- डल झील कश्मीर के लोगों के लिए आज भी पसंदीदा पर्यटन स्थल है। लेकिन, बढ़ता प्रदूषण इसकी पारिस्थितिकी को प्रभावित कर रहा है।
- घरों से निकला गंदा पानी और सीवेज डल झील के अस्तित्व के लिए खतरा बन गया है।
- इसके अलावा, विकास के नाम पर चिनार के पेड़ों की कटाई ने भी संरक्षणवादियों को चिंता में डाल दिया है।
अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए मशहूर कश्मीर, आज भी लोगों के लिए एक पसंदीदा पर्यटन स्थल है। लेकिन धीरे-धीरे डल झील में बढ़ता प्रदूषण और विकास के नाम पर चिनार के पेड़ों की कटाई इसकी पारिस्थितिकी को नुकसान पहुंच रहे हैं।
जम्मू और कश्मीर प्रदूषण नियंत्रण समिति (जेकेपीसीसी) की 7 सितंबर को नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल को सौंपी गई अनुपालन रिपोर्ट में श्रीनगर की मशहूर डल झील में लगातार “घरों से निकले गंदे बिना ट्रीट किए पानी को बहाए जाने” की खबर सामने आई है, जो कि पर्यावरण नियमों का उल्लंघन है। जम्मू और कश्मीर में पर्यावरण संरक्षण और प्रदूषण को नियंत्रित करने की जिम्मेदारी जेकेपीसीसी के पास है। रिपोर्ट के अनुसार, डल झील के आसपास के कई इलाकों मसलन नयाद्यार, जोगिलंकर, कोंखान और हजरतबल तीर्थ में घुलित ऑक्सीजन की सांद्रता कम है और फीकल कोलीफॉर्म का स्तर काफी ज्यादा है। रिपोर्ट में ये भी बताया गया है कि जून 2024 में डल झील की 11 जगहों पर पानी की जांच की गई, जिसमें से सिर्फ एक जगह का पानी ही नहाने लायक था यानी क्लास-बी के मानदंड को पूरा करता था। हालांकि पीसीसी ने अलग-अलग महीनों में जो जांच की, उसमें थोड़े अलग नतीजे सामने आए थे, पर सभी रिपोर्ट में डल झील में गंदा पानी बहाए जाने की बात कही गई है।
इस हालिया रिपोर्ट के साथ-साथ पिछली रिपोर्टों ने भी पुष्टि की है कि श्रीनगर से निकलने वाले 193 एमएलडी (मिलियन लीटर प्रतिदिन) घरेलू सीवेज में से 140 एमएलडी को अपर्याप्त बुनियादी ढांचे के कारण उपचारित या ट्रीट नहीं किया जा रहा है। हालांकि डल और निगीन झील के जलग्रहण क्षेत्रों से निकले सीवेज को उपचारित करने के लिए 53 एमएलडी से थोड़ी अधिक क्षमता वाले छह सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट पहले से हैं और 60 एमएलडी क्षमता वाला एक और सामान्य सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट चालू होने के अंतिम चरण में है।
लेकिन जम्मू और कश्मीर प्रदूषण नियंत्रण समिति की एक पुरानी रिपोर्ट बताती है कि, छह सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट से उपचारित पानी “निर्धारित सीमा के भीतर नहीं आता है।” तेलबल, लालबाजार जैसे इलाकों से बिना उपचारित किया हुआ गंदा पानी डल झील में जा रहा है। साथ ही, डल और निगीन झील में लगभग 910 हाउसबोट हैं और उनका गंदा पानी भी अक्सर डल झील में छोड़ दिया जाता है। हालांकि निगीन झील के हाउसबोट्स से निकलने वाले गंदे पानी को साफ करने के लिए झील के किनारे गड्ढे बनाए गए हैं। रिपोर्ट यह भी बताती है कि जो छह सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट अभी काम कर रहे हैं, उनकी जांच करने पर पता चला है कि उपचारित करने के बाद भी पानी में गंदगी तय की गई सीमा से अधिक थी। वही पानी डल झील में जा रहा है, जबकि उसे सिंचाई या निर्माण जैसे कामों में इस्तेमाल किया जाना चाहिए था।
एक और रिपोर्ट बताती है, जून और जुलाई 2024 में जेकेपीसीसी के जल गुणवत्ता विश्लेषण के अनुसार 24 जगहों में से सिर्फ एक ही जगह का पानी क्लास बी के मानदंडों को पूरा करता है। क्लास बी का मतलब है पानी इतना साफ है कि उसमें नहाया जा सकता है लेकिन डल झील में ऐसा पानी कहीं नहीं है।
