- एक नए अध्ययन में जंगली खाद्य पौधों की कुछ ऐसी प्रजातियों के बारे में बताया गया जिन पर कश्मीर हिमालय के चार जातीय समुदाय पारंपरिक रूप से भोजन, औषधीय उपयोग और आजीविका के लिए निर्भर हैं।
- शोधकर्ता खाद्य सुरक्षा, जलवायु लचीलेपन और सांस्कृतिक संरक्षण के लिए इस पद्धति के लाभों को उजागर करते है।
- कार्यकर्ता और शोधकर्ता इन पौधों की खोज और खेती के महत्व पर जोर देते हैं जिससे आर्थिक विकास और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के कारण पारंपरिक ज्ञान के नुकसान को कम किया जा सके।
कश्मीर के पश्चिमी हिमालय में रहने वाले वहां के पहाड़ी समूह इस क्षेत्र के पारंपरिक ज्ञान को बचाए रखने के लिए भोजन का सहारा ले रहे हैं। स्थानीय भोजन को चाहने वाले गुच्ची मशरूम (मोर्चेला एस्कुलेंटा) जैसे जंगली खाद्य पौधों की समृद्ध प्रजातियों को, जिन्हें पारंपरिक रूप से जंगलों में इन समूहों द्वारा उगाया जाता है, लोगों की थाली तक पहुँचाने की कोशिश कर रहे हैं।
फॉरेस्ट पॉलिसी एंड इकोनॉमिक्स में प्रकाशित एक नए अध्ययन में बताया गया है कि इन प्रजातियों की निरंतर खेती से न केवल खाद्य सुरक्षा बढ़ाने और जलवायु परिवर्तन के प्रति लचीलेपन को विकसित करने का रास्ता मिलता है, बल्कि लोगों को उनके बारे में न भूलने में मदद भी मिलती है।
पिछले कुछ दशकों में, विकास परियोजनाओं और जलवायु परिवर्तन ने जंगली खाद्य प्रजातियों की सहज उपलब्धता और उनकी खेती को बुरी तरह से प्रभावित किया है। इससे इन प्रजातियों से संबंधित पारंपरिक ज्ञान कम होता गया है। सामुदायिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि इस प्रवृत्ति को बदलने के लिए सभी लोगों को उन्हें खोजना, उनकी खेती करना और उनका भोजन में उपयोग जारी रखना चाहिए।
शोधकर्ताओं ने 38 परिवारों से 99 जंगली खाद्य पौधों की प्रजातियों और नौ कवक प्रजातियों का दस्तावेजीकरण किया। इन प्रजातियों का उपयोग चार जातीय समूहों; पहाड़ी, गुज्जर, कश्मीरी और बकरवाल के व्यावसायिक भोजन में किया जाता है। इन समूहों में पहाड़ी लोगों ने जंगली पौधों की सबसे अधिक संख्या का उपयोग किया, उसके बाद क्रमशः गुज्जर, कश्मीरी और बकरवाल का स्थान है। खाने और औषधीय कार्यों में पत्तियों का इस्तेमाल सबसे ज्यादा, जबकि कंदों का इस्तेमाल सबसे कम किया गया।
इन समूहों के बीच खाद्य प्रजातियों और आहार प्रथाओं में समानताएं और अंतर थे, फिर भी बुजुर्गों और युवाओं के बीच पीढ़ीगत पारंपरिक ज्ञान का अंतर इन समुदायों के बीच घटते पारंपरिक ज्ञान का प्रमुख कारण था।
“खाद्य एथनोबॉटनी के दृष्टिकोण से किया गया यह अपनी तरह का पहला दस्तावेजीकरण था और जातीय समूहों के बीच प्रजातियों की समृद्धि और कई कारकों से प्रभावित [पारंपरिक] ज्ञान की हानि को देखते हुए महत्वपूर्ण था,” अध्ययन के लेखकों में से एक और जॉर्जिया के इलिया स्टेट यूनिवर्सिटी के एथनो बायोलॉजिस्ट शेख मारिफतुल हक कहते हैं।

कैसे गुम हुआ पारम्परिक ज्ञान
अन्य पर्वतीय समुदायों के विपरीत, कश्मीरी समुदायों – जिनकी आर्थिक स्थिति अधिक स्थिर है – में पारंपरिक पौधों के बारे में जानकारी कम होती जा रही है, क्योंकि ये लोग जंगलों में सब्जियां ढूंढने के बजाय बाजारों और दुकानों से सब्जियां खरीदना पसंद करते हैं।
