- राजस्थान में चुरू जिले के कई इलाकों में किसान पारंपरिक रूप से काली गाजर की खेती करते हैं। खास बात यह है कि इस गाजर में मिठास की वजह जमीन के नीचे का खारा पानी है।
- काली गाजर में आयरन और बीमारियों से बचाने वाला एंटी-ऑक्सीडेंट प्रचुर मात्रा में होता है। इन गुणों को देखते हुए अब इसका रकबा बढ़ाने की कोशिश की जा रही है।
- काली गाजर का इस्तेमाल प्राकृतिक रंग बनाने में भी किया जा रहा है। खान-पान में इस प्राकृतिक रंग का इस्तेमाल बढ़ाकर रासायनिक रंगों से बचाव की कोशिश भी हो रही है।
राजस्थान में चूरू जिले के सुजानगढ़ कस्बे में रेलवे फाटक संख्या चार से आगे जाने वाली सड़क के दोनों तरफ आपको पक्के मकान दिखेंगे। डेढ़ किलोमीटर लंबी इस सड़क पर करीब छह सौ मीटर आगे बढ़ने पर दाईं तरफ आपकी नजर दो खेतों पर जाएगी जो सड़क से कुछ नीचे हैं। तारों से घिरे करीब दो-दो बीघे के ये खेत कुछ खास हैं। यहां साल में सिर्फ एक फसल ली जाती है और वह है काली गाजर।
कस्बे के चांदवास इलाके में पड़ने वाले इन खेतों में दो भाई भगवान राम माली और तुलसी राम माली किराए पर खेती करते हैं। जब मोंगाबे हिंदी की टीम यहां पहुंची तो दोनों भाई खेतों से काली गाजर उखाड़ कर उसकी साफ-सफाई करने में व्यस्त थे। भगवान राम ने मोंगाबे हिंदी को बताया कि उनका परिवार तीन पीढ़ियों से काली गाजर उगा रह है।
वैसे राजस्थान के बहुत कम इलाकों में ही इस गाजर की खेती होती है। सुजानगढ़ से करीब 11 किलोमीटर दूर गोपालपुरा में भी कुछ किसान यह गाजर उगाते हैं। इनमें से एक गणेशा राम प्रजापत का परिवार भी है। 35 सालों से खुद काली गाजर की खेती कर रहे प्रजापत ने मोंगाबे हिंदी को बताया, “गोपालपुरा और सुजानगढ़ के अलावा पास के बालेरा गांव और चूरू शहर के पास ठेलासर में भी किसान इस गाजर की खेती करते हैं। मैंने राजस्थान के बाकी हिस्सों में इस गाजर की खेती के बारे में नहीं सुना है।”

खारे पानी की मीठी गाजर
इस पूरे इलाके में जमीन के नीचे का पानी खारा है। इसलिए, यहां खेती सिर्फ बारिश के महीनों में होती है। किसान सावन से शुरू करके दिवाली के पहले तक इस गाजर की बुआई करते हैं। फसल तैयार होने में साढ़े तीन से चार महीने लगते हैं। दिसंबर के आखिरी हफ्ते में पहली फसल निकल जाती है जो मार्च के आखिर तक बाजार में आती रहती है। किसान इस फसल को पास के ही सुजानगढ़, ताल छापर और बीदासर की मंडियों में बेचते हैं। यहां से यह गाजर आसपास की मंडियों में पहुंचती है।
प्रजापत बताते हैं, “खारा पानी ही काली गाजर में मिठास की वजह भी है। अगर बुआई के बाद बारिश हो जाती है, तो मिठास जाती रहती है। हमारे खेत में पारंपरिक कुएं हैं जिनसे हम खेतों में खारे पानी से पटवन कर गाजर की मिठास बढ़ाते हैं।“
लाल या नारंगी गाजर की तरह ही काली गाजर का रंग भी उसका प्राकृतिक रंग है। बीकानेर स्थित स्वामी केशवानंद राजस्थान कृषि विश्वविद्यालय में शोध निदेशक डॉ विजय प्रकाश ने मोंगाबे हिंदी को बताया, “इस गाजर को काला या बैंगनी रंग एंथोसाइनिन से मिलता है। यह जितना ज्यादा होगा, रंग उतना ही गहरा होगा।“ एंथोसाइनिन पानी में घुल जाने वाले प्राकृतिक रंगद्रव्य हैं जो कई फलों, फूलों और सब्जियों में लाल, बैंगनी और नीले रंग के लिए जिम्मेदार होते हैं।
हालांकि, भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान (आईआईवीआर) में प्रिंसिपल साइंटिस्ट बीके सिंह काली और बैंगनी गाजर में बारीक अंतर की तरफ इशारा करते हैं। वह कहते हैं, “काली गाजर वही होती है, जो ऊपर से लेकर अंदर तक पूरी तरह काली हो। जो गाजर राजस्थान के कुछ इलाकों में होती है, उसे हम बैंगनी गाजर कह सकते हैं।“

