- कभी मानव-हाथी संघर्ष के लिए सुर्खियों में रहने वाला भारतीय सीमा से सटा पूर्वी नेपाल का एक गांव अब सह-अस्तित्व के मॉडल पर चल रहा है।
- कभी भयभीत रहने वाले गांव वालों ने अब हाथी को पसंद नहीं आने वाली फसलों और मधुमक्खी पालन को अपना लिया है। साथ ही, त्वरित प्रतिक्रिया दल की मदद से वे हाथियों को सुरक्षित तरीके से दूर भगा देते हैं।
- सरकार की नीतियों, संरक्षण की कोशिशों और समुदाय के बदलते नजरिए से जान-माल के नुकसान में काफी कमी आई है। साल 2015 के बाद से इस क्षेत्र में किसी भी मौत की जानकारी नहीं मिली है।
- जहां बहुनडांगी सह-अस्तित्व का आदर्श मॉडल सामने रखता है, वहीं हाथियों के आवाजाही वाले रास्तों के किनारे स्थित गांव मानव-हाथी संघर्ष का हॉटस्पॉट बन गए हैं, जिससे संघर्षों को कम करने के लिए संरक्षण गलियारों और शिक्षा की जरूरत है।
कांच की खिड़की पर जोरदार धमाका सुनकर कृष्ण बहादुर रसैली का दिल तेजी से धड़कने लगा। उन्होंने बाहर निकलकर देखा कि उनका कोठार (अनाज रखने वाली जगह) खंडहर हो गया है। हाथी मेहनत से उगाई गई उनकी धान की फसल खा रहा था।
भारत से सटी नेपाल की पूर्वी सीमा पर मेची नदी के किनारे बसे गांव बहुनडांगी में यह कई सालों तक भयावह सच्चाई रही है। जंगली एशियाई हाथी (एलिफस मैक्सिमस) आवाजाही के अपने पारंपरिक रास्तों से आते थे अक्सर खेतों पर धावा बोल देते थे। फसलें खा जाते थे और यहां तक कि कोठार को भी तहस-नहस कर देते थे।
रसैली सहित गांव के निराश-हताश लोग हाथियों को भगाने की निरर्थक कोशिशों में अपने टिन के ड्रम बजाने और जलती हुई मशालें लहराने के आदी हो गए थे। 8 दिसंबर, 2021 की शाम को रसैली ने पुराने तरीकों का सहारा लेने के बारे में भी सोचा। लेकिन, उनके परिवार के सदस्यों को याद आया कि स्थानीय प्रचारकों ने उन्हें हाथियों के बारे में क्या बताया था और उन्होंने इससे कुछ अलग कर दिया।
डरावनी आवाज से उन्हें भगाने या उनसे संघर्ष करने की बजाय वे चुपचाप घर के अंदर ही रहे। हाथी ने अपना आधा शरीर उनके घर के अंदर किया और चावल खाकर आगे बढ़ गया।
रसैली कहते हैं, “अब हम हाथियों से नहीं डरते और ना ही उन पर गुस्सा करते हैं। जब वे आते हैं, तो हम घर के अंदर ही रहते हैं। अगर हम उन्हें परेशान नहीं करते, तो वे आगे बढ़ जाते हैं। अगर हम चिल्लाते हैं, तो वे परेशानी खड़ी कर देते हैं।”
संरक्षणवादियों का कहना है कि कभी मानव-हाथी संघर्ष का केंद्र रहे इस गांव ने अभिनव रणनीतियों के जरिए खुद को शांतिपूर्ण मानव-वन्यजीव सह-अस्तित्व के मॉडल में बदल दिया है। पिछले दशक में समुदायों ने ऐसी फसलें अपनाईं जो हाथियों को पसंद नहीं थीं। साथ ही, सरकारी सहायता के प्रभावी कार्यान्वयन की बदौलत उन्होंने हाथियों के प्रति अपना नजरिया बदल लिया।
