660 ग्लेशियर हिमालय-काराकोरम में पाए जाते हैं। इनमे से सिर्फ 24 ग्लेशियरों की उनके ‘ग्लेशियर मास बैलेंस’, जो कि उनके बढ़ने या सिकुड़ने की स्थिति को दर्शाता है, के लिए मॉनिटरिंग हो रही है।
- इस क्षेत्र में ग्लेशियरों के पर्यावरण और हाइड्रोलॉजी से रिश्ते को समझने के लिए ग्लेशियरों की स्थिति या स्वास्थ्य की निगरानी जरूरी है।
- चूँकि हर ग्लेशियर की मॉनिटरिंग संभव नहीं है, ऐसे में विशेषज्ञों का कहना है कि छोटे-छोटे पर्यावरणीय क्षेत्रों को चिन्हित करके उनके एक ग्लेशियर की उस क्षेत्र के नमूने के रूप में मॉनिटरिंग की जाए।
हिमालय-काराकोरम (एचके रीजन), 2500 किलोमीटर लम्बी पर्वत श्रृंखला, पूर्व में भारत की सीमा, भूटान और नेपाल, और पश्चिम में पाकिस्तान में फैली हुई है। इस क्षेत्र में 39,660 ग्लेशियर हैं जो सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र नदी बेसिन के 42525 वर्ग किलोमीटर में फैले हैं।
शोधकर्ताओं का कहना है कि एचके रीजन में दुनिया की किसी भी पर्वत श्रृंखला से ज़्यादा ग्लेशियर हैं।

जब बर्फ गिरती है और लम्बे समय में उसकी नयी परतें जमती हैं, तो यह बड़ी और मोटी बर्फ के रूप में इक्क्ठी होती हैं जिससे ग्लेशियर बनते हैं। ग्लेशियर का ऊपरी भाग एक्युमुलेशन जोन या संग्रहण जोन कहलाता है जहां बर्फ गिरती है और समय के साथ इकट्ठा होती है। लेकिन ग्लेशियर के निचले भाग – एब्लेशन जोन या उच्छेदन जोन – में बर्फ जमने से ज़्यादा पिघलती है। बर्फ के इकट्ठा होने और पिघलने के इस अंतर को ‘ग्लेशियर मास बैलेंस’ कहते हैं, जो कि ग्लेशियर के स्वास्थ्य या उसकी स्थिति को दर्शाता है।
ग्लेशियर निचले इलाकों में रहने वाले समुदायों के लिए पीने के पानी और सिंचाई का एक महत्वपूर्ण स्रोत हैं, साथ ही, ग्लेशियरों से आने वाले पानी में मौजूद पोषक तत्व समुद्री जीवों और खाद्य श्रृंखला के लिए भी बहुत मददगार होते हैं। ग्लेशियर नदियों के प्रवाह और ग्लोबल वार्मिंग को भी नियंत्रित करने का काम करते हैं।
साल 2018 में कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस द्वारा प्रकाशित किये एक पेपर के अनुसार, जलवायु और ग्लेशियर के सम्बन्ध की जानकारी अभी भी अधूरी है। इसलिए ग्लेशियरों पर शोध और इनकी निगरानी (मॉनिटरिंग), ख़ासकर एचके रीजन जैसे सुदूर क्षेत्रों में, बहुत महत्वपूर्ण है। हालाँकि, एचके रीजन में अभी सिर्फ 24 ग्लेशियरों की ही मॉनिटरिंग की जा रही है।

“हमें सभी ग्लेशियरों की मॉनिटरिंग की ज़रुरत नहीं है। लेकिन, इन हिमालयन रीजन में क्या हो रहा है ये समझने के लिए इन सभी रीजन के कम से कम एक-एक ग्लेशियर पर लम्बी अवधि की निगरानी की जरूरत है,” स्विट्ज़रलैंड की यूनिवर्सिटी ऑफ़ ज़ूरिख की वर्ल्ड ग्लेशियर मॉनिटरिंग सर्विस के ग्लेसिओलॉजिस्ट, इनेस दुसैलॅान्ट लेहमन, ने मोंगाबे इंडिया को बताया।
क्यों ज़रूरी है निगरानी