वैसे, इन इलाकों में होने वाली गाजर की मिठास आयरन से भी तय होती है। जिस गाजर में आयरन जितना ज्यादा होगा, उसमें कालापन और मिठास उतना ही अधिक होगा। ऐसी गाजर अंदर से पीली होती है। जिस गाजर में हल्की लाली आ जाती है, उसमें आयरन कम होता है और मिठास भी घट जाती है। भगवान राम माली कहते हैं, “सबसे अच्छी गाजर जनवरी के आखिर से आधा मार्च बीत जाने तक आती है। तब इसकी मोटाई भी ठीक होती है। गाजर जितनी काली होगी, उतनी अच्छी होगी और मार्केट में दाम भी अच्छे मिलेंगे।
काली गाजर के लिए 22 से 28 डिग्री तक के सामान्य तापमान की जरूरत होती है। बीच-बीच में हल्की बारिश भी होती रहनी चाहिए, ताकि मिट्टी में नमी बनी रहे। लेकिन, बदलते मौसम से बुआई का समय आगे खिसक गया है।
तुलसी राम के भतीजे रवि माली बताते हैं, “पहले जो मौसम था उसमें जून से बुआई शुरू हो हो जाती थी। लेकिन अब बारिश देर से होने से बुआई का समय आगे बढ़कर जुलाई-अगस्त तक आ गया है।”
लेकिन, सितंबर-अक्टूबर में भी गर्मी पड़ने से बुआई के बाद अंकुरण पर थोड़ा दुष्प्रभाव दिख रहा है। गणेशा राम बताते हैं कि बोने के बाद अगर गर्मी ज्यादा हो जाती है, तो बीजों का अंकुरण नहीं हो पाता है। लेकिन अच्छी बात यह है कि बाकी फसलों के मुकाबले काली गाजर की फसल कम कोमल होती है। इसलिए, अंकुरण के बाद ज्यादा गर्मी में भी फसल के बचे रहने की संभावना अधिक होती है।

तुलसी राम बताते हैं कि कभी सुजानगढ़ में काली गाजर की करीब दो सौ बाड़ी थी जो अब घटकर महज पांच-छह रह गई हैं। वह कम बारिश और भूमिगत जल के बे-हिसाब इस्तेमाल को इसकी वजह बताते हैं। यहां हर साल 300 से 600 मिमी तक औसत बारिश होती है। चारों तरफ पक्के मकान बन जाने से जमीन के अंदर पानी नहीं जा पाता है। केंद्रीय भूमि जल बोर्ड की पिछले साल की रिपोर्ट में सुजानगढ़ और आसपास के इलाकों में भूमिगत जल का बहुत ज्यादा दोहन किया गया है।
सुजानगढ़ मंडी में कमीशन एजेंट के तौर पर काम करने वाले श्याम सुंदर मारोठिया ने मोंगाबे हिंदी से कहा कि औषधीय गुणों की वजह से मध्य-वर्ग में इस गाजर को लेकर सबसे ज्यादा रुचि रहती है। यह गाजर आंखों की रोशनी के लिए सबसे अच्छी मानी जाती है। वह कहते हैं कि युवाओं को जहां लाल गाजर भाती है, वहीं बुजुर्ग सेहत को होने वाले फायदों को देखते हुए काली गाजर को ज्यादा पसंद करते हैं। यह गाजर 30 रुपए से लेकर 50 रुपए किलो तक बिकती है।
रकबा बढ़ाने की कोशिश
भारत में लाल और नारंगी गाजर बहुतायत में होती है। लेकिन, अब कृषि वैज्ञानिक पोषक तत्वों से भरपूरी काली गाजर का उत्पादन और उपभोग बढ़ाने पर भी काम कर रहे हैं। चूरू जिले में होने वाली काली गाजर को छोड़ दें, तो अब तक वैज्ञानिकों ने इसकी तीन नई किस्में तैयार की है।
एक वैरायटी पंजाब ब्लैक ब्यूटी है जिसे पंजाब कृषि विश्वविद्यालय ने विकसित की है। दूसरी वैरायटी पूसा-आसिता है जिसे पूसा कृषि अनुसंधान संस्थान ने जारी किया है। काली गाजर की तीसरी किस्म भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान ने तैयार की है जिसे काशी कृष्णा के नाम से जाना जाता है। ये तीनों ही मीठे पानी में होने वाली काली गाजर हैं।
