- मनोचिकित्सकों के अनुसार संघर्ष की घटनाओं के बाद पोस्ट ट्रॉमेटिक स्ट्रैस डिसऑडर या पीटीएसडी हो जाता है। जिसके बाद पीडित उस घटना को बार-बार महसूस करता है।
- उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों में स्वास्थ्य व्यवस्था चरमराई हुई है। आज भी 50 प्रतिशत से ज्यादा स्पेशलिस्ट डॉक्टरों की कमी है। ऐसा ही हाल मानसिक स्वास्थ से जुड़ी सुवधाओं का है।
- ऐसे मामले में शुरुआती दौर में ही पीडित की मानसिक स्थिति का आंकलन कर लिया जाना चाहिए और उन्हें मानसिक तनाव के लक्ष्णों की जानकारी दी जानी चाहिए।
उत्तराखंड में रामनगर स्थित कॉर्बेट टाइगर रिजर्व से लगे हुए तराई वेस्ट फॉरेस्ट डिवीजन में पड़ने वाले तौमडिया खत्ते में रहने वाले 30 साल के लियाकत अली वन गूजर हैं। उनका चेहरा इस इलाके में आए दिन होने वाले मानव और वन्यजीव संघर्ष की गवाही देता है। साल 2020 में कॉर्बेट पार्क के जंगलों में भैंसों को चराने ले जाते समय अचानक उनका सामना बाघ से हुआ। बाघ के पंजों से बुरी तरह घायल लियाकत को अस्पताल ले जाया गया। जहाँ उनका इलाज हुआ और वो ठीक होकर घर लौट आए।
लियाकत के चेहरे के घाव तो ठीक हो गए, लेकिन उनकी जिंदगी अब पहले जैसी नहीं रही।

एक समय था जब वो भैंस चराते हुए रात को जंगलों में ही सो जाया करते थे। लेकिन, इस हमले के बाद उनके मन में एक अजीब डर घर कर गया है जिसके चलते वो कभी जंगल जा ही नहीं पाए। जंगलों के जिन रास्तों से उनकी बचपन से यारी थी, वही रास्ते अब उन्हें डराने लगे हैं।
वन गूजरों के लिए पेड़ पर चढ़ कर चारा-पत्ती तोड़ना वैसा ही है जैसे शहरों में रोज सुबह नजदीक के बूथ से दूध खरीद कर लाना। लेकिन बाघ के हमले के बाद वो पेड़ पर नहीं चढ़ पाते हैं। वो बताते हैं कि एक बार पेड़ पर चढ़ने के बाद उन्हें इतनी घबराहट होने लगी कि वो पेड़ से नीचे ही नहीं उतर पाए। जिसके बाद उनके भाई को रस्सी लानी पड़ी और रस्सी के जरिए वो पेड़ से नीचे उतर पाए।
लगभग पांच साल पहले की इस घटना ने उनकी जिंदगी पूरी तरह से बदल दी है। वो बताते हैं कि छोटी-छोटी बातों पर उन्हें गुस्सा आता है। और जब ऐसा होता है तब वो अपने पिता को भी जान से मारने की तीव्र इच्छा से घिर जाते हैं, जिसका उन्हें बाद में पछतावा होता है।
वो बताते हैं कि वो दूध बेचा करते थे। लेकिन उनको इस व्यवसाय में घाटा उठाना पड़ा। वजह थी, हादसे के बाद बातों को याद नहीं रख पाना। इस वजह से ग्राहकों से कितना पैसा लेना है, उन्हें याद ही नहीं रहा। धीरे-धीरे वो कर्ज में डूब गए। उन्होंने घर चलाने के लिए मजदूरी करने की कोशिश की, लेकिन इस घटना के बाद से उन्हें गर्मी बर्दाशत नहीं होती है। ज्यादा देर गर्मी में रहने के कारण उनके सर में दर्द होता है और वो कई काम नहीं कर पाते हैं।
