- असम के काजीरंगा नेशनल पार्क और टाइगर रिजर्व में हाथी और उनके महावत पार्क के प्रबंधन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते आए हैं।
- महावत गश्त करने, जंगली जानवरों की गणना करने, बाढ़ के दौरान अंदरूनी शिविरों में राशन पहुंचाने और पर्यटन सीजन के दौरान हाथी सफारी कराने में मदद करते हैं।
- हालांकि महावत का काम पीढ़ियों से चलता आया है, लेकिन नई पीढ़ी के कुछ लोग चोट और मौत के खतरे की वजह से इस काम को अपनाने में संकोच कर रहे हैं।
मई 2004 की एक तपती सुबह, वन अधिकारियों और पशु चिकित्सकों की एक टीम असम के गोलाघाट जिले में काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान और बाघ अभयारण्य (केएनपीटीआर) की अगोराटोली रेंज के पास एक गांव, डिप्लू पोथर में एक धान के खेत की ओर रवाना हुई। उनका मिशन था: एक बड़ी वयस्क बाघिन को शांत करना। हाल ही में बाघिन अपने दो शावकों के साथ गांव में घुसी और मवेशियों पर हमला कर दिया। एक दिन पहले, अधिकारियों ने दोनों शावकों को बेहोश कर जंगल में छोड़ दिया था, लेकिन बाघिन वहीं रह गई।
इसके बाद जो हुआ, उसने पूरी टीम को हैरान कर दिया।
जब वे हाथियों पर सवार होकर इलाके की तलाशी ले रहे थे, तभी अचानक बाघिन खेत से निकली और अधिकारियों को ले जा रहे दो हाथियों में से एक पर झपट पड़ी। जयमाला नामक हाथी पर बैठे 25 वर्षीय महावत सत्यभान पेगु को बाघिन ने घायल कर दिया।
सेवानिवृत्त वन अधिकारी धरणीधर बोरो उस समय रेंजर थे। उन्होंने मोंगाबे इंडिया को बताया, “मैं महावत (सत्यबेन) के साथ हाथी पर बैठा था और गिर गया। आमतौर पर हाथी बाघों से डरते हैं और उन्हें देखकर भागने की कोशिश करते हैं। लेकिन इस मामले में, जयमाला ने बहुत साहस दिखाया। उसने बाघिन को दौड़ा दिया। हाथी ने बाघिन को दबाने की भी कोशिश की। और फिर बाघिन भाग गई। उसने किसी और पर हमला नहीं किया। हाथी ने उस दिन हमारी जान बचाने में बड़ी मदद की थी।”
उस समय के प्रभागीय वन अधिकारी आर.के. दास दूसरे हाथी पर बैठे थे और उन्होंने इस घटना का वीडियो बनाया। काजीरंगा नेशनल पार्क और टाइगर रिजर्व के कुशल प्रबंधन में हाथियों और उनके महावतों का कितना बड़ा योगदान है, ये वीडियो उसकी एक बानगी है।
केएनपीटीआर की निदेशक सोनाली घोष कहती हैं, “केएनपीटीआर में महावत बहुत महत्वपूर्ण हैं। हाथियों से गश्त के लिए उनकी जरूरत होती है। वे जंगली भैंसों, हिरणों जैसे कई जानवरों की गणना के दौरान महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। बाढ़ के दौरान, वे जंगलों के अंदरूनी हिस्सों में शिविरों तक राशन पहुंचाते हैं, क्योंकि वहां गाड़ियां नहीं जा सकती हैं। हम महावतों और उनके हाथियों को अपने फ्रंटलाइन वर्कर मानते हैं। इसके अलावा, वे केएनपीटीआर में पर्यटन को बढ़ावा देने में भी बड़ी भूमिका निभाते हैं, क्योंकि हाथी सफारी पर्यटकों के लिए एक बड़ा आकर्षण है।” उनके मुताबिक केएनपीटीआर में वर्तमान में 67 हाथी और 70 महावत हैं।

काजीरंगा में महावतों का इतिहास
साल 1938 में काजीरंगा (जो उस समय एक गेम सैंक्चुअरी था) पहली बार पर्यटकों के लिए खोला गया। काजीरंगा नेशनल पार्क के पास बड़े हुए संरक्षणवादी और लेखक बुलबुल सरमा के अनुसार,1938-39 में 305 पर्यटक हाथी की सवारी करने आए थे।
ब्रिटिश शासन के दौरान, जंगली हाथियों को पकड़ा जाता, उन्हें पालतू बनाया जाता और वन विभाग के साथ काम कराया जाता था। 50 और 60 के दशक में काम करने वाले अधिकांश महावत छायागांव, बेकी, गोलपारा, गारो हिल्स और यहां तक कि अरुणाचल प्रदेश से आए थे। बाद में, काजीरंगा के बाहरी इलाके में रहने वाली जनजातियां और लोग भी इस पेशे में शामिल हो गए।
