- तमिलनाडु के कोल्ली हिल्स में मोटा अनाज उगाने वाले ज्यादातर किसानों का मानना है कि जलवायु परिवर्तन से खेती के सभी कामों पर असर होता है। सर्वे के मुताबिक बार-बार आने वाले सूखे से पैदावार घट रही है।
- जानकार कहते हैं कि मोटे अनाज को बढ़ावा देने वाली योजनाएं अनजाने में पसंदीदा किस्मों को लेकर एकरूपता ला सकती हैं।
- कोल्ली हिल्स में लंबी अवधि तक किए गए अध्ययन में पता चला कि फसलों की कटाई के बाद सहायता और बीजों को संरक्षित करने से इस खेती को बनाए रखने में मदद मिली, क्योंकि मोटे अनाज की विविधता मौसम में होने वाले बदलावों के अनुकूल है।
तमिलनाडु के नमक्कल जिले का पहाड़ी इलाका कोल्ली हिल्स समुद्र तल से 1,200 मीटर की ऊंचाई पर है। यह इलाका मोटे अनाज की खेती का गढ़ है। यहां की पहाड़ियों पर रहने वाले मलायाली आदिवसी समुदाय पीढ़ियों से अलग-अलग तरह के मोटे अनाजों की खेती करते आ रहे हैं। लेकिन, जलवायु परिवर्तन ने खेती में चुनौतियां बढ़ा दी हैं और इससे होने वाले दुष्प्रभावों पर ध्यान नहीं दिया गया है।
भारत ने साल 2023 में मोटे अनाज के लिए मिशन शुरू किया था। इसका मकसद देशभर में मोटे अनाज को लेकर जागरूकता पैदा करके पैदावार और उपभोग बढ़ाना था। तमिलनाडु जैसे राज्यों ने इसका फायदा उठाया। राज्य ने ऐसी योजनाएं शुरू की जिनमें सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिए मोटा अनाज बांटा गया। साथ ही, महीने दाने वाले मोटे अनाज की प्रोसेसिंग पर सब्सिडी की पेशकश की गई।
हालांकि, एम. एस. स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन (एमएसएसआरएफ) में जैव-विविधता के निदेशक इजराइल ओलिवर किंग ई.डी. ने कहा कि ये योजनाएं कोल्ली हिल्स जैसी जगहों पर मोटा अनाज उगाने वाले किसानों के लिए हमेशा सही नहीं होती हैं। किंग कहते हैं, “उस कृषि पारिस्थितिकी का सम्मान किया जाना चाहिए, जहां आदिवासी समुदाय कम लोकप्रिय किस्मों के साथ अलग-अलग तरह का मोटा अनाज उगा रहे हैं। इसे प्रोत्साहन भी दिया जाना चाहिए। मिशन-आधारित योजनाओं से लोकप्रिय किस्मों को पसंद किए जाने का जोखिम है।” वह आगे कहते हैं, “मोटे अनाज की अतिरिक्त पैदावार को खरीदना जरूरी करने या प्रोसेसिंग सुविधाओं तक पहुंच में से किसी एक को प्रोत्साहन देने से फसलों की विविधता और लचीलेपन को बनाए रखने में मदद मिलेगी।”
मोटे अनाज ने जलवायु के हिसाब से लचीलापन दिखाने की उपलब्धि हासिल की है। मौसम में हो रहे बदलाव से मोटे अनाज की बुआई और कटाई में चुनौतियां बढ़ गई हैं। कोल्ली हिल्स में मोटे अनाज उगाने वाले किसानों का सर्वेक्षण किया गया था। इस अध्ययन को हाल ही में फ्रंटियर्स इन क्लाइमेट में प्रकाशित में किया गया। इसमें पाया गया कि मौसम के बदलते पैटर्न के दुष्प्रभाव समुदाय में महसूस किए जा सकते हैं और फसल की उत्पादकता पर नकारात्मक प्रभाव डाल रहे हैं।

मोटा अनाज और जलवायु
कोल्ली हिल्स 440 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। इस इलाके में मलयाली समूह के आदिवासियों की तादाद सबसे ज्यादा है। स्थानीय व्यंजनों और खेती में मोटे अनाज की भूमिका अहम है। यहां पैदावार का ज्यादातर इस्तेमाल खुद के खाने के लिए होता है। बचे हुए मोटे अनाज को बाजार में बेचा जाता है।
