- उत्तर प्रदेश के कानपुर में चमड़ा उद्योग काफी लंबे समय से काम कर रहा है। जाजमऊ और उन्नाव जैसे इलाकों में चमड़ा बनाने के बड़े कारखाने हैं, जो कानपुर की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं।
- हालांकि, ये परंपरागत चमड़ा उद्योग प्रदूषण फैलाने के लिए बदनाम है, जो जल प्रदूषण जैसी समस्याएं पैदा करता है। सरकार इन पर कड़ी नजर रख रही है और काम करने के नियम भी सख्त किए गए हैं।
- कानपुर की चमड़ा फैक्ट्रियां पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव को कम करने के लिए ‘जीरो लिक्विड डिस्चार्ज’ (ZLD) सिस्टम और वाटर रीसायकल जैसे तरीकों को अपना रही हैं।
उन्नाव के किंग्स इंटरनेशनल टैनरी में काम करने वाले 34 वर्षीय मोहम्मद शकील अहमद, गोदाम के उस खाली हिस्से की ओर इशारा करते हैं, जो आमतौर पर कच्चे चमड़े से भरा रहता था। अहमद ने बताया, “यह वह जगह है जहां हम कच्चे चमड़े को स्टोर करते हैं, लेकिन पिछले 15 दिनों से यह खाली पड़ा है। लगभग एक महीने बाद ही नया कच्चा माल आएगा। अब हम माल तभी लाते हैं जब हमारे पास ऑर्डर होते हैं।”
उत्तर प्रदेश में ‘भारत की चमड़ा नगरी’ कानपुर से 35 किमी दूर स्थित उन्नाव में लगभग 50 सक्रिय चमड़ा कारखाने हैं। कानपुर के पास जाजमऊ में भी तकरीबन 250 चमड़ा कारखाने धड़ल्ले से चल रहे हैं। कानपुर के आस-पास के चमड़ा उद्योग के इतिहास की अगर हम बात करें तो, ब्रिटिश शासन के दौरान ये काफी तेजी से विकसित हुआ था। इसकी शुरुआत सैन्य जरूरतों (चमड़े के जूते आदि), गंगा नदी से पानी की उपलब्धता, सस्ती मजदूरी, कच्चा माल और खाली जमीन की प्रचुरता के साथ हुई और बढ़ती चली गई।
तीसरी पीढ़ी के चमड़ा कारखाना कर्मचारी और उन्नाव के नवाबगंज क्षेत्र में रहने वाले अहमद बताते हैं, “एक समय था, जब जाजमऊ और उन्नाव दोनों में लगभग 400 चमड़ा कारखाने थे, जिनमें करीब 2 से 2.5 लाख मजदूर अपनी आजीविका के लिए इस उद्योग पर निर्भर थे। लेकिन आज स्थिति खराब है। हम आधी क्षमता के साथ काम कर रहे हैं।” इसकी बड़ी वजह उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (UPPCB) रहा, जिसने 2017 से बढ़ते प्रदूषण के चलते कारखानों के संचालन पर प्रतिबंध लगा दिए।
अकमल संस के प्रबंध निदेशक मोहम्मद अहसान बताते हैं, “2017 के आखिर में केंद्रीय और राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने चमड़ा कारखानों से अपनी कार्यक्षमता को आधा करने को कहा। ऐसा न करने पर रोजाना 12,500 रुपये का पर्यावरण क्षतिपूर्ति जुर्माना लगाया जाएगा। हम महीने में 15 दिन और आधी क्षमता से कारखाना चलाते हैं। अगर हम पहले एक दिन में 50 चमड़े की खाल तैयार करते थे, तो अब हम सिर्फ 25 खाल तैयार करते हैं और महीने में सिर्फ15 दिन ही काम करते हैं।”
समस्या सिर्फ इतनी ही नहीं है। साल 2022 में, चमड़ा कारखानों के अपशिष्ट को साफ करने का खर्च प्रति खाल 2 रुपये से बढ़कर 22 रुपये हो गया है। चमड़ा कारखानों को अपने कारखानों के भीतर प्राइमरी ट्रीटमेंट प्लांट (पीटीपी) से कॉमन इफ़्लुएंट ट्रीटमेंट प्लांट (सीईटीपी) तक जाने वाले अपशिष्ट के उपचार का खर्च उठाना पड़ता है। आज, प्रति खाल प्रक्रिया का खर्च लगभग 88 रुपये हो गया है, क्योंकि चमड़ा कारखाने आधे संसाधनों और आधे दिनों के साथ 25% की क्षमता से काम कर रहे हैं।

