- वर्कला की चट्टानें लाखों साल पुराने भूवैज्ञानिक काल की झलक दिखाती हैं।
- यह चट्टानें अनूठी जैव विविधता, मीठे पानी के स्रोत और मछुआरों की आजीविका को बनाए रखने में मदद करती हैं।
- इन्हें भारी बारिश, तूफानों से उठने वाली ऊंची लहरों और निर्माण गतिविधियों से खतरा है।
तिरुवनंतपुरम के उत्तरी हिस्से में स्थित वर्कला की चट्टानें अपनी हल्की सफेद, पीली, गेरुई, लाल-भूरी और सुनहरी रंगीन परतों के कारण दुनियाभर में मशहूर हैं। नवंबर का महीना शुरू होते ही दुनिया भर से पर्यटक इन चट्टानों की ओर खिंचे चले आते हैं। लेकिन हाल में हुई मूसलाधार बारिश, ऊंची लहरों, समुद्र तट के कटाव और निर्माण/विकास के कामों से इन्हें खासा नुकसान पहुंचा है और इन पर खतरा मंडरा रहा है। अब कुछ स्थानीय संरक्षणकर्ता इन प्राकृतिक धरोहरों को खतरों से बचाने के लिए आगे आए हैं।
समुद्र तट पर 7.5 किलोमीटर क्षेत्र तक फैला ये सुनहरी रेत वाला किनारा,उच्च-जल रेखा और लहरों की जमीनी सीमा के बीच स्थित है। ये चट्टानें एक अनोखी जगह हैं जहां भूगर्भिक विविधता पाई जाती है। वैश्विक मानकों के अनुसार, इनके खनिज, जीवाश्म, चट्टानें, मिट्टी, तलछट व भू-आकृतियां और साथ ही भूमि व जल विशेषताओं का संरक्षण किया जाना चाहिए।
यह जगह पृथ्वी के विकास को समझने में मदद करती है और यहां की जैव विविधता और मीठे पानी के स्रोत आस-पास के लोगों के लिए भी जीवन रेखा है।
चट्टानों पर बढ़ता खतरा
केरल, जिसे राज्य पर्यटन विभाग ‘भगवान का अपना देश’ कहता है, के संरक्षणकर्ताओं का कहना है कि भीड़-भाड़ बढ़ने के कारण चट्टानों को चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। उनका यह भी मानना है कि शायद इन चट्टानों के महत्व के बारे में जागरूकता की कमी सबसे बड़ी बाधा है।
पिछले कुछ सालों में, चट्टान पर बहुत तेजी से रेस्टोरेंट, रिजॉर्ट, पार्किंग और एक हेलीपैड जैसे निर्माण हुए हैं। तो वहीं जून की शुरुआत में तिरुवनंतपुरम जिला प्रशासन ने भूस्खलन रोकने के लिए चट्टान के एक हिस्से को बुलडोजर से गिरा दिया। दरअसल जलवायु परिवर्तन के कारण केरल के पहाड़ी इलाकों में भारी बारिश हो रही है जिससे भूस्खलन का खतरा बढ़ गया है और ये भूस्खलन केरल के ऊंचे इलाकों और पहाड़ियों को खतरे में डाल रहा है। यह हिस्सा उस जगह के पास गिराया गया जहां लोग अपने प्रियजनों का अंतिम संस्कार करते हैं।
भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण की उप महानिदेशक (केरल इकाई) वी. अंबिली ने मीडिया से बात करते हुए कहा, “चट्टान को गिराना चौंकाने वाला था।” उन्होंने आगे कहा, “यह चट्टान भूवैज्ञानिक और भू-आकृति विज्ञान के हिसाब से बहुत महत्वपूर्ण है।”
भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण का हस्तक्षेप
