- नीलगिरि में ऑर्गेनिक उत्पादों के बाजार किसानों को उनकी रसायन मुक्त उपज को सीधे ग्राहकों को बेचने की सुविधा प्रदान करते हैं।
- ऑर्गेनिक खेती अपनाने के प्रयासों के बावजूद भी इस क्षेत्र में रासायनिक खेती बेरोकटोक जारी है।
- विशेषज्ञ रसायनों पर इस निर्भरता का कारण लम्बे समय से चली आ रहे विभिन्न सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक कारकों को मानते हैं।
तमिलनाडु के कूनूर में मशहूर सिम्स पार्क के सामने स्थित हॉर्टिकल्चर केंद्र पिछले साल जून में प्रदेश के नीलगिरि जिले से आए आर्गेनिक या जैविक खेती करने वाले किसानों के स्वागत के लिए तैयार था। इस केंद्र का मकसद किसानों के रसायनों से मुक्त उत्पादों को बेचने के लिए एक मंच प्रदान करना है। तमिलनाडु के हॉर्टिकल्चर विभाग और नीलगिरि आर्गेनिक हॉर्टिकल्चर फार्मर्स एसोसिएशन (TOHFA) द्वारा आयोजित कूनूर का यह किसान बाजार इस जिले में इस तरह का दूसरा आयोजन था। इससे पहले भी ऐसे ही एक बाज़ार का सफल आयोजन नीलगिरि जिले के ऊंटी (आधिकारिक नाम, उधागामंडलम) में किया गया था।
“ऊंटी का बाज़ार कई पर्यटकों को आकर्षित करता है, लेकिन हमें स्थानीय लोगों की भागीदारी की उम्मीद है,” बाजार के आयोजकों में से एक गैर सरकारी संस्था ‘द एअर्थ ट्रस्ट’ की निम्मी जॉन ने मोंगाबे इंडिया को बताया।

अगले दिन सुबह 10 बजे, इस केंद्र पर जिले के अलग-अलग हिस्सों से आए कुछ किसान, और ताजे, रसायन मुक्त फल और सब्जियां खरीदने वाले ग्राहक आने लगे। यहां भाजियां, मौसमी फल, सब्जियां, अचार, सूखे मेवे, और मसाले उपलब्ध थे।
नाशपाती उगाने वाले किसान, अतिश्ता कुमार के सैकड़ों नाशपाती बाजार खुलने के पहले ही कुछ घंटो में बिक गए। “मेरे एक एकड़ के बागान में नाशपाती के 40 पेड़ हैं, जिनसे मुझे अच्छी फसल मिलती है,” कुमार ने बताया। “रसायन मुक्त खेती अपनाने के बाद मेरे बागान की उपज बढ़ गई है,” कुमार ने, आर्गेनिक खेती से उपज कम होने की अवधारणा को गलत बताते हुए कहा।
ऑर्गेनिक खेती के प्रयास
अपने समशीतोष्ण मौसम (न ज्यादा गर्म और न ज्यादा ठंडा मौसम), जैव विविधता और खेती के लिए जाना जाने वाला यह पहाड़ी जिला, 2019 में तत्कालीन जिला कलेक्टर जे. इनोसेंट दिव्या के नेतृत्व में ऑर्गेनिक खेती की ओर बढ़ने लगा। दिव्या ने सिक्किम से प्रेरित होकर एक रसायन मुक्त जिले की कल्पना की थी। सिक्किम भारत का पहला और एकमात्र ऑर्गेनिक राज्य है। सरकार ने किसानों को ऑर्गेनिक खेती अपनाने में सहायता करने के लिए एक मोबाइल ऐप भी लॉन्च किया। हालांकि, यह प्रयास जल्द ही थम गए। नीलगिरी स्थित सस्टेनेबल कृषि प्रबंधन के विशेषज्ञ और साप्ताहिक किसान बाजार के आयोजक थानविश वी. बताते हैं, “जिले के 80,000 से ज्यादा बागवानी किसानों में से (2011 की जनगणना के अनुसार), केवल 60-70 ही TOHFA के साथ ऑर्गेनिक किसानों के रूप में पंजीकृत हैं और 1,000 इस प्रक्रिया के बीच में हैं।”