मोहम्मद अहसान के मुताबिक, कारखानों पर लगी पाबंदियां और बढ़ी लागत व्यापार को भारी नुकसान पहुंचा रही है। वह शिकायती लहजे में कहते हैं, “402 सूचीबद्ध टैनरियों में से अब महज तकरीबन 215 छोटे और बड़े कारखाने ही चल रहे हैं। लेकिन कई पाबंदियों के चलते इनके लिए भी काम करना मुश्किल हो गया है।”
चमड़ा कारखानों के मालिक और मजदूरों ने भी माना कि यहां काम करना मुश्किल हो गया है। चमड़े के कारोबार से जुड़े लोग कानपुर छोड़कर जा रहे हैं। अहसान ने कहा, “छोटे और मध्यम कारोबारी पहले ही सिस्टम से बाहर निकल चुके हैं।” अब वे कोलकाता में टैनरी किराए पर ले रहे हैं या खरीद रहे हैं। कुछ ने वियतनाम, तुर्की और कुछ यूरोपीय देशों में साझेदारी करके भैंस के चमड़े का तैयार उत्पाद बनाना शुरू कर दिया है, क्योंकि पाबंदियों के कारण यहां ऑर्डर कम हो रहे हैं।
एक मुश्किल प्रक्रिया
भारत का चमड़ा उद्योग क्षेत्र विशेष है। कानपुर भैंस के चमड़े के लिए जाना जाता है क्योंकि वहां भैंस की खाल आसानी से मिल जाती है। यह इलाका गंगा नदी के किनारे चमड़े के कारखानों से भरा है। इनमें से कई कारखाने स्थानीय मुस्लिम समुदाय के स्वामित्व और प्रबंधन में हैं। ये कारखाने बेहद प्रदूषक उद्योगों के “रेड जोन” में आते हैं और बड़े धार्मिक आयोजनों, जैसे कुंभ मेले के दौरान, तीन महीने तक बंद रहने के लिए बाध्य हैं।
वहीं दूसरी तरफ, खाल को चमड़े में बदलना भी कोई आसान प्रक्रिया नहीं है। इस प्रक्रिया में कई चरण होते हैं, जैसे प्रिजर्वेशन, डिसॉल्टिंग, सोकिंग और रिलाईमिंग। किंग्स इंटरनेशनल फैक्ट्री के प्रभारी मोहम्मद इज़हार बताते हैं कि कसाईखाने में जानवरों को काटने के तुरंत बाद, खाल को शव से अलग कर दिया जाता है और जीवाणुओं को बढ़ने से रोकने के लिए अच्छी तरह से नमक की कोटिंग की जाती है। इसके बाद, खाल से 55% पानी निकाल लिया जाता है और उन्हें तीन से छह दिन तक सुखाया जाता है। फिर उन्हें टैनरियों को बेच दिया जाता है।
टैनरी यानी चमड़े के कारखाने में उत्पादन कच्ची खाल के प्रिजर्वेशन और नमक हटाने से शुरू होता है। पहले, खाल की जांच की जाती है और उसमें इस्तेमाल किए गए नमक को हटाया जाता है। फैक्ट्री में पहली जांच में खाल के बाल खींचकर जीवाणुओं से होने वाले नुकसान की जांच की जाती है। किंग्स इंटरनेशनल लिमिटेड के प्रबंध निदेशक ताज आलम बताते हैं कि पहला काम बीम हाउस में होता है, जहां बेकार हिस्सों को काटकर खाल से नमक, गंदगी और खून को हटाने के लिए भिगोया जाता है। इस काम के लिए अक्सर एक मशीन का इस्तेमाल किया जाता है जिसे ‘साल्ट शेकर कहते हैं, जो खाल से नमक हटाती है और उसे आगे की प्रक्रिया के लिए तैयार करती है।
डिसॉल्टिंग के बाद, खाल को और साफ करने और उन्हें टैनिंग के लिए तैयार करने के लिए भिगोया जाता है। आलम बताते हैं, “यह चरण प्रदूषण शुरू होने का संकेत देता है, लेकिन अब उन्नाव की फैक्ट्रियां यूनाइटेड नेशन इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट आर्गेनाईजेशन (UNIDO) द्वारा दी गई हेअर-सेविंग मशीन का इस्तेमाल करने लगी हैं।” इस मशीन ने प्रदूषण के स्तर में उल्लेखनीय कमी की है। आलम ने कहा, “चमड़ा बनाने की प्रक्रिया में जब खाल से बाल हटाए जाते हैं, तो इससे पानी के नाली में जाने वाले कार्बनिक पदार्थों (जैसे बालों में