हाथियों पर शोध करने वाले और चितवन राष्ट्रीय उद्यान के पूर्व वार्डन नरेंद्र मान बाबू प्रधान ने मोंगाबे को बताया, “बहुनडांगी ने यह साबित कर दिया है कि जंगली हाथियों के साथ सह-अस्तित्व संभव है। यह दिखाता है कि सिर्फ जागरूकता बढ़ाना ही पर्याप्त नहीं है। हमें वन्यजीवों के प्रति लोगों के नजरिए को सक्रियता से बदलने की ज़रूरत है।”
कभी हाथियों की नेपाल के दक्षिणी मैदानों के पूरे पूर्व-पश्चिम गलियारे में आवाजाही थी। वे 900 किलोमीटर से ज्यादा की दूरी तय करते थे। हालांकि उस समय उनकी आबादी रिकॉर्ड की कमी के कारण अज्ञात है। कोशी, गंडकी और करनाली नदियों के समृद्ध बाढ़ के मैदानों में पर्याप्त भोजन उपलब्ध था और मलेरिया के कारण मानव बस्तियों की कमी थी। इसका मतलब था कि वे आजाद होकर घूम सकते थे। लेकिन, जैसे-जैसे समय बीतता गया, तराई की ओर पलायन बढ़ता गया। सड़कें बनने और बुनियादी ढांचे के विकास ने उनकी स्वतंत्र आवाजाही में बाधा डाली। इसका मतलब यह हुआ कि कनेक्टिविटी की कमी से पूर्व और पश्चिम में दो अलग-अलग आबादी बन गई।
संघर्ष से सह-अस्तित्व तक
एक दशक पहले तक बहुनडांगी नेपाल में मानव-हाथी संघर्ष का केंद्र था। अब यहां तेईस हजार लोगों की बस्ती है। इनमें से ज्यादातर पहाड़ों से आए प्रवासी हैं। हर साल शुष्क मौसम (सितंबर और नवंबर के बीच) के दौरान, प्रवासी जंगली हाथी भारत से सीमा पार करते हैं। खेतों को रौंदते हैं। घरों को तोड़ते हैं और कभी-कभी गांव के निवासियों को मार देते हैं। इसी तरह, झापा में जिला वन कार्यालय के अनुसार 2012 से 2022 के बीच लगभग 20 हाथियों की मौत हुई।
प्रधान कहते हैं, “ घुमक्कड़ी इन हाथियों के स्वभाव में है। ये हर दिन कई किलोमीटर चलते हैं। जब तक उनकी आहार संबंधी ज़रूरतें जंगलों में पूरी होती रहीं, तब तक वे शायद ही कभी मानव बस्तियों में आते थे।” “हालांकि, घटते जंगलों और खाने-पीने की चीजों की कमी के कारण, अब उन्हें भोजन की तलाश में खेतों और घरों में घुसना पड़ रहा है।”
वे जब भी आते थे, आर्थिक नुकसान हैरान कर देने वाला होता था। हाथी धान और मक्का जैसी फसलें खा लेते। ये ऐसी फसलें हैं जिन पर स्थानीय किसान का जीवित रहना निर्भर था। अकेले साल 2010 में, लगभग सौ घर और कोठार नष्ट हो गए। यही नहीं, हाथियों के गुजरने के दौरान कम से कम गांव के तीन लोगों की जान चली गई।

बढ़ते हुए नुकसान को देखते हुए, संघीय सरकार ने विश्व बैंक के सहयोग से साल 2015 में 18 किलोमीटर लम्बी बिजली की बाड़ लगाई, जिससे उनके घरों व खेतों और हाथियों के बीच अवरोध पैदा हो सके।
लेकिन बहुत ही बुद्धिमान जीव हाथी ने तेजी से इससे पार पा लिया।
स्थानीय संरक्षणवादी शंकर लुइटेल कहते हैं, “उन्होंने अपने दांतों का इस्तेमाल करके ऊपर लगे तारों को गिरा दिया, जिससे कई इलाकों में बाड़ लगाना बेकार हो गया।”
अपनी सीमाओं के बावजूद, बाड़ ने फसल के नुकसान को काफी हद तक कम कर दिया। साल 2018 के एक अध्ययन में पाया गया कि फसलों के नुकसान में 93% और संपत्ति के नुकसान में 96% की कमी आई। फिर भी, हाथियों ने अपना रास्ता खोजना जारी रखा, जिससे निवासियों को अपने नजरिए पर फिर से विचार करने के लिए मजबूर होना पड़ा।
