- भूजल बोर्ड की ताजा रिपोर्ट से पता चलता है कि जमीन के नीचे का पानी बड़े पैमाने पर दूषित हो गया है। करीब 20% नमूनों में पानी को गंदा करने वाले तत्व (प्रदूषक) तय सीमा से ज्यादा हैं।
- मुख्य प्रदूषकों में नाइट्रेट, फ्लोराइड, आर्सेनिक और यूरेनियम शामिल हैं। नाइट्रेट प्रदूषण मुख्य रूप से खेती-बाड़ी से होता है। इसका दुष्प्रभाव देश के आधे से ज्यादा जिलों में है।
- रिपोर्ट में पानी के बहुत ज्यादा इस्तेमाल, शहरी विकास और गैर-टिकाऊ खेती जैसी समस्याओं को प्रदूषण की वजह बताया गया है।
दुनिया भर में भारत भूजल का सबसे ज्यादा इस्तेमाल करने वाला देश है। यहां सिंचाई के लिए 87% और घरेलू इस्तेमाल के लिए 11% पानी का उपयोग होता है। हालांकि, यह जरूरी संसाधन प्राकृतिक प्रक्रियाओं और मानवीय गतिविधियों से तेजी से प्रदूषित हो रहा है। यह बात 31 दिसंबर को केंद्रीय भूजल बोर्ड (CGWB) की ओर से जारी सालाना भूजल गुणवत्ता रिपोर्ट में कही गई है।
रिपोर्ट के अनुसार, एकत्र किए गए नमूनों में से लगभग पांचवां हिस्सा नाइट्रेट जैसे प्रदूषकों के लिए स्वीकार्य सीमा से ज्यादा था। साथ ही, रेडियोधर्मी यूरेनियम की भी अहम मात्रा मौजूद थी। रिपोर्ट में कहा गया है, “बढ़ती आबादी के दबाव, औद्योगिक गतिविधियों और खेती के तौर-तरीकों से जमीन के नीचे पानी की गुणवत्ता को बनाए रखना और सुधारना ज्यादा मुश्किल हो गया है।” इसमें शहरीकरण और जलवायु परिवर्तन को प्रदूषण बढ़ाने वाले कारकों के रूप में बताया गया है।
यह रिपोर्ट मई 2023 में एकत्र किए गए भूजल के 15,259 नमूनों के आधार पर तैयार की गई है। इसका मकसद भूजल की गुणवत्ता का व्यापक मूल्यांकन करना था। नमूनों में से 19.8% में नाइट्रेट तय सीमा ज्यादा था। 9.04% में फ्लोराइड और 3.55% में आर्सेनिक तय मात्रा से अधिक था। वहीं, नमूने के एक अहम हिस्से में आयरन (13.20%), क्लोराइड (3.07%), इलेक्ट्रिकल कंडक्टिविटी (7.25%) और यूरेनियम (6.60%) तय सीमा से अधिक पाया गया।
रिपोर्ट में कहा गया है, “आर्सेनिक, फ्लोराइड, यूरेनियम, नाइट्रेट सीधे तौर पर जहरीले हैं या लंबी अवधि में स्वास्थ्य के लिए गंभीर जोखिम पैदा करते हैं।”
नाइट्रेट से सबसे ज्यादा प्रदूषण
रिपोर्ट में नाइट्रेट प्रदूषण को “सबसे बड़ी चिंता” बताया गया है। भारत के लगभग 56% जिलों में भूजल में 45 मिलीग्राम/लीटर की सुरक्षित सीमा से ज्यादा नाइट्रेट पाया गया है। यह प्रदूषण राजस्थान, कर्नाटक और तमिलनाडु जैसे राज्यों में खास तौर पर गंभीर है। इन राज्यों में पानी के 40% से ज्यादा नमूनों में नाइट्रेट की सीमा तय मात्रा से अधिक थी। रिपोर्ट में कहा गया है कि महाराष्ट्र, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में भी नाइट्रेट प्रदूषण का बढ़ा हुआ स्तर देखा गया है। यह बढ़ती चिंता की ओर इशारा करता है। सबसे गंभीर रूप से प्रभावित 15 जिलों में से लगभग आधे महाराष्ट्र के हैं यानी सात जिले। दूसरे पायदान पर आने वाले तेलंगाना में नाइट्रेट प्रभावित तीन जिले हैं।
नाइट्रेट प्रदूषण मुख्य रूप से खेतों से निकलने वाले पानी और नाइट्रोजन आधारित उर्वरकों के अंधाधुंध इस्तेमाल से होता है। यह बात CGWB द्वारा भूजल की गुणवत्ता पर मौसम में होने वाले भूजल रिचार्ज के असर का आकलन करने के लिए किए गए 4,982 नमूनों के मानसून से पहले और मानसून के बाद विश्लेषण में भी सामने आई। अध्ययन से पता चलता है कि मानसून में भूजल रिचार्ज होने के बाद नाइट्रेट प्रदूषण के स्तर में तय सीमा से थोड़ी बढ़ोतरी हुई है। मानसून से पहले के नमूनों में 30.77% से मानसून के बाद के नमूनों में 32.66% तक की बढ़ोतरी हुई।