हक ने मोंगाबे को बताया, “यह आर्थिक परिवर्तन समुदाय में मौजूद मूल्यवान ज्ञान को मजबूत करने और इसे संरक्षण के लिए अगली पीढ़ी को हस्तांतरित करने में विफल रहा।”
इसके विपरीत, जंगलों के पास रहने वाले गुज्जर और पहाड़ी समुदाय जीविका के लिए पारंपरिक जंगली पौधों और दवाओं का सक्रिय रूप से उपयोग करते हैं – जिससे उनकी याद रखने की क्षमता मजबूत होती है। वे जंगली खाद्य पदार्थों की तलाश करते हैं और उन्हें स्थानीय बाजारों में उचित कीमत पर सफलतापूर्वक बेचते हैं। लेखकों का कहना है कि यह पारंपरिक खाद्य पदार्थों द्वारा खाद्य सुरक्षा को बढ़ाने में मदद करने का एक उदाहरण है। अध्ययन की गई जंगली पौधों की प्रजातियों में से 19 का आर्थिक मूल्य, उपलब्धता और कठोर जलवायु में बढ़ने की क्षमता अधिक थी।

जलवायु परिवर्तन के बारे में लेखकों का कहना है कि इनमें से कुछ पौधों की प्रजातियां चरम मौसम से अनुकूलन, जैसे कि कश्मीरी हिमालय में वर्षा और बर्फबारी में कमी आना, में मदद कर सकती हैं तथा खाद्य सुरक्षा बढ़ाने में भी ये प्रजातियां मददगार साबित हो सकती हैं।
हक कहते हैं, “पलंगा, (कैप्सेला बर्सा-पास्टोरिस), हांड (सिचोरियम इंटीबस), मसनूरी (पोर्टुलाका ओलेरासिया), लकट-गुल (प्लांटागो लांसोलाटा) और हींड (टारैक्सकम ऑफ़िसिनेल) जैसी कई जड़ी-बूटियां जलवायु के अनुकूल हैं और अध्ययन क्षेत्र में खरपतवार के रूप में उगती हैं। निकट भविष्य में खाद्यान्न की कमी के मुद्दों को दूर करने के लिए ये घर के बगीचे का हिस्सा भी बन सकती हैं।”
कुछ पौधों की प्रजातियों, जैसे लोंगुड (डिप्लाजियम मैक्सिमम) जो बवासीर को ठीक करने के लिए उपयोग की जाती हैं और ऊला (रूमेक्स नेपालेंसिस) जो गठिया के दर्द को ठीक करने के लिए खाई जाती हैं, का भी औषधीय महत्व था और यह कड़ाके की सर्दियों के दौरान भोजन के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थी।
इन जड़ी-बूटियों की बढ़ती कीमतों के कारण, 58 वर्षीय कश्मीरी किसान मोहम्मद अब्दुल्ला पूरे समुदाय में इनके घटते ज्ञान को एक समस्या के रूप में देखते हैं। वह खाद्य स्रोतों की सुरक्षा और अगली पीढ़ी के लिए खाद्य संप्रभुता को बढ़ावा देने के लिए पारंपरिक ज्ञान और कौशल को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता पर जोर देते हैं। पारंपरिक पारिस्थितिक ज्ञान के अंतर को महसूस करते हुए, उनके परिवार सहित समुदाय के सदस्य मार्च के मध्य से मई तक वसंत ऋतु में भोजन की तलाश में हिमालय की पहाड़ियों में निकल पड़ते हैं।
अब्दुल्ला ने मोंगाबे को बताया, “भोजन की तलाश में हिमालय की ओर जाना हमारी परंपरा का एक हिस्सा था, लेकिन अब हम अपने बच्चों को भी इसमें शामिल कर रहे हैं ताकि उनमें भी ये मूल्य और जानकारी आ सके।”

