- असम में डिब्रू सैखोवा राष्ट्रीय उद्यान भारत का एकमात्र ऐसा स्थान है जहां फेरल घोड़े पाए जाते हैं।
- माना जाता है कि ये घोड़े द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान इस्तेमाल किए गए घोड़ों के वंशज हैं, जबकि कुछ लोगों के मुताबिक, वे चीन के प्रेज़वल्स्की के घोड़ों के वंशज हो सकते हैं।
- घोड़ों की ये आबादी तस्करी, घटते चरागाह और आवासों के चलते खतरे में है।
फरवरी 2020 में, कोविड-19 महामारी के कारण देशभर में लॉकडाउन लगने से ठीक पहले,असम के तिनसुकिया वन्यजीव प्रभाग ने एक बड़ी सफलता हासिल की। एक गुप्त सूचना के आधार पर, वन विभाग के अधिकारियों ने इस जिले के माकुम बाईपास के पास एक ट्रक को पकड़ा, जो तस्करी किए गए छः जंगली घोड़ों (फेरल हॉर्सेस) को ले जा रहा था।
एक वन अधिकारी ने नाम न बताने की शर्त पर बताया, “हमने दो सैन्य कर्मियों समेत चार लोगों को इस खेप के साथ पकड़ा। उनके कागजात (घोड़ों के परिवहन को मंजूरी देने वाले दस्तावेज) जाली थे। हमें पता चला कि इस तस्करी गिरोह का सरगना एक उच्च पदस्थ भारतीय सैन्य अधिकारी था, जो गुवाहाटी में घुड़सवारी की ट्रेनिंग देता है। घोड़ों को डिब्रू सैखोवा राष्ट्रीय उद्यान से खरीदा गया था और ट्रक में गुवाहाटी भेजे जाने से पहले उन्हें तिनसुकिया के फुलबारी गांव के लौपोटी में एक निर्माणाधीन अस्पताल में रखा गया।” बाद में इन घोड़ों को डिब्रू सैखोवा राष्ट्रीय उद्यान में छोड़ दिया गया।
डिब्रू सैखोवा को 1890 में एक आरक्षित वन घोषित किया गया था और एक सदी से भी अधिक समय बाद, 1999 में, इसे एक राष्ट्रीय उद्यान का दर्जा प्राप्त हुआ। तिनसुकिया शहर से लगभग 12 किलोमीटर दूर डिब्रू सैखोवा राष्ट्रीय उद्यान, उत्तर में विशाल ब्रह्मपुत्र और सियांग नदियों, पूर्व में लोहित, दिबांग और नोआ दिहिंग नदियों और दक्षिण में डिब्रू नदी से घिरा है।
करीब 340 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला यह राष्ट्रीय उद्यान अपनी प्रभावशाली जैवविविधता के लिए जाना जाता है, जिसमें हाथी, जंगली भैंस, हूलॉक गिब्बन और गंगा नदी डॉल्फिन जैसे दुर्लभ और लुप्तप्राय स्तनधारी जीव पाए जाते हैं। हालांकि, फेरल घोड़े उद्यान के सबसे बेशकीमती जानवरों में से एक हैं, क्योंकि यह भारत में एकमात्र जगह है जहां ये पाए जाते हैं।

हालांकि तमिलनाडु में प्वाइंट कैलिमेरे में भी जंगली घोड़ों की आबादी है, लेकिन इस नस्ल के जंगली घोड़े केवल डिब्रू सैखोवा में पाए जाते हैं।
वाइल्ड हॉर्स और फेरल हॉर्स के बीच मुख्य अंतर उनके वंश में निहित है। जंगली घोड़ों के विपरीत, फेरल घोड़े कभी पालतू रहे घोड़ों की नस्ल हैं। हालांकि, किसी भी तरह की प्रभावी संरक्षण रणनीति न होने के कराण, फेरल घोड़ों को तस्करी के खतरों का सामना करना पड़ता है। बाढ़ और मवेशियों की वजह से उनके चारागाह और आवास भी धीरे-धीरे कम होते जा रहे हैं।
उत्पत्ति की कहानी
फेरल घोड़े आजादी से जंगल में घूमने वाले घोड़े हैं जो कभी पालतु हुआ करते थे। लेकिन वे डिब्रू सैखोवा में लगभग 80 वर्षों से जंगल में रह रहे हैं और जंगली कहलाते हैं।
ओपन जर्नल ऑफ बायोरिसोर्स में प्रकाशित 2021 के एक अध्ययन के अनुसार, “इस नस्ल के जंगली घोड़े ज्यादातर घास वाले मैदान, जंगल और वुडलैंड्स पसंद करते हैं। वे खुले इलाकों में रहना पसंद करते हैं, जहां वे दूर से ही शिकारियों को देख सकें। वे जल स्रोतों के 5-6 किलोमीटर के दायरे में पाए जाते हैं। चुरके टापू, अर्ना टापू, मिली कैंप के पास कथालकुथी, कोबू चापोरी डिब्रू सैखोवा के कुछ इलाके हैं जहां ये आपको घूमते मिल जाएंगे।”