अध्ययन में क्षेत्र के उन 125 किसानों का सर्वेक्षण किया गया जो मोटा अनाज उगाते हैं। यह अध्ययन भारतीय श्री अन्न अनुसंधान संस्थान (भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद) और एमएसएसआरएफ की ओर से मिलकर किया गया। इसके जरिए यह समझने की कोशिश की गई कि “सामाजिक-आर्थिक, निजी और कृषि संबंधी कारक आदिवासी किसानों की जलवायु परिवर्तन को लेकर सोच और इस हिसाब से ढलने की उनकी रणनीतियों को किस तरह तय करते हैं।”
अध्ययन के लिए साल 2011 से 2023 तक एकत्र किए गए मौसम संबंधी आंकड़ों से पता चलता है कि सालाना औसत बारिश 870 मिमी और 1,200 मिमी के बीच में उतार-चढ़ाव दिखाती है। यह खेती के लिए बड़े बदलाव के बारे में बताती है, जो पूरी तरह बारिश पर निर्भर है। अध्ययन से पता चला कि साल 2022 और 2023 में औसत तापमान 29 डिग्री सेल्सियस से ऊपर जाने के बाद प्रति हेक्टेयर पैदावार दो टन से नीचे आ गई।
सर्वेक्षण में शामिल ज्यादातर किसानों का मानना था कि जलवायु परिवर्तन से खेती के सभी कामों पर असर हो रहा है। खास तौर पर जल्दी-जल्दी पड़ने वाले सूखे से पैदावार घट रही थी। यह भी पता चला कि कम संसाधन वाले किसानों की स्थिति और बदतर थी। जिन किसानों (78%) से बातचीत की गई, उनमें से ज्यादातर के पास 1.5 हेक्टेयर से कम जमीन थी। वहीं 16 फीसदी के पास 1.6 एकड़ से 3 एकड़ तक जमीन थी। अध्ययन में पाया गया कि पैसा, जमीन और उपकरण जैसे संसाधनों से लैस किसानों की तुलना में गरीब किसानों पर इसका ज्यादा असर हुआ।
घरेलू सर्वेक्षण के मुताबिक जलवायु परिवर्तन का सबसे सीधा दुषप्रभाव गर्मियों की अवधि का लंबा होना, ठंड के दिनों का कम होना, गर्मी और ठंड का मौसम शुरू होने के समय में बदलाव और सालाना आधार पर बारिश के दिनों की संख्या कम होना था। अध्ययन की अगुवाई करने वाले और आईसीएआर-भारतीय श्री अन्न अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिक राजेंद्र चापके ने कहा,“इसके जवाब में किसान कभी-कभी चेना या कंगनी जैसे मोटे अनाज की खेती करने लगे थे, जिन्हें तैयार होने में 70 दिन लगते हैं। वहीं रागी और कुटकी को तैयार होने में 100 से 120 दिन लगते हैं।“
यहां ज्यादातर घरों में शिक्षा का स्तर कम था। वहीं, 66% घरों में स्मार्टफोन था। अधिकतर घरों ने किसान सहकारी समतियों और अन्य संस्थाओं से जुड़े होने की बात कही जिससे उन्हें खेती के बारे में जानकारी मिलती है। चापके ने कहा, “इन नेटवर्क के जरिए जनसंचार माध्यमों का फायदा उठाना जलवायु के दुष्प्रभावों को बताने का असरदार संसाधन हो सकता है। इससे उपज में होने वाले नुकसान को कम करने के लिए खेती के तरीकों में सुधार करने में भी मदद मिल सकती है। साथ ही, फसल बीमा के रूप में सरकारी मदद की भी जरूरत है।”

मोटे अनाज की विविधता का फायदा उठाना
कोल्ली हिल्स को मोटे अनाज की खेती का गढ़ माना जाता है। लेकिन, साल-दर-साल मोटे अनाज का रकबा घटा है और साबूदाना जैसी अन्य नकदी फसलों का रकबा बढ़ा है। एमएसएसआरएफ ने 1990 के दशक से कोल्ली हिल्स में मोटे अनाज को नया जीवनदान देने के लिए काम करना और मोटे अनाज की खेती और खपत को बढ़ावा देने वाले कारकों का अध्ययन शुरू किया।
