- भारत ने जलवायु परिवर्तन से निपटने के अपने प्रयासों के तहत साल 2030 तक 100 गीगावाट सौर बिजली के उत्पादन का लक्ष्य रखा है।
- एक अध्ययन के अनुसार, बदलते मौसम और बढ़ते प्रदूषण के चलते भविष्य में सोलर पैनल की उत्पादन क्षमता में कमी आ सकती है।
- शोधकर्ताओं का कहना है कि वायु प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन का समाधान भारत की सौर क्षमता को बढ़ाने के लिए जरूरी है।
भारत ने जलवायु परिवर्तन से निपटने के अपने प्रयासों में सौर ऊर्जा को सबसे महत्वपूर्ण माना है। इसी के चलते भारत ने साल 2030 तक 100 गीगावाट सौर बिजली के उत्पादन का लक्ष्य भी रखा है। लेकिन एनवायर्नमेंटल रिसर्च लेटर्स में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, बदलते मौसम और बढ़ते प्रदूषण के चलते भविष्य में सोलर फोटोवॉलटैक्स (एस.पी.वी.) या सोलर पैनल की उत्पादन क्षमता में कमी आ सकती है।
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), दिल्ली में सेंटर फॉर एटमोस्फेरिक साइंसेज के शोधकर्ताओं ने विकिरण (रेडिएशन) के डेटा का इस्तेमाल करके सोलर पैनल पर जलवायु परिवर्तन और वायु प्रदूषण के असर का आंकलन किया है। यह डेटा कपल्ड मॉडल इंटरकम्पेरिज़न प्रोजेक्ट के छठे चरण के ग्लोबल क्लाइमेट मॉडल्स से लिया गया था। इस अध्ययन में साल 1985 से 2014 तक के डेटा को आधार मानते हुए साल 2041 से 2050 के बीच होने वाले बदलावों का अनुमान लगाया गया है। इसके अनुसार, इस शताब्दी के मध्य तक सोलर पैनलों की क्षमता करीब 3.3% तक कम हो जाएगी। वर्तमान की सोलर ऊर्जा उत्पादन के आंकड़ों के अनुसार, इस अध्ययन का अनुमान हर साल 600 से 840 गीगावाट ऑवर (GWh) बिजली के नुकसान होने का है।
किसी एक जगह सौर बिजली उत्पादन की क्षमता उस जगह पर उपलब्ध सौर विकिरण के अलावा वहां के तापमान, हवाओं और आद्रता जैसे अन्य कारकों पर निर्भर होती है।
चूँकि स्थानीय मौसम सोलर पैनल की उत्पादन क्षमता के लिए बहुत ख़ास हैं, यह अध्ययन भविष्य के दो संभावित परिदृश्यों के बारे में बात करता है। पहला परिदृश्य जो वायु प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन को कम करने के ठीक-ठाक या मध्यम प्रयासों को दिखाता है। दूसरे परिदृश्य में ऐसी परिस्थितियां हैं जहां वायु प्रदूषण पर कड़ी लगाम है लेकिन जलवायु परिवर्तन पर ज़्यादा काम नहीं है।
इस शोध का निष्कर्ष यह निकलता है कि सोलर पैनल की क्षमता पहले परिदृश्य में, जिसमें वायु प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन को कम करने के मध्यम प्रयास हैं, वायु प्रदूषण पर कड़ी लगाम वाले दूसरे परिदृश्य की तुलना में काफी गिर जाती है।
