- प्लास्टिकल्चर यानी कृषि में प्लास्टिक आधारित तकनीकों का उपयोग आज खाद्य उत्पादन का एक अहम हिस्सा बन गया है।
- कृषि में इस्तेमाल होने वाली प्लास्टिक अक्सर सिंगल यूज या फिर जल्दी खराब होने वाली होती है। यह मिट्टी में माइक्रो और नैनोप्लास्टिक का बड़ा स्रोत हैं, जिससे हमारे स्वास्थ्य और पर्यावरण पर दीर्घकालिक असर पड़ सकता है।
- विशेषज्ञों का सुझाव है कि कृषि में इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक के रासायनिक और पर्यावरणीय प्रभावों को गंभीरता से लेने और अधिक टिकाऊ विकल्प खोजने का समय आ गया है।
कर्नाटक के बेलगावी शहर के पास अलरवाड़ा गांव में, एक युवा किसान श्रीधर जयगौड़ा धान की मानसून की फसल की तैयारी कर रहे हैं। उनके परिवार ने हाल ही में शिमला मिर्च की फसल काटी थी और अब उभरी हुई क्यारियों को साफ करने की जिम्मेदारी उन्हीं की है। उन्होंने क्यारियों में बिछी प्लास्टिक की शीट हटाई और आगे बढ़ने लगे। हर मौसम में उनके 5 एकड़ के खेत से इसी तरह की तकरीबन 40,000 फीट या 12 किमी लंबी सिंगल-यूज प्लास्टिक मल्चिंग शीट निकलती है।
जयगौड़ा सवाल करते हैं, “क्या किसानों के पास कोई और विकल्प है?” प्लास्टिक मल्चिंग सस्ती होती है, यह खरपतवार को रोकती है और मजदूरी भी कम लगती है। उन्होंने कहा, “हमारा उत्पादन पहले से बेहतर हुआ है।” उत्तर कर्नाटक के इस उपजाऊ क्षेत्र के कई अन्य किसानों की तरह, जयगौड़ा ने पांच साल पहले प्लास्टिक मल्चिंग और ड्रिप सिंचाई को अपनाया था।
आजकल खेती में प्लास्टिक की भरमार है। मल्च फिल्म, शेड-नेट, पॉलीहाउस, सिंचाई की पाइप, पॉन्ड लाइनर्स और स्टोरेज सिलो जैसी चीजों में प्लास्टिक का इस्तेमाल धड़ल्ले से हो रहा है। ये प्लास्टिक खाद्य उत्पादन, प्रोसेसिंग, मार्केटिंग और खपत का एक अहम हिस्सा है। यह पॉलिमर-कोटेड कृषि रसायनों में भी पाए जाते हैं।
श्रीधर जयगौड़ा की तरह कई भारतीय किसानों ने पारंपरिक तरीकों (जैसे, खेत की घास-फूस से मल्चिंग और हाथ से खरपतवार निकालना) को छोड़कर, ऊंची-ऊंची क्यारियों पर प्लास्टिक की चादरें बिछाना शुरू कर दिया है। खरपतवार, वाष्पीकरण को रोकने और जड़ों के आसपास के वातावरण को बेहतर बनाने के लिए मिट्टी की क्यारियों को ढकने की इस प्रक्रिया (मल्चिंग) से उपज अच्छी होती है।
बढ़ता प्लास्टिकल्चर
कृषि में प्लास्टिक का इस्तेमाल यानी प्लास्टिकल्चर, भारत में 1980 के दशक से शुरू हुआ और पिछले दस सालों में तेजी से बढ़ा है। मोंगाबे इंडिया से बात करने वाले कृषि वैज्ञानिकों के मुताबिक, ग्रीनहाउस में महंगी सब्जियों की खेती (जिसे ‘संरक्षित कृषि’ कहते हैं) में लगभग 90% जगहों पर प्लास्टिक मल्च और ड्रिप सिंचाई का इस्तेमाल होता है।
15 से 30 माइक्रोन मोटी प्लास्टिक की चादरें (पॉलिमर मल्च), प्लास्टिकल्चर में सबसे तेजी से बढ़ती तकनीकों में से एक है और अब पूरे देश के खुले खेतों में इस्तेमाल की जा रही हैं। हालांकि प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन संशोधन नियम, 2021 के मुताबिक, भारत में 120 माइक्रोन से पतली प्लास्टिक थैलियों पर प्रतिबंध है।
