- पश्चिमी अफ्रीका में कोको की फसल खराब होने के बाद से भारत में कोको की खेती बढ़ी है।
- शोधकर्ता ऐसी नई किस्में विकसित करने पर काम कर रहे हैं जो अत्यधिक गर्मी को झेल सकें।
- किसानों के लिए कोको को अन्य फसल के साथ उगाना, उनकी कमाई की संभावना को बढ़ाता है।
सैंतालीस साल के नवीनकृष्णा शास्त्री सी.जी. का कर्नाटक के पुनाचा में 20 एकड़ का बड़ा खेत है, जिसमें कई तरह की फसलें होती हैं। ग्रैंडपाज़ फार्म से जाने जाने वाले इस खेत में वो नारियल और सुपारी की खेती तो करते ही हैं, साथ में उन्होंने कोको के पेड़ भी लगाए हुए हैं। उनके खेत से करीब 15 किलोमीटर दूर कैंपको की चॉकलेट फैक्ट्री है, जो उनकी कोको की सबसे बड़ी खरीददार है। इसके अलावा वो चॉकलेट से खुद से बनाए गए कुछ प्रोडक्ट भी बेचते हैं।
नवीन के पिता सी.के. गंगाधर शास्त्री ने 50 साल पहले अपने खेत में कोको उगाना शुरू किया था। नवीन बताते हैं, “70 के दशक में कैडबरी इंडिया (चॉकलेट बनाने वाली एक बड़ी कंपनी) ने किसानों को कोको उगाने में खासी मदद की थी। कोको एक तरह की इंटरक्रॉप है, यानी इसे नारियल और सुपारी के पेड़ों के बीच में आराम से उगाया जा सकता है। इसलिए मेरे पिताजी ने भी कोको उगाना शुरू कर दिया।”
केरल में 1965 में एक प्रायोगिक खेत में कोको को सफलतापूर्वक उगाने के बाद, कैडबरी इंडिया (अब मोंडेलेज इंडिया) ने कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में कोको की खेती का प्रसार किया। लेकिन, भारत अभी भी दुनिया में कोको (कोको के पेड़ों से मिलने वाला) पैदा करने वाले सबसे बड़े देशों में से नहीं है। कुछ समय पहले तक तो उसे अपनी जरूरत का लगभग 70% कोको बाहर से मंगवाना पड़ता था।
दुनिया भर में कोको की जितनी सप्लाई होती है, उसका लगभग 70% हिस्सा पश्चिमी अफ्रीका के देशों से आता है, जहां कोको की सबसे ज्यादा पैदावार होती है। लेकिन, पिछले कुछ समय से आइवरी कोस्ट, घाना, नाइजीरिया और कैमरून जैसे देशों में कोको की फसल खराब हो गई। ये देश मिलकर दुनिया का ज्यादातर कोको उगाते हैं। पुराने पेड़, बीमारियां, बेमौसम बारिश और गर्मी की वजह से कोको के फूल और फल ठीक से नहीं उग पाए, जिससे कोको की सप्लाई बहुत कम हो गई और कीमतें बढ़ गईं। नवंबर 2023 से कोको की ग्लोबल मार्केट में कीमतें बढ़ने लगीं। पहले ये लगभग 2,500 डॉलर प्रति मीट्रिक टन के आसपास रहती थीं, फिर 4,000 डॉलर प्रति मीट्रिक टन हो गईं और मई 2024 में तो 10,000 डॉलर प्रति मीट्रिक टन तक पहुंच गईं। भारत में भी कोको के दाम बढ़ गए। जनवरी में जो कोको 25 रुपये किलो था, वो मई 2024 में 1,000 रुपये किलो हो गया।
दुनियाभर के मौसम में बदलाव और इसकी वजह से कोको की कम आपूर्ति को देखते हुए, भारत में कोको के पेड़ों के बागान बढ़ते जा रहे हैं। कोको उगाने वाले किसानों की संख्या और खेती का रकबा, दोनों में बढ़ोतरी हो रही है। काजू और कोको विकास निदेशालय के 2020-21 के आंकड़ों के हिसाब से, आंध्र प्रदेश 10,903 मीट्रिक टन वार्षिक कोको उत्पादन के साथ सबसे अधिक उपज वाला राज्य है। इसके बाद केरल 9,647 मीट्रिक टन के साथ दूसरे नंबर पर है।

क्यों बेहतर है भारत?