आईआईटी दिल्ली के सेंटर फॉर एटमोस्फेरिक साइंसेज में प्रोफेसर और इस शोध के लेखकों में से एक साग्निक डे ने कहा, “स्वच्छ वायु और स्वच्छ ऊर्जा को साथ-साथ चलना चाहिए – वायु प्रदूषण पर लगाम लगाने से सोलर पैनल को विकिरण से होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है। जबकि तत्काल जलवायु कार्रवाई से तापमान-जनित नुकसान को कम किया जा सकता है, जिससे सौर क्षमता का पूर्ण उपयोग सुनिश्चित हो सकता है और जलवायु परिवर्तन से निपटने वाले विकास को बढ़ावा मिल सकता है।”
भारत का लक्ष्य साल 2030 तक अक्षय ऊर्जा से 500 गीगावाट बिजली उत्पादित करना है, जिसमें से 100 गीगावाट का उत्पादन सौर ऊर्जा से अपेक्षित है। भारत जैसे-जैसे अपनी सौर महत्वाकांक्षाओं के साथ आगे बढ़ रहा है, सोलर पैनल की दक्षता में होने वाली हानि को संबोधित करना आवश्यक है जो भविष्य में सोलर पैनल की उत्पादन क्षमता को बाधित कर सकती है।

कम होते सौर संसाधन
इस पेपर के अनुसार, भारत में सालभर में करीब 300 धूप वाले दिन होते हैं और सौर विकिरण हर वर्ग मीटर में करीब 1700 से 2200 किलोवाट ऑवर होता है। हालांकि, मानव जनित एरोसोल के कारण देश में सौर विकिरण में लगातार गिरावट देखी गई है, जिसे डिमिंग कहा जाता है।
यह पेपर सोलर पैनलों पर बढ़ते तापमान के प्रभाव, जिसमें बहुत से सोलर सेल भी शामिल हैं, पर भी प्रकाश डालता है। ये सोलर सेल सूर्य के प्रकाश को परिवर्तित करते हैं और स्थानीय मौसम से प्रभावित होते हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार, भारत में साल 1985 से 2014 के बीच सोलर सेल का प्रतिदिन अधिकतम तापमान का औसत 15 डिग्री सेल्सियस से 50 डिग्री सेल्सियस के बीच रहा, जबकि सोलर पैनल आमतौर पर सेल तापमान के 45 डिग्री सेल्सियस से अधिक जाने पर अपनी अधिकतम दक्षता खोने लगते हैं।
इस पेपर में कहा गया है कि प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने के मध्यम प्रयासों के तहत सेल का तापमान लगभग 18 ± 5 दिनों के लिए 45 डिग्री सेल्सियस से अधिक होने की उम्मीद है और भविष्य में मजबूत प्रदूषण नियंत्रण उपायों लेकिन कमजोर जलवायु कार्रवाई परिदृश्यों के तहत 26 ± 3 दिनों के लिए। यह दोनों परिदृश्य इस बात को दर्शाते हैं कि गर्मी के संपर्क में आने के कारण बिजली की हानि का जोखिम बढ़ जाता है। शोधकर्ताओं का कहना है कि बढ़ती गर्मी के कारण बढ़ता सोलर सेल का तापमान, भविष्य की सौर बिजली क्षमता के लिए एक चिंता का विषय है।
यह अध्ययन यह भी बताता है कि भारत के दक्षिण पश्चिमी थार के रेगिस्तान को छोड़ कर ज्यादातर इलाकों में एरोसोल की वृद्धि देखी जाएगी। थार में धूल की मात्रा ज़्यादा होने के बावजूद भी बादल एक बड़ी भूमिका निभाएंगे। एरोसोल के साथ ही उच्च तापमान भी सौर पैनलों की दक्षता को कम करेगा। अध्ययन में कहा गया है, “वायु प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन दोनों को कम करने के लिए अक्षय ऊर्जा में तेजी से बदलाव महत्वपूर्ण है।”

