- सिंधु-गंगा के मैदानों की उपजाऊ जलोढ़ मिट्टी पारम्परिक रूप से स्थिर मौसम और बारिश के एक जैसे पैटर्न की वजह से बेहतर रही है।
- हालांकि, जलवायु परिवर्तन से बारिश के बदलते पैटर्न से फसलों को नुकसान हो रहा है।
- शोधकर्ताओं ने देश की कृषि नीति में जलवायु परिवर्तन के प्रति स्थिरता को शामिल करने तथा सरकार, स्थानीय हितधारकों और किसान संगठनों के साझा प्रयासों में सुधार करने की सिफारिश की है।
धान की खेती के लिए मशहूर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के शामली जिले के किसान मोहसिन खान जानते हैं कि आने वाला समय उनके लिए दिक्कतों से भरा होने वाला है। पिछले साल, 1 सितम्बर तक जिले में इसकी औसत वर्षा के मुकाबले सिर्फ 20.2% बारिश ही हुई थी। “पर्याप्त वर्षा के बिना धान उगाना नामुमकिन है। मेरी फसल छोटी रह गयी है और गुणवत्ता भी ठीक नहीं है,” खान बताते हैं। दुसरे जिलों, जैसे अमरोहा, गौतम बुद्ध नगर, जौनपुर, और फतेहपुर, के किसानों पर भी इसका असर पड़ा है।

जहां उत्तर प्रदेश में सितम्बर की शुरुआत में अपनी सामान्य वर्षा का 88.5% दर्ज किया, वहीं यह आंकड़ा असमान वर्षा को दर्शाता है। प्रदेश के आधे से ज्यादा जिलों में जून के महीने से सामान्य से कम बारिश हुई है। भारतीय मौसम विभाग (IMD) के अनुसार, प्रदेश के 75 में से 37 जिलों में कम बारिश हुई, जबकि सात में सामान्य से अधिक बारिश दर्ज की गई। इकत्तीस जिलों, खासकर मध्य और पूर्वी उत्तर प्रदेश में, ने सामान्य बारिश दर्ज की। पश्चिमी उत्तर प्रदेश, धान, गेहूं और गन्ने की खेती की दृष्टि से महत्वपूर्ण पट्टी, में मानसून के 12 में से सिर्फ दो हफ़्तों में सामान्य बारिश हुई। इससे खान जैसे कई किसानों को इस स्थिति से निपटने में काफी दिक्कतें हुईं।
असामान्य वर्षा सिंधु-गंगा के मैदानों की बड़ी समस्या का एक हिस्सा है। “जलवायु परिवर्तन ने इन इलाकों के मौसम के पैटर्न में काफी हद तक बदलाव लाया है,” जलवायु परिवर्तन और उसके अनुकूलन पर काम करने वाली शोधकर्ता भावना आहूजा ने बताया।
एग्रीकल्चर इकोनॉमिक्स रिसर्च रिव्यु में हाल ही में प्रकाशित हुए एक शोध में कृषि के इस महत्वपूर्ण क्षेत्र पर प्रकाश डाला गया है। साल 2050 तक सिंधु-गंगा मैदानों की महत्वपूर्ण फसलों जैसे धान, मक्का और गेहूं की उपज में क्रमशः 24%, 10%, और 6% की कमी आ जाएगी। साल 2080 तक यह नुकसान बहुत ज़्यादा हो जायेगा। मुख्य शोधकर्ता नलिनी रंजन कुमार इस क्षेत्र की परेशानियों के बारे बताती हैं, इस क्षेत्र में खेती “जलवायु परिवर्तन से बहुत प्रभावित” होती है। अध्ययन में अनुकूलन रणनीतियों की तत्काल आवश्यकता पर भी बल दिया गया है।
खेती का बदलता परिदृश्य
उत्तरी भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, और नेपाल में फैला सिंधु-गंगा का मैदान जहां एक लम्बे समय से धान, गेहूं, मक्का, चना और सरसों की खेती होती आ रही है। इस इलाके की गंगा और सिंधु नदी से आई उपजाऊ जलोढ़ मिट्टी पारम्परिक रूप से स्थिर मौसम और बारिश के एक जैसे पैटर्न की वजह से बेहतर रही है।
