- भारत में हाल ही में किए गए हाथियों के जीनोम अध्ययन ने उनकी आबादी, विविधता और इतिहास पर नई रोशनी डाली है।
- अध्ययन में देश में हाथियों की पांच अलग-अलग आनुवंशिक आबादी की पहचान की गई है, जिनकी विविधता का इतिहास 70,000 साल पुराना है।
- शोधकर्ताओं का कहना है कि इस अध्ययन के निष्कर्षों का उपयोग जनसंख्या अनुमान और मानव-हाथी संघर्षों को कम करने जैसे कई क्षेत्रों में किया जा सकता है।
एशियाई हाथी देश में सबसे ज्यादा अध्ययन की जाने वाली प्रजातियों में से एक हैं। फिर भी, हर नया अध्ययन हाथियों की रहस्यमय दुनिया की एक नई परत खोलता है। भारत में एशियाई हाथियों के आनुवंशिक इतिहास पर हाल ही में प्रकाशित एक अध्ययन में कुछ नए निष्कर्ष सामने आए हैं। इसके मुताबिक, देश में हाथियों की पांच आनुवंशिक रूप से अलग-अलग आबादी हैं और उनका इतिहास पहले की तुलना में बहुत पुराना है।
नेशनल सेंटर फॉर बायोलॉजिकल साइंसेज (NCBS) की प्रोफेसर और अध्ययन से जुड़ी शोधकर्ताओं में से एक उमा रामकृष्णन का कहना है कि एनिमल जीनोमिक्स देश के वन्यजीव इतिहास के दिलचस्प पहलुओं को उजागर करता है। उन्होंने मोंगाबे इंडिया को बताया, “विभिन्न वन्यजीव प्रजातियों के अतीत को फिर से बनाने के लिए डीएनए का इस्तेमाल करना आकर्षक है। जैसे-जैसे हम विभिन्न प्रजातियों के साथ इस काम को जारी रखेंगे, हमें भारत के वन्यजीवों के अतीत के बारे में और अधिक जानकारी मिलेगी।” उन्होंने कहा कि यह पता लगाना महत्वपूर्ण था, खासकर इसलिए क्योंकि पिछले 200 वर्षों में वन्यजीवों पर अधिकांश प्रभाव उनके आवासों के तहस-नहस होने, बढ़ती मानव आबादी और अन्य कारकों के कारण हुए हैं।

भारत लगभग 30,000 एशियाई हाथियों का घर है, जो दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया में फैली एशियाई हाथियों की कुल आबादी का 60% है। राष्ट्रीय जैविक विज्ञान केंद्र (NCBS) और भारतीय विज्ञान संस्थान (IISc) के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए हालिया अध्ययन में पांच आनुवंशिक रूप से अलग-अलग आबादी पाई गईं – एक-एक उत्तरी और मध्य भारत में और तीन दक्षिण भारत में। इन क्षेत्रों के जंगली हाथियों से खून के नमूने लिए गए और निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए पूरे जीनोम अनुक्रमों का विश्लेषण किया गया।
डब्ल्यूडब्ल्यूएफ-इंडिया के संरक्षण पारिस्थितिकी विज्ञानी अरित्रा क्षेत्री जीनोम अध्ययन को हाथी संरक्षण में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर मानते हैं जो इसके दायरे का विस्तार करता है। पहले के अध्ययनों में तीन से चार आबादी की ओर इशारा किया गया था, जिसमें उत्तरी और पूर्वोत्तर आबादी अनोखी और एक दूसरे से अलग थी। वर्तमान अध्ययन एक और आबादी जोड़ता है और सुझाव देता है कि उत्तरी और पूर्वोत्तर भारत में पाई जाने वाली हाथी आबादी वास्तव में एक ही समूह का हिस्सा है।
