- पिछले कुछ वर्षों में चरम मौसम की घटनाओं के कारण भारत के स्कूलों की छुट्टियों के दिनों में बढ़ोतरी हुई है और पढ़ाई पर खासा असर पड़ा है।
- साल 2024 में कई भारतीय राज्यों को लंबे समय तक लू का सामना करना पड़ा, जिसके चलते स्कूलों की गर्मी की छुट्टियां बढ़ानी पड़ी।
- सरकार ने 2008 में जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना (NAPCC) शुरू की थी, जिसमें जलवायु परिवर्तन से जुड़े आठ राष्ट्रीय मिशन की रूपरेखा सुझाई गई थी। लेकिन इनमें से कोई भी मिशन शिक्षा पर केंद्रित नहीं था।
साल 2023 में, अपने मौसम के लिए मशहूर राज्य मेघालय में पहली बार हीटवेव के चलते स्कूलों को बंद करने की घोषणा करनी पड़ी थी। इस राज्य में आमतौर पर मौसम सुहावना रहता है और यहां बारिश भी खूब होती है। लेकिन हाल के वर्षों में इसके मौसम के पैटर्न में बदलाव देखा गया है। राज्य के कुछ हिस्सों में तापमान 35 डिग्री सेल्सियस के पार चला गया और प्रशासन को तीन दिनों के लिए स्कूलों को बंद करना पड़ा।
उसी समय, पड़ोसी राज्य त्रिपुरा में भी तापमान 40 डिग्री सेल्सियस से ऊपर पहुंच गया, जिसके कारण मुख्यमंत्री ने छः दिनों के लिए स्कूलों को बंद करने की घोषणा कर दी।
पिछले कुछ सालों में भारत में स्कूली शिक्षा, खासकर प्राथमिक और उच्च प्राथमिक स्तर पर, में रुकावटें बढ़ती जा रही हैं। गर्मी, सर्दी, भारी बारिश, चक्रवात, बाढ़ और वायु प्रदूषण जैसी मौसमी घटनाओं की वजह से आए दिन स्कूलों को बंद करना पड़ता है, जिससे स्कूल के बहुत दिन बर्बाद हो रहे हैं। इसका सीधा असर इन कक्षाओं और इनमें पढ़ने वाले बच्चों पर पड़ रहा है।
मौजूदा समय में, शिक्षा क्षेत्र में ऐसा कोई तरीका नहीं है, जिससे पता लगाया जा सके कि जलवायु परिवर्तन की वजह से होने वाले खतरों और घटनाओं के कारण स्कूल को कितने दिनों का नुकसान उठाना पड़ रहा है।
मोंगाबे इंडिया ने सूचना के अधिकार (आरटीआई) के जरिए दिल्ली, ओडिशा, झारखंड, बिहार, तमिलनाडु, गुजरात और असम की राज्य सरकारों से पिछले 10 सालों में स्कूल बंद होने की घटनाओं और उनके कारणों के बारे में पूछा। दिल्ली सरकार को छोड़कर, किसी भी राज्य ने आरटीआई का जवाब नहीं दिया।
मोंगाबे इंडिया ने बाढ़, लू, शीतलहर और वायु प्रदूषण के कारण स्कूल बंद होने से संबंधित कई मीडिया रिपोर्टों और सरकारी आदेशों की भी छानबीन की और पाया कि जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाली घटनाओं के कारण बच्चे प्रत्येक शैक्षणिक वर्ष में लगभग 10 प्रतिशत स्कूल के दिन खो देते हैं। स्कूली शिक्षा के लिए राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा, 2023 के अनुसार, राष्ट्रीय अवकाश, टर्म ब्रेक और छुट्टियों को ध्यान में रखने के बाद स्कूलों के लिए वार्षिक कार्य वर्ष में 220 निर्देश/स्कूल जाने के दिन होते हैं।

अलग-अलग कारण, समान परिणाम
भारत जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों के लिए दुनिया के सबसे संवेदनशील देशों में से एक है। ग्लोबल क्लाइमेट रिस्क इंडेक्स के अनुसार, 2019 में यह दुनिया का सातवां सबसे अधिक जलवायु प्रभावित देश था।
अगस्त की एक तपती दोपहर में, 55 वर्षीय सरकारी शिक्षक रंजन मेधी असम के दक्षिण गुवाहाटी हायर सेकेंडरी स्कूल में एक पंखे के नीचे पढ़ा रहे थे। गर्मी काफी ज्यादा थी। तापमान बढ़कर 33 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया था और हवा में नमी भी 91% थी।