साल 2009 में नेपाल सरकार ने वन्यजीव क्षति राहत दिशानिर्देश पेश किए। यह वन्यजीवों के कारण हुए नुकसान के लिए ग्रामीणों को मुआवजा देने की नीति थी। दिशानिर्देश लंबे होने और पीड़ितों को पर्याप्त मुआवजा नहीं दिए जाने की शिकायतों के बाद इनमें कई बार बदलाव किए गए और इन्हें अपडेट किया गया।
स्थानीय अधिकारी अर्जुन कार्की कहते हैं, “पहले जब हाथी किसी को मार देता था या फसलें नष्ट कर देता था, तो लोगों को अकेले ही कष्ट सहना पड़ता था।” “अब, परिवारों को वित्तीय मदद मिल रही है, जिससे कुछ हद तक नाराजगी कम हुई है।”
फिर भी, सिर्फ नीति से लोगों का नजरिया नहीं बदला जा सकता। यहीं पर स्थानीय संरक्षणवादी लुइटेल ने कदम बढ़ाया।
लुइटेल ने पक्का किया कि मुआवजा सभी को मिले। इनमें अशिक्षित किसान भी शामिल थे। उन्होंने दावों के लिए आसान टेम्प्लेट बनाए, जिससे पीड़ितों के लिए प्रक्रिया को समझना सरल हो गया। मुआवजा पाने के लिए, आवेदकों को पहले स्थानीय वार्ड कार्यालय और पुलिस की सिफारिशी चिट्ठी लेनी होगी। अगर दावा हाथी के हमले से हुई मौत से संबंधित है, तो इसे जिला वन कार्यालय में प्रस्तुत किया जाता है। फसल के नुकसान के लिए, इसे जिला कृषि कार्यालय में भेजा जाता है।
बदलाव की शुरुआत
साल 2015 से, लुइटेल ने स्वेच्छा से कागजी कार्रवाई पूरी करने में परिवारों की मदद की है। उन्होंने मोंगाबे को बताया, “मैं एक साल में 80 फाइलों तक ले गया हूं।” जिन लोगों की उन्होंने मदद की है, उनमें किसान रसैली भी हैं। वह कहते हैं, “हमारे बीच उनके जैसे किसी व्यक्ति का होना भरोसा पैदा करने वाला है, क्योंकि हम जानते हैं कि हमें मुआवजा मिलेगा।”

लेकिन, हाथियों का गांव में घुसना जारी रहा। किसानों की फसलें अभी भी बर्बाद हो रही थी। मुआवजा मिलने में महीनों लग गए। जानलेवा संघर्ष जारी रहा। यह स्पष्ट हो गया कि सिर्फ अवरोध से काम नहीं चलेगा। किसानों को हाथियों से संघर्ष के बिना अपनी आजीविका बचाने का कोई तरीका चाहिए था।
तभी हाथियों को रोकने के लिए खेती बड़ा बदलाव बनकर उभरी। किसानों ने मक्का और धान की जगह ऐसी फसलें उगाना शुरू कर दिया जिन्हें हाथी नहीं खाते – जैसे चाय, तेजपत्ता और नींबू।
अर्जुन कार्की ने किसानों को मक्का और चावल के अलावा अन्य फसलें उगाने के लिए प्रोत्साहित करने की पहल की। वे कहते हैं कि पारंपरिक रूप से नेपाल की मुख्य फसल चावल उगाने वाले किसान पहले तो दुविधा में थे।
“दो साल के बाद, लगाए गए चाय के बगान से पत्तियां कटाई के लिए तैयार थीं। हमने अपनी पहली 35 किलोग्राम चाय की पत्तियां साइकिल पर लादकर सीमा पार बेचीं, क्योंकि यहां कोई बाजार नहीं था।” वे याद करते हैं। चाय बेचकर, वे अपना पसंदीदा भोजन चावल खरीद पाए।
उन्होंने बताया, “कुछ सालों के बाद हमने परिवहन के लिए साइकिल की जगह बैलगाड़ी का इस्तेमाल शुरू कर दिया। आखिरकार, हमने ट्रैक्टर का इस्तेमाल शुरू कर पाए।”