काजीरंगा के महावतों पर लिखी अपनी एक किताब में बुबुल सरमा ने काजीरंगा के शुरुआती दिनों के दो मशहूर हाथियों ‘शेर खान और अकबर’ का उल्लेख किया है। पी.डी. स्ट्रेसी द्वारा लिखी गई एक अन्य किताब ‘एलीफेंट गोल्ड’ में अकबर को ‘काजीरंगा की उत्कृष्ट कृति’ बताया गया था। स्ट्रेसी 1900 के दशक की शुरुआत में असम में आईएफएस अधिकारी थे। अकबर को महावत बिहुआ गोगोई संभालते थे, जिनके साथ उनका खास रिश्ता था। जब गोगोई रिटायर हो गए, तो अकबर की देखभाल के लिए एक नए महावत को काम पर रखा गया। हालांकि, अकबर ने अपने नए महावत सहित तीन लोगों को मार डाला। इसके बाद अधिकारियों को बिहुआ गोगोई को वापस बुलाना पड़ा और उन्हें अपनी ड्यूटी फिर से शुरू करनी पड़ी। अकबर अपनी बहादुरी के लिए भी जाना जाता था। एक बार, वह पर्यटकों को एक हमलावर गैंडे से बचाते हुए घायल हो गया था।
सरमा कहते हैं, “काजीरंगा आज जो भी है उसे बनाने में बिहुआ गोगोई, बेल्टा गोगोई, महेन गोगोई, नरेन सरकार और तेली अंगू जैसे कुछ महावतों ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई है। काजीरंगा में टावरों और शिविरों के निर्माण में महावतों और हाथियों का इस्तेमाल किया गया था।”
उन्होंने बताया कि स्वतंत्रता के बाद जैसे ही वन्यजीवों के संरक्षण के लिए नए कानून पारित हुए, तो हाथियों को काम पर रखने वाले महाल और आरा मिलों को बंद कर दिया गया। उन्होंने कहा, “नतीजतन, कई महावत बेरोजगार हो गए। बाद में, वन विभाग ने कुछ हाथी खरीदे और नियमों का उल्लंघन करने पर कुछ को जब्त भी किया गया। और फिर उन हाथियों को वन कार्य में लगा दिया गया।”

एक पीढ़ीगत पेशा
एक समय था जब महावत बनना एक पारिवारिक पेशा था और हर पीढ़ी अपनी इस परंपरा का पालन करती थी।
केएनपीटीआर के कोहोरा रेंज में 41 वर्षों के अनुभव रखने वाले किरण राभा प्रमुख महावत हैं और महावतों के परिवार से आते हैं। वह बताते हैं, “मेरा परिवार बामुनीगांव, छायगांव से है। मेरे दादा एक जाने-माने फांदी (जंगली हाथियों को पकड़ने वाले लोग) थे। कोलिया फांदी नाम से मशहूर मेरे दादा जी को राज्यभर में हाथियों को पकड़ने के लिए बुलाया जाता था। मेरे पिता भद्रेश्वर राभा भी महावत थे। मैं भी अपने पूर्वजों के पेशे में शामिल हो गया हूं।”
केएनपीटीआर निदेशक घोष कहते हैं कि महावत बनने के लिए बुनियादी आवश्यकता हाथियों को संभालने की क्षमता होना है। वह कहते हैं, “महावतों के परिवार से आने वाले व्यक्ति को पहले से ही हाथी को संभालने की बुनियादी बातों की जानकारी होती है, जो उन्हें महावत बनने में मदद करती है।”
हालांकि, सरमा का कहना है कि महावत परिवारों की मौजूदा पीढ़ी के अधिकांश लोग इस पेशे को अब नहीं अपनाना चाहते हैं। उन्होंने कहा, “परिवार के युवा शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं और उन्हें बेहतर नौकरियां मिल सकती हैं। महावत बनना मुश्किल काम है। उन्हें अपना पूरा समय हाथी को खिलाने, उसके खाने, नहलाने और बीमारियों का ख्याल रखने में लगाना पड़ता है। काम की तुलना में पैसे कम हैं।”
वन विभाग के एक सूत्र के अनुसार, जहां स्थायी नौकरी वाले महावतों को 40,000 रुपये प्रति माह से अधिक का वेतन मिलता है, वहीं कई महावत महज 15,000 रुपये प्रति माह से कम वेतन वाले अस्थायी कर्मचारी हैं।
दो साल पहले सड़क दुर्घटना में मारे गए एक सीनियर महावत बुबुल गोगोई के बेटे प्रहलाद गोगोई अपने पिता की तरह जंगलों से प्यार करते हैं, लेकिन उसके बावजूद वह महावत नहीं बनना चाहते। इक्कीस वर्षीय प्रह्लाद कहते हैं, “मेरे पिता कृष्णा नामक एक अंधे हाथी की देखभाल करते थे। उन्होंने हमसे ज्यादा समय कृष्णा को दिया। अपने तीन भाइयों में से सिर्फ मैं ही अपने पिता की तरह जंगलों से प्यार करता हूं। लेकिन मैं एक टूरिस्ट गाइड बनना चाहता हूं। मैंने इस नौकरी में तीन सीजन पूरे कर लिए हैं। मेरे पिता ने मेरे इस सपने को पूरा करने में पूरा सहयोग दिया था।”