यहां फेरल घोड़ों की उत्पत्ति को लेकर कई कहानियां हैं। सबसे लोकप्रिय कहानी है कि ये उन घोड़ों के वंशज हैं जिन्हें मित्र राष्ट्रों की सेना ने द्वितीय विश्व युद्ध में जापान के खिलाफ इस्तेमाल किया था। तिनसुकिया वन्यजीव प्रभाग के प्रभागीय वन अधिकारी (डीएफओ) के.एन. दास ने मोंगाबे इंडिया से कहा, “ऐसा कहा जाता है कि युद्ध खत्म होने के बाद ब्रिटिश और अमेरिकी सैनिक इन घोड़ों को यहीं छोड़ गए थे। यहां [अब] पाए जाने वाले जंगली घोड़े उन घोड़ों की तीसरी या चौथी पीढ़ी हैं। हालांकि, इस सच को साबित करने के लिए कोई लिखित रिकॉर्ड नहीं है।”
इस कहानी को इस तथ्य से समर्थन मिलता है कि तिनसुकिया द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान पूर्वी मोर्चे पर एक महत्वपूर्ण युद्ध का मैदान था। डिब्रू सैखोवा से लगभग 67 किलोमीटर दूर लेडो में अमेरिकी सैनिकों द्वारा एक हवाई पट्टी बनाई गई थी, जबकि पास के एक अन्य शहर मार्गेरिटा में घायल सैनिकों के इलाज के लिए एक सैन्य अस्पताल था।
2021 के अध्ययन के लेखकों में से एक शमीखु चांगमाई भी इस कहानी का समर्थन करते हैं। वह कहते हैं, “1950 में असम में आए भीषण भूकंप के बाद, नदियों ने अपना रास्ता बदल लिया और इनमें से कई जंगली घोड़े डिब्रू सैखोवा में फंस गए। अब, वे ज्यादातर चपोरी (रेतीले किनारों) में देखे जाते हैं।”

जाने-माने पर्यावरणविद अनवरुद्दीन चौधरी के अनुसार, ये घोड़े 1940 के दशक में इस क्षेत्र में पाए जाने वाले माल ढोने वाले घोड़ों के वंशज हैं। वह बताते हैं, “द्वितीय विश्व युद्ध में सामान ढोने के लिए घोड़ों का इस्तेमाल किया गया था। ये मुख्य रूप से उस समय तिनसुकिया में बसे बिहारी समुदाय के लोगों के थे। उनमें से कुछ युद्ध के बाद अपने मूल स्थान पर लौट गए और घोड़ों को वहीं छोड़ गए, जो डिब्रू सैखोवा के पास के जंगलों में चले गए, जो उस समय एक आरक्षित वन था।”
हालांकि, पर्यटक संचालक और पर्यावरणविद निरंत गोहेन, द्वितीय विश्व युद्ध वाली कहानी को नकारते हैं और दावा करते हैं कि ये घोड़े प्रजेवाल्स्की घोड़ों के वंशज हैं, जिन्हें दुनिया में जंगली घोड़ों की एकमात्र बची हुई प्रजाति माना जाता है। गोहेन कहते हैं, “ये प्रजेवाल्स्की घोड़े चीन के शिनजियांग प्रांत से तिनसुकिया आए और यहां बस गए। अभी तक, इन घोड़ों के सही वंश का पता लगाने के लिए कोई अध्ययन नहीं किया गया है। मैं चाहता हूं कि घोड़ों के आनुवंशिक अध्ययन किया जाए ताकि उनकी सही उत्पत्ति का पता चल सके।”
बढ़ते खतरे
साल 2020 की घटना के बाद से डिब्रू सैखोवा से फेरल घोड़ों की संगठित तस्करी की कोई रिपोर्ट नहीं आई है। हालांकि, स्थानीय सूत्रों का दावा है कि इक्का-दुक्का तस्करी की घटनाएं कभी-कभार होती रहती हैं।
डीएफओ दास इन आरोपों से इनकार करते हैं। वह कहते हैं, ” अपने कार्यकाल के दौरान, मैंने फेरल घोड़ों की तस्करी की किसी भी घटना के बारे में नहीं सुना है।”
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पूर्व डीएफओ राजेंद्र भारती ने 2020 में जंगली घोड़ों की तस्करी करने वाले गिरोह को पकड़ने के लिए ऑपरेशन का नेतृत्व किया था। उन्होंने इसे एक चल रहा न्यायिक मामला बताया और इस घटना पर टिप्पणी करने से इनकार कर दिया।
नाम न बताने की शर्त पर एक वन अधिकारी ने मोंगाबे इंडिया से कहा कि चूंकि फेरल घोड़ों को वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 के तहत कोई संरक्षण नहीं दिया गया है, इसलिए उन्हें अभी भी जंगली जानवर नहीं माना जाता है। वह कहते हैं, “इसलिए, भले ही हम इस संबंध में किसी को गिरफ्तार कर लें, लेकिन उसे दोषी ठहराना बहुत मुश्किल है।”