रिपोर्ट में बारिश के दोहरे प्रभाव पर बात की गई है। यह कुछ क्षेत्रों में नाइट्रेट को पतला करता है। हालांकि, गहन, कृत्रिम उर्वरकों पर निर्भर खेती की गतिविधियों वाले राज्यों में सतह से भूजल तक प्रदूषकों का ज्यादा रिसाव होता है। रिपोर्ट में खेती और मवेशियों के मल-मूत्र के अनुचित प्रबंधन पर भी प्रकाश डाला गया है जो नाइट्रेट प्रदूषण बढ़ा सकते हैं। रिपोर्ट में पीने के पानी में नाइट्रेट के ज्यादा स्तर के जोखिम को रेखांकित किया गया है, जो शिशुओं में मेथेमोग्लोबिनेमिया नामक घातक स्थिति पैदा कर सकता है। इसे आमतौर पर “ब्लू बेबी सिंड्रोम” (शिशु की त्वचा नीली दिखने लगती है) कहा जाता है।

यूरेनियम प्रदूषण बड़ी चिंता
रिपोर्ट में कई क्षेत्रों में यूरेनियम के बढ़े हुए स्तर को चिंताजनक बताया गया है। रिपोर्ट के अनुसार, 6.60% नमूनों में रेडियोधर्मी तत्व यूरेनियम का स्तर 30 पीपीबी (प्रति बिलियन भाग) की सुरक्षित सीमा से ज्यादा है। रिपोर्ट कहती है कि इन नमूनों में से यूरेनियम प्रदूषण लगभग 42% और 30% राजस्थान और पंजाब से हैं, जहां स्तर 100 पीपीबी से भी ज्यादा है।
CGWB की रिपोर्ट में पंजाब के भूजल में यूरेनियम प्रदूषण के लिए बहुत ज्यादा उर्वरक के इस्तेमाल को जिम्मेदार ठहराया गया है। वहीं, तमिलनाडु, कर्नाटक और छत्तीसगढ़ में प्रदूषण के लिए भूगर्भीय कारक जिम्मेदार हैं।
यूरेनियम प्रदूषण के मुद्दे पर अलग-अलग राय है। पंजाब विश्वविद्यालय के रसायन विज्ञान के पूर्व प्रोफेसर आलोक श्रीवास्तव कहते हैं, “पंजाब में यूरेनियम विषाक्तता पर हमारा अध्ययन खास तौर पर मालवा क्षेत्र से जुड़ा हुआ है। इससे पता चलता है कि इसकी वजह भूगर्भीय हो सकती है। यह निचले हिमालयी शिवालिक क्षेत्रों के भू-चैनलों में पाए गए यूरेनियम-समृद्ध जीवाश्मों और पैलियोसोल के हमारे नतीजों पर आधारित है। ये जीवाश्म और पैलियोसोल शायद टेक्टोनिक गतिविधि द्वारा ऊपर उठने से पहले यूरेनियम से समृद्ध प्राचीन भूगर्भीय चैनलों के संपर्क में आए थे जो अभी भी मालवा में मौजूदा भूजल चैनलों को भर रहे हैं।”
हरियाणा, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और बिहार जैसे राज्यों के पानी के नमूनों में भी कुछ जगहों पर यूरेनियम तय सीमा से ज्यादा पाया गया।
मध्य प्रदेश और कर्नाटक में यूरेनियम से होने वाले प्रदूषण में कमी देखी गई। वहीं, उत्तर प्रदेश में 2019 की तुलना में 2023 में 30 पीपीबी से ज्यादा स्तर वाले यूरेनियम से दूषित भूजल वाले जिलों की संख्या में बड़ी बढ़ोतरी हुई है। हालांकि, 2023 से यह बढ़ोतरी इसलिए है, क्योंकि उस साल पानी के ज्यादा नमूने (लगभग 700 नमूने) एकत्र किए गए और उनका परीक्षण किया गया। रिपोर्ट स्पष्ट करती है कि शायद इस वजह से ज्यादा दूषित क्षेत्रों की पहचान हुई।
CGWB रिपोर्ट में उल्लेख किए गए एक अन्य अध्ययन में पीने के पानी में यूरेनियम प्रदूषण और मानव हड्डियों में यूरेनियम के बीच मजबूत संबंध पाया गया। इससे यह राय निकलती है कि हड्डियां पीने के पानी के सेवन में यूरेनियम होने का अच्छा संकेतक हैं। यूरेनियम मुख्य रूप से पीने के पानी, भोजन, हवा और अन्य व्यावसायिक और आकस्मिक संपर्कों से मानव ऊतकों में प्रवेश करता है। इससे कैंसर हो सकता है और गुर्दों को नुकसान पहुंच सकता है।
फ्लोराइड प्रदूषण और आर्सेनिक का बढ़ा हुआ स्तर