केरल के पूर्व फिल्म स्टार और भारत के पर्यटन राज्य मंत्री सुरेश गोपी ने वर्कला का दौरा करते हुए कहा कि चट्टानों को बचाने के लिए तुरंत कदम उठाए जाएंगे।

उधर भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (जीएसआई) ने बताया कि इन चट्टानों को 2014 में “राष्ट्रीय भू-धरोहर स्थल” घोषित किया गया था। वर्ल्ड हेरिटेज कन्वेंशन उन असाधारण स्थानों की रक्षा करता है जो अपनी सुंदरता, जैव विविधता, पारिस्थितिकी तंत्र और भूवैज्ञानिक मूल्यों के लिए जाने जाते हैं। जीएसआई ने स्लोप और तल की सुरक्षा, पेड़ लगाने और चट्टान पर होने वाले निर्माण पर प्रतिबंध लगाने जैसे कई संरक्षण उपायों का भी सुझाव दिया।
जीएसआई ने कहा, “अवैज्ञानिक तरीके से इमारतों और रिजॉर्ट का निर्माण, चट्टान के ऊपर और दोनों किनारों पर निर्माण गतिविधियों के लिए स्लोप में किए गए बदलाव को स्लोप की अस्थिरता के कारणों के रूप में देखा गया है।”
जीएसआई द्वारा सुझाए गए उपायों में स्लोप पर बायोडिग्रेडेबल जूट की जाली और गहरी जड़ों वाले छोटे पौधे और झाड़ियां लगाना शामिल हैं। जीएसआई ने थॉमस लॉरेंस द्वारा दायर एक सूचना के अधिकार (आरटीआई) के जवाब में हाल ही में बताया था, “एक साल में, झाड़ियां बढ़ जाएंगी और गहरी जड़ें भूमिगत जल को रोककर रखेंगी और स्लाइड की संभावनाओं को रोक देंगी।” थॉमस लॉरेंस, संरक्षण ग्रुप ‘सेव वेटलैंड्स इंटरनेशनल मूवमेंट’ के प्रमुख हैं।
भूवैज्ञानिक विरासत
ये विशाल चट्टानें लगभग सीधी खड़ी हैं, इन्हें लहरें काटती, तराशती और घिसती रहती हैं। इसके साथ ही यह हवा और बारिश से भी कमजोर हुई हैं। वर्कला जैसी समुद्री चट्टानों पर लहरें, मौसम के कारण आई तलछट को बहा ले जाती हैं और इसे समुद्र तल का हिस्सा बना देती हैं।
जीएसआई के अनुसार, वर्कला की चट्टानें कम से कम 5.3 मिलियन वर्ष पुरानी हैं। इंटरनेशनल जर्नल ऑफ जियोहेरिटेज एंड पार्क्स में 2022 के एक पेपर में उल्लेख किया गया है, “यह वर्कली संरचना के पूरे मायो-प्लीयोसीन अनुक्रम को उजागर करता है।” भूगर्भीय समय-सीमा में, मायोसीन लगभग 23 से 5.3 मिलियन वर्ष पहले तक फैला हुआ है, उसके बाद प्लीयोसीन है, जो 5.3 से 2.6 मिलियन वर्ष पहले तक फैला हुआ है।
पेपर में लिखा है, “वर्कला में दिखने वाला भारत का लगभग सीधा पश्चिमी तट (वेस्ट कोस्ट फॉल्ट – डब्ल्यूसीएफ का परिणाम), टेक्टोनिक गतिविधि की कई गतिविधियों का परिणाम है। भारतीय प्रायद्वीप, जो कभी गोंडवाना सुपरकॉन्टिनेंट का हिस्सा था, गोंडवाना के विभाजन के अंतिम चरण के दौरान मैस्करेन पठार से अलग हो गया।”
