- नागालैंड के चाखेसांग जनजाति से आने वाली कार्यकर्ता सेनो त्सुहा मोटे अनाज और पारिस्थितिकी के हिसाब से खेती को फिर से जीवित करने की पहल की अगुवाई कर रही हैं। इससे समुदायों को पारंपरिक ज्ञान को बचाए रखते हुए जलवायु परिवर्तन के हिसाब से ढलने में मदद मिल रही है।
- भारत-नागा संघर्ष के बीच पली-बढ़ी त्सुहा ने अपना जीवन सामुदायिक विकास, देसी ज्ञान, सामाजिक न्याय और पर्यावरण को बचाने में लगा दिया।
- मोंगाबे के साथ इस बातचीत में, वह समुदाय और आजीविका के जरिए स्थिरता और महिलाओं को सशक्त बनाने की अपने सफर के बारे में बात करती हैं।
नागालैंड की हरी-भरी पहाड़ियों में बसे फेक जिले में, समुदाय की भावनाएं हर गांव में गूंजती हैं। पूर्वोत्तर-भारतीय राज्य के इन गांवों में कई युवा और महिला समाज और आदिवासी व छात्र संघ सामाजिक सामंजस्य की तस्वीर पेश करते हैं। इसलिए, यह साफ़ दिखाई देता है कि चाखेसांग जनजाति से आने वाली सामाजिक कार्यकर्ता सेनो त्सुहा (51) के लिए टिकाऊ विकास हमेशा समुदाय की भलाई को बढ़ावा देने वाली पहलों से क्यों शुरू होता है।
सत्तर के दशक की शुरुआत में जन्मी सेनो त्सुहा चिजामी गांव में पली-बढ़ीं हैं। यह गांव जिले की पहाड़ियों के बीच बसा है, जो राजधानी कोहिमा से 100 किलोमीटर से भी कम दूर है। उस समय, भारत सरकार और नागा समूहों के बीच सशस्त्र संघर्ष चल रहा था, जो दशकों से संप्रभुता की मांग कर रहे थे। बाद में त्सुहा अपने गांव में युवा समाज और महिला समाज की सदस्य बन गई और महिलाओं के स्वास्थ्य की देखभाल सहित अलग-अलग पहलों में सक्रिय रूप से शामिल रहीं। फिर 1996 में, उन्होंने चिजामी वुमंस सोसाइटी के जरिए क्षेत्रीय महिला अधिकार संगठन नॉर्थ ईस्ट नेटवर्क (NEN) के साथ काम करना शुरू किया। उन्होंने NEN की मदद से चलाई जाने वाली कई परियोजनाओं की अगुवाई की। इसमें कई प्रकार के देसी बीज एकत्र करने वाला बीज बैंक शुरू करना और चिजामी वीव्स को बढ़ावा देना था। चिजामी वीव्स का मकसद स्थानीय बुनाई को बढ़ावा देना और महिला बुनकरों को आजीविका के अवसर प्रदान करना था।
इन पहलों के जरिए, त्सुहा और अन्य लोगों को आखिरकार अहसास हुआ कि समुदाय में महिलाओं के जीवन को बेहतर बनाने के लिए पारिस्थितिकी और देसी संसाधनों पर ध्यान देना जरूरी है। एक स्कूल का प्रबंधन करने वाली त्सुहा ने महिला किसानों के लिए पारिस्थितिकी खेती के तरीकों की वकालत शुरू की। इसमें नागालैंड में बदलती जलवायु परिस्थितियों से निपटने के लिए मोटे अनाज की पारंपरिक किस्मों को बढ़ावा देना शामिल था।
साल 2008 में उन्हें महिला स्वास्थ्य के क्षेत्र में “बेहतरीन काम” के लिए भारतीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा स्त्री शक्ति पुरस्कार से नवाजा गया। जनवरी 2017 में उन्हें सामाजिक कार्य के लिए राज्यपाल का प्रशस्ति पत्र, पीस चैनल पुरस्कार (नागालैंड में व्यक्तियों को दिया जाता है) और 2020 में बालीपारा फाउंडेशन नेचरनॉमिक्स सम्मान भी मिला।
उनके सफर के बारे में ज्यादा जानने के लिए, मोंगाबे ने त्सुहा से वीडियो कॉल पर बात की। इस बातचीत को छोटा रखने और स्पष्टता के लिए संपादित किया गया है।

मोंगाबे: जब आप बड़ी हो रही थी, तो चिजामी कैसा था?