एक एकड़ के खेत में लगभग 8000 फीट या 2.4 किमी प्लास्टिक शीट की जरूरत होती है और ज्यादातर ये एक बार ही इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक होती हैं। लंबे समय में, कृषि में इस्तेमाल की जा रही इस प्लास्टिक का माइक्रो और नैनो प्लास्टिक कणों में विघटन, खाद्य सुरक्षा और सिक्योरिटी के लिए एक संभावित स्थायी खतरा पैदा करता है।

हर जगह माइक्रोप्लास्टिक
हाल ही में, भारत में बिकने वाली चीनी और नमक में माइक्रोप्लास्टिक की मौजूदगी की खबरें सुर्खियों में छाई रहीं। हालांकि इससे गुणवत्ता और विनियमन को लेकर चिंताएं तो बढ़ी, लेकिन कृषि उत्पादन और खाद्य पदार्थों में माइक्रोप्लास्टिक की खपत पर व्यापक रूप से चर्चा नहीं की गई।
खाद्य प्रणालियां प्लास्टिक प्रदूषण का एक प्रमुख कारण हैं। माइक्रोप्लास्टिक (पांच मिलीमीटर से कम व्यास) और नैनोप्लास्टिक (एक माइक्रोमीटर से कम व्यास) हर जगह हैं और वो मिट्टी, पानी और हमारे भोजन में घुसपैठ कर रही है। ऐतिहासिक रूप से, महासागरों की गहराई में पाई गई माइक्रो और नैनो प्लास्टिक ने सबको चिंता में डाल दिया था, लेकिन अब शोधकर्ताओं का कहना है कि मिट्टी, तलछट और मीठे पानी में ये माइक्रो और नैनो पार्टिकल्स (MNPs), वातावरण के आधार पर चार से 23 गुना अधिक हो सकते हैं। इन्हें स्थलीय और समुद्री जीवों के ऊतकों और अंगों में पाया गया है। शोधकर्ता प्लास्टिक प्रदूषण के संभावित जानलेवा प्रभावों के बारे में चेतावनी दे रहे हैं, जिसमें रक्त वाहिकाओं में सूक्ष्म प्लास्टिक के कारण स्ट्रोक और हृदय रोग का जोखिम बढ़ गया है। पॉलीप्रोपाइलीन के रेशे मानव फेफड़ों में अधिक मात्रा में पाए गए हैं, जिससे पता चलता है कि सांस लेने के जरिये प्लास्टिक के कण शरीर में प्रवेश कर सकते हैं; मल में उनकी उपस्थिति को आंतों की सूजन से जोड़ा गया है; और एक अध्ययन में जांची गई सभी मानव प्लेसेंटा में माइक्रो और नैनो पार्टिकल्स पाए गए हैं।
खाद्य और कृषि संगठन (FAO, 2021) के अनुसार, 2019 में, कृषि में 12.5 लाख टन प्लास्टिक का इस्तेमाल हुआ और खाद्य पैकेजिंग ने वैश्विक स्तर पर 37.3 मिलियन टन का योगदान दिया। इसने 2030 तक कृषि प्लास्टिक की मांग में 50% की वृद्धि का अनुमान लगाया है। इसके अलावा, इस्तेमाल किए गए प्लास्टिक का सिर्फ लगभग 5 प्रतिशत ही रिसाइकिल होता है।
भारत के कृषि मंत्रालय के मुताबिक, कृषि प्लास्टिक उद्योग का अनुमान है कि ग्रीनहाउस, मल्चिंग और साइलेज फिल्मों की वैश्विक मांग 2018 में 6.1 मिलियन टन से बढ़कर 2030 में 9.5 मिलियन टन तक 50 प्रतिशत बढ़ जाएगी।
भारत में, कृषि में प्लास्टिक प्रदूषण एक बड़ा मुद्दा है, जिसे काफी हद तक नजरअंदाज किया जा रहा है – प्लास्टिकल्चर को खाद्य उत्पादन में “दूसरी हरित क्रांति” लाने में भूमिका निभाने के लिए सराहा जा रहा है। भारत सरकार इस दृष्टिकोण का समर्थन करती है और खासकर बागवानी उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए, कई तरह के प्लास्टिकल्चर उपायों पर 50% सब्सिडी दे रही है।
जलवायु परिवर्तन एक बड़ी वजह