सदियों से, इस क्षेत्र में खेती के दो खास रहे हैं – खरीफ, जिसमें मानसून में बोई जाने वाली फसलें शरद ऋतु में काटी जाती हैं, और रबी, जिसमें सर्दियों की फसलें शरद ऋतु में बोई जाती हैं और वसंत में काटी जाती हैं। हालाँकि, जलवायु परिवर्तन इस नाजुक संतुलन को तेज़ी से बिगाड़ रहा है। बारिश के पैटर्न में बदलाव, बढ़ता तापमान और पानी की उपलब्धता में उतार-चढ़ाव सीधे पैदावार को प्रभावित कर रहे हैं, जिससे क्षेत्र की कृषि के आधार को खतरा है।
मौसम विज्ञानी आत्रेय शेट्टी कहते हैं, “सबसे ज़्यादा ध्यान देने योग्य बदलाव मानसून के आने और वापस जाने में देरी है, जिससे बुवाई और कटाई की पूरी प्रक्रिया प्रभावित होती है। जून और जुलाई, जो कभी बारिश के लिए भरोसेमंद होते थे, इन महीनों में अब सामान्य से कम बारिश होती है, जबकि अगस्त और सितंबर में अत्यधिक बारिश होती है। गर्मियों में 43 डिग्री सेल्सियस से ज़्यादा तापमान वाली गर्म लहरें भी लगातार और लंबे समय तक चलने लगी हैं, जिससे फसलों को नुकसान पहुँच रहा है और खेती करना मुश्किल होता जा रहा है।”
यह बदलाव खासतौर पर उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पंजाब और हरियाणा जैसे प्रमुख कृषि क्षेत्रों में चिंताजनक है, जहां पिछले कुछ सालों में सूखे जैसी स्थिति आम हो गई है। शेट्टी कहते हैं, “जब बारिश होती है, तो वह बहुत ही सीमित इलाकों में और छिटपुट होती है, जिससे एक क्षेत्र में बाढ़ आ जाती है जबकि दूसरा क्षेत्र सूखाग्रस्त रहता है। बारिश में यह अति-स्थानीय परिवर्तनशीलता पुराने बने-बनाए पैटर्न से बिल्कुल अलग है।”

फसलों पर इसका गहरा असर होता है। तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय के एग्रीटेक पोर्टल के अनुसार, उच्च तापमान, जो भले ही थोड़े समय के लिए हो, गेहूं जैसी रबी की फसलों के अंकुर और जड़ों का विकास कम करके इसकी वृद्धि को रोक सकता है। अप्रत्याशित मानसून की बारिश भी खरीफ फसलों के लिए खतरा है। सूखे से मिट्टी की नमी कम हो जाती है और पोषक तत्वों का अवशोषण रुक जाता है, जिससे धान और मक्का जैसी फसलें प्रभावित होती हैं, जबकि अत्यधिक बारिश से जलभराव होता है, जिससे पौधों की जड़ें क्षतिग्रस्त हो जाती हैं।
सिंधु-गंगा के मैदानों में खेती के लिए जरूरी पानी की उपलब्धता भी खतरे में है। यह क्षेत्र मानसून की बारिश और नदियों से सिंचाई दोनों पर निर्भर करता है, जिनमें से कई नदियों को तेजी से सिकुड़ते हिमालय के ग्लेशियरों से पानी मिलता है। साल 2023 में, संयुक्त राष्ट्र प्रमुख एंटोनियो गुटरेज़ ने चेतावनी दी कि “ग्लोबल वार्मिंग के कारण आने वाले दशकों में ग्लेशियरों के सिकुड़ने से सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी प्रमुख हिमालयी नदियों का प्रवाह कम हो जाएगा”। इससे गंभीर सिंचाई संकट पैदा होगा, जो पहले से ही कमजोर क्षेत्र में पानी की कमी को और बढ़ा देगा।
अमरोहा के धान किसान नंदन पाल कहते हैं, “धान जैसी फसलें, जिन्हें बहुत ज़्यादा पानी की ज़रूरत होती है, सिंचाई कम होने से सबसे ज़्यादा प्रभावित होंगी। गेहूं जैसी रबी की फसलें, जो मानसून के मौसम में मिट्टी में जमा नमी पर निर्भर करती हैं, उन्हें भी नुकसान होगा।” जैसे-जैसे जल संसाधन कम होते जा रहे हैं, मिट्टी में लवणीकरण का जोखिम बढ़ रहा है, जिससे इसकी उर्वरता कम हो जाती है। खराब जल निकासी वाले क्षेत्र विशेष रूप से कमज़ोर हैं, और जलवायु परिवर्तन इस समस्या को और भी गंभीर बना देगा।