पर्यावरणविद् जावेद मीर याद करते हुए बताते हैं कि डल झील कभी श्रीनगर शहर में प्रकृति की शुद्धता का प्रतीक हुआ करती थी और बचपन में वह अक्सर झील का पानी पीया करते थे। उन्होंने कहा, “डल झील हमारे घर से महज 10 मिनट की दूरी पर थी और गर्मियों में हम दोस्त मिलकर डल झील में नहाने निकल जाया करते थे। पानी इतना साफ होता था कि गर्मियों में अक्सर प्यास लगने पर हम उसका पानी पी लिया करते थे।” उन्होंने कहा कि बढ़ते प्रदूषण की वजह से झील के बचने की उम्मीद कम होती जा रही है। “पर्यावरण को सुधारने और डल झील को बचाने के लिए तुरंत एक प्लान बनाने की जरूरत है, ताकि इसका इस्तेमाल लंबे समय तक किया जा सके और सबको इसका फायदा मिल सके।“

कश्मीर यूनिवर्सिटी के एक पर्यावरण विशेषज्ञ ने नाम न बताने की शर्त पर कहा कि झील के आसपास के हाउसबोट और घरेलू शौचालयों से निकलने वाला सीवेज और साथ ही दूसरे इलाकों से आने वाला अनुपचारित पानी सीधे झील में जा रहा है। अनुपचारित कचरे से बहुत से पोषक तत्व झील में आ जाते हैं, इसलिए झील में वनस्पति तेजी से बढ़ रही है।
कश्मीर और उत्तर प्रदेश के संस्थानों के शोधकर्ताओं ने मार्च 2022 में एक अध्ययन किया था, जो झील की बदहाली की ओर इशारा करता है। रिपोर्ट के मुताबिक, झील के जिन हिस्सों में गंदा पानी गिरता है, उनकी हालत काफी खराब है। अध्ययन में कहा गया, “हालांकि प्रदूषण की रफ्तार अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग है, लेकिन मानवीय गतिविधियों का असर पूरी झील पर दिख रहा है। इसकी वजह से झील में बहुत ज्यादा बदलाव हो रहे हैं और उसका पर्यावरण लगातार बिगड़ रहा है।” अध्ययन आगे कहता है, “गंदे पानी को झील में गिरने से रोकना बहुत जरूरी है। साथ ही, तैरते हुए बगीचों को बनने से भी रोकना होगा, जो अभी भी झील के कई हिस्सों में बन रहे हैं। इसके अलावा, खराब सैनिटरी सिस्टम की वजह से हाउस बोट वाले इलाकों और आस-पास के बुलेवर्ड और गागरीबल में बैक्टीरिया की संख्या बहुत तेजी से बढ़ी है। इसकी एक वजह ये भी है कि पास के सब्जी के बगीचों में जमीन को ठीक से मैनेज नहीं किया जा रहा है और गंदा पानी सीधे झील में छोड़ा जा रहा है।
हाउसबोट के लिए मशहूर डल झील साल के एक बड़े हिस्से में मानवीय गतिविधियों का खामियाजा भुगतती है। पर्यटकों के लिए हाउसबोट हमेशा लंगर डाले खड़ी रहती हैं और कई छोटी नावों का इस्तेमाल फेरी और मोबाइल दुकानों के साथ-साथ क्रूज के लिए किया जाता है। इससे झील को बहुत नुकसान हुआ है और इसके अंदरूनी हिस्से व बस्तियों के करीब के इलाके सीवेज पूल की तरह दिखने लगे हैं।
चिनार के पेड़ों का काटा जाना
वहीं दूसरी तरफ, कश्मीर के मशहूर चिनार के पेड़ों (प्लैटैनस ओरिएंटलिस) को विकास के नाम पर बिना कोई परवाह किए काटा जा रहा है। इसे लेकर संरक्षणवादी चिंतित हैं। कश्मीर यूनिवर्सिटी के नसीम बाग में इंडोर स्टेडियम के लिए चिनार के काफी पेड़ काटे जा रहे हैं। विरासत और पर्यावरण में दिलचस्पी रखने वाले INTACH कश्मीर के प्रमुख सलीम बेग ने बताया कि कुछ साल पहले नसीम बाग में हमजा गेस्ट हाउस बनाते वक्त भी 16 से ज्यादा बड़े चिनार के पेड़ों को काटा गया था।
बेग ने मोंगाबे इंडिया को बताया, “यूनिवर्सिटी के अधिकारियों को या तो इस प्रोजेक्ट को तुरंत रोक देना चाहिए या फिर इसका असर पता करना चाहिए (यह देखने के लिए कि कंस्ट्रक्शन प्रोजेक्ट से चिनार के पेड़ों पर कितना असर पड़ रहा है) ताकि आसपास के बाकी चिनार के पेड़ों के भविष्य को कोई खतरा न हो।”