सेनो त्सुहा: मेरा जन्म 1970 के दशक की शुरुआत में हुआ था। जब से मैं याद कर सकती हूं, चिजामी में समुदाय बहुत ज्यादा जुड़ा हुआ है और एकजुट है। मैं अपने माता-पिता और दादा-दादी के साथ रहकर बड़ी हुई हूं। हम अपने परिवार, पड़ोसियों और दोस्तों के साथ मौज-मस्ती करते थे। जंगल में जाकर चारा इकट्ठा करते थे। जामुन तोड़ते थे और पेड़ों पर चढ़ते थे। वह ऐसा समय था जब संघर्ष हो रहा था। इसलिए हम भी डर में जी रहे थे।
लगभग सभी नागा गांवों में डर का माहौल था। मेरे माता-पिता के पास बहुत दर्दनाक यादें थीं। 1964 में चिजामी को जला दिया गया था। यह समय वह था जब महिलाओं को समूहबद्ध करके घर में नजरबंद कर दिया गया था और पुरुषों को ले जाया गया था। जब पूरा गांव जला दिया गया था, तो यह दर्दनाक था। मेरी मां ने एक युवा को गोली मारते और खून बहते हुए मरते देखा। वह मदद नहीं कर सकती थी, क्योंकि उन्हें वहां से भागना था। मेरे माता-पिता ने उन यादों को हमें बताया और हम डर में रहते थे, खासकर वर्दीधारी पुरुषों से।
नहीं तो, यह मजेदार बचपन था। हम भाग्यशाली थे कि हमारे माता-पिता ने हमें स्कूल भेजा और हमें औपचारिक शिक्षा दी। मेरे माता-पिता, खासकर मेरी मां कभी स्कूल नहीं गईं। इसलिए, उनकी तरफ के परिवार में मेरे भाई और मैं स्कूल जाने वाले बच्चों की पहली पीढ़ी से थे।
मोंगाबे: उस समय हिंसा के अनुभव ने चिजामी समुदाय पर किस तरह असर डाला?
सेनो त्सुहा: मन में डर था। लोगों के पास आजीविका के साधन नहीं रह गए थे और वे मनोवैज्ञानिक आघात से गुजर रहे थे। इंडो-नागा संघर्ष में सब कुछ प्रभावित हुआ था और मन में डर के कारण भरोसा कम हो गया था।
लेकिन, हमारा समुदाय समतावादी, एकजुटता पर आधारित है। हम हमेशा एक-दूसरे की मदद करने के लिए एकजुट होते हैं, खासकर संकट के समय में – चाहे वह संघर्ष हो, जिसमें हमें अपने पूरे गांव के जलने के बहुत ही दर्दनाक अनुभव से गुजरना पड़ा हो या खुशी के समय।
मोंगाबे: आपने समुदाय से जुड़ी पहलों में किस तरह शामिल होना शुरू किया?
सेनो त्सुहा: जब मेरे गांव में कोई लड़की पैदा होती है, तो वह चिजामी वुमंस सोसाइटी की सदस्य बन जाती है। मैं इसका हिस्सा थी, लेकिन 1997 में CWS के साथ सक्रिय रूप से काम करना शुरू किया। शुरुआती दिनों में, महिला समाज ने समुदाय में सामाजिक मुद्दों का हल खोजने पर ध्यान केंद्रित किया। जैसा कि मुझे याद आता है, हमारे कई वरिष्ठ सदस्यों द्वारा की गई एक पहल गांव में शराब के इस्तमाल को नियंत्रित करना था। जब तक मैं इसमें शामिल हुई, तब तक CWS ने शांति स्थापित करने, राहत पहुंचाने का काम करने और हिंसा की शिकार महिलाओं की मदद करना शुरू कर दिया था।
फिर, छात्र के रूप में मैं छात्र संघ का हिस्सा बन गई, जो छात्रों के कल्याण में मदद करता था। हम मुद्दों पर चर्चा करते थे और कार्रवाई के लिए आह्वान करते थे। हमने स्वच्छता अभियान, करियर मार्गदर्शन पर सेमिनार, इवेंट आयोजित किए और कैम्पेन चलाए।
मोंगाबे: क्या कभी ऐसा समय आया जब आपने यह फैसला लिया कि आप इन पहलों में और ज्यादा शिद्दत से शामिल होना चाहती हैं और एक दिन इनकी अगुवाई भी करना चाहती हैं?
