- मैलोडोसिस उष्णकटिबंध वाले क्षेत्रों में उभरती हुई एक बीमारी है जो बर्कहोल्डरिया स्यूडोमैली जीवाणु से होती है। इसका इलाज संभव है, लेकिन इससे प्रभावित लोगों में से 10-50% की मौत हो जाती है। इसकी मुख्य वजह समय पर पहचान नहीं हो पाना, गलत पहचान, देरी से पहचान और एंटीबायोटिक प्रतिरोध है।
- ओडिशा में मैलोडोसिस के बारे में जानकारी जुटाने से पता चलता है कि संक्रमण मौसमी है। यह बीमारी भारी बारिश, ज्यादा आर्द्रता, घने बादल छाने और कम धूप निकलने की स्थिति में होती है। इसका फैलाव 23 से 29 डिग्री सेल्सियस के तापमान और घनी आबादी वाले तटीय क्षेत्रों में ज्यादा है।
- भारत में मैलोडोसिस स्थानीय रोग है, फिर भी यह भारत में अधिसूचित सूची में नहीं है। रेबीज या हैजा की तरह इसके होने की सूचना सरकार को देना जरूरी नहीं है।
- यह अध्ययन सरकारी एजेंसियों और स्वास्थ्य सेवा प्रणालियों को मैलोडोसिस के बारे में जागरूकता बढ़ाने और असरदार तरीके से इसे रोकने के उपाय तैयार करने में मदद कर सकता है।
एक सूक्ष्म जीवविज्ञानी और एक जलवायु मॉडलिंग वैज्ञानिक के बीच हुई एक आकस्मिक मुलाकात से ओडिशा में समय और जगह के आधार पर उपेक्षित उष्णकटिबंधीय बीमारी के बारे में पता चल पाया।
अध्ययन में मौसम और बारिश, तापमान, आर्द्रता, रोशनी, मिट्टी की नमी और मिट्टी के तापमान जैसे जमीनी कारकों का इस्तेमाल मैलोडोसिस के बारे में बताने के लिए किया गया। यह उष्णकटिबंध वाले क्षेत्रों में दुर्लभ लेकिन उभरती हुई स्वास्थ्य चिंता है। यह बैक्टीरिया बर्कहोल्डरिया स्यूडोमैली से दूषित पानी और मिट्टी के जरिए फैलती है।
नतीजों से पता चलता है कि भारी बारिश और बहुत ज्यादा आर्द्रता, बादल छाए रहने और कम धूप की स्थिति में 23-29 डिग्री सेल्सियस तापमान पर मैलोडोसिस संक्रमण होने की सबसे अधिक आशंका है। अध्ययन यह भी दिखाता है कि इस संक्रमण की दर मिट्टी में नमी के स्तर के 200-420 L/m3 के बीच और मिट्टी के तापमान के 24-31 डिग्री सेल्सियस होने पर बढ़ जाती है। ओडिशा में ये परिस्थितियां आधे साल तक बनी रहती हैं, जो जून से सितंबर के मानसून के महीनों से शुरू होती हैं और अक्टूबर और नवंबर में मानसून के बाद के महीनों तक जारी रहती हैं।
इस अध्ययन के लेखकों में से एक और भुवनेश्वर स्थित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) के वी. विनोज कहते हैं, “मैलोडोसिस को ‘पर्यावरण से होने वाला संक्रामक रोग‘ माना जा सकता है, जहां जलवायु और परिदृश्य इसके फैलाव में बड़ी भूमिका निभाते हैं।”
ओडिशा में मैलोडोसिस की घटनाओं के बारे में जानकारी जुटाने पर पता चलता है कि इसके संक्रमण से 30 में से 21 जिले पीड़ित हैं। खास तौर पर राज्य के तटीय क्षेत्रों पुरी, कटक, नयागढ़ और खोरधा में इसके आधे से अधिक मामले सामने आए हैं। उत्तरी ओडिशा के बालासोर, भद्रक और क्योंझर जिलों में लगभग 20% मामले देखे गए हैं। इस तथ्य पर हैरानी नहीं होनी चाहिए कि घनी आबादी वाले क्षेत्रों में इसके ज्यादा मामले सामने आए।

इलाज की पक्की व्यवस्था नहीं