65 वर्षीय किसान दिवाकर नेउपाने को पहले तो अपने मक्का और चावल के खेतों की जगह चाय की खेती करने पर संदेह था। लेकिन, कुछ सालों बाद उन्हें इसके फायदे नज़र आने लगे। वे कहते हैं, “शुरू में यह मुश्किल था। लेकिन अब मेरी आय स्थिर है और मुझे अब यह चिंता नहीं सताती की हाथी मेरी फसल खा जाएंगे।”
इस बदलाव का कारण धान की खेती के लिए पानी की कमी और मजदूरों की कमी भी थी। जैसे-जैसे ज्यादा किसान अपना रास्ता बदलते गए बहुनडांगी के खेत हाथियों के लिए कम आकर्षक होते गए।
फसल के चयन में बदलाव
कार्की के अनुसार, आज गांव में सालाना 2.2 करोड़ नेपाली रुपए (158,700 डॉलर) की चाय बिकती है। किसानों ने तेजपत्ता और नींबू की खेती भी अपनाई है, जिससे उनकी आमदनी में और ज्यादा विविधता आई है।

बहुनडांगी का अनुभव शोधकर्ता अशोक राम और उनकी टीम के शोध से गहराई से मेल खाता है। उनके साल 2021 के अध्ययन में पाया गया कि हाथियों के हमले के ज्यादातर शिकार पुरुष (87.86%) थे, जिनकी शिक्षा का स्तर कम था। एक-चौथाई हमले तब हुए जब लोग हाथियों का पीछा कर रहे थे, जिसमें अक्सर अकेले बैल या युवा नरों का समूह शामिल था। घटनाएं संरक्षित क्षेत्रों के बाहर ज्यादा होती थीं, जिनमें नशे में धुत या पटाखे जलाने वालों के लिए ज्यादा घातक जोखिम होता था। इसके विपरीत, आग का इस्तेमाल करके हाथियों का पीछा करना घातक घटनाओं से नकारात्मक रूप से जुड़ा हुआ था। हमले जंगलों के आस-पास हो रहे थे, जो हाशिए पर रह रहे समुदायों को असमान रूप से प्रभावित कर रहे थे।
प्रधान कहते हैं, “हाथी आमतौर पर तब तक जवाबी कार्रवाई नहीं करते जब तक उन्हें उकसाया ना जाए। अगर उन्हें बिना किसी परेशानी के छोड़ दिया जाए, तो वे शांति से अपने रास्ते पर चलते रहते हैं। हालांकि, जब लोग उनका पीछा करते हैं या उन्हें नुकसान पहुंचाते हैं, तो हाथी उन्हें याद रखते हैं और रक्षात्मक तरीके से काम करते हैं।”
साल 2022 में, कार्की ने मेचीनगर नगरपालिका-4 के अध्यक्ष पद के लिए प्रचार किया, जिसमें बहुनडांगी शामिल है और गांव को हाथी के हमलों से मुक्त करने के वादे पर जीत हासिल की। एक साल पहले, उन्होंने कोशी प्रांत के मुख्यमंत्री केदार कार्की को मानव-हाथी संघर्ष के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए क्षेत्र में घूमने के लिए आमंत्रित किया था।
जैसे-जैसे ज्यादा से ज्यादा किसानों ने हाथी को पसंद नहीं आने वाली फसलों की खेती शुरू की, संघर्ष की वजह कम होती गई।
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हाल के सालों में, बहुनडांगी के किसानों ने भी मधुमक्खी पालन शुरू कर दिया है, क्योंकि मधुमक्खियां स्वाभाविक रूप से हाथियों को दूर रखती हैं। कार्की कहते हैं, “हम किसानों को सरसों की खेती करने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं, जिनसे मधुमक्खियां आकर्षित होती है और मधुमक्खी पालन की पहल का समर्थन करती है।” यह नजरिया ना सिर्फ फसलों को बचाने में मदद करता है, बल्कि किसानों को आमदनी का नया जरिया भी देता है।