अध्ययन के 20 से ज्यादा सालों के दौरान किंग की अगुवाई में शोधकर्ताओं ने पाया कि मिल और प्रोसेसिंग के लिए उपकरण मुहैया कराने और उत्पादन और बीज संरक्षण का विकेंद्रीकरण करने से मोटे अनाज की खेती को बचाए रखने में मदद मिली। एमएसएसआरएफ के किंग ने कहा, “इन क्षेत्रों में मोटे अनाज की विविधता अहम है, क्योंकि इससे मौसम में बदलाव से पार पाने में मदद मिलती है।” अगर बोने का समय लेट हो जाता है या जल्दी आ जाता है, तो किसानों के पास अपने पसंदीदा मोटे अनाज की खेती करने का विकल्प होता है। “लेकिन, ऐसा करने के लिए उनके पास बीज होने चाहिए, ताकि विकल्प उपलब्ध हो सकें। लेकिन, कई सारी जगहों पर, कम दिनों में तैयार होने वाले महीन दाने वाले मोटे अनाज की खेती खत्म हो रही है।”
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मोटे अनाज में मुख्य तौर पर ज्वार, बाजरा और रागी शामिल हैं। वहीं कुटकी, कंगनी, चेना, सामवा, कोद्र महीन दाने वाले मोटे अनाज हैं। तमिलनाडु मे साल 2011 से 2022 तक मोटे अनाज की खेती के रुझान बताते हैं कि ज्वार की खेती का रकबा सबसे ज्यादा बढ़ा है। इसके बाद बाजरा का स्थान रहा। दूसरी तरफ, महीने दाने वाले मोटे अनाज का रकबा घट गया।
धन फाउंडेशन के स्मॉल मिलेट फाउंडेशन के पूर्व मुख्य कार्यकारी अधिकारी एम कार्तिकेयन ने माना कि महीन दाने वाले मोटे अनाज के लिए ज्यादा नीतिगत मदद की जरूरत थी। उन्होंने कहा, “रागी को पसंद किया जाता है, क्योंकि इसके लिए सबके कम प्रसंस्करण चाहिए। इसमें सिर्फ एक परत होती है। महीने दाने वाले दूसरे मोटे अनाज में एक परत और होती है जिनके लिए कटाई के बाद ज्यादा प्रसंस्करण चाहिए। इन परतों को हटाना पारंपरिक कौशल है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी खत्म हो रहा है। अगर किसानों के पास प्रसंस्करण की सुविधाएं नहीं हैं, तो वे इन किस्मों को बोना पसंद नहीं करते हैं।“ कार्तिकेयन, आईसीएआर-आईआईएमआर या एमएसएसआरएफ के अध्ययनों में शामिल नहीं थे।
कोल्ली हिल्स में एमएसएसआरएफ ने जो पहलें की हैं उनमें समुदाय आधारित बीज बैंक शामिल हैं जिसमें अलग-अलग तरह के मोटे अनाज के बीज रखे जाते हैं। साल 2022 तक, 15 में से 12 बीज बैंक काम कर रहे थे जिसमें हर साल हजारों लेन-देन होते थे। इससे पता चलता है कि लोगों में इन अनाज को उगाने को लेकर दिलचस्पी है। एमएसएसआरएफ के 20 साल के अध्ययन में पाया गया कि मोटे अनाज के प्रबंधन में महिलाएं मुख्य भूमिका में होती हैं और छोटे स्तर की प्रसंस्करण इकाइयां देने से उनकी मेहनत कम हुई है।
किंग ने कहा कि बीज संरक्षण, प्रसंस्करण की सुविधा और मददगार प्रोत्साहनों से महीन दाने वाले मोटे अनाज की खेती को बनाए रखने और आगे बढ़ाने में मदद मिल सकती है। “अगर मिशन योजनाओं के जरिए एक तरह के मोटे अनाज की खेती को बढ़ावा दिया जाता है, तो मिशन या योजना के उन क्षेत्रों से बाहर चले जाने पर क्या होगा? जब मौसम का दुष्प्रभाव बहुत ज्यादा होता है तो बड़ी किस्म की खेती बर्बाद हो सकती है। बीजों की विविधता होना लचीलापन है।”
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 26 फरवरी, 2025 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: तेलंगाना में रागी का खेत। लंबे होते गर्मी के मौसम और ठंड के कम होते दिनों जैसे जलवायु के दुष्प्रभाव तमिलनाडु के किसानों को रागी जैसी लंबी अवधि के मोटे अनाज से चेना या कंगनी जैसे कम अवधि में तैयार होने वाले मोटे अनाज की ओर जाने के लिए मजबूर कर रहे हैं। विकिमीडिया कॉमन्स (CC BY-SA 4.0) के जरिए कावली चंद्रकांत KCK की तस्वीर।