हालांकि, दुनिया भर में मैलोडोसिस दुर्लभ बीमारी है। लेकिन यह भारत सहित दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया में इसका फैलाव बहुत ज्यादा है। पहले के अध्ययनों से पता चला है कि भारत के ज्यादातर हिस्सों में बी. स्यूडोमैली की घटना और इसमें बढ़ोतरी के लिए परिस्थितियां अत्यधिक उपयुक्त हैं।
भारत में मैलोडोसिस का इलाज कम होता है और इसकी जानकारी भी कम ही सामने आती है। ऐसा इसलिए हैं, क्योंकि हैजा या मलेरिया के विपरीत यह अधिसूचित बीमारी (इसके होने की सूचना सरकार को देने की जरूरत नहीं है) नहीं है। इसलिए, इसमें हैरानी नहीं होनी चाहिए कि साल 2000 से 2025 के बीच, भारत में मैलोडोसिस पर महज 300 प्रकाशन हैं। इनमें से ज्यादातर एकल अस्पतालों या साइटों में इसके होने की बिखरी हुई रिपोर्टें हैं। वहीं, हैजा पर 2,500 से ज्यादा प्रकाशन या मलेरिया पर 7,100 प्रकाशन हैं।
हालांकि, भारत में खास तौर पर ओडिशा में, मैलोडोसिस के जोखिम वाले लोगों की संख्या बहुत अधिक है। यह देखते हुए कि ओडिशा में संक्रमण के सबसे ज्यादा जोखिम वाले लोग गांवों (80%) में हैं, जिन्हें मधुमेह (6.8%), किडनी की पुरानी बीमारी (10%) और शराब की पुरानी लत (30%) है। अकेले इस राज्य में लगभग 1.5 करोड़ लोग बी. स्यूडोमैली के संपर्क में हैं।
इसके अलावा, मैलोडोसिस का इलाज या उपचार करना आसान नहीं है। इसे “तेजी से लक्षण बदलने वाले” रोग के तौर पर जाना जाता है। यह अक्सर अन्य स्थितियों के लक्षण दिखाता है। इनमें सबसे आम लक्षण टीबी, सेप्टिक गठिया और त्वचा संक्रमण हैं। मैलोडोसिस का स्पष्ट इलाज आमतौर पर सिर्फ खून, पेशाब या गले के थूक के कल्चर से किया जा सकता है। इसमें चार दिन तक का समय लग सकता है। लेकिन ज्यादातर संक्रमितों के पास इतना समय नहीं होता है।
मैलोडोसिस के अधिकांश मामले अचानक और गंभीर बीमारियों के रूप में होते हैं, जिनमें से लगभग 20 फीसदी सेप्सिस में बदल जाते हैं। सेप्सिस एक गंभीर स्थिति है जिसमें कई अंग काम नहीं कर सकते। तुरंत इलाज नहीं होने पर, आधे मरीजों की मौत हो जाती है। लगभग 10% बी. स्यूडोमैली संक्रमण लक्षणहीन या हल्के लक्षण वाले होते हैं, जिनमें बुखार, त्वचा पर घाव, खांसी, सीने में दर्द और सिरदर्द होता है; इनमें से लगभग 11% संक्रमण स्थानीय बन जाते हैं।
मैलोडोसिस का इलाज भी लंबा चलता है और यह महंगा भी है। अभी तक इसका कोई टीका उपलब्ध नहीं है।
फिलहाल, भारत में मैलोडोसिस के असल फैलाव की जानकारी नहीं है, क्योंकि इस बीमारी के बारे में जागरूकता कम है। इसके अलावा, ग्रामीण क्षेत्रों में इलाज के लिए प्रयोगशाला की क्षमता, उन्नत माइक्रोबायोलॉजी सुविधाओं और प्रशिक्षित कर्मियों की कमी से मैलोडोसिस की पहचान में चूक या देरी होती है और इसकी रिपोर्टिंग भी कम होती है।

डेटा जमा करना बहुत मुश्किल
इस अध्ययन की शुरुआत करने वाली भुवनेश्वर स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) की प्रोफेसर बिजयिनी बेहरा कहती हैं, “जब मैं सिकंदराबाद में काम करती थी, तब मुझे पहली बार मैलोडोसिस के इलाज का एक मामला देखने को मिला था। एम्स दिल्ली में एमडी-सीनियर रेजीडेंसी के दिनों में मैलोडोसिस के बारे में जानकारी सिर्फ़ किताबों तक सीमित थी।” वह कहती हैं, “कई दशक पहले, जब मैंने देखा कि एम्स भुवनेश्वर में हर साल मैलोडोसिस के कई मामले आ रहे थे, तो इस बीमारी में मेरी दिलचस्पी जगी। तब से, मैं मैलोडोसिस के इलाज के पहलुओं पर कई परियोजनाओं का हिस्सा रही हूं।”