खेती करने वाले बहुत से जनजातीय समूह जो पारम्परिक रूप से ऑर्गनिक खेती करते आ रहे हैं, TOHFA उनमें अभी तक अपनी पहुँच नहीं बना पाया है। नीलगिरि में तमिलनाडु के छः आदिवासी समूह रहते हैं, जिन्हें ‘विशेष रूप से कमज़ोर जनजातीय समूह’ (PVTGs) के रूप में सूचीबद्ध किया गया है। थानवीश बताते हैं कि ऐसे जनजातीय समूहों के लिए एक बाजार स्थापित करने की कोशिशें जारी हैं, जिससे उन्हें TOHFA के रसायन मुक्त उत्पादों को बढ़ावा देने वाले काम का लाभ मिल सके।
कोविड-19 महामारी ने भी इस मामले में बड़ी भूमिका निभाई है। थानवीश बताते हैं की किसानों को खेती की नई तकनीकें अपनाने में आर्थिक अस्थिरता का डर लगा रहता है। इस ही वजह से रसायन मुक्त खेती को अपनाने की रफ़्तार इस इलाके में बहुत धीमी रही है। ऑर्गनिक किसान बाजार का उद्देश्य उत्पादकों को खेती की बेहतर तकनीकों को अपनाने और लोगों को पौष्टिक खाने के लिए प्रेरित करना है।
थानवीश जैसे संजीदा किसानों को रसायनों के सिर्फ इस्तेमाल से ज्यादा उनके अंधाधुंध छिड़काव से दिक्कत है। वह बताते हैं कि तमिलनाडु में खेती में इस्तेमाल किये जाने वाले कुल रसायनों का 15 प्रतिशत नीलगिरि पहुँचता है। मोंगाबे इंडिया इस बात की पुष्टि नहीं कर पाया, और अगर यह आंकड़ा सही है, तो तमिलनाडु के करीब 4.7 मिलियन हेक्टेयर बुआई क्षेत्र, जिसमें नीलगिरि का हिस्सा सिर्फ 79,000 हेक्टेयर का है, को अगर ध्यान में रखते हुए यह रसायनों की एक बहुत बड़ी मात्रा है।
रसायनों से भरी खेती
ऊटी के डोड्डाबेट्टा पंचायत के कुलीशोलाई गाँव में कई एकड़ में आलू, गाजर, चुकंदर और लहसुन जैसी फसलें उगाई जाती हैं। इन फसलों को अधिकतर अंग्रेजी सब्जियां कहा जाता है जिसके लिए ऊटी मशहूर है। यह इलाका जहाँ छोटी जोतों में सालभर खेती होती है, जिले की रासायनिक खेती के परिदृश्य को दिखाता है। यहाँ की सब्जियां तमिलनाडु के मेट्टुपालयम और कर्नाटका के बेंगलुरु के बड़े बाज़ारों या मंडियों में भेजी जाती हैं जहां से इन्हें दक्षिणी भारत के फुटकर विक्रेता ले जाते हैं।

जब मोंगाबे इंडिया कुलीशोलाई के किसान दोराईस्वामी के खेत पर पहुंचा तो वह लहसुन की फसल पर कीटनाशक का छिड़काव कर रहे थे। इस दौरान उन्होंने कोई भी प्रोटेक्टिव गियर, जैसे मास्क या दस्ताने नहीं पहन रखे थे। वह अपने खेत में हॉर्टिकल्चर विभाग से दिए गए खरपतवारनाशक, कीटनाशक और उर्वरकों का प्रयोग हर महीने करते हैं। “मैं एक फार्मूला के अनुसार इन सबको अपने खेत में छिड़कता हूँ,” उन्होंने बताया, हालांकि उन्हें इन रसायनों के ब्रांड या सप्लायर के नाम नहीं पता हैं।
पास ही के खेत में, मूर्ति छत्तीसगढ़ से आए कुछ मजदूरों से गाजर की फसल में यूरिया और पोटैसियम का पाउडर डलवा रहे हैं। इसके आलावा वो डीएपी खाद भी हर दो महीने डालते हैं। यूरिया के नाइट्रोजन फ़र्टिलाइज़र के तौर पर मिटटी के पीएच और पोषण पर प्रभाव पर बहुत लिखा जा चूका है। अध्ययन बताते हैं कि यूरिया के लम्बी अवधि में प्रयोग से मिट्टी में अम्लीयता बढ़ती है और उसकी गुणवत्ता प्रभावित होती है।

