- मेघालय का लिविंग रूट आर्किटेक्चर प्रकृति के अनुकूल जीवन में पारंपरिक ज्ञान के उपयोग का एक प्रमाण है।
- बढ़ता कांक्रीटीकरण और पर्यटन इन लिविंग रूट संरचनाओं यानि पेड़ों की जड़ों से बने पुलों के लिए खतरा बन रहे हैं।
- युवाओं की भागीदारी और दस्तावेजीकरण के माध्यम से मेघालय में गांव वाले वास्तुकला और अमूल्य ज्ञान को संरक्षित करने के लिए एकजुट हो रहे हैं।
बाहरी दुनिया के लिए मेघालय प्रकृति का अजूबा है, जो अपने धुंध से ढके पहाड़ों, कैनियन, घाटियों और झरनों से पर्यटकों को आकर्षित करता है। लेकिन जो लोग यहां के दूर-दराज के गांवों में रहते हैं, उनके लिए हर दिन मुश्किलों भरा होता है। उन्हें खड़ी पहाड़ियों, घने, बारिश से भीगे उपोष्णकटिबंधीय कैनोपियों के नीचे तेज धारा वाली नदियों को हर रोज पार करना होता है। ऐसे में खासी और जैंतिया पहाड़ियों में रहने वाले लोगों के पूर्वजों ने सुरक्षित रास्ते बनाने के लिए एक अनोखा तरीका खोजा। उन्होंने फिकस इलास्टिका (भारतीय रबर अंजीर का पेड़) नामक पेड़ की जड़ों से पुल बनाए और प्रकृति का उपयोग करके अपनी जरूरतों को पूरा किया।
हॉलीवुड की ब्लॉकबस्टर फिल्म अवतार के सेट की याद दिलाने वाले प्रसिद्ध लिविंग रूट ब्रिज ने यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थलों की अस्थायी सूची में जगह बनाई है। हालांकि, फिकस-आधारित लिविंग आर्किटेक्चर, जिसे खासी भाषा में जिंगकिएंग जरी के नाम से जाना जाता है, सिर्फ पुलों तक सीमित नहीं है।
स्थानीय लोग यहां आने वाले पर्यटकों को ऐसे रास्तों पर पैदल चलने की सलाह देते हैं जहां वे फिकस के पेड़ों की जड़ों से बने अद्भुत शिल्प कौशल को देख सकें। बाहरी लोगों को शायद ही कभी इस तरह के अनुभव कभी पहले मिला हो। पिनुरस्ला में ऐसे ही एक पुराने रास्ते पर चलते हुए, हमने जड़ों से बनी मुश्किल सीढ़ियां पर चढ़ाई की। रास्ते बेहद संकरे और पहाड़ी के किनारे-किनारे बने हुए थे, जहां थोड़ी सी भी चूक हमें नीचे गहराई में ले जा सकती थी। लेकिन फिकस के पेड़ों की जड़ों से कुशलता से तैयार की गई प्राकृतिक रेलिंग और रिटेनिंग दीवारों ने हमें गिरने नहीं दिया।

यात्रा के दौरान हमें पहाड़ी ढलान से लटके हुए जालीदार, झूला जैसे आराम करने के मंच भी दिखे, जो पूरी तरह से फिकस के पेड़ों की जड़ों से बने थे। ये देखने में बहुत ही दिलचस्प थे। हमारे स्थानीय गाइड बिना किसी परेशानी के ऐसे ही एक पुल पर चढ़ाई करने लगे, क्योंकि उन्हें 15 सालों में जड़ों के बढ़ने से बनी इस मजबूत संरचना पर पूरा भरोसा था। आश्चर्यजनक रूप से, ये पुल काफी विशाल थे और आराम से पांच या छह वयस्कों का भार सहन कर सकते थे। गाइड ने बताया कि किसी नए पुल को इतनी ही मजबूती और लचीलापन हासिल करने में एक दशक से भी ज्यादा का समय लगता है।
लिविंग रूट से बनी इन संरचनाओं ने स्थानीय निवासियों के लिए अपने खेतों और बाजारों तक पहुंच को आसान बना दिया है, साथ ही जंगलों में भोजन की खोज में भी मदद की है। दरअसल इन पुलों ने उनकी जीवनशैली को आकार दिया है। समय के साथ-साथ ये लिविंग रूट ब्रिज इको-टूरिज्म का एक महत्वपूर्ण हिस्सा भी बन गए हैं।
साझा प्रबंधन