पाये जाने वाले प्रोटीन) की मात्रा कम हो जाती है। केमिकल ऑक्सीजन डिमांड (COD) पानी में कार्बनिक पदार्थों को तोड़ने के लिए आवश्यक ऑक्सीजन की मात्रा मापता है। बालों को हटाने का मतलब है कि टूटने के लिए कम कार्बनिक पदार्थ हैं। नतीजतन, नाली के पानी में ऑक्सीजन की मांग आधी हो जाती है, जिससे COD लगभग 50% कम हो जाता है। इससे पानी को साफ करने में आसानी रहती है, लागत भी कम हो जाती है और पर्यावरण में वापस छोड़े जाने पर यह पानी साफ रहता है।”

इस सारे प्रोसेस में, चमड़ा उद्योग से बहुत अधिक प्रदूषित पानी निकलता है जो आखिर में गंगा नदी में बहा दिया जाता है। साल 2019 में प्रकाशित एक पेपर के अनुसार, “कानपुर में गंगा नदी में अनट्रीटेड या प्रदूषित पानी छोड़ने के लिए चमड़े के कारखाने सबसे अधिक जिम्मेदार हैं। इन कारखानों से निकले पानी में क्रोमियम और अन्य भारी धातुएं जैसे सीसा, कैडमियम और तांबा भी होते हैं, जो काफी विषाक्त हैं।”
उन्नाव में फैक्ट्रियों ने अपनाए इनोवेटिव तरीके
पर्यावरणीय दबावों के चलते उन्नाव के कई कारखानों में अब नवाचार को बढ़ावा मिल रहा है। पर्यावरण और लोगों के दबाव के जवाब में, उन्नाव के कारखानों में काम करने के तरीके बदलने की कोशिशें की जा रही हैं। किंग्स इंटरनेशनल लिमिटेड के प्रबंध निदेशक, ताज आलम, 1994 में उन्नाव के औद्योगिक क्षेत्र में स्थापित अपनी कंपनी से जुड़े अपने अनुभव साझा करते हैं। इस फैक्ट्री ने दो दशकों से अधिक समय तक निर्यात बाजार में अच्छा प्रदर्शन किया और यूरोप और उत्तरी अमेरिका को चमड़े के सामान की आपूर्ति की है।
लगभग एक दशक पहले, जल प्रदूषण जैसी पर्यावरणीय चिंताएं इस व्यापार को बुरी तरह प्रभावित करने लगीं। इससे स्थानीय चमड़ा उद्योग की छवि खराब हो गई और निर्यात में तेजी से गिरावट आई।
साल 2016 में, आलम और उन्नाव के 17 अन्य कारखाना मालिकों ने जीरो लिक्विड डिस्चार्ज (जेएलडी) उपचार संयंत्रों में निवेश करने का महत्वपूर्ण निर्णय लिया। उनका लक्ष्य अपने प्रोसेस में इस्तेमाल होने वाले पानी का 80% फिर से इस्तेमाल योग्य बनाना था। इस पहल को और कारगर बनाने के लिए आलम ने अपने कारखाने में एक प्रयोगशाला तैयार की, जहां उनकी टीम रीसाइकल पानी की शुद्धता की कड़ी जांच करती है और संयंत्र को पूरी क्षमता से चलाने के तरीके खोजती है।
अहमद को इन कारखानों में काम करने का 14 साल से ज्यादा का अनुभव है। वह जेएलडी प्रोसेस के बारे में बताते हैं, “रिसाइकिल प्रोसेस में कई चरण होते हैं, जो बड़े ठोस और निलंबित कणों को हटाने के लिए अवसादन टैंक से शुरू होते हैं। फिर पानी को बेहतर फिल्टरेशन प्रक्रियाओं से गुजारा जाता है, जिसमें सैंड फिल्टर और मेंब्रेन फिल्टर शामिल हैं, ताकि सूक्ष्म कणों और क्रोमियम, लवण और टैनिंग एजेंट जैसे घुले हुए रसायनों को हटाया जा सके। इसके बाद, हम लैब में पानी का परीक्षण करते हैं ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि यह रीयूज के मानकों पर खरा उतरता है। एक बार अप्रूव्ड होने पर, इसे अगली प्रक्रिया में फिर से इस्तेमाल किया जाता है। जेएलडी प्रोसेस से हम लगभग 80% पानी को फिर से उपयोग में ले आते हैं।”