मेधी 1993 से इस पेशे में हैं। लेकिन गर्मी की वजह से स्कूल बंद होना तो उन्होंने पिछले चार-पांच सालों में ही देखा है, जबकि उन्हें पढ़ाते हुए 30 साल से ज्यादा हो गए हैं।
उन्होंने कहा, “पिछले दो सालों (2023-24) में गर्मी की वजह से स्कूल दो बार बंद हुए। सरकार ने स्कूल खुलने का टाइम भी जल्दी कर दिया और पिछले साल 2023 में गर्मी की वजह से गर्मियों की छुट्टियां 15 दिन बढ़ा दी गई थीं।”
इसके अलावा, उसी साल बाढ़ के चलते गर्मियों की छुट्टियां पांच दिन पहले कर दी गई थीं। असम में आमतौर पर गर्मियों की छुट्टियां हर साल 1 जुलाई से 31 जुलाई तक एक महीने के लिए होती हैं।

निचले असम के कामरूप जिले में अब्दुल हलीम एक ऐसे स्कूल में पढ़ाते हैं, जो एक द्वीप पर स्थित है और हर साल बाढ़ में डूब जाता है। लेकिन उनके हिसाब से, ब्रह्मपुत्र नदी के द्वीप पर स्थित स्कूलों में बाढ़ से ज्यादा चिंताजनक गर्मी का बढ़ना है। उन्होंने कहा, “बाढ़ का मौसम तो हमारी साल की छुट्टी के साथ ही पड़ता है और हम ब्रह्मपुत्र के लोग हैं, इसलिए हमें पता है कि इससे कैसे निपटना है। लेकिन गर्मी का बार-बार आना कुछ ऐसा है जिससे हम नहीं निपट सकते।” साल 1901 से लेकर अब तक के सबसे गर्म 11 साल, 2005 से 2019 के बीच के 15 सालों में ही दर्ज किए गए हैं। लू (हीट वेव) की तीव्रता और फ्रीक्वेंसी बढ़ रही है। साल 2020 में, भारत के कुछ शहरों में 48 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा तापमान वाली लू चली, जिससे उन लोगों को बहुत परेशानी हुई जो भीड़-भाड़ वाली जगहों, कम हवादार घरों और शहरों की झुग्गियों में रहते हैं।
बढ़ते जलवायु परिवर्तन और अल नीनो प्रभाव के साथ, भारत ने 2024 में अपनी सबसे खराब गर्मियों में से एक का अनुभव किया। इस दौरान कई भारतीय राज्यों में लंबे समय तक गर्म हवाएं चलीं और इस वजह से स्कूलों की गर्मियों की छुट्टियां बढ़ानी पड़ी।
साल 2024 में उत्तर प्रदेश ने गर्मियों की छुट्टी 10 दिन बढ़ा दी, छत्तीसगढ़ ने 10 दिन, ओडिशा ने सात दिन और दिल्ली ने तुरंत 50 दिनों की गर्मी की छुट्टी का ऐलान कर दिया था। इसके अलावा, कई राज्यों ने बच्चों को गर्मी से बचाने के लिए स्कूल के समय में भी बदलाव किया।
दिल्ली में सिर्फ गर्मी ही नहीं, बल्कि वायु प्रदूषण भी स्कूल बंद होने की नई वजह बनकर सामने आया है। दिल्ली सरकार की आरटीआई के जवाब के मुताबिक, राष्ट्रीय राजधानी और एनसीआर (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र) में एक नया ट्रेंड देखने को मिल रहा है। पिछले कुछ सालों में स्कूल गर्मी, सर्दी या बारिश की तुलना में वायु प्रदूषण की वजह से ज्यादा बार बंद हुए हैं। साल 2016 से 2021 के बीच, दिल्ली के स्कूल वायु प्रदूषण की वजह से चार बार बंद हुए, जिससे 30 से ज्यादा स्कूल के दिन बर्बाद हो गए।
पहाड़ी राज्य उत्तराखंड के स्कूल अभी तक गर्म हवाओं से बचे हुए हैं। लेकिन बढ़ता तापमान कई लोगों को चिंता में डाल रहा है। राज्य में बारिश भी काफी हो रही है, जिससे भूस्खलन और अचानक बाढ़ आने की घटनाएं बढ़ी हैं।