हालांकि दक्षिण में पालघाट गैप ने ऐतिहासिक रूप से प्रजातियों की विविधता और फैलाव में एक बाधा के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, लेकिन अध्ययन में दक्षिण में हाथियों के लिए एक और संभावित बाधा पाई गई – शेनकोट्टा गैप (आधिकारिक तौर पर, सेनगोट्टई)। गैप के दक्षिण में एक छोटी आनुवंशिक रूप से विशिष्ट आबादी है जो आनुवंशिक विविधता में कम है और इसलिए, प्रतिकूल परिस्थितियों के प्रति अधिक संवेदनशील मानी जाती है। तीन दक्षिण भारतीय आबादी पालघाट गैप के उत्तर व दक्षिण में और शेनकोट्टा गैप के दक्षिण में पाई जाती हैं।
संरक्षण की तरफ एक और कदम
हाथियों की अलग-अलग नस्लों का इतिहास बहुत पुराना है, लगभग 20,000 से 70,000 साल पहले का। आईआईएससी के प्रमुख लेखक अनुभव खान कहते हैं कि उत्तरी इलाके वाले हाथी दो हिस्सों में बंट गए, जिससे उत्तरी (तराई) और पूर्वोत्तर आबादी बन गई। वैज्ञानिकों का मानना है कि मध्य भारत के हाथी लगभग 50,000 साल पहले पूर्वोत्तर वाले हाथियों से अलग हुए थे। पालघाट गैप के उत्तर में रहने वाले हाथी 70,000 साल पहले अलग हुए। फिर इस समूह के कुछ हाथी पालघाट गैप के दक्षिण में चले गए, और वहां से कुछ और हाथी लगभग 20,000-30,000 साल पहले शेनकोट्टा गैप के दक्षिण में चले गए। खान बताते हैं कि वन्यजीवों पर किए गए अध्ययनों में इतना पुराना इतिहास मिलना बहुत मुश्किल है।
रामकृष्णन कहती हैं कि अलग होने का इतना पुराना इतिहास बताता है कि अलग-अलग किस्म के हाथियों में जीन के स्तर पर भी बहुत अंतर है। खान समझाते हैं कि “उन्होंने कैसे एक जगह से दूसरी जगह यात्रा की और कैसे पूरे देश में फैल गए, इस बात से उनके जीन में विविधता और आनुवंशिक भार भी प्रभावित हुआ है। आनुवंशिक भार से मतलब अलग-अलग नस्लों के हाथियों में बीमारियों से लड़ने वाले एलील जीन की मात्रा से है” यह जानकारी हाथियों के संरक्षण के लिए बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे हमें यह समझने में मदद मिलती है कि अलग-अलग आबादी को किन खतरों का सामना करना पड़ रहा है। सरल शब्दों में, आनुवंशिक भार जितना अधिक होगा, उस आबादी में बीमारियों और अन्य समस्याओं का खतरा उतना ही अधिक होगा।
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करंट बायोलॉजी में छपे इस अध्ययन में पाया गया है कि जैसे-जैसे आबादी उत्तर से दक्षिण की ओर फैली और अलग-अलग हुई, हानिकारक एलील कम होते चले गए। दक्षिणी आबादी में इनमें से कम एलील पाए गए। इन हानिकारक एलील की उपस्थिति, जो फिटनेस को कम करती है, कम जीवनकाल या प्रति पीढ़ी कम संतानों के रूप में प्रकट हो सकती है।
क्या इसका मतलब है कि दक्षिणी आबादी उत्तरी आबादी की तुलना में स्वस्थ है? खान कहते हैं, ‘ऐसा जरूरी नहीं है।” दक्षिणी आबादी में होमोजीगोसिटी बढ़ने के कारण हानिकारक एलील्स को व्यक्त करने की संभावना अधिक होती है, जो प्रत्येक माता-पिता से एक विशेष जीन के दो समान रूपों को विरासत में मिलने की संभावना है।
कमजोर होती इनब्रीडिंग
ये निष्कर्ष एक “सीरियल फाउंडर इफेक्ट” की ओर इशारा करते हैं, जो अक्सर लंबी दूरी तक प्रवास करने वाली आबादी में देखा जाता है। हर आबादी में से कुछ ही जीव नई जगह जाकर बस जाते हैं, जिससे वहां आबादी कम हो जाती है और उनमें आपस में ही संबंध बनाने की संभावना बढ़ जाती है। नतीजतन, नई आबादी संबंधित जीव के बीच प्रजनन के कारण माता-पिता से दोनों हानिकारक आनुवंशिक वेरिएंट विरासत में ले सकती है।