जंगली सब्जियों को तलकर या उबालकर खाया जाता है, जंगली फलों को मुख्य रूप से कच्चा खाया जाता है। उदाहरण के लिए, कुन्जी (पेरिडियम रेवोल्यूटम) के तने और जड़ी-बूटी (फाइटोलैक्का एसिनोजा) की कोमल पत्तियों को उबालकर और सुखाकर सर्दियों में खाने के लिए संरक्षित करके रखा जाता है। जबकि कुछ प्रजातियों का उपयोग औषधीय उद्देश्यों के लिए किया जाता है। पश्चिमी हिमालयी देवदार की छाल जिसे स्थानीय रूप से बुंदर (एबिस पिंड्रो) के नाम से जाना जाता है, फ़र्न प्रजाति डिप्लाज़ियम मैक्सिमम, एक जड़ी-बूटी (फ़्लोमोइड्स ब्रैक्टियोसा) की कोमल पत्तियाँ और एक झाड़ी (विबर्नम ग्रैंडिफ्लोरम) के फल में खाद्य और औषधीय दोनों गुण होते हैं।
हालांकि, बूढ़े लोगों और युवाओं के बीच ज्ञान के अंतर के अलावा भी कई चुनौतियां हैं। जानकारी और ज्ञान में लिंग एक ख़ास भूमिका निभाता है। चूँकि महिलाएं अक्सर भोजन की तलाश की प्रक्रिया में सक्रिय रूप से भाग लेती हैं, इसलिए उन्हें जंगली खाद्य पौधों (51.49%) के बारे में पुरुषों (45.51%) की तुलना में अधिक जानकारी थी, जो ज्यादातर काम के लिए बाहर जाते थे।
थंडीपोरा दर्दपोरा के अब्दुल्ला कहते हैं कि उन्होंने जलवायु परिवर्तन के कारण बदलते मौसम के पैटर्न की वजह से औषधीय पौधों की आबादी और प्रजातियों के पलायन में भी कमी देखी है।
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अब्दुल्ला कहते हैं, “कुथ (सौसुरिया कॉस्टस) और ट्रुपैट्री (ट्रिलियम गोवनियानम) जैसे कुछ पेड़ों की संख्या में पिछले कुछ सालों में कमी आई है। अत्यधिक दोहन के बावजूद, बारिश और बर्फबारी में उतार-चढ़ाव एक बड़ी वजह हो सकती है।”
लेकिन प्रजातियों की लोकप्रियता भी गुज्जर और बकरवाल समुदायों में उनकी घटते उपयोग का कारण बन सकती है। गुज्जर लोगों की भूमि और जंगलों, जो कि समृद्ध पौधों की प्रजातियों के भंडार हैं जिनका वे आमतौर पर उपयोग करते हैं, में समुदायों के बाहर के लोग पैसे कमाने के लिए संसाधनों का अत्यधिक दोहन करने आते हैं।
क्रालपोरा के सतबोइन में गुज्जर समुदाय के 24 वर्षीय इदरीस खटाना कहते हैं, “इससे उन प्रजातियों के संरक्षण पर असर पड़ रहा है, जिनका आर्थिक मूल्य बहुत अधिक है।” हालांकि, उन्होंने मोंगाबे को बताया कि समुदाय जंगली खाद्य पदार्थों की स्थायी खेती करने और इन स्रोतों को फिर से भरने का समय देने के लिए जाना जाता है।

इन प्रजातियों को खत्म होने से बचाने के लिए, बुजुर्ग युवाओं को खाद्य स्रोतों की समृद्धि को पहचानना और मूल्यवान प्रजातियों को संरक्षित करने के लिए वैकल्पिक खाद्य स्रोतों की तलाश करना सिखा रहे हैं।
“बुजुर्ग सदस्यों के मार्गदर्शन में हम जंगली पौधों की प्रजातियों को इकट्ठा कर रहे हैं जो ज्यादातर जल स्रोतों और जलाशयों से दूर हैं। इन प्रथाओं ने खाद्य गुणवत्ता को बेहतर बनाने और पानी और खाद्य स्रोतों, जो प्रजातियों के सतत विकास का समर्थन करते हैं, दोनों के संरक्षण में मदद की है,” उन्होंने बताया।
यह खबर मोंगाबे की ग्लोबल टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी ग्लोबल वेबसाइट पर 16 जुलाई, 2024 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के वरिष्ठ वैज्ञानिक और सोलन स्थित मशरूम अनुसंधान केंद्र के निर्देशक अनिल कुमार के अनुसार गुच्छी जलवायु परिवर्तन का शिकार है। तस्वीर- जिज्ञासा मिश्रा