इस बीच, समुदाय ने हाथियों को आवासीय क्षेत्रों से दूर रखने तथा प्रवासी गलियारों से सुरक्षित मार्ग पक्का करने के लिए त्वरित प्रतिक्रिया दल (आरआरटी) में स्वयंसेवकों को शामिल किया है।
हाथियों पर नजर रखने वाले 26 साल के सदाश पौडेल कहते हैं, “कुछ लोग शराब पीकर रात में सड़कों पर घूमते हैं। उन पर हमले का खतरा बना रहता है।” “जब हाथी आते हैं, तो सिर्फ आरआरटी स्वयंसेवक ही इलाके में गश्त करते हैं।”
गैर सरकारी संगठन उज्यालो नेपाल और काठमांडू स्थित अंतर-सरकारी निकाय, इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट की ओर से प्रशिक्षित स्वयंसेवक ही आरआरटी में शामिल किए जाते हैं। इनका बीमा भी कराया जाता है। स्वयंसेवक खास तौर पर फसल कटाई के दौरान, हाथियों के गांव में प्रवेश करने पर सुरक्षित रूप से हस्तक्षेप करते हैं।

असली बदलाव एक दशक पहले शुरू हुआ, जब इन समाधानों के नतीजे दिखने शुरू हुए। बहुनडांगी में आखिरी बार हाथी का जानलेवा हमला साल 2015 में हुआ था, जब 65 साल के मनहारी धुंगेल जंगल में चारा इकट्ठा करते समय मारे गए थे।
उनकी विधवा टीका माया धुंगेल याद करती हैं, “पुलिस हाथी का पीछा कर रही थी और लोगों को सावधान करने के लिए तेज़ आवाजें निकाल रही थी।” “मेरे पति ने ठंड से बचने के लिए अपने सिर पर कपड़े की टोपी लगा रखी थी। वे चीखें नहीं सुन पाए। हाथी ने उन्हें कुचल दिया।”
तब से, सह-अस्तित्व की रणनीतियों के कारण, किसी और मौत की जानकारी नहीं मिली है।
पश्चिम की तरफ पहुंचा संघर्ष
बहुनडांगी ने मानव-हाथी संघर्ष से त्रस्त जगह को अब ऐसे स्थान में बदल दिया है जहां लोग हाथी के साथ सद्भाव से रह रहे हैं। वहीं, इसके पश्चिम में रहने वाले ग्रामीण अब चुनौतियों से जूझ रहे हैं।
जनवरी में ही बहुनडांगी से लगभग 85 किलोमीटर पश्चिम में सुंदर हराइचा में जंगली हाथी से मुठभेड़ के बाद तीन ग्रामीणों की मौत हो गई थी। प्रधान कहते हैं कि बहुनडांगी, सुंदर हराइचा और उसके पश्चिम में बसे गांवों के लिए मॉडल के रूप में काम कर सकता है, ताकि हाथी अपने पारंपरिक रास्तों पर आगे बढ़ सकें।
हाथियों पर शोध करने वाले प्रधान कहते हैं, “हाथियों को भोजन उपलब्ध कराने के बजाय, हमारी प्राथमिकता ऐसे गलियारे बनाने पर होनी चाहिए जो उन्हें स्वतंत्र रूप से घूमने दें।” “हाथियों से बचाव के लिए बाड़ लगाने से खेतों की सुरक्षा के लिए अस्थायी समाधान मिल सकता है, लेकिन हमें उन्हें मानव बस्तियों में प्रवेश करने से रोकने के लिए सुरक्षित रास्ता देना चाहिए।”
यह खबर मोंगाबे की नेपाल टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार 13 फरवरी, 2025 को हमारी अंग्रेजी साइट पर प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: दक्षिणी नेपाल के जंगल में घूमता एक हाथी। तस्वीर अशोक राम के सौजन्य से।