इसके अलावा, उन्नाव की कई टैनरियां लाइमिंग के लिए खतरनाक और कठोर रसायन सोडियम सल्फाइड को एंजाइम से बदलने लगी हैं। अहमद ने कहा, “सोडियम सल्फाइड से जहरीली गैसें निकलती हैं, जो सांस लेने के दौरान काफी हानिकारक होती हैं और मिट्टी व पानी को दूषित कर सकती हैं। दूसरी ओर, एंजाइम प्राकृतिक रूप से बायोडिग्रेड होते हैं, जो उन्हें एक सुरक्षित विकल्प बनाते हैं।”

साल 2016 में, UNIDO ने, चमड़ा निर्यात परिषद और कानपुर-उन्नाव चमड़ा क्लस्टर विकास कंपनी के साथ मिलकर, कानपुर में स्वच्छ तकनीकों का इस्तेमाल कर रहे चमड़ा कारखानों के लिए एक इनोवेशन रिवार्ड प्रतियोगिता आयोजित की। इस प्रतियोगिता को जीतना आलम के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। इसके बाद उनके पर्यावरणीय पहलों को अंतरराष्ट्रीय पहचान मिली जिससे लोगों का उनके व्यवसाय पर भरोसा वापस आया और उनके निर्यात में 30% की वृद्धि हुई।
स्थानीय लोगों का कहना है कि पुरस्कार और UNIDO के समर्थन का स्थानीय लघु और मध्यम उद्यमों (SME) पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा, जिससे वे घरेलू और अंतरराष्ट्रीय सप्लाई चैन में स्थायी रूप से शामिल हो सके।
भले ही उन्नाव के चमड़ा कारखाने नदी के प्रदूषण को कम करने के लिए तेजी से ZLD सिस्टम अपना रहे हैं, लेकिन जाजमऊ और कानपुर के बड़े टैनरी क्लस्टर में अलग ही नजारा दिखाई देता है।
जाजमऊ के कारखाने और प्रदूषण
जाजमऊ के चमड़ा कारखाने कानपुर के पुराने उद्योगों में से एक हैं, जो गंगा नदी के पास स्थित हैं। स्थानीय चमड़ा उद्योग एक बड़ा निर्यात क्षेत्र है, जिसका निर्यात मूल्य वित्तीय वर्ष 2012-13 में 4,500 करोड़ रुपये तक पहुंच गया था। हालांकि, उद्योग पर प्रदूषण के आरोप लगातार लगते रहे हैं।
इंटरनेशनल जर्नल ऑफ साइंस एंड रिसर्च में एक शोध रिपोर्ट के अनुसार, कानपुर के जाजमऊ क्षेत्र में चार प्रमुख नाले हैं। ये नाले जाजमऊ और पूरे कानपुर में चमड़ा कारखानों के आसपास से सारा पानी इकट्ठा करते हैं। कुछ इंटरसेप्टर स्टेशन झुग्गी बस्तियों के बाहरी इलाकों में स्थित हैं। ये स्टेशन अलग-अलग ट्रीटमेंट प्लांट्स के लिए पावर हाउस का काम करते हैं, जो मल मूत्र, पशु अपशिष्ट और कीचड़ जैसे ठोस अपशिष्ट को छानते हैं। यह प्रक्रिया इन अपशिष्टों को आंशिक रूप से फिल्टर करती है, इसके बाद ये अपशिष्ट 20 किलोमीटर दूर स्थित CETP (सेंट्रल ट्रीटमेंट एंड प्यूरिफिकेशन प्लांट) तक पहुंच जाते हैं।

जाजमऊ में ट्रीटमेंट प्लांट के प्रभारी कुलदीप सिंह कहते हैं, “हमारे प्लांट में कई जगहों से सीवेज का पानी आता है, जिसे हम फिर ट्रीट करते हैं। इसकी क्षमता 173 मिलियन लीटर प्रतिदिन (एमएलडी) है। इसके अलावा, चमड़ा कारखानों के लिए, हमारे पास 36 एमएलडी क्षमता वाला एक अलग प्लांट है जो इन कारखानों से निकले पानी को ट्रीट करता है। ट्रीटमेंट के बाद, पानी को एक सिंचाई नहर के जरिये गंगा नदी में छोड़ दिया जाता है।”
जाजमऊ के टैनरी कर्मचारी चिंतित हैं। स्मॉल टैनरी एसोसिएशन के अध्यक्ष बाबू सिद्दीकी कहते हैं, “वहां चार पंपिंग स्टेशन हैं, जो सिर्फ टैनरी के प्रदूषित पानी के लिए बने हैं, लेकिन सीवर लाइनें पूरे इलाके तक नहीं पहुंचतीं। घरों और उद्योगों दोनों का प्रदूषित पानी इन पंपिंग स्टेशनों तक पहुंचता है।” उन्होंने आगे बताया कि ये स्टेशन प्रदूषित पानी को CETP तक भेजते हैं। वह बताते हैं, “इस इलाके की आबादी बढ़ने से हालात और बिगड़ गए हैं, यहां करीब 2 लाख लोगों के सीवेज भार है। आज, 9 एमएलडी घरेलू सीवेज टैनरी से निकले पानी के बराबर ही है।”