साल 2023 में, 1 जून से 10 जुलाई तक, राज्य के 13 जिलों में कुल मिलाकर औसत बारिश 328.6 मिमी हुई, जो सामान्य बारिश 295.4 मिमी से 11 प्रतिशत ज्यादा है। राज्य के अलग-अलग हिस्सों में भारी बारिश की चेतावनी के कारण, 1 जुलाई से 15 सितंबर के बीच तीन अलग-अलग मौकों पर स्कूल कम से कम एक दिन के लिए बंद रहे।
उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल जिले के एक सरकारी प्राइमरी स्कूल के टीचर ने नाम न बताने की शर्त पर मोंगाबे इंडिया को बताया कि पिछले 10 सालों में बारिश के बदलते पैटर्न और तीव्रता ने कक्षाओं को प्रभावित किया है।
उन्होंने कहा, “पिछले एक दशक में हमने देखा है कि बारिश का आना बढ़ा है और काफी तीव्र बारिश हो रही है। बादल फटने की घटनाएं भी अधिक हुई हैं। बारिश के दौरान हमारे स्कूल लगभग 10 दिनों के लिए बंद रहते हैं और इससे सिलेबस पीछे रह जाता है। बारिश की वजह से स्कूलों तक पहुंचने का रास्ता भी प्रभावित होता है क्योंकि कुछ गांव भूस्खलन के कारण कट जाते हैं।”
राजस्थान का बाड़मेर भारत के सबसे अधिक जलवायु प्रभावित क्षेत्रों में से एक है। थार रेगिस्तान में बसा यह जिला, पाकिस्तान की सीमा से सटा है और तापमान में अत्यधिक उतार-चढ़ाव का गवाह है। शुष्क थार रेगिस्तान और रेतीली मिट्टी के कारण अलग-अलग मौसमों के तापमान में काफी तेजी से उतार-चढ़ाव आता है, जो तेजी से गर्म और ठंडा होता है। गर्मियों में तापमान 46 डिग्री सेल्सियस से 51 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है। सर्दियों में यह 0 डिग्री सेल्सियस तक गिर जाता है।

उदाराम सोलंकी बाड़मेर से 35 किलोमीटर दूर मातासर गांव के एक सरकारी प्राथमिक स्कूल में पढ़ाते हैं। उनके मुताबिक, लू और शीतलहर दोनों के कारण स्कूलों की छुट्टियों में बढ़ोतरी हुई है।
उन्होंने बताया, “पिछले कुछ सालों में बढ़ती गर्मी के कारण छुट्टियां हुई हैं। हालांकि बारिश के कारण ज्यादा छुट्टियां नहीं होती हैं, लेकिन पिछले कुछ सालों में ठंड के कारण भी छुट्टियों के दिन बढ़े हैं।”
वह आगे कहते हैं, “करीब एक दशक पहले बारिश के कारण कभी-कभार स्कूल बंद हुआ करते थे। लेकिन पिछले कुछ सालों से तो गर्मियों में तापमान चरम पर पहुंच रहा है तो सर्दियां भी कड़ाके की हो रही हैं, खासकर दिसंबर और जनवरी में। अब, हमारी सामान्य सर्दियों की छुट्टियों के बाद ठंड और ज्यादा हो जाती और हमें अतिरिक्त छुट्टियां देनी पड़ती हैं।”
अनौपचारिक छुट्टियां, पढ़ाई का नुकसान
जिला प्रशासन द्वारा घोषित छुट्टियों के अलावा, गर्मी और बारिश की स्थिति में स्कूलों में उपस्थिति में काफी गिरावट देखी जाती है। इसके कारण शिक्षकों को पढ़ाई को थोड़ा ब्रेक देना पड़ता है, ताकि अनुपस्थित छात्र पढ़ाई से न चूकें। इससे वास्तव में स्कूल का एक दिन बर्बाद हो जाता है। अगर शिक्षक पढ़ाई जारी रखते हैं, तो मौसम के कारण अनुपस्थित रहने वाले कक्षा के एक बड़ा हिस्से को पढ़ाई से वंचित रहना पड़ता है।
बिपिन धाने, असम में दुनिया के सबसे बड़े नदी द्वीप माजुली में हमिंगबर्ड स्कूल के संस्थापक हैं। धाने ने इस द्वीपीय जिले में शिक्षा की गुणवत्ता को निराशाजनक पाए जाने के बाद स्कूल की शुरुआत की थी।