लियाकत के परिवार में उनकी पत्नि और पांच बच्चे हैं। पहले उनके दो भाई और माता-पिता भी साथ में रहा करते थे, लेकिन लियाकत कहते हैं कि इस बिमारी की वजह से वो अपने परिवार से अलग हो गए हैं। अब वो अपने माता पिता और दोनो भाईयों के साथ नहीं रहते, और पत्नि भी उनसे परेशान रहती हैं। वो खुद यह मानते हैं कि उनकी इस बिमारी की वजह से उनका परिवार बिखर गया है।

कुछ ऐसा ही हाल पौडी जिले के बीरोंखाल ब्लाक के देवकुंडई गांव की राखी रावत का है। राखी के परिवार में उनकी माँ, एक बहन, और एक भाई है। उनके पिता की मृत्यु हो चुकी है।
साल 2019 में जब वो 10 साल की थीं, तब अपने छोटे भाई को गुलदार (तेंदुए) के हमले में बचाने के दौरान वह गंभीर रूप से घायल हो गयीं थीं। इस घटना में उनके भाई को हल्की चोटें आईं, पर राखी के सर पर 40 टांके आए। अब वो 15 साल की हैं। घाव तो भर गए हैं। लेकिन गुलदार जैसे आज भी उनका पीछा कर रहा है। सपनों में उन्हें अक्सर गुलदार दिखाई देता है जो उनके भाई को उनसे छीन रहा है। लोगों की कही हुई बातें वो अक्सर भूल जाती हैं। वो अब कमरे में अकेले ज्यादा देर नहीं ठहर पाती हैं। अकेले स्कूल जाने में उन्हें डर लगता है। उन्हें ऐसा लगता है कि गुलदार अभी भी उन्हें घूर रहा है। घर से बाहर जाकर सहेलियों के साथ खेलने का भी उनका मन नहीं करता है। उनकी माँ, शालिनी रावत बताती हैं कि इस घटना के बाद से वो अनावशयक रूप से बहुत तेज बोलने लगती हैं। कितनी ही बार वो चक्कर खाकर गिर जाती हैं।
पौडी जिले के ही श्रीनगर में 2024 में सात साल की सिया लाल को घर के आंगन से गुलदार दबोच कर जंगल ले गया। समय रहते उन्हें रेस्क्यू कर लिया गया। इस घटना के एक साल बाद आज भी सिया को लोगों को पहचानने में दिक्कत होती है। वो हमेशा डर में रहती हैं।
बढ़ता मानव-वन्यजीव संघर्ष
उत्तराखंड में मानव-वन्यजीव संघर्ष की घटनाएं लगातार बढ रही हैं। वन विभाग के आकड़ों पर नजर डालें तो राज्य बनने के बाद जनवरी 2000 से लेकर फरवरी 2025 तक के आंकड़े बताते हैं कि गुलदार के हमलों में अब तक 534 लोगों की जान गई है। सांप के काटने से 253 मौतें हुई हैं, हाथी के हमलों में 227 लोगों की मौत हुई है, और बाघ के हमलों में साल 2000 से फरवरी 2025 तक 99 लोगों की मौत हुई है। वहीं भालू के हमलों में 67 लोग मारे गए और अन्य जानवरों के हमलों में 49 लोगों की मौत हुई है।
घायलों की बात करें तो ये आंकडा थोड़ा अलग हो जाता है। गुलदार यहाँ भी सूची में सबसे ऊपर है। इनके हमलों में 2052 लोग घायल हुए हैं। गुलदार के बाद भालू के हमलों में 1935 लोग घायल हुए हैं। हाथी और बाघ के हमलों में घायल लोगों की संख्या क्रमशः 230 और 130 है।
अगर पहले दो दशकों की तुलना करें तो इन घटनाओं में बढ़ोतरी हुई है। वहीं 2020 से लेकर फरवरी 2025 तक घायलों की संख्या पूर्व के दो दशकों की तुलना में आधी से ज्याद हो चुकी है। और अभी आधा दशक बाकी है।