इस साल प्रह्लाद अपने पिता को मरणोपरांत दिए गए सर्वश्रेष्ठ महावत का ‘गज गौरव’ पुरस्कार लेने रायपुर, छत्तीसगढ़ गए थे। यह पुरस्कार पर्यावरण मंत्रालय द्वारा वन्यजीवों के संरक्षण में असाधारण प्रदर्शन के लिए दिया जाता है।
दिलचस्प बात यह है कि काजीरंगा के कोहोरा रेंज में पिलखाना नाम का एक गांव है जहां मुख्य रूप से महावत और उनके परिवार रहते हैं। राभा कहते हैं, “वन विभाग ने पिलखाना में महावतों के लिए क्वार्टर बनाए थे। बाद में, कई महावत रिटायरमेंट के बाद उस गांव में बस गए। वहां महावतों के लगभग 60 परिवार रहते हैं। वहां एक हाथी प्रशिक्षण केंद्र और वन विभाग के मेहमानों के लिए एक गेस्ट हाउस भी है।”

चुनौतियां और खतरे
महावत बनना हर किसी के बस की बात नहीं है, क्योंकि इस नौकरी में बहुत खतरा है। साल 2004 में, बाघिन के हमले के बाद, सत्यबेन पेगू का महावत के रूप में करियर समाप्त हो गया क्योंकि उन्होंने अपने बाएं हाथ की तीन उंगलियां खो दीं।
सत्यबेन कहते हैं, “मुझे तुरंत बोकाखाट सिविल अस्पताल और फिर गोलाघाट के कुशल कंवर अस्पताल और अंत में डिब्रूगढ़ मेडिकल कॉलेज ले जाया गया। मुझे लगभग तीन महीने अस्पताल में रहना पड़ा। सौभाग्य से विभाग ने मेरे इलाज का पूरा खर्च उठाया और मैं अपनी नौकरी बरकरार रख सका।” बाद में उन्हें डेस्क जॉब और सोशल फॉरेस्ट्री में स्थानांतरित कर दिया गया।
अन्य जानवरों के अलावा, महावतों को अपने हाथियों से भी खतरा होता है। साल 1999 में, इसी तरह की एक घटना में 82 वर्षीय अमेरिकी पर्यटक मैरी ब्रूमडर की मौत हो गई थी। वह भजन नामक जिस हाथी पर बैठी थी, उस पर गदापानी नाम के एक अन्य हाथी ने हमला कर दिया। इस घटना में भजन के महावत बिनय गणाक, मैरी के भतीजे मैथ्यू अरुंड्ट और एक अन्य पर्यटक हुमोक्ट हावर्ड जॉन घायल हो गए थे।
साल 2013 में बाबुल नामक एक हाथी ने अपने महावत निर्मल बर्मन को अपनी पीठ से नीचे फेंक दिया और उसे कुचलकर मार डाला था।
सरमा कहते हैं, “हाथी बहुत बुद्धिमान होते हैं और साथ ही, अप्रत्याशित भी। अपने महावत की ओर से देखभाल की कमी उन्हें गुस्सा दिला सकती है। साथ ही, वे मस्त होने पर बहुत आक्रामक हो जाते हैं।”
चूंकि महावत शिकार-विरोधी या एंटी पोचिंग अभियानों में भी भाग लेते हैं, इसलिए उन्हें एक समय में लंबे समय तक प्रशिक्षण लेना होता है। कोहोरा में सहायक महावत कासेम अली कहते हैं, “हमें बंदूक चलाने, तैरने, पेड़ पर चढ़ने आदि का भी प्रशिक्षण लेना होता है। कभी-कभी तो हमें लगातार 24 घंटे जंगलों में रहना पड़ता है।”
मौजूदा समय में, अगर महावत या कोई अन्य वनरक्षक ड्यूटी के दौरान अपनी जान गंवा देता है, तो सरकारी नियमों के अनुसार उनके परिवार को 4,00,000 (चार लाख) रुपये का मुआवजा मिलता है। यह राशि काजीरंगा में स्थायी और अस्थायी दोनों श्रमिकों के लिए समान है। हालांकि, स्थायी श्रमिकों के मामले में, उनके निकटतम परिजन को विभाग में अनुकंपा के आधार पर नौकरी की पेशकश की जाती है, जो अस्थायी श्रमिकों के लिए उपलब्ध नहीं है।
इन मुश्किलों के बावजूद, कुछ महावत हाथियों की देखभाल करते हुए काफी अच्छे पल बिताते हैं। राभा कहते हैं कि विभाग में अपने कार्यकाल के दौरान अधिकांश महावत कम से कम तीन-चार हाथियों को संभालते हैं। वह कहते हैं, ”हाथियों के साथ हमारा एक खास रिश्ता बन जाता है। हमारे अपने कोड और भाषाएं होती हैं, जिन्हें सिर्फ हाथी ही समझ सकते हैं।”
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 7 अक्टूबर 2024 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान में महावत और उनके हाथी। सीताजी, विकिमीडिया कॉमन्स [CC BY-SA 4.0]।