लेकिन इस विषय पर अपने शोध में बेहरा को जो बात और भी दिलचस्प लगी, वह यह थी कि मैलोडोसिस की घटना बारिश, मौसम की चरम घटनाओं, आर्द्रता और हवा की गति से जुड़ी हुई थी। उन्हें अचरज हुआ कि क्या ओडिशा में मैलोडोसिस और जलवायु से जुड़ी परिस्थितियों के बीच कोई संबंध पाया जा सकता है।
आईआईटी भुवनेश्वर में अचानक हुई एक यात्रा के दौरान, उन्हें जलवायु मॉडलिंग पर विनोज के काम के बारे में पता चला। दोनों ने मुलाकात की, विचारों पर मंथन किया और सहयोग के लिए मंच तैयार हो गया। बेहरा की बहन आईआईटी भुवनेश्वर में काम करती हैं।
हालांकि, बाद में पता चला कि परियोजना के लिए डेटा इकठ्ठा करना उनकी उम्मीदों से कहीं ज्यादा कठिन साबित होगा।
बेहरा कहती हैं, “चूंकि हमें मौसम के आंकड़ों को सामने आए मामलों से मिलाना था, इसलिए हमें उन सटीक तारीखों को जानना था जब लक्षण दिखने लगे, ना कि सिर्फ उस समय को जब मरीज ने एम्स भुवनेश्वर में इलाज करवाया।” इसके अलावा, पुराने रिकॉर्ड के लिए जो मरीज गांवों से चले गए थे, वे अक्सर अपनी मौजूदा जगह के बारे में बताते थे, ना कि उस जगह के बारे में जहां वे बीमार पड़े थे। इसका मतलब था कि सटीक जानकारी हासिल करने और मरीजों का पता लगाने के लिए बहुत ज्यादा समय खर्च करना। चूंकि इस परियोजना के लिए शोध दल को अलग से फंड नहीं मिल पाया, इसलिए इसके लिए काम के नियमित घंटों के अलावा भी काफी कोशिशें करनी पड़ी।
आखिरकार, नौ सालों (जनवरी 2015 से सितंबर 2023) के दौरान एम्स भुवनेश्वर में रिपोर्ट किए गए कुल 144 मामलों को एकत्र किया गया और उन्हें इस्तेमाल के लिए तैयार माना गया।
मैलोडोसिस संक्रमण के हर मामले के सबसे नजदीकी ग्रिड बिंदुओं के लिए ECMWF भूमि पुनर्विश्लेषण डेटा से मौसम की स्थिति पर आंकड़े हासिल किए गए और उसका विश्लेषण किया गया। यह फिर से, आसानी से होने वाला काम नहीं था, क्योंकि मैलोडोसिस के लिए इनक्यूबेशन की अवधि 1-21 दिनों से अलग हो सकती है। इसलिए, टीम ने इन संक्रमणों के दौरान होने वाली मौसमी स्थितियों के लिए मान की एक रेंज का अनुमान लगाने के लिए 3, 7, 14 और 21 दिनों की इनक्यूबेशन अवधि मान ली।
फिर ओडिशा में मैलोडोसिस के लिए संभावित जोखिम का पता लगाने के लिए मान की इन सीमा का इस्तेमाल किया गया। साल 2015 और 2023 (कुल 3195 दिन) के बीच हर दिन के मौसम के आंकड़ों की जांच की गई, ताकि यह देखा जा सके कि मौसम की स्थितियां संक्रमण को जन्म देने वाले मान की सीमा के कितने करीब थीं। इन्हें 0 और 1 के बीच अलग-अलग सेट किया गया था, जहां उच्च मान का मतलब मैलोडोसिस के संपर्क में आने का ज्यादा जोखिम।
हालांकि, मलेरिया जैसी अन्य बीमारियों का मौसम की स्थिति के साथ संबंधों का अध्ययन किया गया है। हाल ही में डेंगू के लिए भी ऐसा किया गया है। यह भारत में मैलोडोसिस के जोखिम का पता लगाने वाले पहले अध्ययनों में से एक है और मौसम संबंधी डेटा का इस्तेमाल करके ओडिशा के लिए पहला अध्ययन है।

ज्यादा अध्ययनों की जरूरत