विविध भौगोलिक प्रभाव
अध्ययन में सौर ऊर्जा क्षमता का विश्लेषण करने के लिए दो मानदंडों का उपयोग किया गया है: प्रति वर्ष सौर-समृद्ध यानि अच्छी धूप वाले दिनों की कुल संख्या और लगातार सौर-समृद्ध दिनों की संख्या तथा विद्युत ग्रिडों पर इसका प्रभाव। ग्रिडों को पांच क्षेत्रों में विभाजित किया गया है: उत्तरी, पूर्वी, पश्चिमी, उत्तर-पूर्वी और दक्षिणी।
इस पेपर के अनुसार, भारत में प्रतिवर्ष लगभग 215 सौर-समृद्ध दिन आते हैं, जब आने वाला सौर विकिरण 208 वाट प्रति वर्ग मीटर से अधिक होता है, जिसे सौर बिजली उत्पादन के लिए आवश्यक माना जाता है। दक्षिणी, पश्चिमी और उत्तरी पॉवर ग्रिड को पूर्वी और उत्तर पूर्वी ग्रिड की तुलना में ऐसे दिन अधिक मिलते हैं। हालांकि, कमजोर वायु प्रदूषण नियंत्रण इसे प्रति वर्ष 15 दिनों तक कम कर सकता है, जबकि मध्यम प्रयास इसे लगभग आठ दिनों तक सीमित कर सकते हैं।
दूसरा मानदंड, लगातार सौर-समृद्ध दिन, निर्बाध सौर विकिरण को ट्रैक करता है। भारत में सालाना लगभग 165 ऐसे दिन आते हैं, जिनमें उत्तरी क्षेत्र में सबसे ज़्यादा और पूर्वोत्तर ग्रिड में सबसे कम होते हैं। कमजोर वायु प्रदूषण नियंत्रण के तहत लगातार सौर-समृद्ध दिन 20 दिनों तक कम हो सकते हैं, वहीं मध्यम उपायों के साथ इनमें 15 दिन की कमी आ सकती है। बढ़े हुए एरोसोल के कारण से हुआ उच्च प्रदूषण स्तर सौर विकिरण में गिरावट का मुख्य कारण है।
इस पेपर का निष्कर्ष है कि सौर ऊर्जा से भरपूर दिनों की संख्या में कमी आने की संभावना है, जिसमें उत्तर-पश्चिम और पश्चिमी पावर ग्रिड जैसे अत्यधिक विकिरण वाले क्षेत्रों में अधिकतम कमी आएगी। परिणामस्वरूप, उत्तरी, पश्चिमी और दक्षिणी पावर ग्रिड – जो देश के अधिकांश सोलर पार्कों का घर हैं – को जलवायु परिवर्तन के कारण सोलर पैनलों के प्रदर्शन को बनाए रखने में महत्वपूर्ण चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा।
क्षेत्रीय बिजली ग्रिड पर प्रभाव भविष्य में प्रदूषण नियंत्रण के उपायों और जलवायु कार्रवाई पर भी निर्भर करेगा। उदाहरण के लिए, पूर्वोत्तर ग्रिड में मजबूत वायु प्रदूषण नियंत्रण और कमजोर जलवायु कार्रवाई परिदृश्यों के चलते सौर विकिरण में वृद्धि का अनुमान है। इससे संभावित रूप से इस क्षेत्र में उपलब्ध सौर-समृद्ध दिनों की संख्या में वृद्धि हो सकती है। शोधकर्ताओं ने इस क्षेत्र में बादलों में कमी को इस वृद्धि के लिए जिम्मेदार मन है। पूर्वी और पूर्वोत्तर दोनों बिजली ग्रिड में पारंपरिक रूप से कम सौर-समृद्ध दिन देखने को मिलते हैं।