सेनो त्सुहा: मैं हमेशा खुद को बड़े समुदाय के लिए समर्पित करना चाहती थी। मैं सिर्फ एक व्यक्ति, एक छात्रा, स्कूल, कॉलेज और चर्च जाने वाली युवा लड़की नहीं थी। मैं हमेशा बदलाव का हिस्सा बनना चाहती हूं। मैं सिर्फ अपनी और अपने परिवार की मदद करने के बारे में नहीं, बल्कि दूसरों की मदद करने के बारे में गहराई से सोचती हूं। परिवार या बड़े समुदाय में महिलाओं के योगदान को कभी स्वीकार नहीं किया जाता। मैं इस बारे में कुछ करना चाहती थी और वह स्थान पाना चाहती थी जिसकी हम हकदार हैं।

फिर 1996 में, मुझे CWS द्वारा समूह बनाने और सामुदायिक विकास पर प्रशिक्षण के लिए बुजुर्गों के साथ भेजा गया, जिसे मोनिशा बेहल [NEN की संस्थापक सदस्य] ने पड़ोस के शहर में आयोजित किया था। महिला समाज ने मुझे यह कहकर प्रोत्साहित और प्रेरित किया कि उन्हें इस प्रशिक्षण का हिस्सा बनने के लिए मेरे जैसे युवा लोगों की जरूरत है। और इसलिए, मैं नॉर्थ ईस्ट नेटवर्क से जुड़ गई।
वापस आने के बाद, प्रशिक्षण में हिस्सा लेने वाले हम पांचों ने चिजामी की सैकड़ों महिलाओं से मुलाकात की और मैंने जो कुछ सीखा था, उसके बारे में एक सत्र आयोजित किया। यह पहली बार था जब मैं समूह की गतिविधियों के जरिए अपनी जानकारी साझा कर रही थी। वे पूरी चर्चा में तल्लीन रहीं और मुझे लगा कि मैं इन महिलाओं के साथ कुछ कर सकती हूं। यही वह मोड़ था जिसने मुझे खुद पर फिर से विचार करने के लिए प्रेरित किया। तब से, CWS ने मुझे कार्यकारी टीम का हिस्सा बनने के लिए कहा और मुझे साल 1996 में वित्त सचिव बनाया गया।
[बाद में] मैं नागालैंड में नॉर्थ ईस्ट नेटवर्क चैप्टर की समन्वयक बन गई।
मोंगाबे: समुदाय में महिलाओं और युवाओं के विकास के लिए अब तक आपने जो भी सामुदायिक निर्माण परियोजनाएं चलाईं, उनमें पर्यावरण, पारिस्थितिकी और टिकाऊ विकास पर आपकी चर्चाओं में कितनी बार आया?
सेनो त्सुहा: उस समय, 90 के दशक के मध्य में CWS जिन मुद्दों पर ध्यान केंद्रित कर रहा था, उनमें से एक आजीविका के बेहतर अवसर उपलब्ध कराने पर था। हमने बाड़ी (किचन गार्डेन) और सामूहिक खेती पर ध्यान देना शुरू किया। फिर, जब हमारा जुड़ाव NEN के साथ हुआ, तो हमने चिजामी वुमंस हेल्थ सेंटर शुरू करने के बारे में सोचा। उस समय NEN महिलाओं के प्रजनन स्वास्थ्य पर ध्यान केंद्रित कर रहा था।
हमने महसूस किया कि इन कामों को करने के लिए हमें अपने समुदाय की महिलाओं के स्वास्थ्य में सुधार करना होगा। हमें अपनी कृषि, पारिस्थितिकी, देसी प्रणालियों और अपने संसाधनों को फिर से इस्तेमाल में लाना चाहिए और उसमें शामिल होना चाहिए।
