- लेप्चा समुदाय पारंपरिक रूप से प्रकृति के साथ तालमेल बिठाकर रहता आया है, लेकिन जलावन पर बढ़ती निर्भरता संरक्षण कोशिशों के लिए चुनौतियां पैदा करती है।
- खाना पकाने के लिए उन्नत चूल्हे या बेहतर बनाए गए चूल्हे, जलावन पर निर्भरता कम करते हैं, घर के अंदर हवा की गुणवत्ता में सुधार करते हैं और पारंपरिक जीवनशैली में बाधा डाले बिना संरक्षण के लक्ष्यों के साथ जुड़ते हैं।
- इन चूल्हों को अपनाने से समुदाय नेओरा घाटी और इसकी जैव-विविधता को बचाने में मदद करता है। इससे स्वास्थ्य और टिकाऊपन भी बढ़ाता है।
- इस लेख में दिए गए विचार लेखक के अपने हैं।
पूर्वी हिमालय की तलहटी में बसा भारत के कलिम्पोंग जिले का लेप्चा समुदाय उन स्थानीय समूहों में शामिल है जो अपनी खास संस्कृति, भाषा और प्रकृति में रची-बसी जीवनशैली के लिए जाने जाते हैं। ‘रोंगकूप रमकूप’ या ‘ईश्वर के प्रिय लोग’ के रूप में मशहूर लेप्चा प्रकृति के साथ गहरा रिश्ता बनाए हुए हैं। वे इसे पवित्र काम के तौर पर देखते हैं। हालांकि, उन्हें वनों की कटाई और जंगल के संसाधनों पर निर्भरता सहित आधुनिक पर्यावरण संबंधी और सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। वन्यजीवों के आवासों के संरक्षण के साथ ही उनके जंगलों और उनकी सांस्कृतिक परंपराओं को संतुलित करने के लिए व्यावहारिक विकल्पों की तुरंत जरूरत है।
लेप्चा लंबे समय से पश्चिम बंगाल के कलिम्पोंग जिले में निवास करते रहे हैं। वे सदियों से प्रकृति के साथ तालमेल बनाकर रह रहे हैं और पारंपरिक खेती, हस्तशिल्प का काम करते हैं। साथ ही, जंगल के संसाधनों का जिम्मेदारी से इस्तेमाल करते रहे हैं। कलिम्पोंग की समृद्ध वनस्पति और जीव-जंतु, अनुकूल जलवायु के साथ मिलकर खास तरह का पारिस्थितिकी तंत्र बनाने में मदद करते हैं, जिस पर लेप्चा समुदाय निर्भर है। लेकिन, जिस तरह प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भरता लगातार बढ़ती जा रही है, उससे जंगलों पर दवाब भी बढ़ रहा है। सांस्कृतिक परिदृश्य भी बदल रहा है। युवा पीढ़ी को कभी-कभी पारंपरिक प्रथाओं और आधुनिक जरूरतों के बीच तालमेल बिठाना चुनौतीपूर्ण लगता है।
तागाथांग कालिम्पोंग का छोटा-सा गांव है। यह पारंपरिक लेप्चा जीवनशैली का प्रतीक है। यहां लोग आधुनिकता के साथ-साथ सदियों पुरानी परंपराओं का पालन करते हुए प्रकृति के साथ तालमेल बिठाकर रहते हैं। यह गांव नेओरा घाटी राष्ट्रीय उद्यान के किनारे स्थित है। यहां एक साथ रहने वाले कई परिवारों के घर हैं। ये परिवार खाना पकाने के लिए मुख्य रूप से जलावन पर निर्भर हैं। हालांकि, समुदाय में संरक्षण के बारे में जागरूकता बढ़ती जा रही है। अब समुदाय ऐसे विकल्पों की जरूरतों को पहचान रहा है जो जंगल पर उनकी निर्भरता को कम कर सकते हैं।

लेप्चा समुदाय का पारंपरिक घर या ‘का-डेन-मो-ली‘ को आम तौर पर पत्थर, मिट्टी, लकड़ी और बांस की मदद से बनाया जाता है। ‘का-डेन-मो-ली’ का निर्माण शुरू करने से पहले गांव के ओझा, ‘बूनथिंग’ या ‘मुन’ अनुष्ठान किया। इसमें घर बनाने के लिए प्रकृति से अनुमति मांगी जाती है। इसके बाद जिम्मेदारी राजमिस्त्री और बढ़ई को सौंप दी गई। अनुष्ठान के बाद, ओझा ने कुछ कीमती धातुएं और पत्थर जमीन पर रख दिए और फिर नींव या ‘लोंग-चुक‘ रखी गई। नींव के पत्थरों के ऊपर बड़े-बड़े, हाथ से नक्काशी किए गए लकड़ी के खंभे या ‘काओ-दंफू’ लगाए गए और उन पर बांस या लकड़ी के घर बनाए गए। कई जानकार अब भी कहते हैं कि घर बनाने का यह तरीका इन्हें भूकंपरोधी बनाता है। यहां तक कि जलरोधी छतें भी बांस की पट्टियों या ‘पो-युंग-बोक’ के इस्तेमाल से बनाई गई थीं।