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फॉल्ट दो चट्टानों के बीच दरार या दरारों का क्षेत्र होता है और वे भूमि द्रव्यमानों को एक दूसरे के विरुद्ध या साथ-साथ चलने की अनुमति देते हैं। गोंडवाना प्राचीन महाद्वीप था, जिसमें आज का दक्षिण अमेरिका, अफ्रीका, अरब, मेडागास्कर, भारत, ऑस्ट्रेलिया और अंटार्कटिका शामिल थे, और लगभग 18 करोड़ साल पहले टूटना शुरू हुआ था। करीब 2.3 करोड़ साल पहले गोंडवाना का अस्तित्व समाप्त हो गया, लेकिन यह जीव-जंतुओं, वनस्पतियों और भू-आकृतियों की एक सामान्य विरासत छोड़ गया।
मास्कारेन पठार हिंद महासागर में, मेडागास्कर के उत्तर और पूर्व में एक पानी के भीतर बना भूभाग है। केरल यूनिवर्सिटी और मिशिगन टेक्नोलॉजिकल यूनिवर्सिटी की फैकल्टी के के. एस. सजिनकुमार के नेतृत्व में 2022 के एक रिसर्च पेपर में कहा गया था, “पनवेल (महाराष्ट्र) और कन्याकुमारी (तमिलनाडु) के बीच फैला वेस्ट कोस्ट फॉल्ट पश्चिमी तट की सीधी रेखा को दर्शाता है। शायद यह वही क्षेत्र था, जहां से गोंडवाना महाद्वीप अलग हुआ था।”
लाल ग्रह का संबंध
गोंडवाना से जुड़े होने के अलावा, वर्कला की चट्टानें कुछ दुर्लभ खनिजों का भी घर हैं जो ग्रहों के अध्ययन में लगे वैज्ञानिकों की मदद करती हैं। चट्टान बलुआ पत्थरों और प्लास्टिक मिट्टी और रेतीली मिट्टी के कणों की संरचनाओं को उजागर करती है जिसमें लिग्नाइट की पतली परतें और ऊपर की तरफ कठोर लैटराइट होती है। सजिनकुमार ने मोंगाबे इंडिया को बताया, “वे (चट्टानें) मंगल ग्रह के अध्ययन के लिए बेहतरीन उदाहरण हैं, क्योंकि उनमें जारोसाइट नामक खनिज होता है।” जारोसाइट अम्लीय मिट्टी का एक प्रमुख घटक है और वे औद्योगिक उपोत्पाद के रूप में आते हैं।
सजिनकुमार ने कहा, “जारोसाइट का निर्माण पाइराइट या मार्कसाइट – दोनों ही आयरन सल्फाइड खनिज अवायवीय (ऑक्सीजन रहित) स्थितियों में बनते हैं – के वायुमंडल और खारे पानी के संपर्क में आने से होता है।” वह आगे कहते हैं, “इसका मतलब है कि मंगल ग्रह पर भी अनुकूल वातावरण और खारे पानी का स्रोत उपलब्ध था।” जारोसाइट मंगल ग्रह पर पाए जाने वाले पहले हाइड्रेटेड खनिज थे, जो लाल ग्रह पर पानी के पर्यावरणीय इतिहास को जानने की कुंजी है।

मछुआरों के लिए मददगार
अपनी दरारों, छिद्रों, किनारों और चबूतरों में, चट्टानें उन पौधों को आश्रय देती हैं जो आसपास के जंगलों, झाड़ियों या घास के मैदानों में नहीं पाए जाते। इन “सूक्ष्म आवासों” में सही नमी और तापमान के साथ-साथ सूक्ष्मजीवों के लिए पर्याप्त मात्रा में मिट्टी होती है जो पौधों के विकास में मदद करती है। केरल यूनिवर्सिटी में जलीय जीव विज्ञान और मत्स्य पालन विभाग के प्रोफेसर और प्रमुख ए. बिजुकुमार ने कहा, “लैटेराइट चट्टानों में कुछ जड़ी-बूटियों खूब उगती हैं।” उन्होंने मोंगाबे इंडिया को बताया, “हमने यहां तो नहीं, लेकिन कन्नूर (उत्तरी केरल में) में उनका अध्ययन किया है।”