ऑर्गेनिक मूवमेंट के चरम पर नीलगिरि में मूर्ति ने भी परिवर्तन का एक प्रयास किया था। “इस मौसम में ऑर्गेनिक खेती अधिकतर सफल नहीं होती है,” उन्होंने बताया। उन्होनें यह भी कहा कि मौसम के पैटर्न में बदलाव ने किसानी को एक जुआं बना दिया है। जलवायु परिवर्तन से कीटों की संख्या बढ़ती है जो किसानों को कीटनाशकों पर और ज़्यादा निर्भर बना देता है। “पिछले कुछ महीने (मार्च से मई) अनअपेक्षित रूप से सूखे थे,” मूर्ति ने बताया, और उनकी फसल गर्मी की तेज धुप में सूख गई। “जून से कुछ उम्मीदें हैं,” उन्होंने आगे कहा।
जहाँ जनवरी में ऊटी का तापमान लगभग शून्य तक पहुँच गया था, वहीँ अप्रैल में अभी तक का सबसे ज़्यादा तापमान 29 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया। जलवायु परिवर्तन के प्रभावों पर हुए अध्ययनों ने दिखाया है कि तापमान का असर कीटों की संख्या पर देखा जा सकता है। ग्लोबल वार्मिंग से कीटों की रेंज में वृद्धि हो सकती है, तेज सर्दी में उनके जिन्दा रहने की अवधि को बढ़ा सकती है, उनकी पीढ़ियों में वृद्धि कर सकती है, और आक्रामक कीटों की प्रजातियों और कीटों से पौधों में होने वाली बिमारिओं को बढ़ावा दे सकती है। इसके साथ ही जलवायु परिवर्तन से कीटों, उन्हें संरक्षण देने वाले पेड़ों और उनके प्राकृतिक दुश्मनों के आपसी संबंधों में भी बदलाव आ सकता है।
इतिहास से सीख
नीलगिरी में सघन रासायनिक खेती का इतिहास 1960 के दशक, जब शीत युद्ध अपने चरम पर था, से है। अशोका ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकोलॉजी एंड द एनवायरनमेंट (ATREE) के पर्यावरण समाजशास्त्री सिद्धार्थ कृष्णन इसकी उत्पत्ति इंडो-जर्मन नीलगिरी डेवलपमेंट प्रोग्राम (IGNDP) से मानते हैं। यह पश्चिम जर्मनी की अंग्रेजों द्वारा शुरू की गई आलू की खेती को “आधुनिक” बनाने की एक पहल थी। ट्रांसप्लांटिंग मॉडर्निटी: न्यू हिस्ट्रीज़ ऑफ़ पॉवर्टी, डेवलपमेंट, एंड एनवायरनमेंट नामक पुस्तक के एक अध्याय में कृष्णन ने लिखा है कि नीलगिरी में किसानों की रसायनों पर निर्भरता पश्चिम जर्मनी की वित्तीय और तकनीकी सहायता, जिसका उद्देश्य फसल की पैदावार बढ़ाना और “विदेशी फसल” उगाना है, का परिणाम है। थानविश अनुसार, इन रसायनों पर दी जाने वाली भारी सब्सिडी और एजेंटों द्वारा दी जाने वाली क्रेडिट लाइन यानि उधार पर माल दिए जाने की वजह से यह निर्भरता आज भी बनी हुई है।

कुछ कीटनाशक पर्यावरण में लंबे समय तक बने रह सकते हैं। कृष्णन बताते हैं कि कीटनाशकों का एक विशिष्ट परिवार ऑर्गैनोक्लोरीन, अपने धीमे अपघटन और पशुओं के ऊतकों में जमा होने की प्रवृत्ति के कारण विशेष रूप से चिंताजनक है। खरपतवारनाशक अंकुर विकास, प्रकाश संश्लेषण और अमीनो एसिड और लिपिड के जैवसंश्लेषण को बाधित कर सकते हैं। जबकि कीटनाशक मुख्य रूप से तंत्रिका और मांसपेशियों के कार्य, विकास और ऊर्जा उत्पादन को प्रभावित करते हैं। कृष्णन लिखते हैं, “रासायनिक इनपुट – कीटनाशकों, शाकनाशियों और खरपतवारनाशकों – का प्रभाव पानी, मिट्टी और हवा के माध्यम से बढ़ जाता है।”
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तमिलनाडु के सात जिलों के लिए पानी की आपूर्ति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा नीलगिरी से आता है। यह जिला कावेरी बेसिन का हिस्सा है, जहाँ पहाड़ी ढलानों से कई धाराएं बहती हैं, जो इन गहरी घाटियों में कई नदियाँ बनाती हैं। इस क्षेत्र के जलाशय पीने, खेती और बिजली उत्पादन के लिए इस पानी को इकट्ठा करते हैं। अतिरिक्त पानी कोयंबटूर और पुडुचेरी सहित राज्य के अन्य क्षेत्रों में भेजा जाता है।
पानी की गुणवत्ता की चिंता
गैर-लाभकारी संस्था कीस्टोन फाउंडेशन द्वारा इस जिले में तीन वेटलैंड्स के पानी की गुणवत्ता पर 2019 में किए गए अध्ययन की रिपोर्ट कुछ चिंताजनक बातें सामने लाती है। स्टॉकहोम कन्वेंशन द्वारा पहचाने गए कई स्थायी कार्बनिक प्रदूषक (पीओपी), जिनमें β-एचसीएच, डीडीई, डीडीटी और लिंडेन शामिल हैं, इन वेटलैंड्स में पाए गए।