स्थानीय परंपराओं में गहराई से रचे बसे ये लिविंग रूट ब्रिज मुख्य रूप से समुदाय द्वारा संचालित परियोजनाएं हैं, जिनका स्वामित्व और रखरखाव गांव के पूरे समुदाय से लेकर निजी व्यक्तियों तक अलग-अलग होता है।
खिरिम सिमशिप (किंगशिप) हेरिटेज कमेटी के अध्यक्ष मॉर्निंगस्टार खोंगथाव बताते हैं, “परंपरागत रूप से, खासी मातृसत्तात्मक समाज (जहां परिवार का नाम महिलाओं के जरिए आगे बढ़ता है) में, 50 वर्ष से अधिक उम्र के ऐसे पुरुष जिनकी कोई बहन या बच्चा नहीं हैं, वे जीवित संरचनाओं के निर्माण के लिए फिकस के पौधे लगाना पसंद करते हैं, ताकि उनके योगदान के लिए उनके परिवार का नाम हमेशा याद रखा जाए।”
लिविंग रूट ब्रिज बनाने की शुरुआत फिकस इलास्टिका की कोमल, लचीली हवाई जड़ों (एरियल रूट्स) को एरिका कटेचू के खोखले तनों में डालकर की जाती है, जिसे बांस के मचान से सहारा दिया जाता है। ये तने जड़ों को आवश्यक पोषण और मौसम से सुरक्षा देते हैं। शुरुआत में, दो या तीन लंबे रेशों को एक धारा या खाई के ऊपर फैलाया जाता है और विपरीत दिशा में या तो मजबूती से जमीन में गाड़ दिया जाता है या किसी अन्य फिकस पेड़ के रेशों के साथ बांध दिया जाता है। वर्षों में, सीढ़ियां और रेलिंग बनाने के लिए अतिरिक्त जड़ों को प्राथमिक प्रणाली में जोड़ा जाता है। बांस के मचान, जो समय के साथ खराब होते रहते हैं, उन्हें समय-समय पर बदलते रहते हैं और किसी भी अंतराल को भरने के लिए चरण दर चरण पत्थरों, लकड़ी के तख्तों, पत्तियों और मिट्टी का सहारा लिया जाता है। कुछ दशकों के भीतर ही जड़ संरचना महत्वपूर्ण वजन उठाने लायक बन जाती जाती है और आखिर में बांस के सहारे के बिना स्वतंत्र रूप से खड़ी हो जाती है। इसकी रीजेनरेटिंग क्वालिटी इसे स्वाभाविक रूप से टिकाऊ बनाए रखती है।

जड़ संरचनाओं के नियमित रखरखाव में काई और एपिफाइट्स को हटाना, जड़ों की छंटाई और उन्हें बांधना, रास्ते के किनारे सामग्री बिछाना और आस-पास की जगह को साफ करना शामिल है। हर एक व्यक्ति के बीच काम कुछ इस तरह से बांटा जाता है: पुरुष बांस इकट्ठा करते हैं और भारी काम संभालते हैं, जबकि महिलाएं क्षेत्र को साफ करने, बांस के तने को तोड़ने, जड़ों को बांस के फ्रेम से बांधने के लिए पट्टियां और धागे बनाने जैसे अधिक जटिल काम संभालती हैं।
पिनुरसला के एक और गांव मावकिरनोट की अधेड़ उम्र की हपिला मोंटिला खोंगबेह कहती हैं, “हमारी औरतें ज्यादा मेहनती हैं। सुबह के काम निपटाने के बाद, हम जंगल, खेत और बाजारों में निकल जाती हैं और इन लिविंग रूट ब्रिज पर पुरुषों से अधिक बार आती-जाती हैं। हमें इनके बनाने और देखभाल करने में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने पर गर्व है।” वो युवा महिलाओं को इस कला में मार्गदर्शन दे रही थीं। उन्होंने कहा, “हम इसे मीरामेव कहते हैं, जिसका अर्थ है ‘प्रकृति को लौटाना और उसके साथ घुलने-मिलने का गहन कार्य।” लिविंग रूट से बने इन पुलों को पूरा होने में लंबा समय लगता है और अंतर-पीढ़ीगत दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है। इसलिए बच्चे और बूढ़े भी निर्णय लेने में सक्रिय रूप से शामिल होते हैं।
लचीली जड़ें
