- पिछले एक साल में पुणे में जीका और गुइलेन-बैरे सिंड्रोम (जीबीएस) दोनों का प्रकोप देखा गया है।
- जीका जैसी जलवायु के हिसाब से संवेदनशील संक्रामक बीमारियां मुख्य रूप से मच्छरों के काटने से फैलती हैं। जैसे-जैसे धरती गर्म होती जा रही है, इनके और ज्यादा बढ़ने की आशंका है।
- स्वास्थ्य सुविधाओं में सुधार के लिए स्थानीय स्तर पर पूर्वानुमान मॉडल के हिसाब से बेहतर निगरानी की जरूरत है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपने बुलेटिन में कहा है कि साल 2024 के आखिर तक पुणे में जीका के 151 मामले दर्ज किए गए थे। वहीं, दुर्लभ तरीके के न्यूरोलॉजिकल विकार गुइलेन-बैरे सिंड्रोम (जीबीएस) का कोई मामला नहीं था।
लेकिन यह सब जल्दी ही बदल गया। फरवरी 2025 तक पश्चिम भारत के इस शहर में जीबीएस के 190 मामले और सात मौत दर्ज की गईं।
गर्भवती माताओं के संक्रमित होने पर जीका शिशुओं में जन्म के समय ही गंभीर समस्याएं पैदा कर सकता है। जीबीएस से लगभग पूरी तरह लकवा हो सकता है और यह जीवन के लिए खतरा बन सकता है। दोनों ही संक्रमण के फैलने पर ध्यान दिया गया है। लेकिन, जिस बात पर ध्यान नहीं दिया गया है, वह यह है कि दोनों ही अक्सर साथ-साथ आते हैं। वैज्ञानिकों में इस बात पर आम सहमति है कि अक्सर जीबीएस का संक्रमण जीका के प्रकोप से जुड़ा होता है। हालांकि, इसके कारणों के बारे में बहुत कुछ पता नहीं है। डब्ल्यूएचओ के अनुसार जीबीएस अक्सर वायरस या बैक्टीरिया के संक्रमण के बाद होता है और जीका उनमें से एक है।
लंदन स्कूल ऑफ हाइजीन एंड ट्रॉपिकल मेडिसिन (एलएसएचटीएम) में महामारी के लिए तैयारी और प्रतिक्रिया केंद्र में महामारी विज्ञान और वैश्विक स्वास्थ्य की प्रोफेसर एलिजाबेथ ब्रिकले ने मोंगाबे-इंडिया को ईमेल से भेजे जवाब में बताया, “पिछले जीका प्रकोपों के सबूत बताते हैं कि आमतौर पर लगभग एक हफ्ते बाद हर 4,000 से 5,000 जीका वायरस संक्रमणों में से एक जीबीएस की वजह बन सकता है।” ब्रिकले ने कहा, “चूंकि जीबीएस जीका वायरस संक्रमण से होने वाली दुर्लभ जटिलता है, इसलिए जीबीएस मामलों के समूह का आमतौर पर बड़े पैमाने पर सिर्फ जीका वायरस के फैलने के दौरान ही पता चल पाता है।”
हालांकि, इस बार फैले जीबीएस को रोकने की कोशिश की जा रही है। साथ ही, उसकी भी जांच की जा रही है। इसे पानी के प्रदूषित स्रोतों से जोड़ा जा रहा है, लेकिन जलवायु और स्वास्थ्य के बीच संबंधों जैसे बड़े मुद्दे को अभी भी नजरअंदाज किया जा रहा है।

डब्ल्यूएचओ की पूर्व मुख्य वैज्ञानिक डॉ. सौम्या स्वामीनाथन ने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि संक्रमण के फैलाव को कभी भी पूरी तरह से रोका नहीं जा सकता। उन्होंने कहा कि ऐसे फैलाव का जवाब बेहतर निगरानी होना चाहिए जो भारत में मजबूत हो रही है। साथ ही, एआई मॉडल का इस्तेमाल करके सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली की पूर्वानुमान क्षमता को बेहतर बनाया जाना चाहिए। उन्होंने कहा, “मॉडलिंग तभी उपयोगी होगी जब जलवायु डेटा, अस्पतालों और स्वास्थ्य केंद्रों से स्वास्थ्य डेटा और वायरोलॉजिकल या उत्पत्ति संबंधी डेटा सभी को एक साथ रखा जाए। यही मॉडलिंग की ताकत है। अब, क्योंकि हमारा डेटा अलग-थलग है, हमें संस्थानों की पहचान करनी होगी और उन्हें डेटा तक पहुंच देनी होगी और फिर उन्हें मॉडल बनाने के लिए कहना होगा।”
गर्म होती दुनिया में बदतर हो सकते हैं हालात
जीका और डेंगू जैसी संक्रामक बीमारियां मुख्य रूप से एडीज एजिप्टी मच्छर से फैलती हैं। हालांकि, जीका यौन संपर्क और खून चढ़ाने से भी होता है।
तेजी से गर्म होती दुनिया में जीका के और भी बढ़ने का अंदेशा है। पिछले दो दशकों में जीका के प्रकोप बढ़े हैं और बिगड़े भी हैं। ब्राजील जैसे दक्षिण अमेरिकी देशों में वायरस का बहुत ज्यादा फैलाव देखा गया है। साथ ही, वहां जीबीएस का प्रकोप भी देखा गया, जिसकी पुष्टि डब्ल्यूएचओ ने की है। साल 2021 में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, 2020 तक 1.3 अरब और लोगों के जीका वायरस के संपर्क में आने की आशंका थी।