इसलिए, उसी समय हमने स्वास्थ्य, पोषण और इलाज के पारंपरिक, स्थानीय तरीकों को देखना शुरू किया, जिसमें अलग-अलग तरह की जड़ी-बूटियां शामिल थीं। हम पौधों और स्थानीय संसाधनों की पहचान करने के लिए महिलाओं के साथ जंगलों में घूमते थे। ये स्थानीय ज्ञान प्रणालियां कम दिखाई देने लगीं, क्योंकि लोग अंग्रेजी दवाओं की ओर रुख कर रहे थे। हम समय-समय पर पारंपरिक भोजन का आयोजन भी करते थे। हमें उस समय नहीं पता था कि हम जो कर रहे थे वह धीमी गति वाले भोजन संस्कृति का हिस्सा था। एक तरह से, हम इलाज के तरीकों का दस्तावेजीकरण करने की कोशिश कर रहे थे। हालांकि, हम इसे उस तरह से नहीं देखते थे। हमारे लिए, यह जीवन और हमारे व्यंजनों का जश्न मनाने का तरीका था, जिसे हम पुनर्जीवित करना चाहते थे। यह सहज रूप से किया गया था।
बाद में, हम जलवायु परिवर्तन और उसके दुष्प्रभावों के बारे में भी बात करने लगे। हम इस बात पर आश्वस्त हो गए कि पारिस्थितिकी के स्थानीय सिद्धांत हमारे काम के आधार होने चाहिए और हमने उत्पादन के तरीकों, भूमि उपयोग और उपभोग को स्थिरता और समानता के नजरिए से देखना शुरू कर दिया।
मैं अपने माता-पिता के साथ समुदाय और पड़ोस में पली-बढ़ी हूं। खेती-किसानी मेरे जीवन का हिस्सी रही है। शिकार और संग्रह की प्रथाएं बहुत ज्यादा हो गई हैं, जो हमारे समुदाय के लिए अच्छी नहीं है। हमारी आजीविका का आधार खेती है – झूम खेती (पूर्वोत्तर भारत में पारंपरिक खेती) और सामूहिक खेती। उस समय बहुत से नीति-निर्माताओं ने झूम खेती की निंदा की और इसे जंगलों की कटाई के लिए जिम्मेदार ठहराया। CWS में, हमने झूम खेती के अच्छे पहलुओं को देखने की कोशिश की। यह आनुवंशिक विविधता का खजाना है। इस तरह की खेती में पूरा समुदाय हिस्सा लेता है, जिससे भूमि के इस्तेमाल के मामले में समानता पक्की होती है। दूसरी ओर, वृक्षारोपण बहुत ही व्यक्तिगत होता है और इससे सिर्फ पेड़ लगाने वाले को फायदा होता है। इसके अलावा, हमने जलवायु के अनुकूल फसलों जैसे मोटे अनाज पर भी ध्यान देना शुरू किया। जब हम 2009 में एक अध्ययन कर रहे थे, तो हमने अपने समुदाय, खासकर महिलाओं से पूछा कि अतीत और वर्तमान में उनके खाद्य पदार्थ क्या थे और भविष्य में वे क्या खाना चाहेंगी। यही वह समय था जब महिलाओं ने मोटे अनाज का मुद्दा उठाया। इसलिए, 2011 से हमने मोटे अनाज पर आधारित कृषि-जैव विविधता को बढ़ावा देना शुरू किया। मोटा अनाज जलवायु के अनुकूल फसल है और गर्मी को झेल सकती है। यह पौष्टिक है और इससे पारिस्थितिकी की सुरक्षा भी सुनिश्चित होती है। हमने अलग-अलग गांवों में मोटे अनाज की खेती के बारे में वीडियो क्लिप दिखाते हुए यात्रा की। महिलाएं, पुरुष और बच्चे इससे जुड़ पाए। हमने हस्ताक्षर अभियान के जरिए सरकार को प्रभावित करने की भी कोशिश की और यहां तक कि एक केंद्रीय मंत्री से भी मिले।

हमने देसी बीजों (मोटे अनाज के बीज और अन्य) की पहचान करना भी शुरू किया और महिलाओं और युवतियों को इस काम में शामिल किया। आखिरकार, NEN की कुछ मदद से CWS ने फेक जिले के 10 गांवों के लिए बीज बैंक शुरू किया। इसे औपचारिक रूप से 2017-18 में खोला गया।
मोंगाबे: इस समय जब आप मोटे अनाज की खपत का आकलन कर रही थीं, क्या मोटा अनाज खाया जा रहा था? क्या CWS और NEN के हस्तक्षेप ने ज्यादा लोगों को मोटे अनाज की खेती करने के लिए प्रेरित किया?