भारतीय कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि भारत में प्रतिकूल जलवायु परिवर्तन की घटनाओं ने प्लास्टिक के उपयोग को और लोकप्रिय बना दिया है। लुधियाना के आईसीएआर-सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ पोस्ट हार्वेस्ट इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी में ऑल इंडिया कोर्डिनेटेड रिसर्च प्रोजेक्ट ऑन प्लास्टिक इंजीनियरिंग इन एग्रीकल्चर स्ट्रक्चर एंड एनवायरमेंट की प्रोजेक्ट कोऑर्डिनेटर राकेश शारदा कहती हैं “प्लास्टिककल्चर तकनीक मसलन मल्चिंग के साथ माइक्रो सिंचाई, किसानों को तेज गर्म हवाओं जैसी स्थितियों से निपटने में मदद करती है।”
हालांकि, प्लास्टिक में 16,000 से ज्यादा अलग-अलग रसायन होते हैं, जिनमें से लगभग एक-चौथाई ऐसे हैं जो इंसानों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं। ये रसायन प्लास्टिक के पूरे जीवनकाल में बाहर निकलते रहते हैं और इससे जहरीले पदार्थ सीधे खाद्य श्रृंखला में पहुंच सकते हैं।
कृषि में इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक में यह प्रक्रिया कई चीजों से प्रभावित होती है, जैसे धूप, प्लास्टिक के विघटन का तरीका, अलग-अलग रसायनों और पीएच का स्तर। ग्लोबल वार्मिंग इस प्रक्रिया को और बढ़ा सकती है। अध्ययनों से पता चलता है कि हीटवेव प्लास्टिक के क्षरण की प्रक्रिया को तेज कर देती हैं और वैज्ञानिक पॉलिमर सुरक्षा मानकों में बदलाव की वकालत कर रहे हैं, ताकि वे बढ़ते तापमान से अधिक मजबूत से निपट सकें।
हालांकि, प्लास्टिक आधारित उपायों से शायद पैदावर अच्छी हो और किसानों की कमाई थोड़े समय के लिए बढ़ जाए, लेकिन प्लास्टिक को इकट्ठा और रीसायकल करना बहुत मुश्किल काम है। प्लास्टिक कचरे से निपटने की प्रक्रिया भी खराब है। उदाहरण के लिए, श्रीधर जयगौड़ा जैसे अधिकांश किसानों के पास कोई विकल्प नहीं है, इसलिए वे फसल काटने के बाद प्लास्टिक मल्च फिल्म को जला देते हैं। वे इस बात से बेखबर कि वे इस पूरे प्रोसेस में हवा, मिट्टी और पानी में कितने प्रदूषक छोड़ रहे हैं।

खाद्य सुरक्षा और पर्यावरण सुरक्षा आज कई परस्पर विरोधी चुनौतियों का सामना कर रही है। लंदन स्कूल ऑफ ट्रॉपिकल मेडिसिन के जो येट्स कहते है, “कुछ प्लास्टिक के उपयोग जैसे मल्चिंग, पानी, कीटनाशक और खरपतवार नाशकों के इस्तेमाल को कम कर सकते हैं और किसानों के लिए यह लागत प्रभावी होता है। हालांकि, मिट्टी के स्वास्थ्य पर और फिर खाद्य उत्पादन, खाद्य सुरक्षा और पोषण पर असर, अभी मुख्य रूप से चर्चा में आ रहे हैं। इससे नीति निर्माताओं में चिंताएं बढ़ी हैं।” जो येट्स अपने साथी वैज्ञानिक मेगन डेनी के साथ साइंटिस्ट कोएलिशन फॉर इफेक्टिव प्लास्टिक ट्रीटी के फूड सिस्टम वर्किंग ग्रुप में हैं।
जैसे-जैसे माइक्रो और नैनोप्लास्टिक के नुकसानों के सबूत बढ़ते जा रहे हैं, वैज्ञानिक देशों से कार्रवाई करने का आग्रह कर रहे हैं। हालांकि, प्लास्टिक प्रदूषण से निपटने का यह वैश्विक आह्वान, खाद्य उत्पादन और किसानों की आय बढ़ाने पर केंद्रित राष्ट्रीय एजेंडों से टकराता है।
खाद्य सुरक्षा के लिए अधिक प्लास्टिक
2050 तक दुनिया की आबादी 10 अरब तक पहुंचने की उम्मीद है, जिससे पर्यावरण पर काफी दबाव पड़ेगा। कृषि उत्पादन के कारण वैश्विक स्तर पर 70% भूजल निकाला जा रहा है और 75% वनों की कटाई की जा रही है। भारत में, कम उपज, प्राकृतिक संसाधनों का अनुचित उपयोग और अब, जलवायु परिवर्तन की घटनाओं की बढ़ती आवृत्ति, कृषि के लिए और चुनौतियां खड़ी कर रही हैं। परिशुद्ध कृषि, जिसे संरक्षित क्षेत्र खेती के रूप में भी जाना जाता है, एक कृषि प्रबंधन रणनीति है जो कृषि उत्पादन और स्थिरता में सुधार के लिए तकनीक का उपयोग करती है, एक समाधान प्रस्तुत करती है।