धाने ने कहा, “औसतन बाढ़ या बाढ़ से जुड़ी घटनाओं के कारण हमारे लगभग दो हफ्ते से लेकर डेढ़ महीने तक के स्कूल के दिन बर्बाद हो जाते हैं। अब, बाढ़ के साथ-साथ बढ़ता तापमान भी एक बड़ी समस्या बन गया है। हमने पहले कभी ऐसी गर्मी नहीं देखी। पिछले दो साल बहुत मुश्किल रहे हैं। पिछले साल, जब बहुत ज्यादा गर्मी थी, तो हमें लगभग एक या दो हफ्ते की छुट्टी देनी पड़ी थी।”
उनके अनुसार, स्कूल में काफी ज्यादा छुट्टी हो जाने के कारण, शिक्षकों को सिलेबस जल्दी-जल्दी पूरा करना पड़ता है, लेकिन इस प्रक्रिया में कुछ छात्र पीछे छूट जाते हैं।
अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी की शास्वती पाइक और चिन्मयी गोगोई ने अपने रिसर्च आर्टिकल में असम और बिहार जैसे बाढ़ से प्रभावित राज्यों में स्कूली शिक्षा के नुकसान को उजागर किया है।
वे अपने लेख में लिखती हैं, “साल 2020 से, भारत और कई अन्य देश इस संकट (कोविड-19) से जूझ रहे हैं, और इसका कारण बच्चों के सीखने के स्तर में पहले से मौजूद समस्या है। महामारी एक नया संकट है, लेकिन स्कूल बंद होना, पढ़ाई में रुकावट आना, सीखने में अंतर बढ़ना और बच्चों के चुपचाप स्कूल से बाहर हो जाने के बारे में क्या कहा जाए? ये नई समस्याएं नहीं हैं। दुर्भाग्य से, बार-बार होने वाली ऐसी ही एक आम प्राकृतिक आपदा है बाढ़।”
लेख में कहा गया है, “अगर हम ऐसी प्राकृतिक आपदाओं के कारण स्कूल से बाहर रहने वाले बच्चों के स्कूल के दिनों की संख्या की गणना करें, तो बाढ़-प्रवण क्षेत्र में औसतन प्रति वर्ष प्रति बच्चे के लिए यह 1-2 महीने हो सकता है।”

जानलेवा गर्मी और एकाग्रता में कमी
माजुली के हमिंगबर्ड स्कूल को इस तरह बनाया गया है कि उसमें हवा आती रहे। फूस की छत है और गर्मी से बचने के लिए बहुत सारे पेड़ भी हैं। फिर भी, गर्मी के मौसम में छात्रों के लिए पढ़ाई पर ध्यान केंद्रित करना मुश्किल हो जाता है।
धाने ने कहा, “आमतौर पर सुबह 11 या दोपहर 2 बजे तक गर्मी असहनीय होती है। इस दौरान कई बार बच्चे एकाग्रता में कमी या समझ नहीं पाने की शिकायत करते हैं। तब शिक्षकों के पास बच्चों को सोने के लिए कुछ समय देने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता है। हमारे पास एक मेडिकल रूम है और ऐसे मामले भी आए हैं जब बच्चों को सोने के लिए कुछ समय दिया गया। लेकिन मेडिकल रूम भी इतना गर्म हो जाता है कि उसका इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है।”
उन्होंने आगे कहा, “छोटे बच्चों के लिए यह समय काफी मुश्किल है। हमारे कैंपस में बहुत सारे पेड़ और फूस की छतें हैं, जिससे गर्मी काफी हद तक रुक जाती है। लेकिन जिन स्कूलों में टिन की छतें हैं, वो भट्ठी की तरह तपने लगते हैं। आप अंदर भी नहीं जा सकते हैं।”
सोलंकी को भी गर्मियों में बाड़मेर में इसी तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। उन्होंने कहा, “हमारे स्कूल में पिछले 3-4 सालों पहले ही बिजली आई है। उससे पहले हम बच्चों को गर्मी में पढ़ाते थे। 47-48 डिग्री सेल्सियस तापमान में एक कमरे में लगभग 15-20 बच्चों को पढ़ाना बहुत मुश्किल होता है। ये छोटे बच्चे हैं जो गर्मी बर्दाश्त नहीं कर पाते।”
सोलंकी एक और समस्या का जिक्र करते हैं जिसका छात्रों और शिक्षकों को अक्सर रेगिस्तानी इलाकों में सामना करना पड़ता है – आने-जाने के दौरान भाषण गर्मी का सामना करना। उन्होंने कहा, “जब बच्चे दोपहर 1 बजे इस रेगिस्तानी इलाके में स्कूल से निकलते हैं, तो उन्हें भीषण गर्मी में घर तक अच्छी खासी दूरी तय करनी पड़ती है। इससे बहुत सारी समस्याएं होती हैं।”