साल 2020 में हुई जनगणना में उत्तराखंड में हाथियों की संख्या 2026 थी। इसमें ज्यादातर कॉर्बेट टाईगर रिर्जव और राजाजी नेशनल पार्क में हैं। वहीं साल 2022 में हुई जनगणना में राज्य में बाघों की संख्या 560 बताई गई है। वहीं भारतीय वन्यजीव संस्थान ने उत्तराखंड वन विभाग के साथ मिलकर दिसंबर 2021 व जुलाई 2022 में वन विभाग के 20 से अधिक प्रभागीय व वन्यजीव प्रभागीय क्षेत्रों में गुलदार की जनगणना की जिसमें उनकी संख्या 2,276 पाई गई।
मनोचिकित्सकों की कमी
राजकीय दून मेडिकल कॉलेज की मनोचिकित्सक जया नवानी बताती हैं कि ऐसी घटनाओं के बाद पोस्ट ट्रॉमेटिक स्ट्रैस डिसऑडर या पीटीएसडी हो जाता है। जिसके बाद पीडित उस घटना को बार-बार महसूस करता है। वो बताती हैं इसमें मरीज को कई बार भ्रम होता है। उसे वो चीजें दिखाई देती हैं जो होती ही नहीं हैं। वो बताती हैं कि तेज आवाज से भी पीड़ित डरने लगता है। वो उन जगहों में जाने से परहेज करता है जहाँ उसे जानवर के मिल जाने का अंदेशा होता है। भावनात्मक रुप से भी इसका असर उन पर पड़ता है। उनके अनुसार बच्चों पर ऐसी घटनाओं का असर कम देखने को मिलता है। लेकिन अगर घटना उन्हें मानसिक रुप से ज्यादा परेशान करती है तो इसका प्रभाव उनके पूरे जीवन पर पड़ता है। उन्होने बताया कि इस तरह के मरीजों को साइको थेरेपी और दवाईयाँ दोनों के जरिए ठीक किया जा सकता है।

लेकिन, उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों में स्वास्थ्य व्यवस्था चरमराई हुई है। आज भी 50 प्रतिशत से ज्यादा स्पेशलिस्ट डॉक्टरों की कमी है। ऐसा ही हाल मानसिक स्वास्थ से जुड़ी सुवधाओं का है। स्टेट मेन्टल हेल्थ अथॉरिटी की वेबसाईट में इस बात को माना गया है कि पेशेवरों की कमी के कारण काम प्रभावित हो रहा है।
लगभग पाँच सालों से मानसिक अभिघात से गुजर रहे लियाकत बताते हैं कि वो अपनी इस समस्या को लेकर कभी किसी मनोचिकित्सक के पास नहीं गए। कारण पूछे जाने पर वो कहते हैं कि जिस समय बाघ ने उन पर हमला किया तो रामनगर स्थित सरकारी अस्पताल ने उनका इलाज करने में असमर्थता दिखाई और उन्हें प्राइवेट अस्पताल में रैफर कर दिया गया। जिसके बाद उनकी घारणा बन गई कि मनोचिकित्सक जिसे वो अपनी भाषा में दिमाग का डॉक्टर कहते हैं ,सरकारी अस्पताल में मिल ही नहीं सकता। और निजी अस्पताल का महंगा इलाज करवाने की उनकी कभी हिम्मत ही नहीं हो पाई।
किसी पीड़ित की वित्तीय स्थति मानसिक रोगियों के इलाज में बाधा उत्पन्न करने का प्रमुख कारण बनती है। लियाकत की तरह राखी रावत का परिवार भी इस स्थिति से गुजर रहा है। उनका इलाज उनके घर से 200 किलोमीटर दूर राज्य की राजधानी देहरादून में चल रहा है। राखी की माँ का कहना है कि गाड़ी का किराया, देहरादून में एक दिन रुकने का खर्चा वो नहीं उठा पा रही हैं। और कई महीनों तक वो डॉक्टर के पास नहीं जा पाती हैं।