वैज्ञानिकों का मानना है कि इस अध्ययन का विज्ञान और संरक्षण के क्षेत्र में कई तरह से इस्तेमाल किया जा सकता है। रामकृष्णन का कहना है कि जीनोम सीक्वेंसिंग से वैज्ञानिकों को SNP (सिंगल न्यूक्लियोटाइड पॉलीमॉर्फिज्म) पैनल बनाने में मदद मिलेगी, जो कि छोटे मार्करों का एक समूह है जो व्यक्तियों की पहचान करने में मदद करेगा। यह अध्ययन जीनोम और विविधताओं का एक डेटाबेस प्रदान करता है जो भविष्य के अनुसंधान के लिए और संरक्षण आनुवंशिकी में अनुप्रयोग के लिए उपकरण विकसित करने के लिए एक संदर्भ के रूप में काम कर सकता है।

क्षेत्री जनसंख्या का अनुमान लगाने और जीवों की सटीक पहचान करने में जीनोमिक्स में अधिक संभावना देखते हैं। यह शिकारियों से जब्त किए गए जीवों में विशेष रूप से उपयोगी हो सकता है, जिससे शिकार को कम करने में मदद मिलेगी। उन्होंने बताया कि आनुवंशिक डेटा की सहायता से, जब्त किए गए जीव या जनसंख्या को वापस खोजा जा सकता है, जिसका हाथी संरक्षण पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। रामकृष्णन का कहना है,”शेनकोट्टा गैप के दक्षिण में मौजूद छोटी, कमजोर आबादी का बेहतर तरीके से मूल्यांकन किया जा सकता है और उनके संरक्षण को प्राथमिकता दी जा सकती है, क्योंकि अध्ययन से पता चलता है कि उस आबादी में आनुवंशिक भिन्नता कम है और वो आपस में ही बच्चे पैदा कर रहे हैं। इसी तरह, उत्तरी और पूर्वोत्तर में रहने वाले हाथियों को भी आपस में कनेक्ट करना जरूरी है, ताकि वहां अलग-अलग झुंड न बन जाएं।” वह आगे कहती हैं। “मध्य भारत के हाथी छत्तीसगढ़ के कई इलाकों में फैल रहे हैं, इसलिए ये समझना ज़रूरी है कि वो कहां जा रहे हैं और उनके जीन में क्या बदलाव आ रहे हैं।”
भारत के कई राज्यों में हाथी मानव बस्तियों के करीब आ रहे हैं, जिससे इंसानों और हाथियों के बीच संघर्ष बढ़ रहा है। संघर्ष को कम करने पर ध्यान केंद्रित करने वाले शोधकर्ताओं का मानना है कि जीनोमिक्स व्यवहार्य समाधानों की पहचान करने में महत्वपूर्ण योगदान दे सकता है। नीलगिरी स्थित ‘द शोला ट्रस्ट’ के शोधकर्ता-संरक्षणवादी तर्ष थेकाकारा हाथियों पर रिसर्च और नीलगिरी बायोस्फीयर रिजर्व में गुडलूर जैसे मानव-हाथी उच्च संघर्ष वाले क्षेत्र में काम करते हैं। उन्हें उम्मीद है कि इस अध्ययन के नतीजों से संघर्षों को कम करने के लिए वैज्ञानिक तरीकों का इस्तेमाल करने में मदद मिलेगी। अध्ययन के सह-लेखकों में से एक थेकाकारा कहते हैं, “हालांकि निष्कर्षों का संघर्ष शमन के क्षेत्र में तुरंत कोई फायदा नहीं मिलने वाला है। लेकिन इससे अधिकारियों को हाथियों से जुड़ी गंभीर समस्याओं के लंबे समय तक चलने वाले समाधानों के बारे में सोचने में मदद मिलेगी।”
यह खबर मोंगाबे-इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 1 नवंबर 2024 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: भारत में हाथियों की आबादी के पूरे जीनोम अनुक्रमण से पता चलता है कि इस प्रजाति की पांच आनुवंशिक रूप से अलग-अलग आबादी है। तस्वीर- चार्ल्स जे. शार्प, विकिमीडिया कॉमन्स (CC BY-SA 4.0)