टिकाऊ विकल्प के रूप में बेहतर चूल्हा
तागाथांग में डब्ल्यूडब्ल्यूएफ इंडिया ने खाना पकाने के लिए बेहतर बनाए गए चूल्हे (आईसीएस) की पहल शुरू की है। इसने लकड़ी पर गांव वालों की निर्भरता तो कम की ही है, खाना पकाने का साफ-सुथरा, कुशल तरीका भी मुहैया कराया है। आईसीएस खासौ तौर पर तागाथांग में लाभदायक है, जहां परिवार अक्सर छोटे पारंपरिक घरों में रहते हैं। इससे जलावन से निकलने वाला धुआं सेहत के लिए खतरनाक है। आईसीएस टिकाऊ समाधान पेश करता है, जिससे बेहतर स्वास्थ्य को बढ़ावा देने में मदद मिल रही है। साथ ही, इससे गांव के आस-पास जंगलों की कटाई रोकने में मदद मिलती है।
समुदायों को अपने सदियों पुराने भरोसेमंद पारंपरिक चूल्हे से हटकर नई तकनीक अपनाने और स्वीकार करने के लिए कई कारकों पर विचार करने की जरूरत थी। रख-रखाव में आसानी, सामग्री की उपलब्धता, बनाने में लगने वाला समय और इसमें लगने वाला श्रम ऐसे अतिरिक्त कारक हैं जो नई तकनीक के प्रति किसी समुदाय की पसंद और स्वीकार्यता को तय करते हैं।
आईसीएस गर्म हवा की ऊपर की ओर गति का इस्तेमाल करता है। अपने डिजाइन में सिद्धांत के तौर पर ज्यादा से कम दबाव की स्थिति में जाने के लिए गर्म हवा के गुण का उपयोग करता है। आईसीएस का यह मॉडल ताप हस्तांतरण को ज्यादा से ज्यादा करने के लिए खाना पकाने के बर्तन को जितना संभव हो सके गर्म गैसों के संपर्क में लाता है। इसके बाद, कंडक्शन के जरिए ताप के नुकसान को रोकने के लिए मिट्टी के इंसिलेटिंग गुणों का इस्तेमाल करता है। आईसीएस से धुआं कम निकलता है और यह धुएं को बाहर की ओर भेजता है, जिससे रसोई के अंदर हवा की गुणवत्ता में सुधार होता है। यह अतिरिक्त लाभ है। हालांकि, आईसीएस के इस मॉडल का सबसे बड़ा फायदा यह है कि वे मिट्टी, लकड़ी की भूसी, गाय के गोबर और स्थानीय रूप से उपलब्ध अन्य सामग्रियों का इस्तेमाल करके बनाए जाते हैं।

तागाथांग के बहुत नजदीक स्थित नेओरा घाटी राष्ट्रीय उद्यान पूर्वी हिमालय के सबसे अहम संरक्षित वनों में से एक है। यह पड़ोसी राज्य सिक्किम में पंगोलखा वन्यजीव अभयारण्य और पड़ोसी देश भूटान में जिग्मे खेसर स्ट्रिक्ट नेचर रिजर्व तक फैला हुआ है। यह राष्ट्रीय उद्यान अपनी हैरान करने वाली जैव–विविधता के लिए पहचाना जाता है। यहां कई दुर्लभ और लुप्तप्राय प्रजातियां निवास करती हैं। इनमें लाल पांडा, बादलदार तेंदुआ, एशियाई काला भालू, हिमालयी कस्तूरी मृग और पक्षियों की कई स्थानीय प्रजातियां शामिल हैं। राष्ट्रीय उद्यान के घने जंगल और बदलती ऊंचाई वाले पारिस्थितिकी तंत्र इसे अहम संरक्षण क्षेत्र बनाते हैं। यह कार्बन सिंक के रूप में भी काम करता है और शानदार वनस्पतियों और जीवों के लिए आवास उपलब्ध कराता है।
हालांकि, तागाथांग जैसे राष्ट्रीय उद्यान के आसपास रहने वाले समुदाय, संरक्षण की जरूरतों और स्थानीय आजीविका के बीच नाजुक संतुलन बनाते हैं। कई गांव वाले जलावन, पानी और पारिस्थितिकी से जुड़ी अन्य सेवाओं के लिए जंगल पर निर्भर हैं। इससे अनजाने में पर्यावरण का नुकसान हो सकता है, जिससे स्थानीय वन्यजीवों पर खतरा बढ़ सकता है। इस प्रकार, खाना पकाने के लिए बेहतर चूल्हे की शुरुआत जलावन पर निर्भरता कम करने के लिए जरूरी है। इस पहल से परोक्ष तौर पर राष्ट्रीय उद्यान की जैव-विविधता का संरक्षण होगा।