सेनो त्सुहा: यह [मोटा अनाज] हमारी थाली से पहले ही गायब हो चुका था। मुझे याद है कि जब मैं हाई स्कूल में थी, तब घर पर सिर्फ यही खाया जाता था। हमारे गांव में सिर्फ एक या दो परिवार ही खेती कर रहे थे। मोटा अनाज सबसे पहले काटा जाने वाला अनाज है और इसलिए इस पर पक्षियों के हमलों का खतरा रहता है। अब कई लोगों ने इसकी खेती शुरू कर दी है, लेकिन वे अभी भी पक्षियों के हमलों का सामना कर रहे हैं। इस चुनौती के अलावा, बहुत से परिवारों ने खेती की जमीन छोड़ दी है। एक कारण यह है कि युवा लोग खेती छोड़ रहे हैं। इसलिए, इसमें सिर्फ बुजुर्ग और माता-पिता ही शामिल हैं। यह सभी गांवों में एक मुद्दा बन रहा है।
लेकिन, अब किसान मोटे अनाज की खेती के नए तरीके अपना रहे हैं। आमतौर पर हम मोटे अनाज के बीज मार्च में बोते हैं। अब पक्षियों के हमले की वजह से हम इसे अगस्त में बोते हैं, ताकि नवंबर में इसकी कटाई हो जाए। ठीक वैसे ही जैसे धान की कटाई होती है।
मोंगाबे: इन पहलों में आपका क्या योगदान रहा है?
सेनो त्सुहा: मैंने आइडिया को आगे ले जाने, आयोजन करने, लोगों से जुड़ने, हमारी कहानियां बताने और जानकारों को चिजामी जैसे छोटे से गांव में लाने में योगदान दिया, ताकि वे सकारात्मक सोच और बदलाव की इस यात्रा का हिस्सा बन सकें। मैं इनोवेटर हूं, ऐसी महिला जो अलग तरह से सोचती है, जो हर तरह की पागलपन भरी बातें सोचती है। मैं भाग्यशाली हूं, क्योंकि NEN में मेरे सहकर्मी और मेंटर मोनिशा बहल इन विचारों के लिए खुले हैं और उनका समर्थन करते हैं।
मोंगाबे: NEN के सबसे बड़े प्रोजेक्ट में से एक चिज़ामी वीव्स है। क्या आप मुझे उसके सफर के बारे में बता सकती हैं?
सेनो त्सुहा: हमने फरवरी 1998 में चिजामी वीव्स की शुरुआत की। मोनिशा और मैं समेत हममें से कुछ लोगों ने मिलकर ऐसे प्रोजेक्ट की खोज शुरू की, जिन्हें हम साथ मिलकर कर सकते थे। हमने स्थानीय बुनकरों की आजीविका को बेहतर बनाने के लिए कुछ करने का फैसला किया। हमने मोनिशा की दोस्त एक युवा डिजाइनर को शामिल किया। इसका मुख्य उद्देश्य महिलाओं को आजीविका के अवसरों तक पहुंच बनाने में मदद करना और सबसे जरूरी बात, नागाओं की अनूठी कपड़ा परंपरा को बढ़ावा देना था। हमारे कपड़े और हमारे परिधान हमारी पहचान और संस्कृति का हिस्सा हैं। इसके कई सामाजिक अर्थ हैं। हर जनजाति की अपनी अनूठी पोशाक होती है। एक चखेसांग महिला के रूप में, मैं ज्यादातर वही पहनती हूं जो हम बुनते हैं। लेकिन वह बिक्री के लिए नहीं है।
लेकिन आज की पीढ़ी के लिए यह जरूरी है कि हमारे कौशल समुदाय की जरूरतों को पूरा करें और हम इससे आजीविका के रास्ते खोजें। इसलिए हमने महिलाओं द्वारा बुने जाने वाले पारंपरिक मेखला (नागा महिलाओं द्वारा पहने जाने वाले स्कर्ट) और शॉल से परे उत्पादों को देखना शुरू किया। यह तब था जब डिजाइनर राजीव गौतम ने कुशन कवर, टेबल रनर और टेबल सेट के विचार पेश किए। पहले दो सालों में, हमने मापने वाले टेप का इस्तेमाल भी नहीं किया, क्योंकि पारंपरिक रूप से हम कपड़े की लंबाई मापने के लिए अपने हाथों और पैरों का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन, हमें बाजार की जरूरतों को देखते हुए इसे बदलना पड़ा। हमें दो साल लगे और सात बुनकरों से आखिरकार लगभग 600 बुनकर इसमें शामिल हो गए। 2017 में, हमें अहसास हुआ कि चूंकि यह बढ़ रहा है, इसलिए हम NEN के साथ नहीं जा सकते, क्योंकि वह मुनाफे के लिए काम नहीं करता है।
कुल मिलाकर, सभी महिलाएं कमा रही हैं और खुश हैं। इससे उनके नजरिए में बदलाव आया है। वे अपने गांवों में नेता बन गई हैं। उन्हें ना सिर्फ कमाने के ये अवसर मिल रहे हैं, बल्कि पारंपरिक कौशल और देसी ज्ञान प्रणाली को जीवनदान देने वाले आंदोलन का हिस्सा बनने पर गर्व है। चिजामी वीव्स प्राकृतिक रंगों और स्थानीय कपास की कटाई के बारे में स्थानीय ज्ञान प्रणालियों पर भी नज़र रखता है। वहां बुजुर्ग महिलाएं (60 साल से अधिक उम्र की) हैं, जिन्हें प्राकृतिक रेशे उगाने और कटाई का ज्ञान है और वे इसे युवा बुनकरों को दे सकती हैं, जो सिर्फ 15 या 16 साल के हैं।

मोंगाबे: ऐसा लगता है कि आप हमेशा समुदाय द्वारा संचालित इन पहलों में व्यस्त रहती हैं। आपका परिवार इस पर किस तरह प्रतिक्रिया देता है?