ब्रिकली ने कहा, “जीका वायरस विस्फोटक महामारी का कारण बन सकता है, खास तौर पर उन शहरों में जहां आबादी में जीका वायरस के प्रति पहले से प्रतिरोधक क्षमता कम है और जहां एडीज मच्छर आम हैं।” “जीका वायरस संक्रमण के नए फैलाव माइक्रोसेफली (सामान्य से छोटा सिर) जैसी जन्मजात बीमारियों और जीबीएस के मामलों की निगरानी जीका के प्रति बेहतर सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रतिक्रिया के लिए जरूरी है।”
जानकारों का कहना है कि जलवायु को लेकर संवेदनशील संक्रामक रोगों के बारे में दो महीने पहले ही चेतावनी मिल जाना संभव है और भारत में ऐसा करने की क्षमता है।
जलवायु-स्वास्थ्य मॉडल से मिलेगा तैयारी का समय
पुणे स्थित भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान (आईआईटीएम) के हालिया अध्ययन में शहर में डेंगू के बढ़ते मामलों पर गौर किया गया और एक मॉडल प्रकाशित किया गया। इसका इस्तेमाल करके शहरी योजनाकारों को वायरस के फैलाव से दो महीने पहले ही चेतावनी दी जा सकती है।
भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान (आईआईटीएम) के जलवायु वैज्ञानिक और अध्ययन के सह-लेखक रॉक्सी मैथ्यू कोल ने कहा, “फिलहाल हमने जो अध्ययन किया है, वह पुणे के लिए है और खास तौर पर डेंगू के लिए। लेकिन, इस ढांचे को किसी अन्य क्षेत्र और जीका या चिकनगुनिया, मलेरिया जैसी अन्य जलवायु संवेदनशील बीमारियों के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है।”
ऐसे मॉडल विकसित करने के लिए दो बड़े इनपुट की जरूरत होती है। एक उस जगह के लिए बारिश, तापमान और आर्द्रता जैसे जलवायु डेटा और संक्रमण के लिए कम से कम पांच साल पहले के साप्ताहिक मामलों की संख्या। कोल ने कहा, “और अगर आप दो महीने की लीड का अनुमान लगा सकते हैं, तो इसका मतलब है कि वे अपने संसाधनों को खास मौसम और महीनों के लिए उन विशेष क्षेत्रों पर केंद्रित कर सकते हैं। इसलिए, इससे वास्तव में किसी भी स्थानीय स्वास्थ्य विभाग को मदद मिलनी चाहिए।” स्वास्थ्य अधिकारी तब मच्छरों की आबादी को नियंत्रित करने के लिए फॉगिंग जैसे उपाय कर सकते हैं और अगर उन्हें पता चलता है कि बढ़ोतरी होने वाली है, तो बेहतर निगरानी कर सकते हैं।
कोल ने कहा कि पूरे देश के लिए जलवायु संबंधी आंकड़े तो उपलब्ध हैं, लेकिन स्वास्थ्य संबंधी आंकड़ों तक पहुंच पाना चुनौती है।

पर्यावरण पर ध्यान देने का समय
भारत के पास अलग-अलग बीमारियों के लिए इस तरह की मॉडलिंग के लिए जरूरी महारत है। लेकिन कोल ने जलवायु और स्वास्थ्य पर अनुसंधान की मौजूदा स्थिति को “बिखरा हुआ” बताया। उन्होंने कहा, “मैं आईआईटी में कई प्रोफेसरों को जानता हूं… जैसे कि आईआईटी-दिल्ली, आईआईटी-बॉम्बे, आईआईएससी, वे सभी अलग-अलग बीमारियों के लिए ऐसे ही मॉडल, ऐसे ही पूर्वानुमान पर काम करने में दिलचस्पी रखते हैं और इसमें एकमात्र रुकावट स्वास्थ्य डेटा है।”
स्वामीनाथन ने कहा कि अब समय आ गया है कि जलवायु या स्वास्थ्य से आगे बढ़कर सार्वजनिक स्वास्थ्य पर ध्यान केंद्रित करते हुए पर्यावरण की निगरानी की जाए। इसमें पानी और यहां तक कि जानवरों के बारे में जानकारी शामिल होगी, ताकि आपको पता चल सके कि कौन-सी संक्रामक बीमारी फैल रही है। इसे वन हेल्थ अप्रोच कहा जाता है। उन्होंने कहा, “इसमें डेटा आधारित प्रतिक्रिया होनी चाहिए।” “हमें जिस चीज में सुधार करना है, वह है स्थानीय डेटा पर तेजी से कार्रवाई करने की हमारी क्षमता जिसे जिला स्तर तक बढ़ाया जाना चाहिए।”
स्वामीनाथन ने कहा कि जिलों में स्थानीय प्रकोपों का विश्लेषण करने और उन पर कार्रवाई करने की क्षमता होनी चाहिए, इससे पहले कि उनका फैलाव बहुत ज्यादा हो जाए, क्योंकि फैलाव को रोकना मुमकिन नहीं है।
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 13 फरवरी, 2025 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: खून की जांच कराता हुआ व्यक्ति। जीबीएस अक्सर वायरस या बैक्टीरिया के संक्रमण के बाद होता है। डब्ल्यूएचओ के अनुसार, जीका उनमें से एक है। Pexels [CC0] के जरिए प्रणिदचकन बुक्रोम की प्रतिनिधि तस्वीर।