पश्चिमी अफ्रीका में 2023 से औसत तापमान में वृद्धि देखी जा रही है। साल 2024 की शुरुआत में, तापमान 41 डिग्री सेल्सियस तक चला गया, जो कोको के पेड़ों के लिए सही तापमान सीमा (21 डिग्री सेल्सियस और 30 डिग्री सेल्सियस के बीच) से बहुत ज्यादा है। थ्रिसूर में केरल कृषि यूनिवर्सिटी (केएयू) के कोको रिसर्च सेंटर की प्रोफेसर मिनिमोल जे.एस. कहती हैं, “कोको के पौधों को नमी वाला मौसम पसंद है। भारत में कोको उगाने के लिए आदर्श तापमान 24-28 डिग्री सेल्सियस से लेकर 32-34 डिग्री सेल्सियस तक होता है।” वह कोको को “कम मेहनत और अधिक आय वाली फसल” बताती हैं।
नवीन आगे कहते हैं, “कोको छाया पसंद करने वाला पेड़ है, जो ऊंचे सुपारी और जायफल के पेड़ों की छांव में बहुत अच्छे से पनपता है।” इसी वजह से, इस फसल को उगाने से किसान अपनी मौजूदा जमीन से ज्यादा कमाई कर सकते हैं।
मंगलुरु के कोको किसान और चॉकलेट बनाने वाले मयूर शेट्टी ने मोंगाबे इंडिया को बताया, “कोको की खेती में पानी की बहुत जरूरत होती है और ये उन इलाकों में सबसे अच्छी तरह से बढ़ता है जहां हर साल 2,000 मिमी से ज्यादा बारिश होती है। भारत में कोको की खेती का रकबा बढ़ाने में कोई खास दिक्कत नहीं है, क्योंकि यहां हमेशा इसे दूसरी फसलों के साथ मिलाकर ही उगाया जाता है।”
हालांकि, भारत में भी तापमान बढ़ रहा है और लू चल रही है और शोधकर्ता यह सुनिश्चित करने के लिए काम कर रहे हैं कि पौधों की नई किस्में अत्यधिक गर्मी को भी झेल सकें। केरल कृषि यूनिवर्सिटी (केएयू) कोको के पौधों की 600 से अधिक किस्में विकसित कर रहा है, जिन्हें केरल में यूनिवर्सिटी के खेतों और आंध्र प्रदेश में अन्य खेतों में लगाया गया है। वैज्ञानिक विदेशी कोको प्रजातियों से जर्मप्लाज्म की पहचान कर रहे हैं और उन्हें पहले से मौजूद अच्छी किस्मों के साथ मिलाकर ऐसी नस्लें बना रहे हैं जिनसे ज्यादा पैदावार हो। प्लांट ब्रीडिंग और जेनेटिक्स में पीएचडी करने वाली मिनिमोल ऐसी किस्में बनाने पर ध्यान दे रही हैं जो इस साल आंध्र प्रदेश में 40 डिग्री सेल्सियस तक के तापमान को भी झेल सके। वह कहती हैं, “केएयू में, हम एक बड़ा जर्मप्लाज्म बनाए रखते हैं और इसका उपयोग किस्मों का एक व्यापक आनुवंशिक आधार विकसित करने के लिए किया जाता है जो कोको के पौधों को 38-40 डिग्री सेल्सियस जैसी प्रतिकूल परिस्थितियों में भी पनपने में सक्षम बनाता है।”
मिनिमोल ने ये भी बताया कि कि आंध्र प्रदेश में जितना भी कोको उगाया जाता है, वो सब केएयू ने ही सप्लाई किया है। वह कहती हैं, “दुनिया भर में एक पेड़ से औसतन 0.25 किलोग्राम कोको हर साल मिलता है। केरल में हमें एक पेड़ से 2.5 किलोग्राम कोको हर साल मिल रहा है। आंध्र और तेलंगाना में तो हमें एक पेड़ से प्रति वर्ष चार या पांच किलोग्राम कोको मिल जाता है। यह फसल की आनुवंशिक क्षमता को दर्शाता है।”

कोको की टिकाऊ खेती
किसानों का कहना है कि जब कोको की खेती सस्टेनेबल तरीके से की जाती है, तो इससे अच्छी पैदावार तो होती ही है, साथ ही जिन इलाकों में इसे उगाया जाता है, वहां के लोगों को सामाजिक और आर्थिक फायदा भी होता है। कर्नाटक में वाराणसी ऑर्गेनिक फार्म चलाने वाले पुनर्योजी किसान पार्थ वाराणसी, इलाके के ज्यादा से ज्यादा किसानों को कोको उगाने के लिए बढ़ावा दे रहे हैं। वह तुलना करते हुए कहते हैं, “कोको का पेड़ सिर्फ एक अच्छा मल्टी-क्रॉप ही नहीं है, बल्कि ये सात से दस फीट की कम ऊंचाई पर भी बढ़ जाता है और मिट्टी को काफी खाद भी देता है। अफ्रीका में लोग कोको को सिर्फ एक ही फसल के तौर पर उगाते हैं, जो कि ठीक नहीं है।”