लेकिन, ऐसा नहीं है कि जलवायु परिवर्तन के कारण सभी फसलें समान रूप से प्रभावित होंगी। एग्रीकल्चरल इकोनॉमिक्स रिसर्च रिव्यू में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार, चावल, मक्का और गेहूं जैसी मुख्य फसलों की पैदावार में उल्लेखनीय गिरावट आने का अनुमान है, जबकि चना, रेपसीड, सरसों और कपास जैसी अन्य फसलों की पैदावार में वृद्धि हो सकती है। साल 2050 और 2080 तक चने की पैदावार में 5.55% और 6.52%, रेपसीड और सरसों में 0.75% और 1.31% तथा कपास में 3.69% और 5.44% की वृद्धि हो सकती है।
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आगे का रास्ता
हालांकि, विशेषज्ञों का मानना है कि यह लाभ मुख्य फसलों में व्यापक नुकसान की भरपाई नहीं कर पाएंगे। शेट्टी कहते हैं, “इसके अलावा, भविष्य के अनुमान चिंताजनक हैं। अध्ययनों से पता चलता है कि कुछ दशकों में मानसून की बारिश में 50% तक की कमी आएगी, साथ ही हीट वेव, सूखा और बाढ़ जैसी चरम मौसम की घटनाएँ भी लगातार होंगी।”
अनुकूलन के लिए, जल संकट से ग्रस्त क्षेत्रों के किसानों को सूखे को झेलने वाली फसलों जैसे बाजरा, दालें और ज्वार की खेती करनी होगी, जो अनियमित वर्षा के प्रति अधिक लचीली होती हैं। “चावल और गेहूं की जलवायु परिवर्तन के प्रति लचीली किस्मों, जो गर्मी और सूखे के प्रति अधिक सहनशील हैं, को बढ़ावा देना भी महत्वपूर्ण है। बागवानी में विविधता लाने से किसानों की जलवायु जोखिमों के प्रति संवेदनशीलता और कम हो सकती है,” आहूजा कहते हैं।

सस्टेनेबिलिटी की लम्बी अवधि के लिए क्लाइमेट रेसिलिएन्स या जलवायु लचीलेपन को कृषि नीतियों में शामिल करने की बहुत ज़रुरत है। इसके लिए सरकारी कृषि कार्यक्रमों, स्थानीय भागीदारों, और किसान संगठनों के साझा प्रयास जरूरी हैं। साथ ही किसान उत्पादक संगठनों (FPOs) को मजबूत करने से किसानों को सामूहिक रूप से जलवायु-अनुकूल प्रथाओं को अपनाने, जल प्रबंधन में सुधार करने और वित्तीय संसाधनों तक पहुँचने में मदद मिल सकती है, विशेषज्ञों का कहना है।
“स्थानीय आवश्यकताओं और कमजोरियों की पहचान करने के लिए जिला-स्तरीय अनुकूलन योजनाएँ विकसित की जानी चाहिए, जिसमें क्षेत्र-विशिष्ट हस्तक्षेपों पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए। इन योजनाओं में अनुकूलन रणनीतियों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए जो वर्तमान जलवायु चुनौतियों और जलवायु परिवर्तन के भविष्य के प्रभावों दोनों को संबोधित करती हैं,” आहूजा कहते हैं।
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 16 अक्टूबर 2024 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: पश्चिमी उत्तर प्रदेश के धान, गेहूं और गन्ने की खेती वाली पट्टी में मानसून के 12 में से सिर्फ दो हफ़्तों में सामान्य बारिश हुई। किसान इससे बड़ी दिक्कत में हैं। तस्वीर: ঈশান জ্যোতি বৰা, Wikimedia Commons (CC BY-SA 4.0) द्वारा।