इसके अलावा, वर्कला की चट्टानों के पास पानी के नीचे चट्टानें हैं जो मछलियों के लिए समृद्ध आवास हैं। आस-पास के गांवों के तटों पर और पश्चिमी तट के किनारे अन्य जगहों पर भी, खुले में लैटेराइट चट्टान संरचनाएं हैं – जो चट्टानों से जुड़ी हैं। मछुआरे अक्सर गोता लगाते हैं और इनसे मसल्स (एक प्रकार का समुद्री जीव) निकालते हैं। कुछ स्थानीय मछली पकड़ने वाले समुदाय हैं जो इस काम में माहिर हैं।
तिरुवनंतपुरम स्थित संरक्षण समूह ‘फ्रेंड्स ऑफ मरीन लाइफ’ (एफएमएल) का नेतृत्व करने वाले रॉबर्ट पनीपिल्ला ने कहा, “लहरों की हलचल बहुत सारे शेलफिश को किनारे पर ले आती हैं और हमनें वर्कला में अपने फील्ड विजिट के दौरान इनका एक समृद्ध संग्रह देखा है।”
बिजुकुमार बताते हैं, “हालांकि, चट्टान द्वारा दी जाने वाली सबसे बड़ी पारिस्थितिकी सेवा तट के लिए जल संचयन है। इन चट्टानों के पास की जगहों में सबसे अच्छा पानी है।” वहीं शोध से पता चलता है कि बलुआ पत्थर और बजरी जलभृत (एक्वीफर) के रूप में कार्य करते हैं, शीर्ष पर कठोर लेटराइट परत उन्हें ढक लेती हैं और पानी स्वतंत्र रूप से गिरने वाले झरनों के रूप में निकलने लगता है।
संरक्षण के लिए वैज्ञानिक आगे आए
वैज्ञानिकों को चिंता है कि अधिक मानवीय गतिविधि चट्टानों के कटाव को तेज कर देंगी, जो एक धीमी, अपरिहार्य, प्राकृतिक प्रक्रिया है। जीएसआई के पूर्व निदेशक रघुनंदन पिल्लई ने मोंगाबे इंडिया को बताया, “निर्माण गतिविधियां चट्टानों की ऊपरी लैटेराइट परत को नष्ट कर देती हैं, जिससे नीचे का नरम बलुआ पत्थर मौसम के संपर्क में आ जाता है।”
उन्होंने आगे कहा, “मानसून के दौरान, लहरों की गतिविधि बहुत अधिक होती है और यह चट्टानों को और भी कमजोर बना देती है।” जलवायु परिवर्तन के कारण ऐसी उच्च लहरों और उफान वाली घटनाएं अधिक बार हो रही हैं। समुद्र वैज्ञानिकों ने बताया है कि उफान दूर के महासागरों में तूफान से आता है।
केरल सरकार और जीएसआई कानून के तहत चट्टानों को संरक्षित और सुरक्षित रखने की योजना बना रहे हैं। सजिन कुमार ने कहा, “लेकिन दुर्भाग्य से, यह बहुत धीमी गति से हो रहा है। जीएसआई को इसे युद्ध स्तर पर शुरू करना चाहिए।” वहीं, बिजुकुमार और उनके सहयोगी चट्टानों और आस-पास की चट्टानों की जैव विविधता का अध्ययन करने की योजना बना रहे हैं।
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 30 अक्टूबर 2024 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: वर्कला की चट्टानों पर निर्माण गतिविधियां काफी तेजी से बढ़ रही हैं। रेस्तरां, रिसॉर्ट, पार्किंग स्थल और एक हेलीपैड यहां के परिदृश्य को एक नया रूप दे रहे हैं। तस्वीर- के.एस. सजिनकुमार