साल 2019 में टेक्निकल यूनिवर्सिटी ऑफ म्यूनिख ने 75 लिविंग रूट ब्रिज की मैपिंग की थी, जिनमें से कुछ 52.7 मीटर तक लंबे थे और कुछ की एरियल रूट 30 मीटर से भी ज्यादा दूर तक फैली हुई थीं। हालांकि, आजकल कंक्रीट के ढांचे बनने से कई पुलों पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। मैपिंग से पता चलता है कि पर्यटकों के आने-जाने वाले कुछ पुलों को सुरक्षा के लिए कंक्रीट या स्टील से मजबूत किया गया है और उन तक जाने वाले रास्तों पर भी पक्की सड़क बना दी गई है। इन संरचनाओं के आसपास पर्यटकों के लिए सुविधाएं बढ़ाई जा रही हैं, जिससे गांव वाले खेती कम करके पर्यटन से ज्यादा पैसे कमाने लगे हैं। पुलों की देखभाल के लिए गांव के पुराने नियम इन तेजी से हो रहे बदलावों से तालमेल बिठाने में मुश्किल महसूस कर रहे हैं।
इसकी प्रतिक्रिया में, समुदायों के बीच एक मौन आंदोलन पनप रहा है। हेरिटेज कमेटी ने लिविंग रूट आर्किटेक्ट के लिए एक नॉलेज सेंटर स्थापित किया है। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम के समर्थन से, इसने 132 से अधिक लिविंग रूट ब्रिज की मैपिंग की और रंगथिलियांग, मावकिरनॉट व म्यंरिएंग के गांवों के 30 पुलों को बचाने का फैसला किया है।

रंगथिलियांग के मॉर्निंगस्टार ने मोंगाबे इंडिया को बताया, “हमारे समुदाय में लगभग 20 बुजुर्ग बचे हैं जो लिविंग रूट वास्तुकला में माहिर हैं। मानसून का मौसम इन कोमल जड़ों को बुनने का प्रमुख मौसम है। इस मौसम में युवाओं का ग्रुप उनसे इस कला को सीखने के लिए आता है।”
नए पुल भी बनाए जा रहे हैं और पहली बार पूरी प्रक्रिया को सावधानीपूर्वक दर्ज किया जा रहा है, जिसमें स्थानीय शिल्प से मिली मूर्त और अमूर्त दोनों तरह की जानकारियों को शामिल किया जा रहा है। मौजूदा पुलों की उम्र का अनुमान लगाने के लिए विशेषज्ञों से सलाह ली जा रही है। कई संरचनाएं गांवों के बीच साझा की जाती हैं, जो इस जानकारी को संरक्षित करने के लिए एक साथ आए हैं। समिति ने प्रत्येक पुल के चारों ओर 50 मीटर का संरक्षित जंगल, या लॉ अडोंग प्रस्तावित किया है ताकि किसी भी ऐसे निर्माण को रोका जा सके जिससे संरचनाओं और उनके सहायक पारिस्थितिकी तंत्र को संभावित रूप से नुकसान पहुंच सकता है।
मेघालय सरकार पुलों का दस्तावेजीकरण भी कर रही है और सुरक्षा दिशा-निर्देश भी तैयार कर रही है जो वैज्ञानिक रूप से समर्थित और समुदाय द्वारा स्वीकृत हैं। हालांकि, स्थानीय हितधारक टॉप-डाउन अप्रोच यानि दफ्तरों से दिए जाने वाले दिशा निर्देश वाले दृष्टिकोण की आलोचना कर रहे हैं। उन्होंने स्थानीय जानकारों की अपर्याप्त भागीदारी और बाहरी विशेषज्ञों पर अत्यधिक निर्भरता का आरोप लगाया है।
पारंपरिक ज्ञान
आधुनिक इंजीनियरिंग उपकरणों के बिना अद्भुत शिल्प बनाने के इस गुप्त ज्ञान ने रीजेनरेटिव बायोइंजीनियरिंग को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से किए गए अध्ययनों में रुचि जगाई है। टेक्निकल यूनिवर्सिटी ऑफ म्यूनिख के प्रोफेसर फर्डिनेंड लुडविग ने इस ज्ञान को बॉबोटैनिक की अपनी अग्रणी अवधारणा – (वास्तुकला जो जीवित पेड़ों को निर्माण सामग्री के रूप में उपयोग करती है) में शामिल किया है। यह नवाचार बिल्डिंग टोपोलॉजी, आंतरिक और बाहरी स्थान, शहर और परिदृश्य, प्रकृति और संस्कृति के बीच संबंधों को फिर से परिभाषित करता है।