सेनो त्सुहा: वे कभी-कभी शिकायत करते थे। कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद [राजधानी कोहिमा में] मैं वापस लौट आई और अपने भाई-बहनों और परिवार के लिए कमाने वाली बन गई। कई साल पहले, जब मैं और मेरा सहकर्मी काम के सिलसिले में फोन करने के लिए पड़ोसी शहर गए थे, तो मेरी मां ने मुझे बहुत डांटा था। यह 1999-2000 की बात है और हमारे पास फोन नहीं थे। तब तक अंधेरा हो चुका था और कोई वाहन नहीं था। हम अपने गांव वापस 21 किलोमीटर पैदल चले। हम शाम 6 बजे निकले और रात 11 बजे पहुंचे। यह समय वह था जब संघर्ष जारी था और सड़कों पर बहुत ज्यादा जबरन वसूली हो रही थी। हम राजमार्ग पर पैदल जा रहे थे।
इसके अलावा, मेरा परिवार बहुत मददगार रहा है। पिछले साल से, मैं एक स्कूल की देखभाल कर रही हूं, जिसमें दूसरे समुदाय के 93 छात्र हैं। मेरा जीवन बस इतना ही है – मैं सुबह स्कूल जाती हूं और सुबह 9 बजे से दोपहर 12:45 बजे तक वहां रहती हूं। उसके बाद, मैं घर आती हूं और अपने परिवार से मिलती हूं। कभी-कभी मैं हफ्तों तक गायब रहती हूं, क्योंकि मुझे हमारे NEN संसाधन केंद्र से काम करना होता है। उन दिनों में मैं केंद्र और स्कूल के बीच आती-जाती रहता हूं। तब मेरा परिवार मुझे याद करता है।
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मैं अब 50 साल की हो चुकी हूं और पहले जितनी सक्रिय नहीं हूं। पहले मैं एक दिन में 8-9 किलोमीटर (5-5.6 मील) पैदल चलती थी, लेकिन अब मेरी चाल बहुत धीमी हो गई है। मैं दिसंबर 2020 से NEN के प्रबंधन से भी बाहर हूं। जब भी मैं खाली होती हूं, मैं आती हूं। लेकिन, मैं अभी भी वो काम कर पा रही हूं जो मुझे पसंद है और मैं अभी भी CWS का हिस्सा हूं और इस गांव में योगदान देने वाली सदस्य हूं। उदाहरण के लिए, इस बातचीत के बाद, मैं चर्च के लिए जलावन इकट्ठा करने जाऊंगी।
इस धीमी गति ने मुझे चिंतन करने और सचेत और सावधान रहने में मदद की है। मुझे अहसास हो रहा है कि करुणा की भी एक सीमा होती है और कुछ चीजें ऐसी होती हैं जिन्हें हम नहीं कर पाते। मेरे लिए, सम्मान और गरिमा बहुत अहम हैं और दूसरों के साथ भी इसी सम्मान और गरिमा के साथ व्यवहार किया जाना चाहिए। इसलिए न्याय की ओर यात्रा कभी खत्म नहीं होगी। यह नई चुनौतियों और नए अवसरों के साथ जारी रहेगी। मैं अपने समुदाय, बड़े महिला नेटवर्क और देसी आंदोलन के साथ छोटे-छोटे तरीकों से इसका हिस्सा बनूंगी, मैं छोटे-छोटे तरीकों से कोशिश करती रहूंगी।
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 10 फरवरी, 2025 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: नागा कार्यकर्ता सेनो त्सुहा व्याख्यान देती हुई। सेनो त्सुहा के सौजन्य से तस्वीर।