देहरादून के भारतीय मृदा और जल संरक्षण संस्थान में जल विज्ञान और इंजीनियरिंग विभाग के प्रमुख राजेश कुमार सिंह बताते हैं, “भारत में फिलहाल 2,75,000 हेक्टेयर जमीन पर परिशुद्ध खेती की जा रही है। इसमें से 90% से ज्यादा जमीन को प्लास्टिक मल्च से कवर किया जाता है। इसका इस्तेमाल पिछले दस सालों में काफी बढ़ा है।” सिंह अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान परियोजना (प्लास्टिककल्चर इंजीनियरिंग और प्रौद्योगिकी), आईसीएआर के पूर्व प्रोजेक्ट कोऑर्डिनेटर थे।

राष्ट्रीय परिशुद्धता कृषि और बागवानी समिति (एनसीपीएएच, जिसे पहले कृषि और बागवानी में प्लास्टिकल्चर के लिए राष्ट्रीय समिति के रूप में जाना जाता था) का काम विभिन्न केंद्रीय और राज्य सरकार की योजनाओं और मिशन कार्यक्रमों के जरिए प्लास्टिकल्चर को बढ़ावा देने और उपयुक्त नीतियां सुझाना है।
कोविड-19 के बाद भारतीय परिशुद्ध कृषि और प्लास्टिकल्चर सेक्टर के प्रभाव आकलन पर इसकी रिपोर्ट से पता चलता है कि प्लास्टिक मल्च का इस्तेमाल करने वाले किसानों की फसल की पैदावार में उस साल 20-30% की बढ़ोतरी हुई और उपज की गुणवत्ता भी अच्छी थी। किसानों ने यह भी बताया कि खरपतवार उखाड़ने के लिए मैन्युअल लेबर में 90-95% की कमी आई और पानी देने के अंतराल में भी बढ़ोतरी हुई।
पानी बचाने के लिए ड्रिप सिंचाई
सिंह कहते हैं, ड्रिप सिंचाई की दक्षता 90% है, जबकि सतही सिंचाई की महज 38% है। लेकिन ड्रिप सिंचाई में एचडीपीई (उच्च-घनत्व पॉलिथीन) पाइप का इस्तेमाल होता है। बड़े पाइप मिट्टी में 10 से 15 साल तक दबे रहते हैं। उन्होंने बताया, “लगभग 6.9 करोड़ हेक्टेयर खेती योग्य जमीन में ड्रिप सिंचाई की संभावना है, जिससे पानी की काफी बचत होगी।” इसी तरह, ग्रीनहाउस और पॉलीटनेल से उत्पादकता चार गुना तक बढ़ जाती है। 2018 की अपनी रिपोर्ट, “भारत में प्लास्टिकल्चर तकनीकों की स्थिति” में सिंह का कहना है कि प्लास्टिकल्चर के जरिए कृषि उत्पादन में 74,000 करोड़ रुपये की बढ़ोतरी की जा सकती है।
प्लास्टिक के कई तरह के इस्तेमाल से प्लास्टिक कृषि उत्पादों के लिए छोटे, मध्यम और बड़े कारखानों का विकास हुआ है। भारत में करीब 50,000 प्लास्टिक प्रोसेसिंग प्लांट और 18,000 इंजेक्शन मोल्डिंग प्लांट काम कर रहे हैं। हालांकि, नियमों और कानूनों के बारे में जानकारी जुटाना मुश्किल है। NCPAH की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत अमेरिका और चीन के बाद प्लास्टिक का तीसरा सबसे बड़ा उपभोक्ता है, भले ही इसकी प्रति व्यक्ति खपत 6 किलोग्राम (कुछ रिपोर्टों में 9.7 किलोग्राम), विश्व औसत 26 किलोग्राम से कम है।
हालांकि सभी प्लास्टिक को सुरक्षित और टिकाऊ विकल्पों से नहीं बदला जा सकता है, लेकिन बायोमास (घास-फूस) की जगह सिंगल यूज प्लास्टिक का इस्तेमाल, इस सवाल को उठाता है कि क्या हम अपने थोड़े समय के फायदों के लिए दीर्घकालिक पर्यावरणीय नुकसान की तरफ जा रहे हैं।