ग्लेशियर कैसे विकसित होते हैं – ग्लेशियर मास का बढ़ना, घटना, या स्थिर रहना – ग्लेसिओलॉजिस्ट बताते हैं कि ग्लेशियरों की सालाना मॉनिटरिंग बहुत ज़रूरी है। ग्लेशियर की स्थिति को निर्धारित करने के लिए पूरे साल बर्फ के इकट्ठे होने और उसके पिघलने की मात्रा को मापा जाता है।
नेपाल के ग्लेशियर, जो कि मध्य हिमालय में आते हैं, में से 10 से भी कम (सिर्फ सात) की मॉनिटरिंग की जा रही है। इनमे से तीन – मीरा ग्लेशियर, चांगरी नप और पोकाल्ड ग्लेशियर – नेपाल के खुंभु क्षेत्र, जो कि माउंट एवरेस्ट का इलाका है, के दूध कोसी बेसिन में स्थित हैं।
वर्ल्ड ग्लेशियर मॉनिटरिंग सर्विस ने मीरा और पोकाल्ड ग्लेशियर को ‘बेंचमार्क ग्लेशियर’, ऐसे ग्लेशियर जहाँ 10 से भी लम्बे समय से मॉनिटरिंग हो रही है, के रूप में चिन्हित किया है।
मीरा ग्लेशियर साल 2007 से साल में कम से कम एक बार (नवंबर में) मॉनिटर किया जाता है। “इसकी मास बैलेंस सीरीज (मॉनिटरिंग सीरीज) मध्य हिमालय में फील्ड में लगातार की गई सबसे लम्बी और पूरे हिन्दू कुश क्षेत्र में की गई दूसरी सबसे लम्बी सीरीज है,” नेपाल की त्रिभुवन यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर और फील्ड ग्लेसिओलॉजिस्ट, दिबस श्रेष्ठ ने बताया।

“यह (मीरा ग्लेशियर) हमें यह बता सकता है कि आसपास के ग्लेशियरों के साथ क्या हो रहा है,” दसैलॅान्ट ने बताया। उनके अनुसार, पिछले दो सालों में मीरा पीक (6,476 मीटर) पर बिलकुल भी बर्फ इकट्ठी नहीं हुई है। इसका मतलब है कि ग्लेशियरों पर नई बर्फ भी नहीं आ रही है और साथ ही उनकी मौजूदा बर्फ भी पिघल रही है। “इससे हमें यह पता चलता है कि ग्लेशियरों के पिघलने की दर में पिछले कुछ सालों में वृद्धि हुई है,” उन्होंने कहा।
शोधकर्ताओं का लक्ष्य मीरा ग्लेशियर के मापन को कम से कम 30 सालों तक जारी रखना है ताकि इसे एक उदाहरण के तौर पर इस्तेमाल किया जा सके।
हिमालय में अधिकतर ग्लेशियरों का बहुत ऊंचाई पर और चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में होना डेटा इकट्ठा करने की प्रक्रिया को और भी मुश्किल बनाता है।
“इन स्थानों तक की पहुंच कठिन होने के साथ ही इस फील्डवर्क के लिए पर्याप्त संसाधनों और जुझारू लोगों की भी आवश्यकता होती है,” श्रेष्ठ ने बताया। “ग्लेशियरों को मापना आसान नहीं है क्योंकि हमें साल में कम से कम एक या दो बार उन्हीं ग्लेशियरों के पास जाना पड़ता है।”

हिमालय की जटिल बनावट के कारण, इस पूरी पर्वत श्रृंखला के ग्लेशियरों के मापों को क्षेत्रीय आधार पर नहीं बांटा जा सकता। “हम यह नहीं कह सकते कि पूरा हिमालय इस तरह [समान तरीकों से] व्यवहार करता है,” दसैलॅान्ट ने समझाया। इसके बजाय, वह हिमालय श्रृंखला में छोटे जलवायु क्षेत्रों को चिन्हित करने और उनके एक ग्लेशियर की उस क्षेत्र के नमूने के रूप में मॉनिटरिंग करने का सुझाव देती हैं।
मानसून का प्रभाव
साल 2017 में जर्नल ऑफ ग्लेशियोलॉजी में छपे एक पेपर के अनुसार, साल 2007-2015 के बीच शोध किए गए तीन ग्लेशियर – मीरा, चांगरी नप और पोकाल्ड – “वर्षा और बंगाल की खाड़ी से आने वाले चक्रवाती तूफानों के प्रति संवेदनशील हैं।”