जंगली जानवरों के हमलों में घायलों और मृतकों के परिवार के लोगों की राज्य सरकार वित्तीय रूप से मदद करती है। ऐसे हमलों में आंशिक रूप से अपंग होने पर 1,00,000 रूपए, पूर्ण रूप से अपंग होने पर 3,00,000 रुपए और मृत्यु होने पर 6,00,000 रूपए का प्रावधान है। उत्तराखंड के प्रमुख वन संरक्षक धनंजय मोहन बताते हैं कि वन्यजीव और मानव संघर्ष के पीडितों को वन विभाग से निर्धारित समयावधी में मुआवजा दिया जाता है। इसके अलावा मानसिक स्वास्थ खराब होने की स्थिति में अलग से कोई मुआवजा नहीं दिया जाता है। धनंजय मोहन कहते हैं कि सरकार की तरफ से जो नियम है उसी के अंतर्गत मुआवजा दिया जा रहा है।
मनोचिकित्सक जया नवानी बताती हैं कि मरीजों को ये समझने में कि वो किसी मानसिक बिमारी से ग्रसित हैं, लंबा समय लग जाता है। और जब उन्हें या उनके परिवार को ये समझ आता है तो वो लोग अपने आसपास झाड़-फूंक करने वाले लोगों से संपर्क करते हैं। और ऐसा पहाड़ों और ग्रामीण इलाकों में ज्यादा देखने को मिलता है।
उनके अनुसार ऐसे मामले में शुरुआती दौर में ही पीडित की मानसिक स्थिति का आंकलन कर लिया जाना चाहिए। और उन्हें मानसिक तनाव के लक्ष्णों की जानकारी दी जानी चाहिए। वो जोर देकर कहती हैं कि इसको सुनिश्चित करने के लिए नीतिगत निर्णय लिए जाने बेहद जरुरी हैं।

वन्यजीव और मानव संघर्ष की बढती घटनाओं को देखते हुए भारत सरकार के वन्य पर्यावरण व जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने गुलदार और मानव संघर्ष को न्यूनतम करने के लिए साल 2023 में गाईडलाईन जारी की। बीस पन्नों की इस गाईडलाईन में Reducing the Impact of HLC on the Health and Well-being of Humans (मनुष्यों के स्वास्थ्य और कल्याण पर HLC के प्रभाव को कम करना) बिंदु के अंतर्गत ये साफतौर पर उल्लेख किया है कि ऐसी घटनाओं में बच गए लोगों को मनोवैज्ञानिक प्रभावों से उबरने के लिए सहायता प्रदान की जा सकती है।
उत्तराखंड मानसिक स्वास्थ प्राधिकरण के सचिव सुमित देब बर्मन बताते हैं कि प्राकृतिक आपदा की स्थिति में पोस्ट डिजास्टर नीड़ एस्सेसमेंट के लिए भारत सरकार की तरफ से एस.ओ.पी. बनाई गई है लेकिन मानव-वन्यजीव संघर्ष के लिए ऐसी कोई गईडलाईन नहीं है। उन्होंने माना कि ऐसे मामलों के लिए स्टेंडर्ड ट्रीटमेंट प्रोटोकॉल बनाया जाना बेहद जरुरी है। जिससे ऐसी घटनाओं के बाद पीड़ित परिवार और पीड़ित व्यक्ति को चिकित्सीय परामर्श मिल सके।
उनसे जब पूछा गया कि ऐसे मरीजों को अपने इलाके के नजदीक कैसे उपचार मिल सकता है। जवाब में उनका कहना था प्राधिकरण की तरफ से अब प्राथमिक स्वास्थ चिकित्सकों को भी ऐसे मरीजों को जांचने की ट्रेनिंग दी जा रही है जिससे वो सही समय पर सही उपचार तक अपनी पहुँच बना सकें।
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इन सारे मामलों को देखकर एक बात साफ हो जाती है कि नीतिगत स्तर पर बड़े बदलावों के बाद ही वन्यजीव मानव संघर्ष के इन पीडितों को राहत मिल पाएगी। इसमें कितना लंबा समय लगेगा, ये कहा नहीं जा सकता। लेकिन फिलहाल एक बात कही जा सकती है कि इन पीडितों की जान तो बच गई है लेकिन जिंदगी नहीं।
बैनर तस्वीरः पौड़ी जिले के पोखड़ा ब्लॉक का सुंदरई गांव। तस्वीर- रॉबिन चौहान