येट्स ने कहा, “अगर लंबे समय तक चलने वाली प्लास्टिक, माइक्रो और नैनोप्लास्टिक का प्रदूषण खाद्य सुरक्षा को खतरे में डालने लगेगा, तो उसे ठीक करना बहुत मुश्किल हो सकता है। कीटनाशकों और खरपतवारनाशकों से होने वाले नुकसान को हम अपेक्षाकृत अच्छी तरह समझते हैं, लेकिन कई खाद्य प्रणालियों में मौजूद प्लास्टिक में इन रसायनों की भूमिका अभी तक पर्याप्त रूप से समझी नहीं गई है।”
बेदाग उत्पादों की छिपी हुई लागत
कृषि और खाद्य नीतियों की राजनीतिक अर्थव्यवस्था, खेती के तरीकों को बदलने में भूमिका निभाती है। तमिलनाडु के चेंगलपट्टू और विलुप्पुरम जिलों में, जब व्यापारी प्लास्टिक मल्च वाले तरबूजों को पसंद करने लगे, तो किसानों ने भी प्लास्टिक मल्च का इस्तेमाल शुरू कर दिया।

चेन्नई के मैगासूल ट्रस्ट के संयुक्त प्रबंधक ट्रस्टी अजय टी.एम. कहते हैं, “दस साल पहले लगभग 10% किसान ही प्लास्टिक मल्च का इस्तेमाल करते थे, लेकिन आज 60-70% किसान इसे अपना चुके हैं। जब तरबूज के फल मिट्टी के मेड़ पर रखे होते हैं, तो उनके रंग में बदलाव आने लगता है, लेकिन जब किनारे प्लास्टिक से ढके होते हैं तो ऐसा नहीं होता। ये बेदाग फल निर्यात बाजारों और ग्राहकों को पसंद आते हैं,” उनके मुताबिक, जब तक उपभोक्ता जागरुक नहीं होता और उसकी पसंद सुंदर दिखने वाले उत्पादों से हटकर, रसायन मुक्त उत्पादों की ओर नहीं जाती, तब तक किसान इसी तरह काम करते रहेंगे।
एलायंस फॉर सस्टेनेबल एंड होलिस्टिक एग्रीकल्चर (ASHA) किसान स्वराज नेटवर्क के सदस्य सौमिक बनर्जी कहते हैं, “कृषि प्रदूषण पर औद्योगिक प्रदूषण की तरह ही ध्यान देने की जरूरत है।” हालांकि, सभी प्लास्टिक के इस्तेमाल को सुरक्षित विकल्पों से नहीं बदला जा सकता है। लेकिन बनर्जी कहते हैं कि पारंपरिक कृषि कुछ मामलों में वैकल्पिक तरीके प्रदान करती है। उन्होंने कहा, “बहु-फसल और इंटरक्रॉपिंग जैसे तरीके प्लास्टिक मल्चिंग का एक अच्छा विकल्प हैं।”
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अजय के मुताबिक, किसानों को ऐसे उपयुक्त और टिकाऊ विकल्प चाहिए जो उनकी कमाई पर असर न डालें, मेहनत न बढ़ाएं और प्लास्टिक जितने कारगर हों।”
एक टिकाऊ समाधान कृषि में बढ़ोतरी और पर्यावरण की सुरक्षा को जोड़कर लाया जा सकता है, जो टिकाऊ तकनीकी नवाचारों पर आधारित हो। येट्स कहते हैं, “प्लास्टिक संकट के पैमाने को देखते हुए, किसान और उपभोक्ता अकेले इसे नहीं सुलझा सकते हैं। व्यवस्था में बदलाव की जिम्मेदारी बहुत ऊपर के स्तर पर है। जब 2022 में संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों ने प्लास्टिक प्रदूषण पर एक कानूनी रूप से बाध्यकारी समझौते पर बातचीत करने का फैसला किया, तो उन्होंने माना कि दुनिया को सिस्टम स्तर पर समन्वित कार्रवाई की जरूरत है।”
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 6 सितंबर 2024 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: प्लास्टिक मल्चिंग का उपयोग करके जर्मनी में उगाई गई स्ट्रॉबेरी। दुनिया भर में प्लास्टिक खाद्य उत्पादन, प्रोसेसिंग, मार्केटिंग और उपभोग का एक अहम हिस्सा बन गई है। इसका इस्तेमाल मल्च फिल्म, शेड नेट, पॉलीहाउस, सिंचाई पाइप, पॉन्ड्स लाइनर और स्टोरेड साइलो में भी किया जाता है। तस्वीर- Fischer.H विकिमीडिया कॉमन्स (CC BY-SA 4.0)