वाराणसी कहते हैं, “हालांकि ऑर्गेनिक खेती से ऊपरी मिट्टी में सुधार को लेकर कोई रिसर्च पेपर तो नहीं है, लेकिन ये देखा है कि जब से हमने 1990 के दशक से पहले वाली आम खेती छोड़कर अपने फार्म में ऑर्गेनिक खेती शुरू की है, तब से हर पेड़ से मिलने वाली उपज बढ़ी है।” वह अपने फार्म में बायो-फर्टिलाइजर और बायो-कंट्रोल एजेंट का इस्तेमाल करते हैं ताकि कीड़ों से निपटा जा सके। उनका कहना है, “अगर किसान इसको [कोको] ऑर्गेनिक तरीके से उगाते हैं, तो उन्हें इसकी अच्छी कीमत मिल सकती है।”
वाराणसी कोको को एग्रोफोरेस्ट्री तरीके से उगाने की भी कोशिश कर रहे हैं। उनका कहना है, “जंगल में जंगली तरीके से उगने वाला कोको का पेड़ 100 साल तक जी सकता है। हमारे फार्म में एक 65 साल पुराना कोको का पेड़ है। दूसरे फार्मों में पेड़ों की औसत उम्र 25 साल होती है।” दुनिया के दूसरे हिस्सों में हुए अध्ययनों में भी पता चला है कि एग्रोफोरेस्ट्री सिस्टम के तहत कोको लगाने से जलवायु परिवर्तन को कम करने में मदद मिलती है।
मंगलुरु में साधु‘स फार्म नाम से कोको फार्म चलाने वाले शेट्टी ने बताया कि वह केमिकल वाले कीटनाशक इस्तेमाल नहीं करते हैं। “हमारे पेड़ अभी छोटे हैं, इसलिए उनका साइज भी छोटा है। कीड़े लगने का खतरा ज्यादातर बड़े पेड़ों पर या फिर ग्राफ्टिंग वाले पेड़ों पर होता है। जो पौधे बीज से उगाए जाते हैं, उनके बचने की संभावना ज्यादा होती है।”

ट्रेनिंग और स्किल बढ़ाने की जरूरत
जो किसान दूसरी फसलें उगाते हैं, उनके लिए कोको लगाने से कमाई बढ़ जाती है, जिससे कई लोगों को कोको की खेती करने का हौसला मिला है। शास्त्री बताते हैं, “इस साल मई में चॉकलेट बनाने वाली फैक्ट्रियां सूखे कोको बीन्स के लिए लगभग 1,000 रुपये प्रति किलो दे रही थीं। अब (सितंबर 2024 में) कीमत लगभग 550 रुपये प्रति किलो पर स्थिर हो गई है। हमारे पास की कैंपको फैक्ट्री हमसे इसी कीमत पर खरीद रही है। ये अभी भी पिछले साल की कीमत से तीन गुना ज्यादा है, इसलिए हम अच्छी कमाई कर रहे हैं।” वह और उनका परिवार कोको से कई चीजें भी बनाते हैं, जैसे कि स्वीट कोको बिट्स, सॉलटेड कोको बिट्स, कोको निब्स, पाउडर और बटर, जिन्हें वो अपने खेत से रिटेल में बेचते हैं।
साल 2020 से, भारतीय किसानों को कई बार कोको बीन्स को सुखाने और फर्मेंट करने के बेहतर तरीकों के बारे में ऑनलाइन और ऑफलाइन ट्रेनिंग दी गई हैं, ताकि उन्हें अच्छी कीमत मिल सके। शास्त्री बताते हैं, “कोविड-19 महामारी के दौरान हमारा काम लगभग ठप हो गया था, तब कैडबरी इंडिया और पास की कैंपको फैक्ट्री ने कोको बीन्स को सुखाने, फर्मेंट करने और रोस्ट करने के तरीके सिखाने के लिए कई बार ट्रेनिंग दी थी। उसके बाद से हमने अपने खुद के प्रोडक्ट बनाने और बेचने शुरू किए, जिनसे हमें अच्छा मुनाफा मिल रहा है।”
शेट्टी आगे कहते हैं, “सेंट्रल प्लांटेशन क्रॉप्स रिसर्च इंस्टीट्यूट भी कभी-कभी हमारे लिए ट्रेनिंग आयोजित करता है। वे बहुत मददगार हैं और जरूरतमंदों के साथ जानकारी शेयर करने में खुशी महसूस करते हैं।” किसानों और चॉकलेट बनाने वालों से बात करने पर पता चला कि ट्रेनिंग और स्किल बढ़ाने, ज्यादा टिकाऊ किस्मों को विकसित करने और गांव के स्तर पर प्रोसेसिंग यूनिट लगाने की जरूरत है।
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 1 अक्टूबर 2024 प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: कर्नाटक के ग्रैंडपाज़ फार्म में कोको की खेती। तस्वीर- नवीनकृष्णा शास्त्री के सौजन्य से