इस अध्ययन के अलग अलग स्थानों, जैसे जलधाराओं वाले इलाके, डाउनस्ट्रीम वाली जगहें, खेत और तालाबों, से लिए गए गाद के नमूनों में β-एचसीएच और लिंडेन की मात्रा सेडीमेंट क्वालिटी गाइडलाइन के मानकों से अधिक पाई गई। इससे स्थानीय जीवों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने का खतरा बढ़ जाता है। कुछ नमूनों में डीडीई और डीडीटी भी पाया गया।
इन रसायनों का लोगों की सेहत और वन्यजीव दोनों पर दूरगामी प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए, लिंडेन, एक ऑर्गेनोक्लोरीन कीटनाशक, एक जाना माना कैंसरकारी तत्व है जो अंतःस्रावी विकारों से जुड़ा है, जबकि डीडीई और डीडीटी जीवों में चयापचय कार्यों को बाधित कर सकते हैं, जिससे अन्य स्वास्थ्य समस्याओं के अलावा लिवर कैंसर और प्रजनन संबंधी समस्याएं हो सकती हैं।

रिपोर्ट में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि खाद्य श्रृंखलाओं के माध्यम से विषाक्त रसायनों के पशु ऊतकों में संचय के अलावा, इस जिले में उच्च वर्षा और लैटेराइट मिट्टी भी रसायनों के रिसाव को गति को बढ़ाते हैं। इस प्रक्रिया से न केवल पहाड़ियों में बल्कि मैदानी इलाकों में भी जल निकाय दूषित होते हैं। दूषित गाद की विषाक्तता जलीय जीवन को सीधे प्रभावित करती है और खाद्य श्रृंखला में जैव संचय में योगदान देने वाले प्रदूषकों के स्रोत के रूप में भी काम कर सकती हैं।
कृष्णन बताते हैं कि विभिन्न सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक कारक किसानों के खेती के तरीकों के चुनाव को प्रभावित करते हैं। वे बताते हैं, “नीलगिरी के ज्यादातर किसान दूसरी या तीसरी पीढ़ी के किसान हैं जो नियमित रूप से उर्वरक डीलरों सहित अन्य क्षेत्र के लोगों से बातचीत करते हैं और उनके साथ संबंध विकसित करते हैं।” कई लोगों के लिए, विशेष रूप से छोटी जोत के किसानों के लिए, ऑर्गेनिक खेती में बदलाव करना महत्वपूर्ण चुनौतियों का सामना करता है, क्योंकि इस प्रक्रिया के दौरान कुछ वर्षों तक कम पैदावार को झेलने के लिए उनके पास आर्थिक सामर्थ्य नहीं होता है। कृष्णन कहते हैं, “किसान अक्सर न केवल अपनी आजीविका के लिए बल्कि अपने श्रमिकों की आजीविका के लिए भी जिम्मेदार महसूस करते हैं,” उन्होंने आगे कहा, “जब तक सरकार इस बदलाव का समर्थन करने के लिए एक बड़ा बजट आवंटित नहीं करती, नीलगिरी में रासायनिक खेती जारी रहेगी।”
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 28 अक्टूबर 2024 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: नीलगिरी तमिलनाडु का एक महत्वपूर्ण कृषि जिला है जो पूरे दक्षिण भारत में कृषि उपज वितरित करता है। यहाँ खेती में रसायनों का अत्यधिक उपयोग एक गंभीर चिंता का विषय है। तस्वीर- अभिषेक एन. चिन्नाप्पा द्वारा मोंगाबे के लिए।