- प्रदूषण, शहरीकरण, आवास विखंडन और बढ़ता मानव-पशु संघर्ष, मगरमच्छों में शारीरिक तनाव का कारण बन सकता है।
- एक नए अध्ययन में वडोदरा के अत्यधिक अशांत आवास और तुलनात्मक रूप से शांत चरोतर, गुजरात में स्वतंत्र रूप से घूमने वाले मगरमच्छों की शारीरिक प्रतिक्रियाओं को देखा गया, जिससे, विभिन्न पर्यावरणीय परिस्थितियों में, उनके तनाव स्तर और प्रतिक्रियाओं को समझा जा सके।
- जलीय पारिस्थितिकी तंत्र को स्वस्थ बनाए रखने के लिए मगरमच्छ महत्वपूर्ण हैं एवं उनके तनाव प्रतिक्रियाओं और पारिस्थितिक अनुकूलनों को समझना उनके लिए प्रभावी संरक्षण रणनीति बनाने में मददगार हो सकता है।
भारत में हुए एक नए शोध से पता चलता है कि रिहायशी इलाकों के आसपास रहने वाले मगरमच्छों (मगर) में तनाव का स्तर, कम रिहायशी या उनके लिए कम संघर्षपूर्ण इलाकों में रहने वाले मगरमच्छों की तुलना में काफी अधिक होता है।
अध्ययन में वडोदरा में मगरमच्छों में तनाव के स्तर की तुलना वहां से लगभग 45 किलोमीटर दूर स्थित चरोतर के ग्रामीण क्षेत्र के मगरमच्छों से की गई। वडोदरा में जहां लोगों और मगरमच्छों में संघर्ष बहुत अधिक देखने को मिलता है, वहीं चरोतर क्षेत्र में मगरमच्छों की मौजूदगी के प्रति लोगों में अधिक सहनशीलता है। अध्ययन यह बताता है कि मगरमच्छों में शारीरिक प्रतिक्रियाएँ उनकी रहने की जगह के अनुसार अलग-अलग होती हैं, और यह अंतर स्थानीय पर्यावरण में पारिस्थितिक कारकों के कारण तात्कालिक हो सकता है।
वडोदरा और ग्रामीण चरोतर क्षेत्र, मगरमच्छों के लिए, एक दूसरे से बिल्कुल अलग हैं। वडोदरा में प्रदूषित विश्वामित्री नदी, और मिश्रित शहरी और ग्रामीण परिस्थितियां हैं, वहीं चरोतर में मगर स्वच्छ तालाबों में रहते हैं और लोग उन्हें पवित्र जीवों के रूप में पूजते हैं। इस अंतर ने विभिन्न पर्यावरणीय परिस्थितियों में मगरमच्छों में शारीरिक तनाव के प्रति प्रतिक्रियाओं का अध्ययन करने के लिए एक आदर्श व्यवस्था प्रदान की।
इस अध्ययन में वन्यजीवों पर मानवीय गतिविधियों और पर्यावरणीय परिस्थितियों के प्रभाव पर प्रकाश डाला गया है, तथा संरक्षण के अनुरूप रणनीति बनाने की आवश्यकता पर जोर दिया गया है। अहमदाबाद विश्वविद्यालय और मद्रास क्रोकोडाइल बैंक ट्रस्ट के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए इस अध्ययन में बताया गया है कि शारीरिक तनाव वन्यजीवों के लिए हानिकारक हो सकता है। पूर्व अध्ययनों से पता चलता है कि दीर्घकालिक तनाव जीवों में प्रजनन और प्रतिरक्षा प्रणाली को प्रभावित कर सकता है। तनाव के अध्ययन से यह समझने में मदद मिलती है कि किसी विशेष परिस्थिति में प्रजाति खतरे में है या नहीं और इस तरह के शोध से संरक्षण कार्यों की बेहतर जानकारी मिल सकती है।
अहमदाबाद विश्वविद्यालय के जैविक और जीवन विज्ञान प्रभाग की एसोसिएट प्रोफेसर और अध्ययन के लेखकों में से एक रत्ना घोषाल कहती हैं, “भारत में, बहुत सारे जीव आवास प्रदूषण, आवास विखंडन, शहरीकरण और बढ़ते मानव-वन्यजीव संघर्ष जैसे खतरों से ग्रस्त हैं। ये चुनौतियां वन्यजीवों के स्वास्थ्य को बहुत प्रभावित करती हैं, जिससे पर्यावरण अत्यधिक अस्थिर हो जाता है। इसलिए, प्रभावी पारिस्थितिकी और प्रबंधन रणनीतियों का आकलन और कार्यान्वयन महत्वपूर्ण है, खासकर मगरमच्छ जैसी प्रजातियों के लिए जो मानव आबादी के करीब रहते हैं।”