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सिद्दीकी कहते हैं, “चारों पंपिंग स्टेशनों पर चमड़ा कारखानों का पानी 9 एमएलडी और घरों का सीवेज भी 9 एमएलडी आता है, जिससे कुल 18 एमएलडी सीवेज CETP में ट्रीट किया जाता है। CETP मूल रूप से 11-12 एमएलडी सीवेज संभालने के लिए बनाया गया था, लेकिन अब वह 18 एमएलडी सीवेज ट्रीट कर रहा है, जिसका मतलब है कि लगभग 6 एमएलडी अतिरिक्त सीवेज सिस्टम संभाल रहा है।” सिस्टम पर यह दबाव संभावित रूप से ओवरफ्लो या अपर्याप्त ट्रीटमेंट का कारण बन सकता है, जिससे बिना साफ़ हुआ या आंशिक रूप से साफ़ हुआ सीवेज पर्यावरण में छोड़े जाने की आशंका है।
सिस्टम में सुधार और सहयोग की जरूरत
रोचेस्टर इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में सस्टेनेबिलिटी विभाग के अंतरिम प्रमुख और रीजनल साइंस पॉलिसी एंड प्रैक्टिस में प्रकाशित “टेनरीज इन कानपुर और पॉल्यूशन इन द गंगाज” के लेखक अमित्राजीत ए. बतब्याल ने बताया कि गंगा में जल प्रदूषण की मुख्य समस्या यह है कि यह ‘नॉन-पॉइंट सोर्स पॉल्यूशन’ का जटिल मामला है। इसका मतलब है कि प्रदूषण केवल दो या तीन जगहों से नहीं आता है, बल्कि पूरी लंबाई और चौड़ाई के आधार पर हजारों अलग-अलग जगहों पर नदी प्रदूषित होती है। दूसरी चुनौती में कई राज्यों, जैसे यूपी, बिहार और पश्चिम बंगाल के बीच सहयोग न होना है। ये इस समस्या से निपटने के प्रयासों को जटिल बनाता है। प्रभावी अंतरराज्यीय सहयोग आवश्यक है।

वह जोर देते हुए कहते हैं कि जाजमऊ जैसे इलाकों में, जहां चमड़े का काम ज्यादा होता है, नदी को मुफ्त में इस्तेमाल किया जाता है, जिससे इसका काफी दोहन हो रहा है। बतब्याल कहते हैं, “चमड़ा बनाने की प्रक्रिया में इस्तेमाल होने वाले रसायन बेहद हानिकारक हैं और सरकार के नियमों के अनुसार, इससे निकलने वाले पानी को गंगा नदी में डालने से पहले उसे सेप्टिक टैंकों या ऐसे ही और टैंकों में अच्छी तरह साफ किया जाना चाहिए। लेकिन ऐसा कम ही होता है। भ्रष्टाचार और राज्य सरकार द्वारा ट्रीटमेंट के आवश्यक बुनियादी ढांचे को पैसे देने में असमर्थता सहित कई कारण इसकी वजह हैं।”
टॉक्सिक्स लिंक के एसोसिएट डायरेक्टर सतीश सिन्हा का सुझाव है कि जाजमऊ इलाके में CETP को अधिक मात्रा में अपशिष्टों के ट्रीटमेंट करने के लिए अपग्रेड किया जाना चाहिए। CETP प्लांट का हर महिने नियमित तौर पर निरीक्षण किया जाना चाहिए। जल निगम को ट्रीटमेंट प्लांट्स की निगरानी की जिम्मेदारी सौंपने के बजाय, सीवेज ट्रीटमेंट प्रोसेस का प्रबंधन करने के लिए सहकारी समितियां बनाई जा सकती हैं।
उन्होंने यह भी सुझाव दिया है कि एक क्रोम रिकवरी प्लांट स्थापित किया जाए क्योंकि जाजमऊ इलाके की ज्यादातर टैनरियां क्रोम टैनरियां हैं। इससे चमड़े को रंगने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले पदार्थों को दोबारा इस्तेमाल और ट्रीट किया जा सकेगा, जिससे लोगों पर हानिकारक प्रभाव कम हो सकेगा।
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 30 अगस्त 2024 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: उन्नाव के एक चमड़ा कारखाने में काम करते मजदूर। तस्वीर- ज़ोया हुसैन, मोंगाबे