उन्होंने कहा, “चिनार सिर्फ एक पेड़ नहीं है, बल्कि यह कश्मीर की पहचान का हिस्सा है।” वह आगे कहते हैं, “जिस तरह से उन्हें उनकी अनमोल विरासत की परवाह किए बिना काटा जा रहा है, उसे देखते हुए, इस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है, खासकर सरकार और उन संस्थानों को, जो हमारा सतत विकास जैसे कई मोर्चों पर मार्गदर्शन करते आए हैं।” कश्मीर स्थित पर्यावरण प्रहरी पीपुल्स एनवायरमेंटल काउंसिल (पीईसी) ने एक आरटीआई आवेदन दाखिल कर, सरकार से कश्मीर की इस विरासत के बेरोकटोक नुकसान को लेकर कई सवाल किए हैं।
पीईसी के एक प्रवक्ता ने नाम न बताने की शर्त पर मोंगाबे इंडिया को बताया कि चिनार के पेड़ों वाले क्षेत्रों में किसी भी निर्माण परियोजना को मंजूरी देने से पहले मौजूदा सुरक्षा उपायों को सख्ती से लागू करने और पर्यावरण का बारीकी से आकलन करने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि विकास जरूरी है, लेकिन यह कश्मीर की प्राकृतिक विरासत के एक महत्वपूर्ण हिस्से को नुकसान पहुंचाने की कीमत पर नहीं होना चाहिए।
साल 1969 से मौजूद चिनार के पेड़ों के लिए कानूनी सुरक्षा के अलावा, मार्च 2009 में, राज्य सरकार ने पर्यावरणविदों और गैर-सरकारी संगठनों की बार-बार शिकायतों के मद्देनजर चिनार के पेड़ों की कटाई और छंटाई पर प्रतिबंध लगा दिया था। इन शिकायतों में “घाटी के हर कोने में चिनार की अंधाधुंध कटाई और छंटाई” का आरोप लगाया गया था। साल 2018 की चिनारों की गणना (नई गणना) के अनुसार, कश्मीर के विभिन्न जिलों में फिलहाल 34,606 चिनार के पेड़ हैं। इनमें से 4,684 पेड़ 400 साल से ज्यादा पुराने हैं और 13,000 से ज्यादा पेड़ 200 से 400 साल पुराने हैं।

बेग के अनुसार, चिनार के पेड़ों की सुरक्षा और उन्हें काटने या छांटने से रोकने के लिए कानून तो है। “लेकिन इनका नियमित रूप से उल्लंघन किया जा रहा है,” वह आगे कहते हैं, “राज्य सरकार ने 1986 में पुष्प कृषि निदेशालय के तहत एक चिनार विकास कार्यालय की स्थापना की थी। लेकिन समय के साथ, विभाग इस सांस्कृतिक और पारिस्थितिक संपत्ति के निर्मम विनाश का मूक गवाह रहा है।”
कश्मीरी संस्कृति में चिनार का खासा महत्व है। इन पेड़ों ने गर्मी में छाया दी है और समुदायों के लिए मिलने की जगह का काम किया है, साथ ही अपनी भव्यता से कवियों और कलाकारों को प्रेरित किया है। पुराने समय में, चिनार के पेड़ सूफी दरगाहों, शाही उद्यानों और खूबसूरत रास्तों के किनारों पर लगाए जाते थे। पर्यावरण के लिहाज से भी चिनार इस क्षेत्र के पर्यावरण संतुलन को बनाए रखने में अहम भूमिका निभाते हैं। ये पक्षियों की विभिन्न प्रजातियों के लिए आवास प्रदान करते हैं और साथ ही इस क्षेत्र के अनोखे माइक्रो क्लाइमेट में भी योगदान देते हैं।
मुगल गार्डन और कश्मीर यूनिवर्सिटी के नसीम बाग जैसे ऐतिहासिक स्थानों पर बागों में या सड़क, गांवों या नदी के किनारों पर अकेले खड़े चिनार कश्मीर के लगभग हर जिले में पाए जाते हैं। अक्सर कश्मीर का गौरव कहा जाने वाला यह मशहूर पेड़ अपनी चौड़ी और सरसराहट वाली पत्तियों वाली विशाल कैनेपी और अपने विशाल आकार के लिए जाना जाता है। जब कश्मीरी किसी ऐसी चीज के बारे में बात करते हैं जिसे हासिल करना मुश्किल है, तो वे कहते हैं कि यह चिनार के तने को मूसल से छेदने जैसा है (ये गोव बोनी तरुन मोहुल)। जब वे ठंडी और आरामदायक छाया के बारे में बात करते हैं, तो वे इसकी तुलना “बोनी शेहजर” यानी चिनार के पेड़ की ठंडी छाया से करते हैं।
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 27 सितंबर 2024 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: श्रीनगर की डल झील में खड़ा एक शिकारा। तस्वीर- अथर परवेज