संघर्ष का कारण
मगर मगरमच्छ (क्रोकोडाइलस पलुस्ट्रिस), भारत भर में विभिन्न आवासों में पाई जाने वाली मीठे पानी की एक प्रजाति है। इसे IUCN रेड लिस्ट में असुरक्षित के रूप में वर्गीकृत किया गया है तथा इसे भारतीय वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 की पहली अनुसूची द्वारा संरक्षित किया गया है। मगरमच्छ अपने जलीय पारिस्थितिकी तंत्र और खाद्य श्रृंखला में शीर्ष पर हैं और इसी कारण यह उनके आवास के ठीक होने के महत्वपूर्ण संकेतक हैं। वे मछलियों, उभयचरों, पक्षियों और छोटे स्तनधारियों का शिकार करते हैं, इस प्रकार खाद्य श्रृंखला को बनाए रखने, बीमारियों को नियंत्रित करने और पोषक चक्रण में योगदान करने में मदद करते हैं।
साल 2008 और 2013 के बीच हुए एक अध्ययन के अनुसार, मगर मगरमच्छ, खारे पानी के मगरमच्छ और नील मगरमच्छ (क्रोकोडाइलस निलोटिकस) के बाद, इंसानों पर हमला करने में विश्व में तीसरे स्थान पर आते हैं। भारत में, पिछले दो दशकों में इस तरह के हमलों में पांच गुना वृद्धि हुई है। साल 2001 और 2010 के बीच मगर के इंसानों पर हमलों की घटनाएं 57 से बढ़कर 2011 और 2020 के बीच 338 हो गई है।
वडोदरा क्षेत्र, विशेषकर विश्वामित्री नदी के आसपास का क्षेत्र, मगरों की बड़ी आबादी के कारण इन हमलों का केंद्र है।
घोषाल कहते हैं, “मगर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का अध्ययन करने के लिए एक मॉडल के रूप में काम करते हैं। उनके पारिस्थितिक महत्व के बावजूद, मवेशियों और मनुष्यों के लिए उनके संभावित खतरे के कारण उन्हें अक्सर नकारात्मक रूप से देखा जाता है। यह धारणा पारिस्थितिकी तंत्र में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका को कमज़ोर करती है और संरक्षण प्रयासों की आवश्यकता को उजागर करती है।”
वन्यजीव जीवविज्ञानी तनुज सिंह एक दशक से गुजरात में मगरमच्छों का अध्ययन कर रहे हैं और इस अध्ययन से जुड़े नहीं हैं। वे बताते हैं, “नहाने, मछली पकड़ने और नाव चलाने जैसी मानवीय गतिविधियाँ अक्सर लोगों को मगरमच्छों के पास लाती हैं। इसके आलावा मगरमच्छों को खुले धूप सेंकने वाले क्षेत्रों की आवश्यकता होती है, इसी जगह के उपयोग के लिए उनका इंसानों के साथ संघर्ष होता है। प्रजनन के मौसम के दौरान जब मगरमच्छ आक्रामक रूप से अपने घोंसलों और बच्चों की रक्षा करते हैं तब अक्सर यह हमले तेज हो जाते हैं। इस तरह का मानव-मगरमच्छ संघर्ष दुनिया भर में आम है। लेकिन, साथ ही, चरोतर जैसे कुछ आवास बड़े सरीसृपों की महत्वपूर्ण आबादी के साथ शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व दिखाते हैं।”

विपरीतताओं का एक अध्ययन
शोधकर्ताओं ने सभी क्षेत्रों से प्रजनन (107 नमूने) और गैर-प्रजनन (22 नमूने) दोनों मौसमों के दौरान फ़िकल ग्लूकोकोर्टिकॉइड मेटाबोलाइट्स (fGCM) को मापने के लिए मगर के मल के नमूने एकत्र किए। fGCM का मापन जानवरों में तनाव को मापने के लिए एक लोकप्रिय गैर-आक्रामक तरीका है। इस अध्ययन में, fGCM परीक्षण कि पुष्टि करने के लिए पकडे गए मगरों का उपयोग किया गया था।