तागाथांग और आस-पास के गांवों में जलावन का सबसे बड़ा जरिया जंगल है। औद्योगिक शोषण की तुलना में यह निर्भरता कम है, लेकिन समय के साथ बढ़ती जा रही है और स्थानीय संसाधनों पर दबाव डालती है।
जैसे-जैसे पारिस्थितिकी तंत्र पर मानवीय गतिविधियों के दुष्प्रभाव के बारे में जागरूकता बढ़ रही है, जंगल के हाशिए पर रहने वाले समुदायों को समाधान के अहम हिस्से के रूप में देखा जाने लगा है। इन समुदायों के भीतर टिकाऊ तरीकों को शामिल करना पर्यावरण के नुकसान को कम करने में बहुत ज्यादा असरदार हो सकता है। खाना पकाने के लिए बेहतर चूल्हे जैसी पहल इस लक्ष्य में सीधे मदद करती हैं। खाना पकाने के ये चूल्हे जलावन की जरूरत कम करके आवास संरक्षण में मदद करते हैं और समुदाय के सदस्यों को टिकाऊ विकल्प अपनाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।
नेओरा घाटी में रहने वाली अलग-अलग प्रजातियों में लाल पांडा पारिस्थितिकी के प्रतीक और संवेदनशील प्रजाति दोनों के रूप में सामने आता है। हालांकि, आवास के नुकसान से उनके अस्तित्व को खतरा है।
लाल पांडा सहित अन्य प्रजातियों के संरक्षण के लिए जंगल को बचाने के अलावा कुछ और करने की जरूरत है। इन प्राकृतिक संसाधनों के साथ मानव के व्यवहार में व्यापक बदलाव जरूरी है। खाना पकाने के बेहतर चूल्हे जैसी पहलों के जरिए जलावन के इस्तेमाल को कम करने से जंगलों की कटाई को कम करने और पेड़ों के आच्छादन को संरक्षित करके लाल पांडा के आवासों की सुरक्षा में मदद मिलती है। यह समझकर कि किस प्रकार ये छोटे-छोटे काम संरक्षण के बड़े लक्ष्यों में मददगार हैं, जंगलों के किनारे बसे तागाथांग जैसे गांव इस लुप्तप्राय प्रजाति के अस्तित्व में अहम भूमिका निभाते हैं।

संरक्षण में समुदाय की भागीदारी
पारंपरिक ग्रामीण घरों में खाना पकाना दैनिक जीवन का मुख्य हिस्सा है। इसलिए, खाना पकाने के लिए बेहतर चूल्हा जलावन को इकट्ठा करने की आवृत्ति और मात्रा को कम करता है, जिससे आखिरकार जंगल के संसाधनों का संरक्षण होता है। जलावन इकट्ठा करने को कम करके, आईसीएस जंगल के पारिस्थितिकी तंत्र में मानवीय हस्तक्षेप को कम करता है, आवासों के नुकसान को कम करता है और जैव विविधता को बढ़ावा देता है।
इसके अलावा, आईसीएस की प्रौद्योगिकी घर के अंदर वायु प्रदूषण को कम करती है, जिससे महिलाओं और बच्चों को फायदा होता है। ये लोग अक्सर पारंपरिक चूल्हों से निकलने वाले धुएं के संपर्क में आते हैं। सेहत में यह सुधार चूल्हे की वैल्यू को बढ़ाता है, क्योंकि यह ना सिर्फ पर्यावरण को बेहतर करता है, बल्कि जंगल के आसपास रहने वाले समुदायों के जीवन को बेहतर करता है। जैसे-जैसे ज्यादा परिवार आईसीएस को अपनाते हैं, जंगलों को संरक्षित करने पर इसका असर बढ़ता है, जिससे समुदाय और पारिस्थितिकी तंत्र दोनों को फायदा होता है।
समुदाय नेओरा घाटी जैसे क्षेत्रों में संरक्षण की कोशिशों में अहम भूमिका निभाते हैं, जहां पारंपरिक ज्ञान और पर्यावरण संरक्षण सांस्कृतिक ताने-बाने का हिस्सा हैं। तागाथांग के लेप्चा लोग अपने मूल्यों के मुताबिक संरक्षण प्रथाओं को अपनाना शुरू कर रहे हैं, यह समझते हुए कि पर्यावरण की रक्षा करना उनकी विरासत को संरक्षित करने के लिए जरूरी है। जंगल को बचाने की पहल, वन्यजीव संरक्षण कार्यक्रम और संसाधन प्रबंधन रणनीतियां तब सबसे असरदार होती हैं जब स्थानीय समुदायों को इसकी जानकारी दी जाती है और उन्हें शामिल किया जाता है।