अध्ययन के लेखकों ने समझाया, “एक ही अस्पताल से रिपोर्ट किए गए नौ साल के मामलों पर आधारित हमारा विश्लेषण, मैलोडोसिस की असल घटना और इसके फैलाव को कम करके आंक सकता है। अस्पताल-आधारित डेटा शायद स्वास्थ्य सेवा तक बेहतर पहुंच वाली आबादी के एक उपसमूह को दिखाता है, जो संभावित रूप से स्वास्थ्य सेवा का अधिक इस्तेमाल करने वाले क्षेत्रों की ओर नतीजों को झुकाता है।” “विश्लेषण को बेहतर करने और ज्यादा सटीक राज्यव्यापी घटना और जोखिम के फैलाव का पता लगाने के लिए हमें वास्तव में जिला-स्तरीय या कई अस्पतालों से डेटासेट हासिल करने के मकसद से निगरानी बढ़ाने की जरूरत है।”
और पढ़ेंः ओडिशा में ताड़ का पेड़ लगाकर आकाशीय बिजली से बचने की तैयारी
इस काम के लिए डेटा का विश्लेषण करने वाले आईआईटी भुवनेश्वर के पीएचडी छात्र टी.एस. सरीन बताते हैं कि जलवायु कारकों के अलावा, बीमारी के ज्यादातर मामले कई अन्य कारकों से प्रभावित होते हैं। वह कहते हैं, “अनियोजित शहरीकरण, साफ-सफाई, सार्वजनिक स्वास्थ्य का ढांचा, यात्रा के तरीके, क्षेत्रीय जनसांख्यिकी, जनसंख्या घनत्व और वायु प्रदूषण कुछ ऐसे कारक हैं जो दिमाग में आते हैं। अन्य कारकों में मिट्टी की संरचना, भूविज्ञान और वनस्पति शामिल हैं, जो बैक्टीरिया के जीवित रहने और फैलने को प्रभावित कर सकते हैं। डेटा की कमी की वजह से हम इस अध्ययन के लिए इन कारकों को शामिल नहीं कर सके।”
पश्चिम बंगाल सरकार के वरिष्ठ सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ सुबर्ण गोस्वामी ने कहा, “शोधकर्ताओं ने यहां कुछ मौसम संबंधी जोखिम कारकों और मैलेडोसिस के बीच सकारात्मक आपसी संबंध पाया है। लेकिन जैसा कि हम सभी जानते हैं, आपसी संबंध का मतलब यह नहीं हो सकता कि यह किसी वजह से हो।” उन्होंने आगे कहा, “लेकिन उनके नतीजे उत्साहजनक हैं, क्योंकि इस पर आगे के शोध से मैलेडोसिस के भविष्य के प्रकोप को रोकने में प्रभावी हस्तक्षेप हो सकता है। इसी तरह के लगभग सभी अध्ययनों की तरह, इस अध्ययन की भी अपनी सीमाएं हैं, जैसा कि लेखकों ने खुद बताया है। हालांकि, मुझे विश्वास है कि यह लेख ना सिर्फ इस कम जानकारी वाली बीमारी के लिए महामारी विज्ञान-आधारित दृष्टिकोण को तय करने में मदद करेगा, बल्कि भारत में चिकित्सकों और शोधकर्ताओं को इस मुद्दे पर गहराई से विचार करने के लिए और अधिक जांच करने के लिए प्रेरित करेगा।”
विनोज और बेहरा बताते हैं कि उनके जैसे अध्ययन पर्यावरणीय कारकों से प्रभावित किसी भी बीमारी के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य योजना के लिए उपयोगी होंगे। वे कहते हैं, “हमारी कोशिश इस दिशा में मामूली प्रयास है जो दिखाता है कि इस क्षेत्र में बेहतर/नीतिगत फैसला लेने के लिए क्या संभव है। हमें उम्मीद है कि भारत में इस तरह के और अध्ययन किए जाएंगे।”
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 13 मार्च, 2025 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: ओडिशा में धान के खेत पर छाए हुए घने बादल। राज्य में मैलेडोसिस संक्रमण भारी बारिश, बहुत ज्यादा आर्द्रता, बादलों का ज्यादा होना और कम धूप की स्थिति के दौरान सबसे अधिक होता है। ओडिशा में, ये परिस्थितियां आधे साल तक बनी रहती हैं। विकिमीडिया कॉमन्स (CC BY-SA 4.0) के जरिए चिन्मयी मिश्रा की तस्वीर।