रिपोर्ट में कहा गया है कि 9.04% नमूनों में फ्लोराइड का स्तर तय सीमा से ज्यादा था। वहीं 3.55% में आर्सेनिक का प्रदूषण था। रिपोर्ट बताती है कि यह खास तौर पर चिंताजनक है। इन दोनों प्रदूषकों के लंबे समय तक संपर्क में रहने से स्वास्थ्य पर गंभीर दुष्प्रभाव हो सकते हैं। इसमें फ्लोरोसिस (फ्लोराइड के लिए) और कैंसर या त्वचा के घाव (आर्सेनिक के लिए) शामिल हैं। पश्चिम बंगाल, झारखंड, बिहार, उत्तर प्रदेश, असम और मणिपुर, चंडीगढ़, पंजाब और छत्तीसगढ़ में आर्सेनिक प्रदूषण का पता चला है।
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चिंता की बात यह है कि देश के 263 जिलों में फ्लोराइड प्रदूषण पाया गया है। इस प्रदूषण का मतलब ऐसी स्थिति से है जब स्तर 1.5 मिलीग्राम/लीटर की तय सीमा से ज्यादा हो जाता है। फ्लोराइड प्रदूषण राजस्थान (31 मिलीग्राम/लीटर), हरियाणा (17), कर्नाटक (19), तेलंगाना (28), गुजरात (25), पंजाब (17) और आंध्र प्रदेश (17) जैसे राज्यों के कई जिलों में बहुत गंभीर है।
लखनऊ स्थित बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ अर्थ एंड एनवायरनमेंट साइंसेज (एसईईएस) के प्रोफेसर वेंकटेश दत्ता कहते हैं, “भारत में फ्लोराइड प्रदूषण कुछ क्षेत्रों में पाया जाता है, खास तौर पर राजस्थान के सीमित एक्विफर में और उत्तर प्रदेश के मध्य गंगा जलोढ़ क्षेत्र के फतेहपुर जैसे चुनिंदा गांवों में, जहां फ्लोराइड का ज्यादा स्तर पाया गया है।”
रिपोर्ट में कहा गया है कि मानसून के मौसम में राजस्थान, हरियाणा, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना जैसे राज्यों में फ्लोराइड के स्तर में कुछ सुधार हुआ है। फिर भी प्रदूषण का कुल स्तर चिंताजनक रूप से ऊंचा बना हुआ है।

अंधाधुंध इस्तेमाल से बढ़ा प्रदूषण
CGWB की रिपोर्ट में भूजल में ज्यादा यूरेनियम प्रदूषण वाले क्षेत्रों और नीचे जाते भूजल वाले क्षेत्रों के बीच संबंध का पता चलता है। रिपोर्ट में कहा गया है, “यह ओवरलैप इन क्षेत्रों में यूरेनियम प्रदूषण पर अंधाधुंध दोहन और बढ़ते जलस्तर के प्रभाव की ओर इशारा करता है।” इसका मतलब है कि भूजल का बहुत ज्यादा दोहन किया जा रहा है, जो बारिश या अन्य सिंचाई स्रोतों से मिलने वाले पानी से कहीं ज़्यादा है।
श्रीवास्तव कहते हैं, “समय के साथ भूजल के बहुत ज्यादा इस्तेमाल से जल स्तर में गिरावट जारी है, जिससे हम कुछ ऐसे चैनलों के संपर्क में आ रहे हैं जिनमें यूरेनियम की मात्रा बहुत ज्यादा है।”
इस रिपोर्ट के साथ ही जारी की गई डायनेमिक ग्राउंड वाटर रिसोर्स ऑफ इंडिया 2024 में, CGWB ने अनुमान लगाया है कि 2024 में जमीन से 60.4% पानी निकाला गया हो, जिसमें 2009 से बहुत ज्यादा बदलाव नहीं हुआ है। 2009 से हर दो साल में इसे मापा जाता था। साल 2022 से हर साल यह काम होने लगा।
दत्ता कहते हैं, “बढ़ती आबादी, फैलती खेती और शहरी बस्तियों के सतही जल के बजाय भूजल पर ज्यादा निर्भर होने से इस तथ्य पर भरोसा करना मुश्किल है। रिचार्ज वाले क्षेत्रों पर निर्माण और बाढ़ के मैदानों पर अतिक्रमण बढ़ रहा है। इस वजह से, हम कुल रिचार्ज क्षेत्रों को खो रहे हैं। यह चिंताजनक है कि पक्के क्षेत्रों का विस्तार कच्ची भूमि की कीमत पर हो रहा है, जो भूजल रिचार्ज के लिए अहम हैं।”
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 8 जनवरी, 2025 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: एक सरकारी सर्वेक्षण से पता चलता है कि भूजल के एकत्र किए गए नमूनों में से लगभग पांचवें हिस्से में प्रदूषण की सीमा तय मात्रा से ज्यादा है, जिसमें नाइट्रेट और रेडियोधर्मी यूरेनियम की बड़ी मात्रा शामिल है। फ्लिकर (CC-BY-2.0) के जरिए सुसाना सचिवालय की तस्वीर।