लुडविग ने ईमेल के जरिए बताया, “मुझे पूरा विश्वास है कि फिकस-आधारित वास्तुकला उपोष्ण कटिबंधीय और उष्णकटिबंधीय शहरों को हरा-भरा, अधिक जैव विविधता पूर्ण, सुविधाजनक और रहने योग्य बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।”
वह आगे कहते हैं, “खासी पुलों में लिविंग रूट का कार्य मुख्य रूप से भार वहन करना है। शहरी वातावरण में, यह हमें इमारतों और पेड़ों को एकीकृत करने की अनुमति दे सकता है, जिससे छाया, ठंडक, साफ हवा और आवास निर्माण जैसे पारिस्थितिक लाभ मिल सकेंगे।”
इस वास्तुकला की सांस्कृतिक और पारिस्थितिक विशेषताओं को शहरी सेटिंग्स में लाने के लिए,टेक्निकल यूनिवर्सिटी ऑफ म्यूनिख और नॉर्थ ईस्टर्न हिल यूनिवर्सिटी के वास्तुकला विभागों ने संयुक्त रूप से 2022 में शिलांग में नॉर्थ ईस्टर्न हिल यूनिवर्सिटी के कैंपस में 5 मीटर x 10 मीटर का लिविंग रूट पवेलियन बनाने की शुरुआत की। यह मेघालय के राज्य बनने की 50वीं वर्षगांठ के अवसर पर किया गया था।

बॉबोटैनिक ग्रुप ने जर्मनी में आर्बर किचन डिजाइन किया, जिसमें 32 लंदन प्लेन ट्री (प्लेटिनस एसेरिफोलिया) का एक ग्रोव है, जिन्हें 2012 में लगाया गया था। ग्रोव पत्थर की मेज और एक ओवन को घेरे हुए है। इसका उद्देश्य लोगों को प्रकृति से जोड़ना और कैनपी से छनकर आती रोशनी का आनंद लेते हुए एक साथ समय बिताना है।
असम डॉन बॉस्को यूनिवर्सिटी में सीनियर असिस्टेंट प्रोफेसर परी दास प्रकृति-आधारित समाधानों के रूप में नीले-हरे बुनियादी ढांचे के कार्यान्वयन पर शोध कर रही हैं। वह कहती हैं कि फिकस के अलावा कुछ अन्य प्रजातियां, जैसे बरगद के पेड़, अमेरिकन साइकोमोर, इंग्लिश ओक आदि को भी लिविंग आर्किटेक्चर डिजाइन में शामिल किया जा सकता है।
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दास कहती हैं, “शहरों में शामिल रीजेनरेटिंग वास्तुकला स्थिरता से बढ़कर है। यह कार्बन पृथक्करण, वाष्पोत्सर्जन और छाया प्रावधान के माध्यम से जलवायु अनुकूलन में मदद करता है, जिससे परिवेश के तापमान में 2-8 डिग्री सेल्सियस की कमी आती है, शहरी तूफानी जल अपवाह का प्रबंधन होता है और तनाव व श्वसन संबंधी बीमारियों को कम करने जैसे स्वास्थ्य लाभ मिलते हैं।”
लुडविग इस बात पर जोर देते हैं कि रीजेनरेटिंग आर्किटेक्चर निर्माण उद्योग की उत्सर्जन समस्या का पूरी तरह से समाधान नहीं है। लिविंग रूट स्टील जैसी मजबूत सामग्री की जगह नहीं ले सकतीं हैं। हालांकि, यह स्थानीय स्तर पर जलवायु परिवर्तन से निपटने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है, खासकर कार्बन पृथक्करण के मामले में। उन्होंने कहा, “फिकस-आधारित लिविंग आर्किटेक्चर पारंपरिक निर्माण सामग्री को पूरी तरह से बदलने के बजाय उसका पूरक बनेगी।”
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 1 नवंबर 2024 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: मेघालय के एक गांव मावकिरनॉट में एक लिविंग रूट ब्रिज को पार करती हुई कुछ खासी महिलाएं। तस्वीर: बरशा दास, मोंगाबे