हिमालय पर हवा के दो तरह के बहाव हावी हैं, आईआईटी, इंदौर में एसोसिएट प्रोफेसर और ग्लेसिओलॉजिस्ट
मोहम्मद फारूक आज़म ने बताया। सर्दियों में पश्चिमी विक्षोभ (वेस्टर्न डिस्टर्बेंस) पश्चिमी हिमालय, काराकोरम और हिंदू कुश पर हावी हो जाते हैं। दक्षिण एशियाई मानसून – जिसमें भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून भी शामिल है – गर्मियों में मुख्य रूप से पूर्वी और मध्य हिमालय पर हावी रहता है। “एचके रीजन तक पहुंचने वाले भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून मुख्य रूप से हिंद महासागर, बंगाल की खाड़ी और अरब सागर से आते हैं, जो पूर्वी हिमालय और मध्य हिमालय – सिक्किम, भूटान और नेपाल को प्रभावित करते हैं,” उन्होंने बताया।
ग्रेनोबल विश्वविद्यालय के शोधकर्ता और साल 2017 में छपे शोध के लेखक, फैनी ब्रून के अनुसार, इस क्षेत्र में अधिकतम वर्षा “मानसून या प्री-मानसून के दौरान, अप्रैल से सितंबर के अंत तक” होती है।

जब मानसून आता है, तो वह वर्षा करते हुए आगे बढ़ता है। “बंगाल की खाड़ी से आने वाली नमी हिमालय की तलहटी से टकराती है। इससे बारिश होती है और ठंडक होती है या हवा डीकंप्रेस हो जाती है जिससे वर्षा शुरू हो जाती है,” ब्रून ने समझाया। इस वजह से वर्षा की अधिकतम तीव्रता तलहटी के करीब होती है और जिसे भौगोलिक प्रभाव या ओरोग्रफिक इफ़ेक्ट के रूप में जाना जाता है जिसमे हवा ऊपर उठती है और अधिक ऊंचाई पर जाने पर शुष्क हो जाती है।
“जब आप खुम्भू जैसी बड़ी घाटियों में जाते हैं, तो अधिक ऊंचाई पर यह [हवा] शुष्क हो जाती है। घाटी में बहने वाली हवाओं के बारे में अभी भी बहुत कुछ समझना बाकी है,” ब्रून ने कहा।
ग्लेशियरों में होने वाली बारिश की मात्रा ग्लेशियर के स्थान, ऊंचाई, संचय क्षेत्र, माइक्रोक्लाइमेट और बनावट जैसे कई कारकों पर आधारित होती है। जो ग्लेशियर सबसे पहले मॉनसून के संपर्क में आते हैं, उनमें अंदरूनी और दूर के ग्लेशियरों की तुलना में अधिक वर्षा होगी।
“जिन तीन ग्लेशियरों का हम अध्ययन कर रहे हैं उनका व्यवहार अलग-अलग है क्योंकि मीरा [ग्लेशियर] पोकाल्ड [ग्लेशियर] और चांगी नप ग्लेशियर से ऊंचा है। और यह एक आर्द्र क्षेत्र में भी स्थित है, इसलिए मीरा के क्षेत्र में अधिक वर्षा दर्ज की जाती है,” ब्रून ने कहा। “यह ज्यादातर इस तथ्य के कारण है कि मीरा, पर्वत श्रृंखला के दक्षिण में है जहाँ हवा में नमी अधिक है।”
बारिश में देरी और बढ़ते चक्रवात
पिछले कुछ सालों में भारत मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) ने चक्रवातों के लिए कई चेतावनियाँ जारी की हैं, जिनमें सबसे हालिया मई 2024 में चक्रवात रेमल की चेतावनी है।
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“अगर बंगाल की खाड़ी या अरब सागर में लगातार चक्रवाती गतिविधि होती है, तो इसका [ग्लेशियरों पर] सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा,” श्रेष्ठ ने बताया। ऐसा इसलिए है क्योंकि चक्रवातों द्वारा लाई गई वर्षा ग्लेशियर मास बैलेंस को बढ़ाती है।