परिणामों से पता चला कि मगरों के पकड़े जाने से पहले से लेकर पकड़े जाने के बाद तक fGCM के स्तर में 11 गुना वृद्धि हुई। वडोदरा के मगरों (शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में) में प्रजनन और गैर-प्रजनन दोनों मौसमों के दौरान चरोतर की तुलना में fGCM का स्तर काफी अधिक था। यह स्तर उच्च तनाव स्तरों की तरफ इशारा करता है, जो संभवतः प्रदूषण और मानव-वन्यजीव संघर्ष के कारण है। इस अध्ययन का उद्देश्य यह भी निर्धारित करना है कि क्या ये उच्च तनाव स्तर उनके स्वास्थ्य के लिए अनुकूल या हानिकारक है।
घोषाल बताते हैं, “अपेक्षाओं के विपरीत, प्रजनन और गैर-प्रजनन मौसमों के बीच तनाव के स्तर में कोई महत्वपूर्ण अंतर नहीं था। इसके अतिरिक्त, कैद में रहने वाले मगरमच्छों में चरोतर के मगरमच्छों के समान तनाव का स्तर दिखा, जिससे पता चलता है कि लंबे समय तक कैद में रहना शायद उतना तनावपूर्ण न हो जितना पहले सोचा गया था। संभवतः इसका कारण नियमित निगरानी और बाड़े की स्थितियों के प्रति उनका अनुकूलन हो सकता है।”

अधिक शोध की आवश्यकता
इस अध्ययन ने बताया कि मगरमच्छों की शारीरिक प्रतिक्रियाएँ, शायद विभिन्न पारिस्थितिक स्थितियों के कारण, उनके निवास स्थान के अनुसार अलग होती हैं, जैसा कि fGCM स्तरों द्वारा आकलित किया गया है। वडोदरा में साल भर देखा गया fGCM का उच्च स्तर दीर्घकालिक तनाव का संकेत देता है। चूँकि यह शोध संभवतः स्वतंत्र रूप से विचरण करने वाले मगरमच्छों में fGCM के स्तर की पहली गैर-आक्रामक निगरानी है, इसलिए यह इस बात पर ज़ोर देता है कि आगे और अध्ययनों की आवश्यकता है ताकि यह पता लगाया जा सके कि वडोदरा में fGCM का बढ़ा हुआ स्तर दीर्घकालिक तनाव का संकेत है या अनुकूली लक्षण का।
अध्ययन में कहा गया है, “तनाव हार्मोन या ग्लुकोकौरटिकौडस (जीसी) शरीर में चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों से निपटने के लिए ऊर्जा जुटाने के लिए निकलते हैं और इस प्रकार वे प्रकृति में अनुकूल होते हैं।”
घोषाल बताते हैं, “वडोदरा का प्रदूषित और संघर्ष भरा वातावरण, शांत चरोतर क्षेत्र की तुलना में मगरों में अधिक तनाव पैदा करता है। हालांकि उच्च तनाव अक्सर स्वास्थ्य समस्याओं का संकेत देता है, लेकिन यह कठिन परिस्थितियों के लिए अनुकूलन भी हो सकता है।”
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भारत में जलीय पारिस्थितिकी तंत्र को स्वस्थ बनाए रखने के लिए मगरमच्छ बहुत महत्वपूर्ण हैं। उनकी तनाव प्रतिक्रियाओं और पारिस्थितिक अनुकूलन को समझना प्रभावी संरक्षण रणनीतियां, जो उनके जीवित रहने और बेहतरी को सुनिश्चित कर सके, बनाने में मदद कर सकता है।
“संरक्षण प्रयासों को स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार अनुकूलित किया जाना चाहिए, न कि सभी के लिए एक ही दृष्टिकोण लागू करना चाहिए। भविष्य के शोध में यह पता लगाना चाहिए कि मगर विभिन्न आवासों के लिए कैसे अनुकूल होते हैं। मगरों के पारिस्थितिक महत्व के बारे में सार्वजनिक शिक्षा और सुरक्षित प्रथाओं को बढ़ावा देने से भी संघर्ष कम हो सकते हैं और संरक्षण प्रयासों को बढ़ावा मिल सकता है,” सिंह ने निष्कर्ष निकाला।
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 12 अगस्त 2024 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: ग्रामीण चरोतर क्षेत्र में मगर स्वच्छ तालाबों में रहते हैं और उन्हें पवित्र जीवों के रूप में पूजा जाता है। तस्वीर: तथागत भौमिक द्वारा।