और पढ़ेंः लेप्चा का पारंपरिक घर। इसे ‘का-डेन-मो-ली’ कहा जाता है। तस्वीर अभिषेक प्रधान द्वारा।
चूल्हे को बेहतर बनाना ऐसी तकनीक का आदर्श उदाहरण है जो समुदाय की जीवनशैली के साथ तालमेल बिठाते हुए संरक्षण को भी बढ़ावा देता है। जंगल के संसाधनों पर अपनी निर्भरता कम करके, ग्रामीण पर्यावरण संरक्षण में सक्रिय रूप से मदद करने वाले बन जाते हैं। यह काम जंगल के आसपास रहने वाले अन्य समुदायों के सामने आदर्श स्थापित करता है। डब्ल्यूडबल्यूएएफ इंडिया और एसबीआई फाउंडेशन की साझेदारी वाली इस परियोजना में नेओरा वैली राष्ट्रीय उद्यान के आसपास रहने वाले गांवों में सौ से ज्यादा आईसीएस लगाए गए हैं। इसके अलावा, सिक्किम में पंगोलखा वन्यजीव अभयारण्य के सीमावर्ती गांवों में सौ से ज्यादा आईसीएस लगाए गए हैं। मूल्यांकन से पता चलता है कि हर रोज जलावन की खपत में 31% की कमी आई है।
लंबी अवधि में संरक्षण पहलों की सफलता पक्की करने के लिए, तागाथांग जैसे समुदायों की मदद और उन्हें मजबूत बनाना जरूरी है। इन समुद्यों को वित्तीय सहायता, जागरूकता कार्यक्रम और पर्यावरण के अनुकूल तकनीक उपलब्ध कराकर इन्हें टिकाऊ तरीकों को अपनाने में मदद करना अहम है। गैर-सरकारी संगठनों, संरक्षण निकायों और स्थानीय सरकारों के बीच भागीदारी आईसीएस और इसी तरह के टिकाऊ उपकरणों को अपनाने के पैमाने को बढ़ाने में अहम है।
स्थानीय समुदाय में निवेश एक तरह से पर्यावरण को बेहतर बनाने में निवेश है। जब समुदायों को टिकाऊ तरीकों को लागू करने के लिए संसाधन दिए जाते हैं, तो वे संरक्षण के लक्ष्यों को पाने में बड़े पैमाने पर मदद कर सकते हैं। समुदाय के आजीविका के साधानों को बढ़ाने वाली पहलों को समर्थन देकर और प्राकृतिक संसाधनों को बचाकर तागाथांग जैसे गांवों को टिकाऊ प्रथाओं का मॉडल बनाया जा सकता है।
वन्यजीव संरक्षण में खाना बनाने के लिए बेहतर चूल्हा आसान और बदलाव लाने वाले उपकरण के रूप में सामने आया है। नेओरा वैली राष्ट्रीय उद्यान के किनारे स्थित छोटे से गांव तागाथांग में यह तकनीक जलावन पर निर्भरता को कम करने, वन्यजीवों के आवासों की रक्षा करने और सामुदायिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाने में मदद कर रही है। लेप्चा लोगों के लिए, अपनी सांस्कृतिक विरासत और प्रकृति के साथ संबंधों को संजोने वाले लेप्चा लोगों के लिए ऐसी प्रथाएं उनके मूल्यों के साथ जुड़ती हैं और आगे बढ़ने का रास्ता देती हैं।
लेखक डब्ल्यूडब्ल्यूएफ इंडिया में परियोजना अधिकारी हैं, जो मुख्य रूप से कंचनजंगा संरक्षण परिदृश्य के सिक्किम और दार्जिलिंग पहाड़ियों में जंगल के आसापास रहने वाले समुदायों के साथ काम करते हैं।
यह कमेंट्री मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 3 मार्च, 2025 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: लेप्चा परिवार में खाना पकाने के लिए बेहतर बनाया गया चूल्हा। ऐसे चूल्हे रसोई के लिए स्थायी समाधान उपलब्ध कराते हैं, बेहतर स्वास्थ्य को बढ़ावा देते हैं और गांव और उसके आसपास वनों की कटाई को कम करते हैं। तस्वीर अभिषेक प्रधान द्वारा।