चक्रवात लगभग दो से तीन दिनों तक चलते हैं लेकिन कम ऊंचाई वाले बेसिन में तरल रूप (बारिश) और ज़्यादा
ऊंचाई वाले बेसिन में ठोस रूप (बर्फ) में भारी मात्रा में वर्षा लाते हैं। अक्टूबर 2013 में भारत में आया चक्रवात फैलिन पूर्वी नेपाल में अधिक सक्रिय था। श्रेष्ठ ने कहा, “इससे मीरा ग्लेशियर पर लगे नौलेक ऑटोमेटिक वेदर स्टेशन (5,360 मीटर) पर काफी बर्फ गिरी – 48 घंटों में एक मीटर बर्फ।” यह चक्रवात चांगरी नप और पोकाल्ड ग्लेशियरों के सबसे कम नकारात्मक वार्षिक-विशिष्ट मास बैलेंस (एनुअल स्पेसिफिक मास बैलेंस) का कारण बना, और मीरा ग्लेशियर पर सबसे सकारात्मक मास बैलेंस का कारण बना।

जब भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून में देरी होती है, तो देर से होने वाली वर्षा ग्लेशियरों के मास बैलेंस को प्रभावित करती है। श्रेष्ठ ने बताया कि आमतौर पर, देरी से आया मानसून मई में भूमध्यरेखीय मध्य प्रशांत क्षेत्र में अल नीनो की स्थिति को मजबूत करने से संबंधित होता है। यह वह स्थिति है जब पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र में समुद्र की सतह का तापमान सामान्य स्थिति से अधिक ठंडा होता है। उन्होंने कहा, यह एक आवधिक घटना है जो हर 5-7 साल में घटित होती है।
ऐल्प्स और अलास्का के ग्लेशियरों की तुलना में, मध्य हिमालय के ग्लेशियर गर्मियों में बर्फबारी वाले ग्लेशियर हैं। श्रेष्ठ ने कहा, “वार्षिक वर्षा का 80% जून से सितंबर तक गर्मी के महीनों के दौरान होता है।” उनके अनुसार, यदि मानसून के दौरान वर्षा कम हो जाती है, तो हिमालय के संचय क्षेत्र (एक्यूमुलेशन एरिया) में कम बर्फबारी होगी, और इससे ग्लेशियर मास बैलेंस पर असर पड़ेगा।
“मानसून में देरी से तेज सौर विकिरण की अवधि बढ़ जाती है, जिससे ग्लेशियर पिघलने के लिए अधिक समय मिलता है। इसके अलावा, ग्लेशियर की सतह पर ताजा बर्फ ना होने से ग्लेशियर और तेजी से पिघलते हैं,” श्रेष्ठ ने बताया।
ग्लेशियर प्रणाली को काम करने के लिए इनपुट की आवश्यकता होती है, वह है बर्फबारी। हर साल यह बर्फबारी जमा होकर ठोस बर्फ में तब्दील हो जाती है। जब ग्लेशियर नीचे की ओर बढ़ते हैं और उच्च तापमान वाले क्षेत्रों में पहुंचते हैं, तो यह नीचे की ओर रहने वाले समुदायों के लिए पिघला हुआ पानी प्रदान करते हैं।
लेकिन, दसैलॅान्ट के अनुसार, “अधिक तापमान बर्फ को और अधिक पिघला देगा, इसलिए [ग्लेशियर मास] बैलेंस सकारात्मक के बजाय नकारात्मक हो जाएगा, और हम इन वाटर टावरों को तेजी से खो देंगे।”
इस स्टोरी की रिपोर्टिंग को 1-14 मई, 2024 के बीच नेपाल के खुम्बू में आयोजित हिमालयन क्लाइमेट बूट कैंप 2024 द्वारा समर्थित किया गया था।
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 23 अगस्त 2024 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: शोधकर्ता नेपाल की लंगटांग घाटी में रिखा सांबा ग्लेशियर की निगरानी कर रहे हैं। इस ग्लेशियर की ऊंचाई 5,420-6,440 मीटर है। तस्वीर – दिबश श्रेष्ठ।