उन्होंने आगे कहा, “मैंने खुद कई समस्याओं का सामना किया है। हम दोपहर 1 बजे निकलते हैं। इस समय आस-पास के रेत के टीलों से चलने वाली हवाएं त्वचा को जला सकती है। अगर लोग उचित सावधानी नहीं बरते, तो यह स्थिति जानलेवा हो सकती है।”
नीति पर नजर
भारत अक्सर अपनी जलवायु परिवर्तन कार्य योजनाओं को अपडेट करता रहता है और उसने ऊर्जा, टिकाऊ कृषि, उद्योग, जल प्रबंधन आदि जैसे क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित किया है। सरकार ने 2008 में जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना (NAPCC) शुरू की, जिसमें जलवायु परिवर्तन पर आठ राष्ट्रीय मिशनों की रूपरेखा दी गई थी, लेकिन इनमें से किसी भी मिशन ने शिक्षा पर ध्यान केंद्रित नहीं किया है।
जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन के लिए भारत के सेकंड नेशनल कम्यूनिकेशन में, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (2012) ने जागरूकता और कार्रवाई में अपनी भूमिका के साथ सात प्रमुख मंत्रालयों को सूचीबद्ध किया है, शिक्षा मंत्रालय इस सूची में नहीं है। इसी तरह, हालिया और थर्ड नेशनल कम्यूनिकेशन (2023) में भी शिक्षा के बारे में कुछ भी उल्लेख नहीं किया गया है।
देश ने 2020 में अपनी नई शिक्षा नीति, राष्ट्रीय शिक्षा नीति भी पेश की, लेकिन इस नीति में जलवायु परिवर्तन की वजह से शिक्षा क्षेत्र में आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए हैं।
सेंटर फॉर बजट एंड गवर्नेंस अकाउंटेबिलिटी (CBGA) में शोध प्रमुख (सामाजिक क्षेत्र) प्रोतिवा कुंडू ने कहा, “राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020, भविष्य के जलवायु संकटों को दूर करने के आंशिक समाधान के रूप में पाठ्यक्रम में पर्यावरण शिक्षा और अनुसंधान को मुख्यधारा में लाने का उल्लेख करती है, लेकिन शिक्षा पर जलवायु संबंधी जोखिमों के प्रभावों के बारे में चुप है। इसलिए, इस समय स्कूली शिक्षा के लिए जो भी कार्यक्रम/योजनाएं लागू की जा रही हैं, उनमें से अधिकांश जलवायु कार्य योजनाओं पर विचार नहीं करती हैं।”
कुंडू ने आगे कहा, “जलवायु परिवर्तन के कारण लू, बाढ़, सूखा, तूफान जैसी घटनाएं अब बार-बार हो रही हैं। हालांकि, जलवायु के प्रति संवेदनशील शिक्षा नीति के अभाव में, शिक्षा के लिए जलवायु कार्य योजनाएं स्कूल बंद करने या स्कूल के समय और घंटों में बदलाव करने या कक्षाओं को ऑनलाइन करने तक ही सीमित हैं।”
अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी में टीचिंग और रिसर्च फैकल्टी पाइक ने कहा, “जब कोई स्कूल किसी इलाके में बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों के लिए आश्रय बन जाता है, तो बच्चे स्कूल नहीं जा पाते। बाढ़ के बाद ऐसे बच्चों की पढ़ाई का जो नुकसान होता है, उसे दूर करने के लिए ज्यादा कुछ नहीं किया जाता। स्कूल का कैलेंडर बताता है कि कुछ बच्चे फेल हो गए, लेकिन फेल होने के कारणों का पता नहीं चलता या उन्हें नजरअंदाज कर दिया जाता है। बात सिर्फ नीति बनाने की नहीं है, बल्कि नीतियों को लागू करने, लोकल लेवल पर प्लानिंग करने और पंचायतों को अपने हिसाब से काम करने की आजादी देने की है।”
समाधान क्या है?