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“उत्तर-पूर्व पावर ग्रिड, जिसमें सालाना लगभग 125 सौर-समृद्ध दिन होते हैं, सौर ऊर्जा विकास की क्षमता रखता है। बढे हुए तापमान से होने वाली सोलर पैनल की दक्षता की हानि के प्रति इसकी न्यूनतम संवेदनशीलता इसे मौजूदा सोलर पार्कों और नियोजित सोलर शहरों के लिए एक आशाजनक क्षेत्र बनाती है,” सुशोवन घोष, इस पेपर के प्रमुख लेखक ने कहा। घोष पहले आईआईटी दिल्ली में शोधकर्ता थे और अब स्पेन के बार्सिलोना सुपर कंप्यूटिंग सेंटर के पृथ्वी विज्ञान विभाग में हैं।
इस पूरी प्रक्रिया में किसी भी मौसम संबंधी कारक की भूमिका की महत्ता के बावजूद, साल 2041-2050 के दौरान देश के अधिकांश भागों में सौर विकिरण में गिरावट की प्रवृत्ति का अनुमान है।
यह पेपर कहता है कि पूर्वी पावर ग्रिड में, विशेष रूप से पूर्वी सिंधु-गंगा के मैदान में, सौर ऊर्जा क्षमता में सबसे बड़ी गिरावट (-5.1%) देखने की आशंका है, इसके बाद उत्तरी (-3.4%), पूर्वोत्तर (-3%), और दक्षिणी (-2.3%) ग्रिड का स्थान है। यह सभी ग्रिड पहले परिदृश्य, जिसमें वायु प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने के मध्यम प्रयास हुए हैं, का हिस्सा हैं।
दूसरे परिदृश्य में, मजबूत वायु प्रदूषण नियंत्रण लेकिन कमजोर जलवायु कार्रवाई के साथ, पश्चिमी ग्रिड में सबसे बड़ी गिरावट (-2.7%) देखने की आशंका है, इसके बाद उत्तरी (-2.4%), पूर्वी (-2.2%), और पूर्वोत्तर ग्रिड में सबसे कम गिरावट (-1.1%) होगी।
“हमारे विश्लेषण से पता चलता है कि सदी के मध्य में, पूर्वोत्तर क्षेत्र के कुछ हिस्सों और केरल के पास दक्षिणी तट को छोड़कर, एरोसोल के कारण होने वाली विकिरण में कमी हर साल तापमान के कारण होने वाली हानियों से अधिक हो जाएंगी। यह सौर ऊर्जा की चुनौतियों में एक ख़ास क्षेत्र की परिवर्तनशीलता को उजागर करती हैं,” इस पेपर के सह-लेखकों में से एक और आईआईटी दिल्ली के सेंटर फॉर एटमोस्फेरिक साइंसेज के प्रोफेसर दिलीप गांगुली ने कहा।
विशेषज्ञों के अनुसार, यह अध्ययन इस बात पर प्रकाश डालता है कि जलवायु परिवर्तन और वायु प्रदूषण के बढ़ते खतरों के बीच एक स्थायी भविष्य को सुरक्षित करना और भी चुनौतीपूर्ण हो सकता है। हाइपरलोकल क्लाइमेट डेटा मॉनिटरिंग और फिजिकल रिस्क एनालिसिस में विशेषज्ञता रखने वाली क्लाइमेट-टेक कंपनी ऑरास्योर के मुख्य जलवायु वैज्ञानिक आशुतोष आचार्य ने कहा, “सौर ऊर्जा के बुनियादी ढांचे में जलवायु लचीलापन लाने से दीर्घकालिक विश्वसनीयता सुनिश्चित होगी, सौर ऊर्जा उत्पादन अधिकतम होगा, विदेशी निवेश आकर्षित होगा, लागत कम होगी और भारत के स्वच्छ, टिकाऊ ऊर्जा के लक्ष्यों का समर्थन होगा।”
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 2 दिसंबर, 2024 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: गुजरात में एक सौर ऊर्जा संयंत्र। सोलर बिजली का उत्पादन स्थापित सोलर पैनल क्षमता और साइट की सोलर क्षमता पर निर्भर करता है। तस्वीर: Citizenmj द्वारा विकिमीडिया कॉमन्स (CC-BY-SA-3.0) के माध्यम से।