इसके अलावा, घोड़ों की आबादी की कोई नियमित गणना नहीं हुई है, जिससे उनकी संरक्षण स्थिति का पता लगाना चुनौतीपूर्ण हो जाता है। डीएफओ दास कहते हैं, “सात साल पहले की गई आखिरी गणना के अनुसार, डिब्रू सैखोवा में इस नस्ल के 400 घोड़े थे।”
चांगमई ने कहा कि उनके क्षेत्र अध्ययन अनुसंधान के अनुसार, मौजूदा समय में डिब्रू सैखोवा में 150-200 फेरल घोड़े हैं।
उन्होंने बताया, “हर साल आने वाली बाढ़ और कटाव उनके लिए एक गंभीर खतरा है। हर साल, काफी घोड़े बाढ़ में बह जाते हैं। इसके अलावा, आस-पास के वन गांवों की विभिन्न मानवीय गतिविधियां और मवेशी फार्म उनके आवास को खराब कर रहे हैं। वास्तव में, चराई के मामले में घरेलू मवेशी उनके मुख्य प्रतियोगी हैं। ये घोड़े 3-5 के झुंड में और कभी-कभी 12-15 के झुंड में रहते हैं। कई मौकों पर, ये घोड़े चरने और नमक चाटने के लिए खूटी नामक मवेशी फार्म के पास आ जाते हैं।”
अनवरुद्दीन चौधरी का दावा है कि डिब्रू सैखोवा में बाघों की आबादी में कमी ने कुछ हद तक फेरल घोड़ों की आबादी को बढ़ावा दिया है। वह कहते हैं, “90 के दशक में, डिब्रू सैखोवा में बाघों की अच्छी खासी संख्या थी। ये जंगली घोड़े बड़ी बिल्लियों के लिए आसान शिकार थे। अब, डिब्रू सैखोवा में शायद ही कोई बाघ हो। इसलिए, इन घोड़ों की संख्या में वृद्धि हुई है।”
जंगली घोड़ों का आकर्षण
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि फेरल नस्ल के घोड़े डिब्रू सैखोवा में पर्यटकों को आकर्षित करते हैं, क्योंकि ये भारत में अपनी तरह के इकलौते हैं। लेकिन, पिछले कुछ सालों में इनका आकर्षण कम हुआ है।
इस इलाके के एक लोकल टूरिस्ट गाइड हिरेन सेनापति बताते हैं, “फेरल नस्ल के घोड़ों को देखना पर्यटकों के लिए महंगा सौदा है। ये घोड़े सुनसान रेतीले किनारों पर रहते हैं। गुइजन में पार्क के मेन एंट्री पॉइंट से उन जगहों तक पहुंचने में लगभग एक दिन लगता है। नाव ही एकमात्र साधन है और नाव किराए पर लेने का खर्च लगभग 15,000 रुपये है। इसके अलावा, जंगली घोड़े शर्मीले जानवर होते हैं और इसकी कोई गारंटी नहीं है कि पर्यटक उन रेत के टीलों के पास जाने पर भी उन्हें अच्छी तरह से देख पाएंगे।”
दास ने स्पष्ट किया कि जंगली घोड़े डिब्रू सैखोवा के मुख्य आकर्षण नहीं हैं। वह कहते हैं, “पूरी दुनिया से बहुत सारे बर्डवॉचर हमारे यहां आते हैं। इसके अलावा, कई लोग सिर्फ जंगल को महसूस करने के लिए भी यहां आना पसंद करते हैं।”

लेकिन चांगमई को लगता है कि डिब्रू सैखोवा में टूरिज्म घोड़ों की वजह से बढ़ सकता है। वह कहते हैं, “हमें इन जानवरों पर उचित ध्यान देने की जरूरत है। फिलहाल, मैं फेरल घोड़ों पर एक अध्ययन कर रहा हूं, जिसे भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) से फंड मिला है। यह इन घोड़ों की पारिस्थितिकी का एक भू-स्थानिक अध्ययन है। हमें इस नस्ल के आवास में मिट्टी की स्थिति और भोजन और पानी की उपलब्धता पर उचित वैज्ञानिक शोध की आवश्यकता है। साथ ही, हमें उनके बारे में बड़े पैमाने पर जागरूकता पैदा करने की आवश्यकता है ताकि उन्हें अब और उपेक्षित न किया जाए।”
सेनापति का मानना है कि भले ही इन घोड़ों में फिलहाल ज्यादा दिलचस्पी न हो, लेकिन वे हमेशा डिब्रू सैखोवा राष्ट्रीय उद्यान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बने रहेंगे। उन्होंने कहा,, “जब ये घोड़े ब्रह्मपुत्र नदी की पृष्ठभूमि के साथ हरे-भरे घास के मैदानों में दौड़ते हैं, तो शायद ही कोई तस्वीर इनकी सुंदरता की बराबरी कर पाए।”
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 1 नवंबर 2024 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: डिब्रू सैखोवा में रेत में घूमते जंगली घोड़े। तस्वीर- शमीखू चांगमाई