चूंकि देश के अलग-अलग क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन का प्रभाव एक जैसा नहीं है, इसलिए इससे प्रभावित लोगों को लगता है कि ‘वन साइज फिट्स ऑल’ नजरिया अपनाने के बजाय उनकी समस्याओं के अलग-अलग समाधान किए जाने चाहिए।
गुवाहाटी में मेधी ने सुझाव दिया कि असम में स्कूल सत्र की शुरुआत 15 दिन आगे बढ़ाई जा सकती है ताकि चरम गर्मी के एक हिस्से को गर्मी की छुट्टी के रूप में इस्तेमाल किया जा सके।
उन्होंने कहा, “असम में जुलाई और अगस्त में बहुत ज्यादा गर्मी होती है, अगर स्कूलों की शुरुआत जुलाई के आखिर से बदलकर अगस्त के बीच में कर दी जाए, तो इससे छात्रों के साथ-साथ शिक्षकों को भी मदद मिलेगी। छात्रों के लिए गर्मी में ध्यान केंद्रित करना बेहद मुश्किल हो जाता है क्योंकि उन्हें घर पर भी बहुत सारी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। वे गरीब परिवारों से आते हैं जहां 14-15 लोग सिर्फ एक कमरे में रहते हैं।” वह इस बात से भी सहमत हैं कि स्कूल के दिनों के बार-बार होने वाले नुकसान को ध्यान में रखते हुए वर्तमान सिलेबस पर फिर से विचार किया जाना चाहिए।
हालांकि, धाने इस समाधान से सहमत नहीं हैं क्योंकि इससे छात्रों के बुनियादी पाठ छूट जाएंगे और उन्हें बड़ी कक्षाओं में इन्हें सीखना पड़ेगा।
धाने ने कहा, “मैं सिलेबस को छोटा करने से पूरी तरह सहमत नहीं हूं। हमने कोविड के दौरान सिलेबस कम किया था, लेकिन यह फिर से बच्चे के लिए नुकसान ही है। ऐसा नहीं है कि बच्चे का उद्देश्य सिर्फ कक्षा 9 या 10 पास करना है, उन्हें आगे की पढ़ाई भी करनी है जहां सिलेबस कम नहीं किया जाएगा। इसलिए अगर आप कुछ अध्याय कम करते हैं लेकिन वह फिर से बड़ी कक्षाओं में आने वाला है, तो यहां बच्चों को समस्या आएगी। इसलिए मुझे लगता है कि यह एक अच्छा समाधान नहीं है।”
हलीम के सहयोगी जहीर अली अहमद ने सुझाव दिया कि असम में चारों (नदी द्वीपों) के बच्चों के लिए एक आवासीय विद्यालय बहुत सारे मुद्दों को ठीक कर सकता है और बच्चे बार-बार बाढ़ और स्कूलों को स्थानांतरित करने से निपटे बिना पढ़ाई कर सकते हैं।

नीति के स्तर पर, कुंडू ने सुझाव दिया, “सबसे पहले तो सरकार को ऐसे स्कूल बनाने में पैसे लगाने चाहिए जो मौसम की मार झेल सकें, ताकि बच्चों की पढ़ाई में जो फर्क आ रहा है, उसे कम किया जा सके। हर राज्य में ऐसे स्कूल बनाने के लिए गाइडलाइन बननी चाहिए। ऐसा नहीं है कि ये काम एक बार पैसे लगाने से हो जाएगा, इसमें बार-बार खर्च करना पड़ेगा, इसलिए ये जरूरी है कि पढ़ाई की योजना बनाते और बजट बनाते समय इस बात का ध्यान रखा जाए कि मौसम के हिसाब से क्या जरूरी है, ताकि पढ़ाई हमेशा चलती रहे और सबको पढ़ने का मौका मिले।”
पाइक ने कहा, “भारत में शिक्षा समवर्ती सूची में आती है। राज्यों में अलग-अलग जलवायु क्षेत्र हैं और बाढ़, चक्रवात, सूखा आदि जैसी अधिकांश मौसमी आपदाओं का एक मौसमी पैटर्न होता है। ऐसी आपदाओं के लिए, राज्य अलग-अलग शैक्षणिक कैलेंडर की योजना बना सकते हैं ताकि संभावित आपदाओं के मौसम के दौरान, बच्चों के स्कूल के दिन बर्बाद न हों।”
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 27 सितंबर 2024 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: खेल के मैदान में खेलते कुछ स्कूली बच्चे। भारत ने 2020 में अपनी नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति पेश की, लेकिन इस नीति में जलवायु परिवर्तन के कारण शिक्षा क्षेत्र में आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाएं है। तस्वीर- शैलेष श्रीवास्तव