साल 2013 में पंजाब ब्लैक ब्यूटी को विकसित करने वाले लुधियाना स्थित पंजाब कृषि विश्वविद्यालयल (पीएयू) में एक्सटेंशन एजुकेशन के निदेशक तरसेम सिंह ढिल्लो ने मोंगाबे हिंदी को बताया, “सितंबर-अक्टूबर में बोई जाने वाली और मीठे पानी में होने वाली हमारी किस्म 90 से 95 दिन में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। एक एकड़ में 200 क्विंटल तक पैदावार होती है। पंजाब के लगभग सभी जिलों में इसकी खेती शुरू हो गई है। अब इसे बाजार में बेचा भी जा रहा है।”
पीएयू और आईआईवीआर जैसे संस्थान काली गाजर का रकबा बढ़ाने के लिए नई रणनीति के साथ काम कर रहे हैं। वे सब्जी के अन्य बीजों के साथ किसानों को काली गाजर के बीज भी देते हैं, ताकि लोग बाड़ी (किचन गार्डेन) में इसे उगाएं।

सिंह कहते हैं, “फिलहाल काली गाजर को बाजार में बेचने के मकसद से खेती नहीं हो रही है। जो खेती हो रही है वह खुद के खाने के लिए हो रही है। लेकिन, किसानों को सब्जियों के साथ इसके बीज उपलब्ध कराकर इसका रकबा बढ़ाने की कोशिश हो रही है। पंजाब के कुछ इलाकों में इस गाजर से प्राकृतिक रंग बनाने के लिए वाणिज्यिक खेती हो रही है।“
पोषण सुरक्षा में अहम
काली गाजर को आयरन और एंटी ऑक्सीडेंट का बड़ा स्त्रोत माना जाता है। इसे पॉलीफेनोल (सूक्षम पोषक तत्व) और एंथोसाइनिन (कैंसर की रोकथाम में मददगार और इम्युनिटी बढ़ाने वाला) का भी मुख्य जरिया माना जाता है। लाल गाजर के मुकाबले काली गाजर में एंटी-ऑक्सीडेंट चार गुना ज्यादा होता है। काली गाजर को ऐसा भोजन माना जाता है जो जरूरी पोषण देने के अलावा सेहत को खास फायदा पहुंचाता है और अपने बायोएक्टिव घटकों के जरिए पुरानी बीमारियों के जोखिम को कम करते हैं।
ढिल्लो कहते हैं, “भारत में महिलाओं और बच्चों समेत 70 फीसदी आबादी में आयरन की कमी है। इस कमी को पूरा करने के लिए काली गाजर बहुत उपयोगी है। खाद्य सुरक्षा के बाद पोषण सुरक्षा बड़ा मसला है और काली गाजर इसमें बहुत मददगार हो सकती है। यह सस्ती भी है।”
काली गाजर से बने पाउडर का पावरोटी में एक घटक के रूप में इस्तेमाल करने पर शोध करने वाली लुधियाना के पंजाब कृषि विश्वविद्यालय में खाद्य और पोषण विभाग की प्रमुख डॉ किरण ग्रोवर ने मोंगाबे हिंदी को बताया, “विटामिन और मिनरल हमारे शरीर में अपना काम करते ही हैं, लेकिन एंटी-ऑक्सीडेंट हमें बीमारियों से बचाते हैं।”
दरअसल, काली गाजर से निकलने वाला रंग बैंगनी या पर्पल होता है और यह पानी में घुलनशील भी होता है। आजकल स्वास्थ्य वजहों से खाद्य पदार्थों में प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल बढ़ रहा है। काली गाजर के ताजा रस को जैम या चटनी या कांजी बनाने के लिए उपयोग किया जाता है। इसे जमाकर आइसक्रीम और लस्सी जैसे प्रोडक्ट में भी काम में लिया जा सकता है। पाउडर का इस्तेमाल पावरोटी और बेकरी जैसे प्रोडक्ट में होता है।
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ग्रोवर बताती हैं,”काली गाजर से निकलने वाला बैंगनी रंग बहुत अच्छा होता है। इसमें रंग भी बहुत निकलता है और यह पानी में घुलनशील भी है। खान-पान में इसके प्राकृतिक रंग का इस्तेमाल बढ़ाकर रासायनिक रंगों से बचा सकते हैं और स्वास्थ्य को बेहतर बनाया जा सकता है।”
जानकार मानते हैं कि भारत में पोषक गुणों और सस्ती होने के बावजूद लाल गाजर के मुकाबले काली गाजर का इस्तेमाल बहुत कम है। इसकी पूरी क्षमता का उपयोग करने के लिए इसे लोकप्रिय बनाने की जरूरत है।
बैनर तस्वीरः काली गाजर की सफाई करते तुलसी राम माली। तस्वीर- विशाल कुमार जैन